ये समझ रहे हैं, रामजी इनके भरोसे हैं

26 नवम्बर सोमवार की दोपहर। चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। भाजपा और काँग्रेस के उम्मीदवार रैलियों के जरिये, कस्बे के प्रमुख बाजारों में मतदाताओं को अपनी शकलें दिखा रहे हैं, उनके हाथ जोड़ रहे हैं। 

चुनाव की रंगीनी और गहमा-गहमी तलाशते हुए, हम सात फुरसतिये बिना किसी पूर्व योजना के, अचानक ही माणक चौक में एक ठीये पर  मिल गए हैं। सातों के सातों सत्तर पार। देश की प्रमुख सभी राजनीतिक विचारधाराएँ इनसे प्रतिनिधित्व पा रही हैं। सबके सब घुटे-घुटाए। सूरदास की ‘कारी कामरियाँ’, जिन पर दूजा रंग चढ़ने की आशंका भी नहीं। प्रत्येक अपने आप में एक मदरसा। कोई डाइबिटिक है तो कोई बीपी का मरीज। सबके अपने-अपने परहेज हैं। लेकिन जैसे गणित में ऋण-ऋण मिलकर धन हो जाता है, उसी तरह यहाँ परहेजियों के सारे परहेज, कुण्ठित चटोरापन बन कर जबान पर आ बैठे हैं। कॉमरेड की दुकान की कचौरियाँ और शंकर स्वीट्स की कड़क-मीठी चाय आ गई है। सबकी जबानें नश्तर तो हैं लेकिन नुकीली नहीं। छिलके उतार रही हैं। चुभ नहीं रहीं। कचौरियाँ कुतरने और चाय चुसकने के बीच बातें होने लगीं - 

- कश्यप जीत जाएगा।

- अभी से क्या कहें! प्रेमलता  जोरदार टक्कर दे रही है।

- क्या टक्कर दे रही है? कश्यप के सामने कहाँ लगती है? खानापूर्ति कर रही है। 

- इस मुगालते में मत रहना। अण्डर करण्ट दौड़ रहा है। बरसों बाद कोई सनातनी उम्मीदवार सामने है। 

- तुम लोग धरम-जाति से कभी ऊपर भी उठो यार! ये क्या जैन-सनातनी लगा रखा है? एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। वो तुम्हारे धरम-जात के चक्कर में नहीं पड़ती। अपने दिमाग से काम लेती है। 

- हाँ! वो तो है। लेकिन उनके सामने आप्शन क्या है? 

- ये ‘नोटा’ को वोट नहीं दे सकते?

- दे सकते हैं लेकिन देंगे नहीं। वे कमिटेड नहीं हैं। तुमसे-हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, समझदार हैं। वोट को बेकार नहीं जाने देंगे। वोट तो किसी न किसी पार्टी को ही देंगे।

- हाँ। किसी न किसी पार्टी को ही देंगे। 

- देखो यार! इतने भावुक और आदर्शवादी मत बनो। अपना शहर, व्यापारी शहर है और व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता। इसलिए जीतेगा तो कश्यप ही। उसके जीतने में ही सबका फायदा है।

- लेकिन कश्यप से नाराज लोग भी कम नहीं। जीत भले ही जाए लेकिन इस बार पसीना आ रहा है। 

- अरे! यार! तुम लोग ये क्या कश्यप-प्रेमलता में उलझ गए! कल अयोध्या में जो हुआ वो मालूम है तुम्हें?

- लो! इससे मिलो! चौबीस घण्टे हो गए हैं। अखबारों और टीवी में सब आ गया। सबने कह दिया कि उद्धव ठाकरे का शो फ्लॉप हो गया। पाँच हजार भी नहीं थे उसके मजमे में।

- य्ये! येई तो सुनने के लिए मैंने इसे उचकाया था। उचक गया स्साला। उद्धव की तो बता दी लेकिन वीएचपी की नहीं बताई। जरा वीएचपी की भी तो बता दे!

- क्यों? वीएचपी की क्या बताना? भव्य प्रोग्राम रहा। 

- अच्छा! कितना भव्य रहा?

- मुझसे क्या पूछते हो? अखबार में पढ़ लो! टीवी में देख लो!

- अरे! शाणे! हमको क्या उल्लू समझता है? तीन बज रहे हैं। हम क्या सीधे बिस्तर से उठ कर चले आ रहे हैं? बिना मुँह धोये? अरेे! दुनिया की खबर ले कर आ रहे हैं! तेरे मुँह से सुनना है। बता! कितना भव्य रहा वीएचपी का मजमा?

- अरे! यार! बुड्डा हो गया है। याददाश्त चली गई है बिचारे की। मगज (बादाम) खाता तो है लेकिन असर नहीं करती। तू ही बता दे।

- वो तो मैं बता ही दूँगा। लेकिन पहले ये, उद्धव के मजमे की गिनती बतानेवाला तो कुछ बोले!

- चल! तू ही बता दे। तेरी आँखों पर तो पट्टी बँधी है। मैं कुछ भी बताऊँगा तो तू मानेगा तो नहीं। तू ही बता।

- बड़ी जल्दी मैदान छोड़ दिया तेने तो रे! अपनी जाँघ उघाड़ने में शरम आती है? चल! मैं ही बताता हूँ। दो लाख लोग इकट्ठा करने का दावा किया था। चालीस हजार भी नहीं पहुँचे! पण्डाल खाली था। 

- नहीं। चालीस नहीं। पचास हजार। लेकिन चालीस हजार भी कोई कम नहीं होते। 

- सवाल कम-ज्यादा का नहीं है रे! सवाल तो तुम्हारे होश उड़ने का है। उद्धव ने तुम्हारे होश उड़ा दिए। उसने तो तुम्हारी दुकान पर कब्जा कर ही लिया था। बाबरी डिमालेशन का क्रेडिट ले ही लिया था उसने तो। वो अयोध्या आने की बात नहीं करता तो तुम लोग ये मजमा लगाते?

- क्यों? क्रेडिट लेने की बात ही कहाँ है। वो तो हमने ही किया था।

- अच्छा! तुमने किया था? लेकिन उद्धव के दावे के जवाब में वीएचपी ने तो कबूल कर लिया कि उस डिमालेशन में केवल वीएचपी का नहीं, देश के दूसरे संगठनों का भी योगदान है!

- ये तो वीएचपी की शालीनता है। देश के सम्पूर्ण हिन्दू समाज को क्रेडिट दे रही है। लेकिन हिन्दू भावनाओं की चिन्ता तो हम ही कर रहे हैं? इसमें क्रेडिट की बात ही कहाँ है। छाती ठोक कर कहते हैं - हाँ हमने किया है। 

- अच्छा! ये छाती ठोकनेवाले तो सबके सब मादा बने हुए हैं। कोर्ट में  तो एक भी सूरमा जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। सबके सब एक भाव से कह रहे हैं कि बाबरी गिराने में उनका हाथ नहीं है। तुममें केवल एक ही मरद है। उमा भारती। उसी ने कहा कि वो बाबरी गिराने में शामिल है। बाकी तो तुम सबके सब मादा हो।

- अरे यार! क्यों इसके पीछे पड़ गया! हकीकत अपन सब जानते हैं।

- यही तो! जानता तो ये भी है लेकिन कबूल नहीं करता। अच्छा चल बता! अभी ये जमावड़ा क्यों किया? क्या प्रसंग था?

- क्या प्रसंग था? अरे! राम मन्दिर तो देश के हिन्दू समाज की आस्था का मामला है। बहुत राह देख ली।  अब नहीं देखेंगे। अभी नहीं तो कभी नहीं। बस! यही तो कह रहे हैं!

- अच्छा! साढ़े चार साल पहले जब एक साथ 282 आए थे लोक सभा में तब आते ही रामजी क्यों याद नहीं आए? चलो कोई बात नहीं। लेकिन उसके बाद अब तक क्या करते रहे? अडानी-अम्बानी के जरिए जेबें भरते रहे। पेट्रोल, नोटबन्दी और जीएसटी से लोगों की जान लेते रहे। अब जब लोग सामने आकर बोलने लगे हैं। हिसाब माँगने लगे हैं तो रामजी याद आ गए? लोग बेवकूफ नहीं हैं। सब जानते हैं। तुम तो लोगों की नब्ज टटोल रहे थे। लेकिन फ्लॉप हो गए। यही तुम्हारी परेशानी है। इसी से तुम घबरा रहे हो। तुम्हें रामजी नहीं, 2019 का चुनाव नजर आ रहा है। 

- ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव, चुनाव की जगह और राम मन्दिर अपनी जगह। मन्दिर बनाना तो हमारे जीवन का ध्येय है। तुम चाहे जितनी बाधाएँ खड़ी कर दो, मन्दिर तो बन कर रहेगा। हम ही बनाएँगे।

- अरे! यार! तुम दोनों ने चाय-कचोरी का नास कर दिया। बन्द करो यह सब। चलो! एक-एक कचोरी और चाय और बुलाओ।

- हाँ! हाँ! बुलाओ। मेरी ओर से। लेकिन एक बात तुम सब सुन लो। ये ऐसे बात कर रहा है जैसे रामजी इसके भरोसे हैं। जरा समझाओ इसे। रामजी इसके भरोसे नहीं, ये रामजी के भरोसे है। और ये ही नहीं, सारी दुनिया रामजी के भरोसे है। इसे समझाओ कि रामजी अपनी चिन्ता खुद कर लेंगे। चुनाव जीतने के लिए कोई और टोटका करे।

तीसरा कोई और बोलता, इससे पहले कॉमरेड की दुकान से कचोरियाँ आ र्गइं। सब उन्हीं में अपने-अपने रामजी देखने लगे।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 29 नवम्बर 2018



न सुधरनेवालों का संघर्ष

इस कलि काल में वह व्यक्ति अभागा भी होगा और दुर्लभ भी जो किसी वाट्स एप ग्रुप में शामिल न हो। प्रेम जताने का दावा करते हुए दुश्मनी कैसे निभाई जाती है, वाट्स एप ग्रुप इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।  आप हैं कि बार-बार पल्ला छुड़ाना चाहते हैं लेकिन भाई लोग हैं कि हर बार आपको पल्लू में बाँध लेते हैं। आपकी ‘त्राही! त्राही!’ की मर्मान्तक पुकार  ‘वाह! वाह!’ मानी जाती है। आप मित्रता के अत्याचार सहने को अभिशप्त हो घुटने टेक देते हैं और ग्रुप की कोड़ामार पिटाई के लिए अपनी पीठ नंगी कर मुँह मोड़ लेते हैं।

