हनुमानजी कुइया में समा गए

फुरसतिया बैठकों में राजा ने यह किस्सा हमें कई बार सुनाया। राजा याने राजा दुबे। मूलतः बड़वानी का निवासी राजा, मध्य प्रदेश सरकार के जनसम्पर्क विभाग में बड़े/ऊँचे पद से रिटायर होकर भोपाल में बस गया है। लेकिन वह नौकरी से रिटायर हुआ है, लेखन से नहीं।

पुराने जमाने में (कृपया इसे केवल कहावत के तौर पर ही लें क्योंकि पचास-साठ बरस की अवधि ‘पुराना जमाना’ नहीं होती) उत्तर प्रदेश से रामलीला और रासलीला मण्डलियाँ आया करती थीं। रामचरित और कृष्णचरित की मंचीय प्रस्तुतियाँ ही इनका, जीविकोपार्जन का जरिया हुआ करता था। इन मण्डलियों में बीस-बीस, तीस-तीस सदस्य हुआ करते थे। प्रायः सारे सदस्य सारे काम कर लिया करते थे। याने, अभिनय, गायन-वादन (तबला, ढोलक, पाँवों से बजाया जानेवाला हारमोनियम बजाना), पर्दों की रस्सियाँ खींचना, नृत्य-गीतों के दौर मिलनेवाली न्यौछावर एकत्रित करना आदि-आदि। कुछ सदस्य सपरिवार हुआ करते थे। ये मण्डलियाँ कस्बों/गाँवों में बड़ा अहाता-बाड़ा किराये पर लेकर प्रस्तुतियाँ देती थीं। ऐसे परिसर का एक ही प्रवेश द्वार होता था। दर्शकों को, प्रवेश के समय, दरवाजे पर ही निर्धारित टिकिट दर से नगद भुगतान करना पड़ता था। दर्शकों के लिए, पुरुषों-स्त्रियों के लिए बैठने की समुचित व्यवस्था होती थी। लेकिन लोग अपनी-अपनी सुविधा से अपनी जगह लेते। कोई अहाते के किसी पेड़ के सहारे टिक जाता तो कोई अहाते में बने ओटले पर अड्डा जमा लेता। 

लीलाएँ भले ही राम-कृष्ण की होती थीं लेकिन था तो धन्धा ही, इसलिए अधिकाधिक धन-संग्रह के उपाय किए जाते थे। कभी राम-सीता, राधा-कृष्ण की झाँकी, कभी किसी युद्ध में शत्रु पर राम, हनुमान की विजय, मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी ले आने की घटना आदि प्रसंगों पर मालाएँ-चढ़ाने के निमित्त न्यौछावर का आग्रह। उस जमाने में एक माला का मूल्य एक-दो रुपये होता था। मण्डली के सारे सदस्य दर्शकों की भावनाएँ उकसा कर अधिकाधिक मालाएँ पहनवाने की कोशिशें करते। लीला शुरु होते ही की जानेवाली आरती की थाली दर्शक समुदाय में घुमाना तो धन संग्रह का स्थायी उपक्रम होता था। आरती लेकर प्रत्येक दर्शक कुछ न कुछ रकम थाली में डालता ही था। आरती की थाली घुमाने का जिम्मा प्रायः ही हनुमानजी बने पात्र के जिम्मे होता था। यह पात्र, नाना प्रकार की हरकतों और मुद्राओं से दर्शकों का मनोरंजन करते हुए थाली घुमाता था।  मण्डली के सदस्यों के अगले दिन के भोजन के लिए दर्शकों से यजमान बनने का आग्रह किया जाता। रोज ही कोई न कोई धर्माकुल श्रोता यजमान बन ही जाता। मण्डली जीमने जाती तो कभी-कभी राम-लक्ष्मण की भूमिका निभानेवाले पात्र इन देवताओं के स्वांग में ही जाते। अच्छी कमाई वाले कस्बे/गाँव में ये मण्डलियाँ कभी-कभी महीना-महीना रुक जातीं।

यह किस्सा ऐसी ही एक मण्डली का है। 

राम-जानकी आरती से लीला की शुरुआत हुई। अपनी ड्यूटी निभाते हुए ‘हनुमानजी’ ने आरती की थाली लेकर दर्शक समुदाय में प्रवेश किया। कभी उछल कर तो कभी ‘हुप्प-हुप्प’ करते हुए, कभी पूँछ से किसी की पीठ सहलाते हुए तो कभी ‘खी-खी’ करते हुए किसी का माथा झिंझोड़ते हुए, दर्शकों का मनोरंजन करते हुए आरती दे रहे थे। दर्शक भी भक्ति भाव से आरती ले रहे थे। 

