गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई। लगा, घर में मौत हो गई है। कोई अपनेवाला नहीं रहा। दुःख तो बहुत हो रहा है किन्तु ताज्जुब बिलकुल ही नहीं हुआ। यह तो होना ही था। खुद गौरी ने ही अपनी यह मौत तय की थी। अपनी ही बनाई हुई सलीब पर चढ़ीं वह। गौरी जैसा दूसरा कोई नहीं हो पाएगा। उनसे बेहतर या उनसे बदतर ही होगा। लेकिन उनकी मौत से उनकी परम्परा के लेखन का सिलसिला रुकेगा नहीं। उनकी मौत, उनकी परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए खाद-पानी का काम करेगी। लेकिन गौरी की हत्या की खबर को इसके काबिल जगह देने में हमारे अखबार चूक गए। इस तरह छापा मानो अनिच्छापूर्वक छापना पड़ रहा है। खानापूर्ति की तरह छापा। लेकिन अखबारों को क्या दोष दिया जाए? बकौल लालकृष्ण आडवाणी, आपातकाल में ये (अखबार/पत्रकार) झुकने की कहने पर रेंगने लगे थे। लेकिन आज तो बिना कहे ही साष्टांग दण्डवत मुद्रा में पड़े, लहलोट हो रहे हैं। पूँजी की थैलियाँ जिनके पाँवों में बँधी हों उन्हें मुक्त भाव से उछलते-कूदते हिरणों से ईर्ष्या ही तो होगी! दासानुदास भाव से, ‘सीकरी’ की अव्यक्त इच्छाओं को साकार करना जिनके जीवन का अन्तिम मकसद बन गया हो उन्हें धारा के प्रतिकूल लोग भला कैसे सुहाएँ? गौरी का यही अपराध था। वह जनोन्मुखी पत्रकारिता कर रही थीं। कार्पोरेट घरानों के स्वामित्व के चलते भारतीय पत्रकारिता का मौजूदा स्वरूप चिन्तित जरूर करता है लेकिन चकित नहीं करता। ‘कुल-कलंक’ हर काल में बने रहते चले आए हैं। अन्तर केवल यह हुआ है कि इन्हें लहलहानेवाली अनुकूल हवाएँ आज तनिक तेजी से चल रही हैं। लेकिन यह अस्थायी दौर है। ‘यह वक्त भी नहीं रहेगा’ नहीं, नहीं ही रहेगा।
हमारा मीडिया अब जनोन्मुखी नहीं, ‘धनदातोन्मुखी’ हो गया है। अब विज्ञापन और विज्ञापन की सम्भावना ही समाचार का आधार और औचित्य बन गए लग रहे हैं। हमें सिखाया गया था कि पाठक ही अखबार (आज की शब्दावली में मीडिया) का वास्तविक मालिक होता है। इसलिए मालिक के सरोकारों की चिन्ता अखबारों/मीडिया की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन अब पाठक/दर्शक ठेंगे पर रख दिए गए हैं। पाठकों/दर्शकों का ‘जानने का अधिकार’ छीन लिया गया है। सूरत, सीकर, पटना में हुए हजारों नहीं, लाखों लोगों के जमावड़े की, पूरे पखवाड़े चलनेवाली हड़तालों की खबरें अब ढूँढने पर भी नहीं मिलतीं। नहीं मिलती वहाँ तक तो ठीक है। लेकिन इन खबरों को जगह न देने की अपनी हरकत, अखबारों/मीडिया को रंचमात्र भी संकुचित नहीं करती। गोधरा काण्ड के दौर में कुछ अखबार ‘जन-पक्ष’ के बजाय ‘धर्मान्ध-पक्ष’ बन गए थे। लेकिन बाद में इन्हें अपनी करनी पर पछतावा हुआ था। लेकिन ऐसा होता चला आ रहा है। 1924 में गाँधी ने लिखा था - ‘‘साम्प्रदायिक दंगों के मूल में भय की मनोदशा छिपी रहती है। नैतिकताविहीन समाचार-पत्र इसका अनुचित उपयोग करते हैं और उसको अधिक उकसाकर सामुदायिक स्तर पर एक पागलपन पैदा कर देते हैं। समाचार-पत्र भविष्यवाणी करते हैं कि दंगा होने वाला है, दिल्ली में लाठियाँ और छुरियाँ सभी बिक गईं और यह खबर लोगों में असुरक्षा और घबराहट पैदा कर देती है। समाचार-पत्र यहाँ-वहाँ होने वाले दंगों की खबर छापते हैं और एक स्थान पर हिन्दुओं और दूसरे स्थान पर मुसलमानों का पक्ष लेने का आरोप पुलिस पर लगाते हैं। इन बातों को पढ़कर साधारण आदमी अस्वस्थ हो जाता है।’’
पता नहीं, शहीद-ए-आजम भगतसिंह ने गाँधी की यह टिप्पणी पढ़ी थी या नहीं। लेकिन आज से कोई नब्बे बरस पहले, 1928 में उन्होंने लिखा था - ‘‘पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है। ये लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं, ऐसे लेखक जिनके दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त हों, बहुत कम हैं।
“अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों की संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावना हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था। लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों में खून के आँसू बहने लगते हैं और दिल से सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’’ गाँधी और भगतसिंह की ये टिप्पणियाँ हमारे अखबारों/मीडिया के मौजूदा स्वरूप को देखकर की गईं नहीं लगतीं?