लेकिन यदि आप ग्रुप के एडमिन हैं और सबका भला चाहते हैं तो आपकी पिटाई तो सबसे ज्यादा होती है। दया की भीख माँगने की तरह आप ग्रुप का अनुशासन बनाए रखने के लिए बार-बार गिड़गिड़ाते हैं। आप पर कोई दया नहीं करता। यह सामूहिक पिटाई अचानक ही आपको याद दिलाती है कि आप भी स्वाभिमान जैसी चीज के मालिक हैं। यह याद आते ही आप चेतावनियाँ देते हैं। अंगूठा चिपका-चिपका कर सब आपका सही तो ठहराते हैं लेकिन आपकी सुनता कोई नहीं। तब आप लोगों को ‘रिमूव’ करते हैं। लेकिन ऐसा करते-करते आपको अचानक खयाल आता है कि ऐसे तो सबको रिमूव करना पड़ जाएगा! और यदि सबको रिमूव कर दिया तो फिर आप इन अपनेवालों का भला कैसे कर पाएँगे? तब आप खीझकर, एक दिन या दो दिन का ‘रिमूवल पीरीयड‘ तय कर, रिमूव किए लोगों को झुंझलाते हुए फिर ग्रुप में शामिल कर लेते हैं। रिमूव किए हुए लोग खुद को फिर से ग्रुप में शामिल देख दुगुने उत्साह से ‘अपनीवाली’ पर लौट आते हैं और आप ‘हवन करने में हाथ तो जलते ही हैं’ कह कर, सबकी पिटाई झेलने के लिए खुद को सौंप देते हैं।

मेरे एक अनदेखे मित्र, ग्रुप एडमिन की इसी दशा को भोग रहे हैं। लेकिन उनका धैर्य और हम एजेण्टों के प्रति उनकी चिन्ता देख-देख मैं उन्हें मन ही मन प्रणाम करता हूँ। उनसे मेरा फोन सम्पर्क बना रहता है। कभी मैं फोन कर लेता हूँ। कभी वे।

ये हैं बुर्ला (उड़ीसा) निवासी श्री रवि नारायण मिश्रा। एलआईसी के प्रशासनिक ढाँचे के अनुसार इनकी शाखा सम्बलपुर मण्डल में आती है। उड़ियाई उच्चारण में इन्हें ‘रबि नारायण’ और बंगाली उच्चारण में ‘रोबी नारायण’ पुकारा जाता है। हम एजेण्टों की रक्षा के लिए तो हमारा संगठन ‘लियाफी’ है ही लेकिन बचाव के औजारों का खजाना इन मिश्राजी के पास है। एजेण्टों से जुड़े, एलआईसी के तमाम आदेश, तमाम परिपत्र इन मिश्राजी के पास उपलब्ध हैं। लेकिन चमत्कार तो यह कि सबकी डिजिटल प्रतियाँ इस तरह उपलब्ध करा देते हैं जैसे कोई जादूगर हवा में हाथ लहरा कर कबूतर पेश कर देता है।

लेकिन इन अनदेखे मिश्राजी की यही एकमात्र विशेषता नहीं हैं। इससे बड़ी विशेषता इनकी यह है कि ये प्रत्येक एजेण्ट को जानकारियों, सूचनाओं से लैस, समृद्ध करना चाहते हैं। ये ऐसे अनूठे और उदार ज्ञानी हैं जो प्रत्येक एजेण्ट को अपने जैसा ही ज्ञानी बनाना चाहते हैं। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि हम एजेण्ट लोग ज्ञानी बनने के बजाय मिश्राजी पर निर्भर होने में अधिक सुख अनुभव कर रहे हैं। ऐसे मे मिश्राजी हम एजेण्टों के लिए ‘निर्बल के बल राम’ बन गए हैं।

एजेण्टों को सूचना समृद्ध बनाने के लिए मिश्राजी ने ‘ओनली इंश्योरेंस ज्ञान’ तथा ‘ग्रुप मेडिक्लेम नॉलेज’ नाम से दो ग्रुप बना रखे हैं। इनकी इच्छा और कोशिश रहती है कि इन ग्रुपों के सदस्य केवल विषय से जुड़ी बातें और सामग्री ही दें। अधिकांश लोग तो मिश्राजी की बात मानते हैं लेकिन कुछ भाई लोग हैं कि इनकी सुनने को तैयार ही नहीं होते। वे ‘गुड मार्निंग’, ‘हेप्पी टुडे’, ‘हेव ए नाइस डे’ जैसे सन्देश, चित्र चिपकाते रहते हैं। मिश्राजी तो हमारा व्यावसायिक ज्ञान बढ़ाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भाई लोग मिश्राजी सहित हम सबका जीवन सुधारने का बीड़ा उठाए हैं। ऐसे लोग उपदेशों, निर्देशों, सुभाषितों, नीति वाक्यों, नाना प्रकार के उद्धरणों से सबका जनम सफल करने का ‘अत्याचारी-उपकार’ करते रहते हैं।

मिश्राजी ने ऐसे लोगों को चेतावनी देना शुरु किया। चेतावनी का असर  न होते देख चेतावनी दी कि यदि कहा नहीं माना तो ग्रुप से निकाल देंगे। चेतावनी तो दे दी लेकिन निकाला किसी को नहीं। मिश्राजी की इस भलमनसाहत को भाई लोगों ने शायद मिश्राजी की मजबूरी समझ लिया। रुकना तो दूर रहा, वे दुगुने उत्साह से अनावश्यक, अप्रासंगिक सामग्री देने लगे। मजबूर होकर मिश्राजी ने ऐसे लोगों को एक दिन, दो दिनों के लिए ग्रुप से बाहर करना शुरु कर दिया। इसका असर तो हुआ जरूर लेकिन ‘आदत से मजबूर’ भाई लोग अभी भी काम पर लगे हुए हैं।

ऐसे लोगों से मुक्ति पाने के लिए मिश्राजी ने एक रास्ता निकाला। उन्होंने ‘बेस्ट विशेस’ नाम से एक अलग ग्रुप बनाया और कहा कि इस ग्रुप में कोई भी काम की बात नहीं की जाएगी। यहाँ केवल शुभ-कामनाएँ, अभिनन्दन, विभिन्न प्रसंगों के सन्देश और सुभाषित, नीति उद्धरण दिए जाएँगे। मिश्राजी ने चेतावनी दी - ‘यहाँ जो भी काम की बात करेगा उसे निकाल दिया जाएगा।’ होना तो यह चाहिए था कि सब खुश होते और जी भर कर शुभ-कामनाएँ, अभिनन्दन, बधाइयाँ देते। लेकिन हुआ उल्टा। कामवाले ग्रुपों पर फालतू सामग्री देनेवाले मित्रों ने कहा - ‘ऐसे कैसे? केवल बेस्ट विशेस का भी कोई ग्रुप होता है? ऐसे तो सब बोर हो जाएँगे! ग्रुप में तो काम की बातें होनी चाहिए!’ और भाई लोगों ने इस ग्रुप पर काम की बातें डालनी शुरु कर दीं। अब हालत यह है कि काम की बातोंवाले ग्रुप में भाई लोग बेस्ट विशेस डाल रहे हैं और बेस्ट विशेस वाले ग्रुप में काम की बातें।

फोन पर मिश्राजी से बातें करते हुए मुझे उनके मिजाज का कुछ-कुछ अनुमान हो चला है। बेस्ट विशेस ग्रुप पर भाई लोगों की प्रतिक्रियाएँ देख कर मैंने फौरन मिश्राजी को फोन लगाया। वे हतप्रभ और असहज थे। ‘कैसे लोग हैं बैरागीजी? काम की बात करने को कहो तो फालतू बातें करते हैं और फालतू बातों के लिए ग्रुप बनाया तो काम की बातें करने को कहते हैं!’ मैं ठठा कर हँसा। कहा - “यह ‘न सुधरनेवाली दो मानसिकताओं’ का संघर्ष है। आप भला करने पर तुले हुए हैं और वे अपना भला न होने देने को। न आप सुधरने को तैयार हैं न वे। दुःखी मत होईए। ऐसा ही चलते रहने दीजिए। कभी-कभी न सुधरते हुए भी आदमी सुधर जाता है।” 

अब मिश्राजी ठठाकर हँस रहे थे। 
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दुष्यन्त कुमार के ‘मुनासिब लोग’

हम पति-पत्नी के दो बैंकों में खाते हैं। पहला बैंक ऑफ बड़ौदा की स्टेशन रोड़ शाखा में और दूसरा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की कलेक्टोरेट एरिया शाखा में। बड़ौदा बैंक में हमारा खाता बरसों से चल रहा है। किन्तु, श्रीमतीजी सरकारी नौकरी में थी। उनकी पेंशन एसबीआई की इसी शाखा से मिलनी थी। इसलिए यहीं खाता खुलवाने  बाध्यता थी। एसबीआई में हमेशा इतनी भीड़ रहती है कि घुसने की ही हिम्मत नहीं होती। तीन दिन चक्कर काटे लेकिन खाता नहीं खुला। अचानक ही मालूम हुआ कि शाखा प्रबन्धक, एलआईसी की हमारी शाखा मे पदस्थ विकास अधिकारी श्री संजय गुणावत के बड़े भाई हैं। उन्होंने मदद की। खाता फौरन ही खुल गया। 

जब-जब भी एसबीआई जाने की जरूरत हुई, जाने से पहले ही हिम्मत पस्त हो जाती। ईश्वर महरबान हुआ और एक कृपालु वहाँ पदस्थ मिले। उनका काम ऐसा कि सप्ताह में तीन दिन उन्हें शाखा से बाहर रहना पड़ता है। जाने से पहले तलाश कर लेता। वे वहाँ होते तो ही जाता। नहीं होते तो जाना टाल देता।

हम पति-पत्नी नेट बैंकिंग या ई-बैंकिंग अब तक नहीं सीख पाए। एटीएम कार्ड घर बैठे आया। बच्चों ने हिम्मत बढ़ाई और सिखाया तो एटीएम से रकम निकालनी शुरु की। पाँच-सात बरस से एटीएम का उपयोग कर रहा हूँ लेकिन रकम निकालते समय आज भी हाथ काँपते हैं। श्रीमतीजी तो एटीएम का उपयोग अब तक नहीं सीख पाईं। बड़ौदा बैंक के कुछ मित्रों ने ई-बैंकिंग के लिए खूब प्रोत्साहित किया। बार-बार आग्रह किया। हिम्मत कर ई-बैंकिंग सुविधा के लिए खानापूर्ति की। किन्तु पता नहीं, प्रक्रिया के किस चरण में मुझसे कहाँ चूक हुई कि पास वर्ड उलझ गया और ऐसा उलझा कि बैंक के तमाम जानकार मित्र जूझ-जूझ कर हार गए लेकिन पास वर्ड उलझा ही रहा। अब तक उलझा हुआ ही है। मैंने तो उलझन की शुरुआत में ही घुटने टेक दिए। उसके बाद से ई-बैंकिंग के नाम से धूजनी (कँपकँपी) छूटने लगती है।