‘हनुमानजी’ लगभग समूचे दर्शक समुदाय को आरती दे, समापन की और बढ़ रहे थे। आरती की थाली सिक्कों से भर गई थी। दो-चार नोट भी नजर आ रहे थे। अब केवल वे पाँच-सात दर्शक बच गए थे जो, अहाते के एक कोने में, एक अर्द्ध वृत्ताकार चबूतरे पर पंक्तिबद्ध बैठे थे। ‘हनुमानजी’ ने उन्हें देखा। दूरी का अनुमान लगाया और जोर से ‘हो ऽ ऽ प्प’ करते हुए छलांग लगाई। अनुमान शायद तनिक गड़गड़ा गया था। छलांग तनिक लम्बी लग गई और ‘हनुमानजी’ उन दर्शकों के सामने उतरने के बजाय उन्हें पार करते हुए, उनके ऊपर से, उनके पीछे पहुँच गए। यह कौतुक देखकर लोग तालियाँ बजाने ही वाले थे कि सबके हाथ रुक गए। जोर से ‘धम्म’ की आवाज आई और ‘हनुमानजी’ अदृष्य हो गए। 

‘हनुमानजी’ का इस तरह अन्तर्ध्यान होना सबके लिए अनपेक्षित, अकल्पनीय था। दर्शक समुदाय कुछ समझता उससे पहले, अर्द्ध वृत्ताकार चबूतरे पर बैठे दर्शक चिल्लाए - ‘अरे! हनुमानजी डूब गए रे!’ किसी को समझ नहीं आया कि क्या हुआ। 

हुआ यह कि हनुमान बना पात्र जिसे चबूतरा समझ बैठा था वह चबूतरा नहीं, अहाते में बनी कुईया की पाल थी जिस पर दर्शक बैठे हुए थे। मण्डली को कस्बे में आए ज्यादा दिन नहीं हुए थे। हनुमान बने पात्र को कुइया की जानकारी नहीं हो पाई थी और यह घटना हो गई।

अच्छा यह हुआ कि कुइया बहुत गहरी नहीं थी। लेकिन पानी इतना था कि आदमी डूब जाए। मण्डली के सदस्यों और दर्शकों ने फुर्ती से ‘हनुमानजी’ को निकाल लिया। तसल्ली की बात यह रही कि चोट बिलकुल नहीं आई। हनुमान बना पात्र, आरती की खाली थाली थामे, रुँआसी मुद्रा में कुइया से बाहर आया। आरती का दीपक और सारी चिल्लर डूब गई थी। उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो दूसरा जा रहा था। वह खुश था कि जान बच गई। लेकिन दुःखी था कि उस दिन का पूरा करा कलेक्शन पानी में चला गया।

हनुमान बने पात्र को देख-देख मण्डली का संचालक कभी गुस्सा हो रहा था तो कभी दया दिखा रहा था। लाड़ से डाँटते हुए, अपनी बोली में बोला - ‘हनुमान की एक्टिंग करते-करते तू तो सच्ची में हनुमान बन गया!’ नजरें नीची किए, सहमी आवाज में जवाब आया - ‘अब हनुमानजी बने हैं तो हनुमानजी की ही तो एक्टिंग करेंगे न दद्दा! हमें क्या पता कि वहाँ कुइया है! कुइया का पता होता तो हमारी छोड़ो, हनुमानजी भी वहाँ जाते?’

‘अन्त भला सो सब भला’ की तर्ज पर सबने भगवान को धन्यवाद दिया कि बड़ी दुर्घटना टल गई। इस घटना का असर यह हुआ कि लोगों के मन में मण्डली के प्रति दया और सहानुभूति का ज्वार उमड़ आया और वहीं, मौके पर ही अगले तीन दिनों के लिए मण्डली के भोजन की बुकिंग हो गई।

आरती का कलेक्शन पानी में चले जाने का दुःख अब, मण्डली के किसी भी सदस्य के चेहरे पर नहीं था।
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5 comments:

  1. रोचक वृत्तांत ।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " गुरुवार 3 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. वाह !आदरणीय बहुत ही रोचक किस्सा | और किस्सागोई के अंदाज पर नत हूँ | सादर आभार इस सुंदर भावपूर्ण कस्से के लिए जिसे पढ़कर हरेक को अपने बचपन की रामलीला जरुर याद आ जायेगी | सादर प्रणाम और पुनः आभार |

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  4. वाह आदरणीय! मजेदार रोचक प्रसंग,
    मनोरंजन से भरपूर कहने का तरीका बहुत ही शानदार।

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