......वैसे ही सबके मनोरथ पूरे हों

यह, अचानक ही कोई मनोरथ पूरा हो जाने जैसा ‘सुखद हादसा’ था। मनोरथ भी ऐसा जिसके पूरा होने की उम्मीद तो छोड़िए, आशंका भी नहीं रह गई हो। मैं गया था केवल अपनी हाजरी दर्ज कराने लेकिन बैठा पूरे ढाई घण्टे।

कार्यक्रमों के उबाऊ संचालनों के कारण मैंने कार्यक्रमों मे जाना बन्द सा कर दिया है। संचालन प्रायः ही ‘नाक पर नथनी भारी’ जैसा होता है। संचालक, आयोजन को भूल, खुद को आगे ले आता है और अन्तिम क्षण तक आगे ही बनाए रखने में जुटा रहता है। उस पर कोढ़ में खाज जैसी दशा यह कि अकारण ही शेर-ओ-शायरी कुछ इस तरह घुसेड़ते रहता है मानो किसी डॉक्टर ने कह दिया हो। 

मैं उस संचालक को ‘आदर्श’ मानता हूँ जो ‘मैं’ का उपयोग न करे। मेरा मानना है कि किसी भी आयोजन में संचालक की अपनी कोई व्यक्तिगत हैसियत नहीं होती। लेकिन प्रायः प्रत्येक संचालक इस तरह पेश आता है मानो वही मेजबान हो। जबकि ऐसा होता ही नहीं है। उसकी जिम्मेदारी होती है-आयोजन को नायक बनाए, आयोजन को को सफल बनाए। लेकिन वह खुद को सफल, खुद को नायक बनाने में जुट जाता है और श्रोताओं के बीच खलनायक बन जाता है। इन्हीं सब बातों के चलते, मैं ऐसे संचालक की प्रतीक्षा करते-करते थक कर हताश हो गया जो केवल संचालक की तरह पेश आए। जो खुद को नेपथ्य में रखे। उस धागे की भूमिका निभाए जिसके सहारे बिखरे हुए फूल सुन्दर माला की शकल ले लेते हैं।

यह 30 मई की बात है। लघु पत्रिका ‘पर्यावरण डाइजेस्ट’ के प्रकाशन के तीन दशक पूरे होने के प्रसंग पर जलसा आयोजित था। पत्रिका के कर्ता-धर्ता और मैं एक ही मोहल्ले में रहते हैं। जलसा स्थल भी मोहल्ले में ही था। जलसे के समय पर ही भोपाल से मेरे कुछ मिलनेवाले पहुँचनेवाले थे। लेकिन मोहल्ले का मामला। टालना अशालीन ही नहीं आत्मघाती भी होता। उत्तमार्द्धजी को कहा कि भोपाल से आनेवालों को तनिक प्रतीक्षा करने को कह कर बैठा लें। सोचा था, मेजबान को शकल दिखाकर, हाजरी लगा कर जल्दी ही लौट आऊँगा। लेकिन प्रिय आशीष दशोत्तर ने, सर्वथा अनपेक्षित रूप से ऐसा नहीं होने दिया।

आशीष मेरे कस्बे का अब स्थापित साहित्यकार-गजलकार है। वह सम्मान सूचक सम्बोधनों का अधिकारी है। उसके लिए ऐसे ‘तू-तड़ाक’ जैसी भाषा मैंने नहीं वापरनी चाहिए। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ।  करूँगा तो असहज और कृत्रिम हो जाऊँगा और अपनी बात नहीं कह पाऊँगा। (आशीष मुझे क्षमा करे।)

आशीष अब किसी परिचय का मोहताज नहीं रहा। गजल, कविता, कहानी, आलेख, जैसे विधाओं पर उसकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अंचल के अखबारों में उसे निरन्तर पढ़ना अब हमारी आदत में शुमार हो गया है। देश की ख्यात साहित्यिक पत्रिकाओं में उसकी रचनाएँ जगह पा रही हैं। साहित्य की वार्षिक रपटों/समीक्षाओं में उसकी पुस्तकें उल्लेखित की जाने लगी हैं। हमारा कस्‍बा उससे पहचाना जाने लगा है।लेकिन हममें से शायद ही किसी को यह सब एकमुश्त याद आता हो। वह ‘घर का जोगी जोगड़ा’ बने रहने को अभिशप्त है। मेरा कस्बा आए दिनों उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के आयोजन का संचालन सौंपता रहता है। मुझे यह बहुत बुरा लगता है। लेकिन न तो आशीष कुछ कर सकता है न ही मैं। (आशीष की गजलें  आप ''आशीष 'अंकुर' की गजलें'' टेग के अन्‍तर्गत इस ब्‍लॉग पर पढ  सकते हैं।)

आयोजन में पहुँचा तो देखा, संचालन  आशीष के जिम्मे है। लेकिन चूँकि मुझे जल्दी ही लौटना था, लगभग उल्टे पाँव, सो मैंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया। मेरा चित्त तो भोपाल से आनेवाले मित्रों में उलझा हुआ था।