इसी के चलते, अपने खाते के ब्यौरे जानने के लिए हम लोग पास बुक पर ही निर्भर बने हुए हैं। लेकिन एसबीआई से पास बुक छपवाना किसी युद्ध लड़ने से कम नहीं। खिड़की पर लम्बी लाइन। अपना नम्बर आए तो बाबू पास बुक लेते हुए, मुँह बिगाड़ कर, हड़काते हुए सलाह दे - ‘मशीन से क्यों नहीं छपवा लेते?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। परिचित सज्जन ने एक बार कह ही दिया - ‘यार! सरजी! आप पास बुक मशीन से छपवा लिया करो।’ उसके बाद उनकी मदद लेने की हिम्मत भी जाती रही। 

अब, पास बुक छपवाना मेरे लिए दुनिया का सर्वाधिक दुरुह काम बन गया। इधर श्रीमतीजी हैं कि महीना-दो महीना पूरे होते ही टोकने लगती हैं।

गए दिनों अचानक ही मालूम हुआ कि मित्र निवास रोड़ पर पास बुक छापने की एक नहीं दो-दो मशीनें लगी हैं। पुष्टि करने गया। देखा, बहुत ही आसानी से पास बुकें छपवा रहे हैं। मशीन भी बहुत बढ़िया - बराबर निर्देश भी देती है और प्रक्रिया की जानकारी भी। लेकिन वहाँ भी ल ऽ ऽ ऽ म्बी ऽ ऽ लाईन। देख कर छक्के छूट गए। मेरी दशा देख एक अनुभवी ने कहा - ‘रात नौ बजे के आसपास आईए। मशीनें खाली मिलेंगी।’ मेरा दिल बल्लियों उछल गया।

मैं बुधवार 14 नवम्बर की रात गया। एक सज्जन पास बुक छपवा रहे थे। मैं दूसरी मशीन की तरफ बढ़ा। उसके पर्दे पर मशीन के काम न करने की सूचना तैर रही थी। मैं, पास बुक छपवा रहे सज्जन के पीछे आ खड़ा हुआ। उनकी पास बुक छपते ही मशीन ने पास बुक लेने का सन्देश दिया। उन्होंने पास बुक निकाली। वे हटे। मैं मशीन के सामने खड़ा हुआ। लेकिन यह क्या? क्षमा याचना करते हुए मशीन के पर्दे पर, मशीन के काम न करने का सन्देश चमक रहा था। मैंने मुझसे पहलेवाले सज्जन से मदद माँगी। वे भी हैरत में पड़ गए। उन्होंने भी अपनी सूझ-समझ के मताबिक मशीन को टटोला, मेरी पास बुक ‘स्लॉट’ में डाली। किन्तु कोई हलचल नहीं हुई। सज्जन ने कहा कि कभी-कभी अचानक लिंक टूट जाने से या सर्वर में समस्या आ जाने से ऐसा हो जाता है। थोड़ी देर मे अपने आप ठीक हो जाएगा। मैं करीब बीस मिनिट वहाँ रुका रहा। फिर थक कर लौट आया। 

मैं गुरुवार 15 नवम्बर की रात फिर गया। लेकिन दोनों मशीनें पूर्ववत निश्चल, निष्क्रिय खड़ी थीं। शुक्रवार 16 नवम्बर की रात को फिर देहलीज पर मत्था टेका। लेकिन देवियाँ नहीं पिघलीं। शनिवार 17 नवम्बर को मैंने फेस बुक पर दो पोस्टों में अपनी व्यथा-कथा सार्वजनिक की। कुछ टिप्पणियाँ आईं। एक-दो ने बैंक की व्यवस्था को कोसा। बाकी  सबने एक भाव से नेट बैंकिंग अपनाने की सलाह दी। शनिवार की मेरी दूसरी पोस्ट पर मेरे प्रिय मित्र श्री राधेश्यामजी सारस्वत ने ढाढस बँधाया कि शनिवार को यदि पास बुक नहीं छपे तो सोमवार को वे हर हालत में मेरी पास बुक छपवा देंगे। सारस्वतजी बड़े प्रेमल व्यक्ति हैं। वे कलेक्टोरेट में सेवारत हैं और मेरी सहायता करने के अवसर तलाश करते रहते हैं।

इन चार दिनों (14 से 17 नवम्बर) में श्रीमतीजी ने अपने पास बुक प्रेम के अधीन मुझे उलाहने देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर उलाहने का अन्त एक ही वाक्य से हुआ - ‘आपसे इतना सा काम भी नहीं होता? हुँह!’

शनिवार को भी मशीनें बन्द की बन्द ही मिलीं। रविवार को मैंने सारस्वतजी को फोन किया - ‘पास बुक कहाँ पहँचाऊँ?’ उन्होंने कहा कि वे सोमवार सुबह मेरे घर आकर पास बुक ले लेंगे। सोमवार सुबह दस बजे वे आए। पास बुक ली। चले गए। ग्यारह बजते-बजते उनका फोन आया - ‘सर जी! पास बुक छप गई। फोटू वाट्स एप कर रहा हूँ।’ शाम को वे घर आकर पास बुक दे गए। (यह पूरा किस्सा फेस बुक पर मेरी वाल पर 17 और 19 नवम्बर को विस्तार से दिया हुआ है।)

बात यहीं खतम हो जानी चाहिए। लेकिन यह ब्यौरा तो मेरी मूल बात की भूमिका है। मेरी बात तो यहीं से शुरु होती है। 
जैसा कि मैंने कहा है, सत्रह नवम्बर की मेरी दोनों फेस बुक पोस्टों पर और काम हो जाने के बाद 19 नवम्बर वाली फेस बुक पोस्ट पर आई टिप्पणियों में दो-एक मित्रों ने ही बैंक के प्रति खिन्नता जताई। बाकी सबने मुझे ई-बैंकिंग और/या नेट बैंकिंग अपनानेे की न केवल सलाह दी अपितु इसके फायदे भी समझाए। मेरे ऐसा न करने पर दो-एक कृपालुओं ने तो यथेष्ठ खिन्नता भी जताई।

मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इन सारे मित्रों ने मेरी चिन्ता करते हुए, मुझे कष्ट न हो, बैंक पर मेरी निर्भरता समाप्त करने के लिए मुझे यह नेक सलाह दी। लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि समुचित सेवाएँ न देने के लिए इनमें से किसी ने बैंक की आलोचना करना तो दूर, बैंक का नाम भी नहीं लिया।

यह, व्यवस्था के प्रति हमारी हताशाभरी उदासीन मानसिकता का नमूना है। हमने व्यवस्था के सामने घुटने टेक दिए हैं। हमने मान लिया है कि अपने ग्राहकों के साथ बैंक का व्यवहार तो ऐसा ही रहेगा। न तो वह सुधरेगी न ही हम उसे सुधार सकेंगे। यह हमारी हताशा का चरम है कि उसे सुधार की, उसके दुरुस्त होने की बात ही हमारे मन में आनी बन्द हो गई है। मुझे नेट/ई-बैंकिंग अपनाने की सलाह देते हुए मेरे तमाम कृपालु मित्र यह याद ही नहीं रख पाए कि बैंक अपने ग्राहकों को पास बुकें जारी कर रहा है और उन्हें छापने के लिए मँहगी स्वचलित मशीनें लगवाए चला जा रहा है। जाहिर है कि बैंक स्वीकार कर रहा है कि ग्राहक को यह सेवा देना अभी भी उसकी जिम्मेदारियों में शामिल है। लेकिन हमने हार मान ली है। क्रूर व्यवस्था से परास्त होना हमने अपनी नियती मान ली है। एक दुःखी उपभोक्ता के समर्थन में खड़े होने के बजाय सब उसे समझा रहे हैं - 
‘खुुुद ही सुधर जाओ भाई!’ 

यह सब याद करते हुए मुझे दुष्यन्त कुमार याद आ गए। बरसों-बरस पहले वे कह गए हैं -

न हो कमीज तो घुटनों  से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

जहाँ हमें रीढ़ की हड्डी तानकर खड़े होना चाहिए वहाँ हम विनयावनत हो खुद को बदल लेते हैं। व्यवस्था को और चाहिए ही क्या?

हम (इस ‘हम’ में मैं भी शरीक हूँ) दुष्यन्त कुमार के ये ही ‘मुनासिब लोग’ हैं।
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मेरी छपी हुई पास बुक देने के लिए मेरे घर आए श्री राधेश्यामजी सारस्वत। 
भगवान इनका भला करे। 

वाट्स एप यूनिवर्सिटी के शिकार

निर्भीक पत्रकारिता के पर्याय बन चुके पत्रकार रवीश कुमार
अपने दर्शकों/श्रोताओं को, ‘वाट्स एप यूनिवर्सिटी’ की शिक्षाओं से बचने की सलाह देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। किन्तु उनकी यह सलाह राजनीति में धर्मान्धता से बचने को लेकर होती है। लेकिन कहा नहीं जा सकता कि अंगुलियों की पोरों से संचालित हो रही यह यूनिवर्सिटी हमारे जीवन के किस पहलू को कब स्पर्श कर ले। इस यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर बनने के लिए न तो किसी शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता है न ही किसी परीक्षा/साक्षात्कार से गुजरना होता है। इसमें न तो भर्ती का आयु बन्धन है न ही सेवा निवृत्ति का। देश की तमाम सरकारी शिक्षा यूनिवर्सिटियों में प्रोफेसरों के हजारों पद खाली पड़े हैं लेकिन इस यूनिवर्सिटी में न तो पदों की संख्या निर्धारित है न ही स्वनियुक्त प्रोफेसरों की गिनती। घर-घर में इस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मौजूद हैं। घर में जितने मोबाइलधारक, उतने ही प्रोफेसर। इन प्रोफेसरों के न तो ‘ड्यूटी अवर्स’ तय हैं न ही पीरीयड की समय सीमा। निस्वार्थ-निष्काम, ‘अहर्निशम् सेवामहे’ भाव से ये स्वैच्छिक मानसेवी प्रोफेसर लोग आपकी-हमारी जिन्दगी सँवारने का कोई मौका नहीं छोड़ते। मुझे नहीं पता कि इन नेक सलाहों का फायदा किसी को हुआ या नहीं। किन्तु इसके एक ‘शिकार’ की व्यथा-कथा सुनने का मौका मिल गया।