अंग्रेजी राज में साहित्य और पत्रकारिता साथ-साथ चलते थे। ये दोनों कभी एक सिक्के के दो पहलू तो कभी परस्पर अनिवार्य पूरक तो कभी एक दूसरे का विस्तार अनुभव होते थे। साहित्यकार भविष्य दृष्टा होता है। सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 1925 में ही अखबारों की आज की दशा का वर्णन कर दिया था। वृन्दावन में आयोजित हिन्दी सम्पादक सम्मेलन में सभापति के हैसियत से उन्होंने, ‘समाचार पत्रों का आदर्श’ शीर्षक से दिए गए व्याख्यान में, भविष्य में हिन्दी के समाचार पत्र के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा था: ‘पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गम्भीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायगी। यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे।’ सो, आज हम ऐसे ही प्राणहीन मीडिया की मनमानी भोग रहे हैं।
लेकिन ऐसा करने के बावजूद वे सच को छुपा नहीं पा रहे। वैकल्पिक मीडिया के जरिए ‘रुई लपेटी आग’ की तरह सच सामने आ रहा है और फैलता जा रहा है। फेक न्यूज और फोटो वर्कशाप के जरिए फैलाया जा रहा झूठ मुँह की खाने लगा है। ‘द वायर’, ‘मिडिया विजिल’ जैसे माध्यमों के जरिए सच के पैरोकार अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। धु्रव राठी, विनोद दुआ जैसे लोग, जन-जन तक पहुँच रहे हैं। फेस बुक और यू ट्यूब के जरिए रवीश कुमार वहाँ तक पहुँच रहे हैं जहाँ पहुँचने की कल्पना भी गोदी मीडिया नहीं कर पा रहा।
मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि संवैधानिक स्वरूप में तो तीन ही स्तम्भ हैं। मीडिया को चौथा स्तम्भ तो ‘लोक’ (मासेस) ने बनाया है। किसी स्तम्भ के कमजोर होने पर कोई प्रासाद गिरता है तो सबसे पहले कमजोर स्तम्भ ही चपेट में आता है। आज मीडिया ही सबसे कमजोर पाया अनुभव होने लगा है। लेकिन यह अनुभूति ‘आसमान नहीं, धुँआ’ है। हमारा ‘लोक’, रोटी से पहले आजादी में विश्वास रखता है।
‘लोक’ की यह आस्था भरी ताकत और गौरी लंकेश जैसे बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाते। वे तो ‘रक्त-बीज’ बनकर, ज्वार-मक्का-गेहूँ की बालियों के दानों की तरह एक के सौ बनकर आते हैं।
अमर लेखक विष्णु प्रभाकरजी कहा करते थे - ष्एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है।” यह बात हमारे सम्पादकों पर आज शब्दशः लागू होती है।
विट्ठल भाई पटेल ने कहा था -
देख न पाएँ सुबह, यह और बात है।
आवाज हमारी अँधेरे के खिलाफ है।।
हमारे मीडिया को याद दिलाना पड़ेगा कि उसकी जिम्मेदारी अँधेरे के खिलाफ है। अँधेरे का पक्ष समर्थन कर वे सबसे पहले खुद के लिए अँधेरा बुनेंगे। लेकिन याद रखें, सबसे पहले वे ही इस अँधेरे में गुम होंगे।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 07 सितम्बर 2017 को प्रकाशित)
शाश्वत सत्य, परंतु स्वीकार की किसी को हिम्मत नहीं। आपको साधुवाद।
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ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-09-2017) को "सत्यमेव जयते" (चर्चा अंक 2721) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जायज़ है ।बाज़ार अच्छे अच्छों की बोली लगाता है ,और उत्पाद बाजार ही में आता है। ऐसे में मिडिया आज उत्पाद ही तो है।। दादा सलाम ।। मुझे लगता है आप को आज़ादी के बाद मीडिया के बदलते सरोकारों पर विशद लेखनी चलानी चाहिए। ये मेरी व्यक्तिगत।समझ है।
ReplyDeleteजायज़ है ।बाज़ार अच्छे अच्छों की बोली लगाता है ,और उत्पाद बाजार ही में आता है। ऐसे में मिडिया आज उत्पाद ही तो है।। दादा सलाम ।। मुझे लगता है आप को आज़ादी के बाद मीडिया के बदलते सरोकारों पर विशद लेखनी चलानी चाहिए। ये मेरी व्यक्तिगत।समझ है।
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