‘नमस्कार। पर्यावरण डाइजेस्ट के इस आयोजन में आपका स्वागत है।’ कह कर आशीष ने शुरुआत की। पहले ही वाक्य ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। यह लीक से हटकर था। आम तौर पर कार्यक्रम संचालक ‘मैं आप सबका स्वागत करता हूँ।’ कहता है। लेकिन आशीष ने ऐसा नहीं कहा। मैं ढीला-ढाला बैठा था। अनायास ही तन कर बैठ गया। मेरा समूचा ध्यान आशीष के संचालन पर ही केन्द्रित हो गया। कार्यक्रम ज्यों-ज्यों अगली पायदान पर जा रहा था त्यों-त्यों मैं कुर्सी में धँसता जा रहा था। उद्बोधन के लिए वक्ता को आमन्त्रित करते समय ‘अब श्री फलाँ-फलाँ से सानुरोध निवेदन है कि हमें अपने उद्बोधन से लाभान्वित करें।’ जैसी शब्दावली वापर रहा था। संचालक प्रायः ही, उद्बोधन पूरा होने के बाद वक्ता की बात की संक्षेपिका प्रस्तुत करने का रोगी होता है। किन्तु आशीष ने अपनी विद्वत्ता जताने की यह मूर्खता एकबार भी नहीं की। और तो और, उसने किसी वक्ता के परिचय में या उसे वक्तव्य हेतु आमन्त्रित करते समय जबरन कोई शेर या कविता नहीं सुनाई। यह काम उसने किया जरूर लेकिन आवश्यक होने पर ही।

आशीष का यह ‘व्यवहार’ मुझे चौंका भी रहा था और लुभा भी रहा था। इसका असर यह रहा कि भोपाल से आनेवाले मेरे मित्र कब मेरे चित्त से उतर गए, मुझे मालूम ही नहीं हुआ। कार्यक्रम कम से कम ढाई घण्टे तो चला ही। लेकिन आशीष ने एक बार भी ‘मैं’ का उपयोग नहीं किया। यह असम्भवप्रायः काम आशीष सहजता से करता रहा। पता नहीं, सायास या अनायास। किन्तु मैं अपनी कहूँ। मैं होता तो शायद सायास भी ऐसा नहीं कर पाता।

पता ही नहीं चला कि कार्यक्रम कब पूरा हो गया। अन्तिम वक्ता के बैठते ही, आभार प्रदर्शन की औपचारिकता शुरु होने से पहले ही लोग उठने लगे तो मेरी तन्द्रा टूटी। मुझे अपने मेहमान याद आने लगे और मैं चुपचाप लौट आया।

आते हुए पूरे समय मैं, बरसों से कुँआरे बैठे अपने एक मनोरथ के पूरा होने के आनन्द से उल्लसित था। कुछ इस तरह से खुश था मानो किसी बच्चे को मनचाहा खिलौना मिल गया हो। 

दो दिन बाद मैंने आशीष को बधाई दी। उसकी यह विशेषता बताई तो ताज्जुब जताते हुए बोला - ‘ऐसा क्या? यह तो आपसे ही मालूम हो रहा है।’ उसने बताया कि उसने तो यह सब सहज भाव से ही किया था। सुनकर मुझे लगा, सहजता से किया तभी ऐसा हो पाया होगा। सायास करता तो कहीं न कहीं तो चूकता ही और उसका ‘मैं’ सामने आ जाता।

मैंने आशीष से कहा है कि उस आयोजन की पूरी रेकार्डिंग प्राप्त करे। विभिन्न विषयों पर बच्चों से बात करने के लिए मुझे यदा-कदा बच्चों के शिविरों में बुलाया जाता है। अगली बार किसी ऐसे शिविर में बुलाया गया तो इस रेकार्डिंग के अंश बच्चों को बताऊँगा और कहूँगा - ‘देखो! ऐसा होता है संचालन।’

जैसे मेरा मनोरथ पूरा हुआ, वैसे ही सबके मनोरथ पूरे हों।

(यह पोस्‍ट लिखते-लिखते मुझे, संचालकों से जुडे, दो-एक किस्‍से और याद आ गए। मौका मिलते ही लिखूँगा।) 

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(यहाँ दिया गया, आशीष का चित्र उसी आयोजन का है।) 

6 comments:

  1. इंसान मैं को भूल जाएं तो दृश्य ही बदल जाएं ।
    लेकिन अहं ब्रह्मा से कुछ लोग ही मुक्त हो पाते है ।

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  2. इंसान मैं को भूल जाएं तो दृश्य ही बदल जाएं ।
    लेकिन अहं ब्रह्मा से कुछ लोग ही मुक्त हो पाते है ।

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  3. बहुत सही बात कही आपने.

    #हिंदी_ब्लागिँग में नया जोश भरने के लिये आपका सादर आभार
    रामराम
    ०४१

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  4. We are proud of Aashish. He is truly a gentleman.He is a great scholar but he never poses to be so.
    Thanks to Vishnu Dada.

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  5. आशीष ने खुद को पीछे रखकर अतिथियों को सामने किया, वैसे ही आपने खुद को पीछे रख आशीष को सामने किया। आपके आलेख शिक्षाप्रद होते हैं। लिखते रहिये!

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