श्री अरविन्द सोनी मेरे ‘मुक्त कण्ठ प्रशंसक’ हैं। वे म. प्र. विद्युत मण्डल के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। रतलाम जिला इण्टक के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। सेवा निवृत्त जरूर हो गए हैं लेकिन काम करना फितरत में है। परिचितों-मित्रों की समस्याएँ हल कराने के लिए एलआईसी कार्यालय आते रहते हैं। प्रायः ही मिलना होता है। जब भी मिलते हैं, कुछ पल बात करते ही हैं। इसी तरह, बातों ही बातों में अचानक ही ‘वाट्स एप यूनिवर्सिटी की सलाह का शिकार’ हो जाने की बात सामने आ गई।

हुआ यूँ कि किन्हीं कारणों से अरविन्दजी को टीएमटी करवानी पड़ी। रिपोर्ट से हृदय की धमनियों में अवरोध की आशंका के संकेत मिले। चिकित्सा शुरु की ही थी कि एक भरोसेमन्द हितचिन्तक ने वाट्स एप पर एक देसी नुस्खा भेजा। ये हितचिन्तक, मुम्बई के ख्यात-प्रतिष्ठित केईएम अस्पताल में चिकित्सक रहे हैं। परम सद्भाव और सदाशयता से भेजे गए इस सन्देश पर अरविन्दजी ने आकण्ठ विश्वास से अमल किया और नुस्खे में बताई दवा लेनी शुरु कर दी।

शुरु में तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा लेकिन कुछ दिनों बाद पेट में जलन की शिकायत शुरु हो गई। जैसा कि हम सब करते हैं, अरविन्दजी ने एसिडिटी का अनुमान लगाया और स्वचिकित्सक बन, एसिडिटी निरोधी सामान्य गोलियाँ ले लीं। लेकिन गोलियाँ निष्प्रभावी रहीं और समस्या बढ़ती गई। अरविन्दजी ने डॉक्टर से सलाह ली तो उसने बड़ी आँत में अल्सर का अन्देशा बताया। अरविन्दजी फौरन इन्दौर गए। पेट रोग विशेषज्ञ से मिले। कुछ जाँचें करवाईं जिनके आधार पर विशेषज्ञ ने बड़ी आँत में अल्सर की पुष्टि की। 

विशेषज्ञ की सलाह पर अरविन्दजी इन्दौर में ही अस्पताल में भर्ती हुए। दो दिन वहाँ ईलाज कराया। डॉक्टर के निर्देश लेकर रतलाम लौटे। पूरे दो महीने ईलाज चला तब कहीं जाकर कष्ट से मुक्ति मिली।

अरविन्दजी अब पूर्ण स्वस्थ तो हैं लेकिन आँत के अल्सर के कारण कुछ ऐसे निषेध आरोपित कर दिए गए हैं जिनका पालन करने के लिए अरविन्दजी की, चाय के ठीयों की बैठकें बन्द सी हो गईं है। बैठक में शामिल हों तो भाई लोग जबरदस्ती करने में कंजूसी नहीं करते। उनका कहा मानना याने अपनी जान से दुश्मनी। 

अब अरविन्दजी जब भी ऐसी बैठकों में शामिल होते हैं तो वाट्स एप यूनिवर्सिटी से मिला यह सबक सबसे पहले सुनाते हैं।
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‘नोटा’ बन गया ‘सोटा’: जीत गया तो फिर से होंगे चुनाव

यह किसी सपने के सच हो जाने जैसा है। 

हमारे मँहगे चुनाव मुझे देश में व्याप्त आर्थिक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण लगते हैं। धनबली और बाहुबली लोग विधायी सदनों पहुँचकर हमारी तकदीरों से खेलते हैं। ‘इण्डिया’ के लोग ‘भारत’ की तकदीर बनाने का ठेका ले लेते हैं। वास्तविक जन प्रतिनिधि विधायी सदनों में पहुँच ही नहीं पाते।

इनसे मुक्ति पाने के लिए मुझे ‘नोटा’ प्रभावी, परिणामदायी हथियार अनुभव होता है। लेकिन उसका वर्तमान स्वरूप मुझे और क्षुब्ध कर देता है। इसका वर्तमान स्वरूप, उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं की नाराजी, असहमति तो जरूर प्रकट करता है लेकिन  किसी को जीतने से रोक नहीं पाता। अपनी इसी बात को लेकर मैं 05 अक्टूबर 2018 को, ‘नोटा’ को उम्मीदवार की हैसियत दिए जाने की बात कही थी। तब मुझे सपने में भी गुमान नहीं था कि डेड़ माह से भी कम अवधि में मेरी मुराद पूरी होने की शुरुआत हो जाएगी। कल, 13 नवम्बर को अचानक ही मुझे जानकारी मिली कि ‘नोटा’ को उम्मीदवार मान लिया गया है और यदि इसे सबसे ज्यादा वोट मिल गए तो वहाँ फिर से चुनाव कराया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने 27 सितम्बर 2013 को ‘नोटा’ का बटन, मतदान मशीन पर उपलब्ध कराने का आदेश दिया था। लेकिन आदेश में यह भी कहा गया था कि यदि किसी चुनाव में ‘नोटा’ को तमाम उम्मीदवारों से ज्यादा मत मिल जाएँ तब भी, (‘नोटा’ के बाद) सर्वाधिक मत हासिल करनेवाले उम्मीदवार को विजयी घोषित कर दिया जाए। याने, चूँकि ‘नोटा’ कोई उम्मीदवार नहीं है इसलिए वह जीत कर भी हार जाएगा और उसे मिले मत, निरस्त मत माने जाएँगे। 

लेकिन महाराष्ट्र राज्य निर्वाचन आयोग (मरानिआ) इस स्थिति से एक कदम आगे बढ़ गया है। ‘मरानिआ’ के सचिव शेखर चन्ने के अनुसार अब (महाराष्ट्र में) किसी चुनाव/उप चुनाव में यदि ‘नोटा’ को सर्वाधिक मत मिले तो किसी भी उम्मीदवार को विजयी घोषित नहीं किया जाएगा और वहाँ (उस पद के लिए) फिर से चुनाव कराया जाएगा। श्री चन्ने के अनुसार यह आदेश तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है। 

लेकिन यह आदेश फिलहाल महाराष्ट्र के समस्त नगर निगमों, नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों के चुनावों, उप चुनावों में ही लागू होगा।

श्री चन्ने के अनुसार, ‘नोटा’ के वर्तमान स्वरूप में मतदाताओं की नकारात्मकता अनदेखी रह जाती है इसलिए यह प्रावधान किया गया है। इसमें ‘नोटा’ को ‘काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार’ (Fictional Electoral Candidate) माना जाएगा और यदि चुनावी उम्मीदवारों को इस ‘काल्पनिक चुनावी उम्मीदवार’ से कम मत मिले को कोई भी उम्मीदवार विजयी घोषित नहीं किया जाएगा और वहाँ (जिस पद के लिए यह चुनाव हुआ था, उस पद के लिए) फिर से चुनाव कराया जाएगा।

हालाँकि यह अधूरी जीत है किन्तु यह पूरी जीत की शुरुआत है। ‘मरानिआ’ का क्षेत्राधिकार चूँकि केवल राज्यस्तरीय निकायों तक सीमित है इसलिए उसने अपने क्षेत्राधिकार के मतदाताओं को यह ताकत दे दी। यह शुरुआत यहीं नहीं रुकेगी। यह ‘छूत की बीमारी’ की तरह फैलेगी ही फैलेगी। एक के बाद एक, अन्य राज्य भी अपने मतदाताओं को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए इस प्रावधान को लागू करेंगे और अन्ततः बात भारत निर्वाचन आयोग तक पहुँचेगी ही पहुँचेगी। इसमें देर लग सकती है लेकिन ऐसा होना तो तय हो गया है।

मतदाताओं को अधिक ताकतवर बनाने के लिए, उनकी नापसन्दगी को स्वीकृती दिलाने हेतु, चुनाव सुधारों के लिए काम कर रहे अनेक एक्टिविस्ट और एनजीओ, ‘नोटा’ का प्रावधान लागू होने के ठीक बाद से लगातार माँग कर रहे हैं कि किसी चुनाव में ‘नोटा’ को सर्वाधिक मत मिलने की दशा में वहाँ फिर से चुनाव तो कराया ही जाए, मतदाताओं के इंकार को स्वीकृती देते हुए, उस चुनाव में, ‘नोटा’ के जरिए खारिज किए गए तमाम उम्मीदवारों को फिर से उस चुनाव के लिए अयोग्य भी घोषित किया जाए।

हमारे राजनेता देश को और देश के लोगों को जिस मुकाम पर ले आए हैं उसके चलते यह सब होगा। होकर रहेगा। देश को मँहगे चुनावों से मुक्ति मिलेगी, एक औसत आदमी चुनाव लड़ सकेगा, वास्तविक जन प्रतिनिधि विधायी सदनों में नजर आएँगे। आर्थिक भ्रष्टाचार यदि समूल नष्ट नहीं भी हुआ तो भी वह न्यूनतम स्तर पर आएगा। राजनीतिक दलों के, दरियाँ-जाजम उठाने-झटकारनेवाले, झण्डे-डण्डे उठानेवाले मैदानी कार्यकर्ताओं की पूछ-परख होगी। ऐसी बातों की बहुत लम्बी सूची है। वे सब होंगी।

शुरुआत हो चुकी है। विधायी सदनों में बैठे तमाम नेता, अपने सारे मतभेद भुलाकर इसे रोकने में जुट जाएँगे। मुमकिन है, कुछ बरसों तक वे इसे रोक भी लें। लेकिन वे अन्ततः परास्त होंगे। वही ‘जनता-जनार्दन’ की जीत होगी।

अँधरे को प्रकाश की अनुपस्थिति कहते हैं। लेकिन वह तो एक प्राकृतिक स्थिति है। अँधेरा दूर करने के लिए उजाला करना पड़ता है। छोटे-छोटे जुगनू लगातार जूझ रहे हैं। हर रात की एक सुबह होती ही है। लेकिन वे इस भरोसे चुपचाप नहीं बैठेंगे। वे सुबह लाने तक रुकेंगे नहीं। चैन से नहीं बैठेंगे। वे सुबह लाकर ही मानेंगे।
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(यह पोस्ट मैंने, इण्डियन एक्सप्रेस के मुम्बई संस्करण में, दिनांक 13 नवम्बर 2018 को प्रकाशित समाचार के आधार पर लिखी है। इस समाचार की लिंक मुझे, ग्वालियरवाले श्री  विष्णुकान्त शर्मा Vishnukant Sharma की फेस बुक वॉल से मिली है।  श्री शर्मा की वॉल पर उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार वे, इस पोस्ट के लिखे जाने के समय तक, 28 नवम्बर को हो रहे विधान सभा चुनावों में ग्वालियर विधान सभा क्षेत्र 15 से प्रत्याशी हैं। 

मेरा अंग्रेजी ज्ञान बहुत कम है। मैंने, परम् सद्भाव और सदाशयता से, अपनी सूझ-समझ के अनुसार इस समाचार का यथासम्भव समुचित हिन्दी भावानुवाद किया है। समाचार का जो हिस्सा मुझे समझ नहीं पड़ा, वह मैंने छोड़ दिया है। मुझसे यदि कोई चूक हुई हो तो कृपया मुझे अविलम्ब सूचित कीजिएगा ताकि मैं खुद को सुधार सकूँ। मुझे प्राप्त समाचार लिंक यहाँ दे रहा हूँ।)

पटाखों और फुलझड़ियों से ही नहीं होती दीपावली

जिन्दगी के पनघट पर घटनाओं की रस्सियों से बने अनुभूतियों के अमिट निशान हमारी धरोहर और जीवन पाथेय बन जाते हैं। तब चीजें, बातें एक नया अर्थ, नई उपयोगिता हासिल करने लगती हैं। दीपावली को लेकर कुछ ऐसा ही मेरे साथ गए कुछ बरसों से हो चला है। लेकिन मुझे यह भ्रम नहीं कि ऐसा केवल मेरे साथ ही हुआ, हो रहा होगा। विश्वास करता हूँ कि मैं ऐसे अनगिनत लोगों की भीड़ का सबसे अन्तिम, सबसे छोटा हिस्सा ही हूँगा। 

बचपन में बताए, समझाए गए, दीपावली के सारे अर्थ एक के बाद एक, बदल गए। अब दीपावली केवल लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी का या तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का या फिर नई फसल के आने का त्यौहार नहीं रह गई। पहले समझाया जाता था - दीपावली खुशियों का, खुशियाँ मनाने का त्यौहार है। लेकिन अकेली खुशी भी खुश नहीं हो पाती। खुशी को भी खुश होने के लिए संगाती चाहिए। संगाती भी ऐसा जो हमारी खुशी को अपनी खुशी मानने को तैयार हो सके। कोई दुखी आदमी भला हमारी खुशी में कैसे शरीक हो सकता है? लिहाजा, अपनी खुशी का आनन्द लेने के लिए हमें किसी खुश आदमी की ही जरूरत होती है। तब ही समझ आया कि खुश होना ही पर्याप्त नहीं है। अपने आसपास के लोगों का खुश होना भी बराबरी से जरूरी है। इसलिए, यदि वे खुश नहीं हैं तो उन्हें खुश करने, खुश रखने की भावना उपजी होगी। तब ही अनुभव हुआ होगा कि लोगों को खुश रखना ही सबसे बड़ी खुशी होती है। तब ही दीपावली का नया भाष्य सामने आया - दीपावली खुशियों का त्यौहार तो है जरूर लेकिन उससे पहले, खुशियाँ बाँटने का त्यौहार है। यह पवित्र भावना मन में उपजते ही त्यौहार मन जाता है। तब हम खुशियों की खेती करने लगते हैं। खुशियाँ बोते हैं और खुशियों  की फसल काटते हैं।

खुशी कोई वस्तु तो है नहीं कि बाजार से खरीद लें! वस्तुएँ खुशी दे सकती हैं लेकिन घावों पर मरहम नहीं लगा पातीं। कुछ लोगों के लिए वस्तुएँ खुशी का सबब होती हैं। लेकिन कुछ इनसे अलग होते हैं। उन्हें कुछ दिए बिना भी खुशी दी जा सकती है, यह प्रतीति कुछ बरस पहले मुझे अचानक ही हुई। तब से, हर बरस मेरी दस-बीस दीवालियाँ मन रही हैं। 

बीमे के धन्धे के कारण मैं सभी वर्गों, श्रेणियों, धर्मों, जातियों के लोगों से मिलता हूँ। इन सबसे मिलने पर बार-बार वह बात याद आती है कि सुख, खुशी और सुविधाओं, सम्पन्नता का कोई रिश्ता नहीं है। मुझे महलों में दुःखी, असन्तुष्ट, क्षुब्ध लोग मिलते हैं तो झोंपड़ियों में परम प्रसन्न, सुखी, सन्तुष्ट लोग। 

एक परिवार में मुझे, जिसका बीमा करना था उसकी प्रतीक्षा करनी थी। परिवार में उसके बूढ़े पिता ही फुरसत में थे। उनसे बतियाने लगा। शुरु में तो वे कन्नी काटते रहे। कुछ-कुछ भयभीत होकर। लेकिन जल्दी ही खुल गए। उन्हें कोई कमी नहीं थी। कोई कष्ट नहीं था, किसी से कोई शिकायत नहीं थी। उनकी सारी जरूरतें पूरी हो रही थीं और अपेक्षानुरूप देखभाल भी। लेकिन उनसे बात करने की फुरसत किसी को नहीं थी। मुझे घण्टे भर से अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ी। तब तक वे न जाने कहाँ-कहाँ की बातें करते रहे। मेरे काम की एक भी बात नहीं थी। लेकिन मैं हाँ में हाँ मिलाते हुए सुनता रहा। बीमा करानेवाला लौटा तो उन्होंने आश्चर्य से कहा - ‘अरे! तू इतनी जल्दी आ गया? काम अधूरा छोड़ कर तो नहीं आ गया?’ मुझे अपना काम निपटाना था। मैं उठने लगा तो मेरी बाँह पकड़ कर बोले - ‘आज कितने दिनों में कोई मेरे पास बैठा। आज मैंने खूब बातें कीं। आज तो आपने मेरी दीवाली कर दी।’ यही वह घटना थी जिसने मुझे पहली बार  दीवाली का नया भाष्य दिया था। मेरी गाँठ से कुछ नहीं गया। लेकिन वे बुजुर्ग परम प्रसन्न थे। उसके बाद से तो मैं ऐसी स्थितियों की तलाश करने लगा।

एक परिवार में अब मैं नियमित रूप से जाता हूँ। परिवार के सबसे वृद्ध सज्जन अपंग तो नहीं हैं लेकिन ज्यादा चल-फिर नहीं सकते। मुझे देखते ही खुश हो जाते हैं। उनके पास भी आधा-पौन घण्टा गुजार लेता हूँ। उन्हें परिवार से तो नहीं लेकिन जमाने से शिकायतें हैं। उन्हें दुनिया में कुछ भी अच्छा होता नजर नहीं आता। मैं उनसे कभी सहमत नहीं हो पाया किन्तु कभी असहमति भी नहीं जताई। मैं लौटता हूँ तो कहते हैं कि मैं तनिक जल्दी-जल्दी मिलने आया करूँ। मैं परिहास करता हूँ - ‘आप जमाने को गालियाँ देते हो। क्या गालियाँ सुनने के लिए आऊँ?’ वे कुम्हला जाते हैं। कहते हैं - ‘मैं तो ऐसा ही हूँ। लेकिन आप आते रहो। आप मेरी बातें सुन लेते हो। मुझे खुशी होती है।’

एक परिवार की वृद्धा से मेरी दोस्ती हो गई है। दो मुलाकातों में तीन हफ्तों से अधिक का अन्तराल न हो यह चेतावनी उन्होंने दे रखी है। मेरी खूब खातिरदारी करती हैं। पौन घण्टा तो मुझे रुकना ही होता है उनके पास। अपनी इकलौती बहू की खूब बुराई करती हैं। मैं टोकता हूँ - ‘इतनी तो सेवा करती है बेचारी आपकी! फिर भी बुरी है?’ वृद्धा का जवाब होता है - ‘सब दिखावा करती है। आप बहुओं को नहीं जानते। बहू कुछ भी कर ले, है तो परायी जायी।’  पौन घण्टे के इस बुराई-पीरीयड में बहू दो-तीन बार आकर पानी, चाय-नाश्ता रख जाती है। आते-जाते हँसती रहती है। लौटता हूँ तो वृद्धा मुझे भर-पेट असीसती हैं। कहती हैं - ‘आप आते हो तो मेरा आफरा (अजीर्ण) झड़ जाता है।’ बहू मुझे छोड़ने के लिए बाहर तक आती है। कहती है - ‘आप आते रहिए। मेरे पीहर में तो कोई है नहीं और ससुरालवाले वाले आते-जाते नहीं। बई (सासू माँ) ने सबसे झगड़ा कर रखा है। बई को मेरी बुराई करने में बड़ा सुख मिलता है। मेरी बुराई इनकी बीमारी की दवा है। आपसे कह देती हैं तो इनकी तबीयत ठीक रहती है।’

ये तो गिनती के नमूने हैं। ऐसे कई लोगों से मैंने घरोपा बना लिया है। मैं बीमा एजेण्ट। मेरा काम बातें करना। ऐसे मामलों में मुझे सुनना होता है। सुन लेता हूँ। हर जगह से लौटने में बड़ी सुखानुभूति होती है। लगता है, देव पूजा करके या यज्ञ में समिधा-आहुति डाल कर आ रहा हूँ। इन लोगों की खुशी देखते ही बनती है। सचमुच में अवर्णनीय। ऐसी हर आहुति के बाद लगता है, मैंने दीवाली मना ली है। 

बिना पटाखे फोड़े, बिना फुलझड़ियाँ छोड़े, आदमी के मन और आत्मा को खुशियों और उजास से भर देनेवाली ऐसी दीवालियाँ आप-हम सब, जाने-अनजाने साल भर मनाते हैं लेकिन कभी ध्यान नहीं देते हैं। अब ध्यान दीजिएगा तो खुशी कम से कम दुगुनी तो हो ही जाएगी। बच्चन की मधुशाला तो ‘दिन को होली, रात दीवाली’ मनाती है। लेकिन खुशियों की यह मधुशाला तो दिन-रात, चौबीसों घण्टे, बारहमासी दीवाली मनाती है।  
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‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) ने मेरी इस पोस्ट को सम्पादित रूप
में अपने दीपावली 2018 के अंक के मुखपृष्ठ पर जगह दी। 




नरोड़ा का आशीष और वटवा की साजिया

जो दुर्व्यसन अहमदाबाद वाले केशवचन्द्रजी शर्मा ने पाल रखा है, वह हम सब भी पाल लें तो नफरत की आग बुझे भले नहीं लेकिन उसकी आँच, उसकी तपन जरूर काफी कुछ हो जाए। वे अहमदाबाद के गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी अखबारों में छपनेवाले ‘असामान्य’ समाचार, जानकारियाँ ढूँढ कर जुटाते हैं और उनकी कतरनें (तथा गुजराती, अंग्रेजी सामग्री के हिन्दी अनुवाद) मुझे भेजते हैं। उनकी भेजी सामग्री आत्मा को शीतलता तो देती ही है, आत्मा को ताकत भी देती है और भरोसा भी दिलाती है कि जितना कुछ नकारात्मक, निराशाजनक, भयानक परिदृष्य पर नजर आ रहा है, परिदृष्य के पीछे उससे बहुत-बहुत ज्यादा अच्छा है। केशवजी की कोशिश उसी ‘बहुत अच्छे’ को सामने लाने की है। 

क्यों कर रहे हैं केशवजी यह सब? क्या फायदा है इसमें उनका? वक्त लगाते हैं, लिखने में मेहनत करते हैं, गाँठ का दाम खर्च करते हैं। क्यों? जिम्मेदारी की भावना से शायद केवल इस आस में कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ एक बेहतर कल हासिल कर सकें। आम के पौधे लगाने जैसा काम कर रहे हैं केशवजी - ‘मैं तो नहीं, लेकिन मेरा पोता रसीले आमों का आनन्द लेगा।’ लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित हो रहे सेतु में अपना योगदान देने केलिए बार-बार गीली होकर रेत में लोटनेवाली गिलहरी लगते हैं केशवजी मुझे। उनकी इसी मौन साधना ने मुझे प्रेरित किया कि उनकी सामग्री को विस्तारित करूँ। याने, रामजी की गिलहरी केशवजी और मैं केशवजी की सहायक गिलहरी।

आप इस सामग्री का आनन्द लीजिए और आपकी आत्मा अनुमति दे तो मेरी ही तरह एक गिलहरी बन, इसे विस्तारित कीजिए। लिख कर न सही, अपनेवालों से, मिलनेवालों से इस सामग्री की और इन कोशिशों की चर्चा करके। 

अच्छी बातों का जिक्र कीजिए ताकि बुरी बातों के जिक्र की गुंजाइश न रहे।

कहानी बहुत ही छोटी है। इक्कीस  शब्दों और दो-ढाई पंक्तियों में कही जा सकनेवाली। एक लड़के ने एक लड़की से राखी बँधवा कर उसे बहन बनाया और रिश्ता बना हुआ है, दिनोंदिन प्रगाढ़ होता हुआ। बस। लेकिन जब मालूम हो कि यह लड़की दूसरे धर्म की है और लड़के की पहले ही दो सगी बहनें हों तो कहानी चौंकाती है और जिज्ञासु बनाती है। तब, सवाल ‘क्या हुआ?’, ‘क्या किया?’ से बदल कर ‘क्यों हुआ?’, ‘क्यों किया?’ हो जाता है।

यह सात बरस पहले की बात है।

अहमदाबाद का नरोड़ा निवासी आशीष, अपने गुजरात से बेहद प्यार करनेवाला एक औसत युवक है। लेकिन अपने मित्र मण्डल में तनिक अलग किस्म का नजर आता है। वह जिस तरह की बातें करता है, जैसा सोचता-विचारता है उससे उसे प्रगतिशील और सर्व-धर्म-समभावी कहा जा सकता है। वह कहता तो कुछ नहीं लेकिन उसकी बातों से लगता है कि वह, दुनिया में अपने गुजरात की छवि को लेकर चिन्तित रहता है। वह ‘कहने’ के बजाय ‘करने’ में विश्वास करता है। उसकी इस मानसिकता ने ही इस कहानी को जन्म दिया। आशीष को विचार आया - किसी मुस्लिम लड़की को बहन बनाया जाए। यूँ तो यह कोई अनूठा विचार नहीं क्योंकि ऐसे रिश्ते बड़ी संख्या में मिल जाएँगे। लेकिन आशीष की तो दो सगी बहनें हैं! यही तथ्य इस कहानी का बीज-विचार बना।

लेकिन आशीष ने भावुकता की दासता अस्वीकार की। रिश्ता जब बनाना है तो उसे निभाना भी होगा। केवल अपनी एक ‘सनक’ के आधार पर तो रिश्ता नहीं बनाया जा सकता! लिहाजा, आशीष ने समान वैचारिक धरातल वाली मुस्लिम लड़की की तलाश शुरु की। 

काम आसान नहीं था। लेकिन आशीष ने अपनी तलाश जारी रखी। अचानक ही एक नाटक प्रतियोगिता में उसकी मुलाकात, वटवा इलाके में रहनेवाली साजिया से हुई। आशीष ने अनुभव किया कि उसका और साजिया का सोचना-विचारना एक जैसा है। फिर भी आशीष ने, तत्काल किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से खुद को रोके रखा। उसने साजिया को परखना जारी रखा और जब उसे भरोसा हो गया कि सोच-विचार के आधार पर उसकी और साजिया की निभ जाएगी तो उसने साजिया से राखी बँधवाने की बात कही। साजिया के लिए यह सर्वथा अनपेक्षित प्रस्ताव था। किन्तु वह भी आशीष को थोड़ा-बहुत जान-समझ चुकी थी। उसने प्रसन्नतापूर्वक हामी भरी। और उसी क्षण एक रिश्ते ने जन्म लिया। ऐसा रिश्ता जो एक महीन धागे से बँधा था।

सात बरस हो गए हैं। हर बरस रक्षा बन्धन पर साजिया, आशीष को राखी बाँधती है और आशीष अपनी बहन को नेग चुकाता है। दो व्यक्तियों से शुरु हुए इस रिश्ते ने दोनों परिवारों को अपने में समेट लिया। अब दोनों परिवार मिल कर त्यौहार मनाते हैं और केवल एक-दूसरे को नहीं, सारे जमाने को भरोसा दिला रहे हैं - ‘प्रेम ही जीवन-जड़ी है।’ वह ‘जीवन-जड़ी’ जो कबीर के मुताबिक न तो खेत में पैदा होती है न ही हाट-बाजार में बिकती मिलती है। वह ‘जीवन जड़ी’ जो निर्मल, निष्कलुष, मानवीय हृदयों की उर्वरा जमीन में पाई जाती है।
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जरूरत और फर्ज का धर्म

जो दुर्व्यसन अहमदाबाद वाले केशवचन्द्रजी शर्मा ने पाल रखा है, वह हम सब भी पाल लें तो नफरत की आग बुझे भले नहीं लेकिन उसकी आँच, उसकी तपन जरूर काफी कुछ हो जाए। वे अहमदाबाद के गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी अखबारों में छपनेवाले ‘असामान्य’ समाचार, जानकारियाँ ढूँढ कर जुटाते हैं और उनकी कतरनें (तथा गुजराती, अंग्रेजी सामग्री के हिन्दी अनुवाद) मुझे भेजते हैं। उनकी भेजी सामग्री आत्मा को शीतलता तो देती ही है, आत्मा को ताकत भी देती है और भरोसा भी दिलाती है कि जितना कुछ नकारात्मक, निराशाजनक, भयानक परिदृष्य पर नजर आ रहा है, परिदृष्य के पीछे उससे बहुत-बहुत ज्यादा अच्छा है। केशवजी की कोशिश उसी ‘बहुत अच्छे’ को सामने लाने की है। 

क्यों कर रहे हैं केशवजी यह सब? क्या फायदा है इसमें उनका? वक्त लगाते हैं, लिखने में मेहनत करते हैं, गाँठ का दाम खर्च करते हैं। क्यों? जिम्मेदारी की भावना से शायद केवल इस आस में कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ एक बेहतर कल हासिल कर सकें। आम के पौधे लगाने जैसा काम कर रहे हैं केशवजी - ‘मैं तो नहीं, लेकिन मेरा पोता रसीले आमों का आनन्द लेगा।’ लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित हो रहे सेतु में अपना योगदान देने केलिए बार-बार गीली होकर रेत में लोटनेवाली गिलहरी लगते हैं केशवजी मुझे। उनकी इसी मौन साधना ने मुझे प्रेरित किया कि उनकी सामग्री को विस्तारित करूँ। याने, रामजी की गिलहरी केशवजी और मैं केशवजी की सहायक गिलहरी।

आप इस सामग्री का आनन्द लीजिए और आपकी आत्मा अनुमति दे तो मेरी ही तरह एक गिलहरी बन, इसे विस्तारित कीजिए। लिख कर न सही, अपनेवालों से, मिलनेवालों से इस सामग्री की और इन कोशिशों की चर्चा करके। 

अच्छी बातों का जिक्र कीजिए ताकि बुरी बातों के जिक्र की गुंजाइश  कम हो।


कोई पचीस बरस पहले इस ‘आज’ की शुरुआत हुई थी। तब किसी को अन्दाज नहीं था कि बात इस मुकाम तक पहुँचेगी। सब कुछ अनायास हुआ। धीरे-धीरे। जैसे, कुम्हार के आँवे में धीरे-धीरे गरम होकर मिट्टी का कच्चा घड़ा पकता है। जेठ-बैसाख की तपती गर्मी में मिट्टी के घड़े का ठण्डा पानी हलक के नीचे उतरता है तो उससे मिलती तृप्ति सब कुछ भुला देती है। याद ही नहीं आता कि यह ठण्डापन पाने के लिए मिट्टी के घड़े ने कितना ताप झेला। उसी ताप की अनुभूति ने ही घड़े को शीतलता प्रदान करने की सीख दी होगी। महबूब मलिक और कोकिला बेन राणा के परिवार ऐसी ही बातों को साकार कर रहे हैं। 

अहमदाबाद से लगी छाटी सी बस्ती के गिनती के परिवारों में ये दो परिवार भी शामिल हैं। यह छोटी सी बस्ती मजदूर पेशा लोगों की है। कोकिला बेन की तीन बेटियाँ - सोनल, दीपिका और चन्द्रिका। तीनों स्कूली बच्चियाँ। कोकिला बेन का काम ऐसा कि सुबह घर से निकलो और शाम का लौटो। बड़ा संकट। काम पर जाए तो घर पर बच्चियाँ अकेली। काम पर न जाए तो अपना और बच्चियों का पालन-पोषण कैसे हो? 

बड़ी झिझक और संकोच सहित कोकिला बेन ने पड़ौसी महबूब भाई से मदद चाही। महबूब भाई ने खुशी-खुशी तीनों बच्चियों की जिम्मेदारी कबूल की। कोकिला बेन की बेटियाँ अब मलिक परिवार की बच्चियाँ बन गईं। तीनों को भोजन कराना, स्कूल भेजना, स्कूल से लौटने पर उनके बस्ते सम्हालना, उनका होम वर्क कराना सब कुछ मलिक परिवार ने अपने जिम्मे ले लिया। जिस चिन्ता और भावुकता से मलिक परिवार ने अपनी जिम्मेदारी निभाई उसे देख-देख ‘ऊपरवाला’ निहाल हुए जा रहा था।

वक्त अपनी चाल चलता रहा और कोकिला बेन, उनकी तीनों बेटियाँ, मलिक परिवार वक्त की चाल से बेखबर अपना-अपना काम करते रहे। दरअसल वक्त ने इनमें से किसी को भी इतना वक्त नहीं दिया कि ये वक्त की ओर देख सकें। बेटियाँ जब प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं को पार कर उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में दाखिल हुईं तो अचानक ही कोकिला बेन को वक्त का भान हुआ। उन्होंने अंगुलियों पर गिनती शुरु की तो लगा अंगुलियों की पोरें कम पड़ जाएँगी। यह अनुभूति होते ही कोकिला बेन की आँखें बहने लगीं। उसी शाम उन्होंने महबूब भाई से कहा - ‘महबूब भाई! मेरी बेटियों की जैसी देखभाल आप सबने की है वैसी तो इनका सगा मामा भी नहीं कर पाता। आपके मुझ पर बड़े उपकार हैं। आपका कर्जा मैं इस जनम में तो नहीं चुका सकती। अगला जनम किसने देखा? मेरी एक अर्जी और कबूल कर लो।’ महबूब भाई भावाकुल दशा में थे। बोले - ‘कैसी बातें करती हो कोकिला बेन! बच्चे तो बच्चे होते हैं। क्या आपके और क्या मेरे! यह तो मेरी खुशनसीबी रही कि एक नेक काम के लिए आपने मुझे मौका दिया और खुदा ने मुझे जरिया बनाया। और आपने यह क्या अर्जी-अर्जी लगा रखी है? आप तो हुकुम करो बेन!’ बहती आँखों को रोकने की कोई कोशिश कोकिला बेन ने नहीं की। भर्राए स्वरों में बोली - ‘बिना किसी रिश्ते के जिम्मेदारी निभाते चले आ रहे हो। आज महरबानी कर दो और मेरे राखी-बन्ध भाई बन जाओ।’ कोकिला बेन का यह कहना हुआ नहीं कि महबूब भाई मानो तीनों बच्चियों से छोटे बच्चे बन कर बिलख पड़े। उनसे बोला नहीं गया। हिचकियाँ लेतेे-लेते ही अपना दाहिना हाथ बढ़ा दिया। और बिना महूरत वाले उस पल में एक रश्तिा बन गया।

वह दिन और आज का दिन। सूत के कच्चे धागे ने दोनों परिवारों को ऐसा बाँधा कि 2002 की नफरत और नृशसंता शर्मिन्दा होकर उल्टे पाँवों लौट गई। सारे त्यौहार दोनों परिवार मिल कर मनाते हैं। ईद की सिवैयों के लिए केवड़े का सत् कोकिला बेन लाती हैं। होली की पापड़ियाँ महबूब भाई के यहाँ से बन कर आती हैं और मुहर्रम का सोग राणा परिवार मनाता है। 

कोकिला बेन की सबसे बड़ी बेटी सोनल के विवाह में महबूब भाई ने मामा का नेगचार पूरा किया। कोकिला बेन नानी बन गई हैं। दोनों परिवार जिन्दगी तो अपनी-अपनी जी रहे हैं लेकिन एक दूसरे की चिन्ता करते हुए और एक दूसरे को धन्यवाद देते हुए। 

एक ने जरूरत में मदद पाने के लिए दूसरे की ओर देखा। दूसरे ने पूरी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाया। न जरूरत का कोई धर्म होता है न ही फर्ज का। यह मनुष्यता का अदृष्य धागा ही था जिसने दो परिवारों को बाँध दिया और बाँधे हुए है।
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चुप रहने की बारी अब हमारी है

मेरा विवाह,1976 में, 29 बरस की उम्र में हुआ। मैं, विवाह न करने पर अड़ा हुआ था।उस काल खण्ड के लोक पैमानों के अनुसार मैं आधा बूढ़ा हो चुका था। तब बापू दादा (स्व. बापूलालजी जैन) ने कहा था - ‘तू शादी कर या मत कर। लेकिन याद रखना - काँकर पाथर जो चुगे, उन्हें सतावे काम। घी-शक्कर जो खात हैं, उनकी राखे राम।’ याने, जब अन्न कणों के भ्रम में कंकर-पत्थर चुग जानेवाले पंछियों में भी काम भाव होता है तो स्वादिष्ट, पुष्ट भोजन करनेवाले मनुष्य को तो भगवान ही काम भाव से बचा सकता है। बापू दादा के मुँह से समूचा ‘लोक’ मुझे एक अविराम चैतन्य सत्य का साक्षात्कार करा रहा था।

दो घटनाएँ याद आ रही हैं। पहली अटलजी से जुड़ी है जो लगभग सर्वज्ञात है। अटलजी आजीवन अविवाहित रहे। एक बार किसी ने उन्हें ब्रह्मचारी कह दिया। अटलजी ने उसे सुधारते हुए सस्मित कहा कि वे ब्रह्मचारी नहीं, अविवाहित हैं। छुटपुट राजनीतिक कटाक्षों को छोड़ दें तो सबने अटलजी की इस आत्मस्वीकृती की सराहना ही की थी। उनके यौन विचलन को सहज मान कर ही सराहना की होगी और आश्चर्य नहीं कि सराहना करते समय खुद को अटलजी की जगह देखा हो। दूसरी घटना सम्भवतः 1961 की है। मैं नवमी कक्षा में था। दादा की वजह से देश के कई अखबार डाक से आते थे। उन्हीं में से किसी एक में यह पढ़ी थी। किसी नगर के बड़े, वयोवृद्ध साहित्यकार का नागरिक अभिनन्दन हुआ था। वे अपने अभिनन्दन के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं थे। लेकिन लोग नहीं माने। वे साहित्यकार सर्वथा अनिच्छापूर्वक, लगभग जबरन आयोजन में उपस्थित हुए। उद्बोधन के लिए माइक के सामने खड़े होते ही धार-धार रोने लगे। रोते-रोते ही उन्होंने कहा कि वे नागरिक अभिनन्दन के नहीं, कुम्भी पाक नरक का दण्ड पाने के अपराधी हैं। उन्होंने  माँ समान भाभी के साथ नारकीय दुष्कृत्य किया था। उनका यह कहना हुआ कि लोगों ने उनके जिन्दाबाद के नारे लगाने शुरु कर दिए और कार्यक्रम समापन पर उन्हें अपने कन्धों पर बैठाकर घर पहुँचाया। 

एक कवि सम्मेलन में यह परिहास सुना था। गाँव में आयोजित नसबन्दी शिविर में पहुँचा एक दम्पत्ति झगड़ रहा था। दोनों अपनी-अपनी नसबन्दी की जिद कर रहे थे। डॉक्टर को अच्छा तो लगा लेकिन उसे महिला की जिद पर आश्चर्य हुआ। उसने महिला को समझाया कि पुरुष सामान्यतः नसबन्दी के लिए तैयार नहीं होते। तू भाग्यशाली है कि तेरा पति खुद तैयार है। महिला ने कहा - ‘डॉक्टर सा’ब! आप मरद हो। नहीं समझोगे। मेरे दो जेठ और तीन देवर हैं। मैं किस-किसकी नसबन्दी कराऊँगी?’ कपोल-कथा समाप्त होते ही स्त्रियों समेत समूचा जनसमुदाय ठहाके मारता हुआ तालियाँ बजा रहा था। 

होली के अनेक भाष्य सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। एक भाष्य में इसे हमारी कुण्ठाओं के प्रकटीकरण का ‘सेफ्टी वाल्व’ भी कहा जाता है। साल में एक बार खुले आम गालियाँ देकर हम अपनी कुण्ठाओं से मुक्ति पा लेते हैं। हमने कहा भले ही न हो, कभी न कभी सुना जरूर होगा और सुनकर खूब हँसे भी होंगे - जेठ ने बहू से कहा ‘बहू! याद रखना। साल में एक महीना जेठ का भी होता है।’ 

दो दिन पहले ही, कौन बनेगा करोड़पति का एक वीडियो अंश देखा। हॉट सीट पर बैठी महिला, अपने चहेते अभिनेताओं के नाम बता रही थीं जो उनके सपने में आते हैं। महिला का पति भी श्रोताओं में बैठा था। अमिताभ ने पूछा - ‘आपके पति देवता सपने में नहीं आते?’ महिला ने कहा - ‘नहीं आते।’ अमिताभ ने कहा इसका मतलब हुआ कि वे अपने पति को नहीं चाहतीं। महिला का जवाब था - ‘आप (यहाँ बैठी) हर किसी (स्त्री) से पूछो कि किसके सपने में पतिदेव आता है।’ जवाब तालियों और ठहाकों में डूब गया। हँसनेवालों में उसका पति भी था।

अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी की आत्मकथा ‘एन आर्डिनरी लाइफ-ए मेमॉयर’ इतनी विवादास्पद हो गई कि उन्हें इसकी सारी प्रतियाँ बाजार से वापस लेनी पड़ी। इसमें नवाज ने तीन विवाहित महिलाओं से अपने अन्तरंग सम्बन्धों का नामजद उल्लेख किया था। तीनों महिलाओं ने आपत्ति ली। मामल शायद कोर्ट तक गया। 

ये सारी बातें मैंने सोद्देश्य कही हैं। इनके बहाने मैं कुछ जाने-पहचाने निष्कर्ष दुहराना चाह रहा हूँ। पहला - प्राणी मात्र में काम भावना प्रति पल बनी रहती है। दूसरा - कोई भी मनुष्य, किसी भी विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित हो सकता है। तीसरा - पुरुष प्रधान हमारे समाज में पुरुष को यौनिक स्खलन की छूट, अधिकार भाव से मिली हुई है। चौथा - स्त्री या तो सम्पत्ति है, या वस्तु (क्या चीज है! क्या माल है!) है जो भोग किए जाने के लिए ही बनी है। वह स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं है। उसका अपना कोई अस्तित्व, अपनी कोई इच्छा नहीं है। अपनी यौनेच्छापूर्ति के लिए पुरुष को उससे पूछने, उसकी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। पाँचवाँ - अपने दुराचार की स्वीकृती पुरुष को न केवल सराहना दिलाती है बल्कि उसे बड़ा और महान् भी बनाती है। छठवाँ - स्त्री के लिए योनि शुचिता अनिवार्य, अपरिहार्य है और इस शुचिता की रक्षा भी उसी की जिम्मेदारी है। कोई पुरुष यदि उसे भंग करता है तो यह स्त्री का ही अपराध होगा और उसका दण्ड उसे ही भोगना होगा। देवता, कपटपूर्वक किसी पतिव्रता का शील भंग करे तो भी पत्थर बनने का दण्ड तो शीलवन्ती, पतिव्रता को ही भुगतना पड़ेगा। 

हम सब पुरुष अपनी जवानी के दिनों को, कॉलेज के जमाने को याद करें। कोर्स के बाहर हम किस विषय पर सर्वाधिक बातें करते थे? मित्र मण्डली में हम सब खुद को ‘कामदेव’ और ‘औरतखोर’ (लेडी किलर) साबित करने की प्रतियोगिता में पहला स्थान पाने की कोशिशें नहीं करते थे? कॉलेज की एक भी लड़की से कभी भी बात नहीं की लेकिन यह जताने में कि कौन-कौन लड़की हमारे लिए मरी जा रही है, शेखचिल्ली के खानदान के आदिपुरुष नहीं बन जाते थे? और, ऐसी बातें अब भी नहीं कर रहे? बुड्ढे बन्दर गुलाटियाँ मारना भूल गए? मौका मिल जाए तो अब भी नहीं मारेंगे?

हाँ। मैं ‘मी टू’ के सन्दर्भ में ही यह सब कह रहा हूँ। ‘तब क्यों नहीं बोली?’ पूछनेवाले, पूछने से पहले भली प्रकार जानते हैं कि ‘वो’ तब क्यों नहीं बोली। तब मुझे-आपको ‘सब कुछ’ करने की छूट, सुविधा और विशेषाधिकार हासिल थे लेकिन ‘उसे’ तो अपनी माँ के सामने भी बोलने की सुविधा नहीं थी। कोई बोली भी तो माँ ने ही उसके मुँह पर हाथ रख दिया - ‘आज तो कह दिया। अब कभी मत कहना।’ आज वह बोल पाई है तो केवल इसलिए कि अपनी जिन्दगी जीने के लिए आज वह ‘आपकी-हमारी’ मोहताज नहीं। और इसलिए बोल पाई कि अब उससे अपनी आत्मा का यह बोझ नहीं सहा जा रहा। वह इसलिए भी अब बोली कि कहीं न कहीं उसे भरोसा हो पाया है कि उसकी कही बात, सुनी भी जाएगी और सच भी मानी जाएगी।

अपने चरित्रवान होने की दाम्भिक दुहाइयाँ तो दीजिए ही मत। हम सब जानते हैं कि हम सब (जी हाँ, हम सब) चरित्रहीन होने को उतावले बैठे हुए हैं। बस, वे ही चरित्रवान बने हुए हैं या कि बनने को मजबूर हैं जिन्हें या तो मौके नहीं मिले या फिर मौके मिले तो हिम्मत नहीं कर पाए। और हाँ! अपवादों की बात तो कीजिए ही नहीं। अपवाद अन्ततः सामान्य नियमों की ही पुष्टि करते हैं।

थोड़े कहे को बहुत समझिएगा। चुप रहने की बारी अब हमारी है। चुप रहिए। वर्ना, काँदे के छिलके उतरते जाएँगे और फजीहत की दुर्गन्ध आसमान पर छा जाएगी। कहीं के नहीं रह जाऍंगे।
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'सुबह सवेरे', भोपाल, 18 अक्‍टूबर 2018




संस्कृति और परम्पराओं की सदानीरा गुप्त सरस्वती

सावन के भरे-भरे, अपनी सम्पूर्णता से फट कर धरती को लील जाने को उतावले बादल की तरह वे आए और मानो अपने शरीर और आत्मा की पूरी ताकत लगा कर बोले - ‘मैं अकेला रो नहीं पा रहा हूँ। मुझे अपने पास बैठ कर रो लेने दें।’ और मानो प्रलयकारी उद्वेलन कर रही अथाह जलराशि ने सारे तटबन्ध तोड़ दिए। मैं कुछ कहूँ, कुछ पूछूँ, उससे पहले ही, खड़े-खड़े ही फफक-फफक कर रोने लगे। उन्हें बैठाने के लिए मैं उठा तो, उसी तरह रोते-रोते, मुझे बाहों में भींच लिया। अनिष्ट की आशंका से मेरे होश उड़ गए थे। मेरे दोनों जबड़े भिंच गए। जबान तालू से चिपक गई। मैं बोल नहीं पा रहा था। लगा, मैं मूर्च्छित हो जाऊँगा। खुद को गिरने से बचाने के लिए मैंने उन्हें जकड़ लिया। वे मुझसे सहारा लेने आए थे लेकिन मेरा सहारा बने हुए थे। नहीं बता सकता कि कितनी देर हम इस दशा में खड़े रहे।

वे उद्वेगमुक्त हुए तब तक मैं भी तन्द्रा उबरा। ताँबे की तरह तपते उनके चेहरे पर आँसू ठहर नहीं पा रहे थे। मेरे बनियान का दाहीने कन्धेवाला हिस्सा तर-ब-तर होकर पीठ को भीगो रहा था। उन्होंने मुझे छोड़ा और मैंने उन्हें। मेरी ओर देखे बिना ही वे बोले - ‘घबराने या डरने की कोई बात नहीं है। लेकिन अभी-अभी मेरे साथ जो हुआ, उसने मुझे बिखेर दिया। अकेले रह पाना मुश्किल हो गया। इसलिए, जैसा था, वैसा ही चला आया।’ तब मैंने देखा, वे नंगे पाँव ही आए थे। तब भी मेरे बोल नहीं फूटे। अपने दोनों हाथ मेरे कन्धों पर रख, मुझे लगभग धकेलते हुए बोले - ‘बैठिए।’ मैं मन्त्रबिद्ध दशा में बैठ गया। उन्होंने मुझे मौका ही नहीं दिया। खुद ही पूरी बात बता गए।

उनके पोते के ब्याह के बाद यह पहली नवरात्रि थी। अन्तिम दिन, नवमी को उनकी कुलदेवी की पूजा होती है। पोता और बहू कोई ढाई सौ किलो मीटर दूर नौकरी पर हैं। श्राद्ध पक्ष समाप्त होता उससे पहले ही उन्होंने दोनों से खरी-पक्की कर ली थी। वे तो चाहते थे कि पोता और बहू अष्ठमी को ही उनके पास पहुँच जाते। बहू को तो छुट्टी की कोई समस्या नहीं थी लेकिन पोता नौकरी में तनिक महत्वपूर्ण स्थिति में था। उसे थोड़ी कठिनाई आ रही थी। उसने पूरी कोशिश भी की। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा था। तय हुआ कि दोनों ‘लाड़ा-लाड़ी’ नवमी की सुबह नौ बजे तक आ ही जाएँगे। उनकी खुशी पूरे मुहल्ले में बही जा रही थी। उनकी दशा देख-देख उनकी पत्नी हँसे जा रही थी - ‘बावले हो गए हैं ये तो!’ पोते की पसन्द तो उन्हें खूब मालूम थी, बहू की पसन्द के बारे में पहले पोते से, फिर खुद बहू से और बाद में बहू की माँ से भी पूछताछ कर ली। बस! केवल एक दिन बाद, परसों ही, नई कुल-लक्ष्मी जोड़े से, पहली बार अपने परिवार की कुलदेवी की पूजा करेगी। इस कल्पना ने उन्हें बहू से भी छोटा बना दिया था। तैयारियों के लिए वे किसी मृग छौने की तरह कुलाँचे भर रहे थे। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि ऊपरवाले ने कुछ और ही तय कर लिया है।

शाम कहिए या रात, कोई साढ़े सात बजे पोते का फोन आया। उसकी आवाज से साफ लग रहा था, वह झुंझलाया हुआ है - ‘दादाजी! सब गड़बड़ हो गया है। अभी-अभी कम्पनी के हेड ऑफिस से मेल आया है। दीवाली से पहले की सारी छुट्टियाँ केन्सल हो गई हैं। केवल मेरी नहीं। हम सबकी। हम सब गुस्से में हैं और लोकल हेड से झगड़ रहे हैं। लेकिन उसकी हालत तो हमसे भी ज्यादा खराब है। हम तो उससे कह रहे हैं लेकिन वो किससे कहे? उसे तो हमारी और ऊपरवालों की, सबकी सुननी है। इसलिए दादाजी! मैं तो नहीं आ सकूँगा। हाँ! आपकी लाड़ी जरूर आ जाएगी।’ पोते की बात पूरी होते-होते वे मानो निश्चेतन हो गए-किसी सूखे ठूँठ की तरह। इस तरह बोले मानो कोई और उनसे कहलवा रहा हो - ‘ठीक है लाला! मैं तुम्हारी दादी से बात कराता हूँ।’ लेकिन पत्नी से कहने की जरूरत ही नहीं हुई। वे पास ही खड़ी थीं। झुंझलाहट में पोता इतनी जोर से बोल रहा था कि दादी को सब कुछ बिना कोशिश के ही सुनाई दे गया। दादी की दशा तो और ज्यादा खराब थी। मरे हाथों से फोन लिया और मानो सबकी मुश्किल आसान कर रही हों, कुछ इस तरह से बोलीं - ‘ठीक है लाला! प्राइवेट कम्पनियों की नौकरियाँ तो ऐसी ही होती हैं। जब छुट्टी मिले तभी त्यौहार। बहू को मत भेजना। पूजा तो तुम दोनों से जोड़े से ही होनी थी। अकेली आकर क्या करेगी? उसे वहीं रहने देना। अगले बरस देखेंगे। तुम दोनों हिलमिल कर, मजे से दशहरा मनाना। रावण दहन देखने जाना और लौट कर फोन करना।’ 

उधर दादी ने मोबाइल बन्द किया और इधर दादाजी की छाती मानो अब फटी कि तब फटी। कुछ भी सूझ-समझ नहीं पड़ी और मेरे पास आ गए। 

रात के नौ बजने को हैं। गली सुनसान हो गई है। श्रीमतीजी पड़ौस में, देवी-भजन में गई हैं। घर में सन्नाटा है। हम दोनों एक दूसरे की धड़कनें सुन रहे हैं। मैं अब सामान्य हो, उन्हें ढाढस बँधाने की कोशिश कर रहा हूँ - ‘हो जाता है कभी-कभी ऐसा। बच्चों का तो कोई दोष नहीं। वे तो आना चाहते थे। लेकिन मजबूरी है। यही मान लें कि ईश्वर यही चाहता था और ईश्वर बुरा तो कभी नहीं करता! इसमें भी उसने सबका कुछ भला ही सोचा होगा।’ मन के भारीपन ने कमरे पर भी कब्जा कर लिया था। मैंने परिहास किया - ‘वैसे भी उन दोनों के हिसाब से अच्छा ही हुआ। यहाँ आते तो आप दोनों बूढ़ों के बीच फँस जाते। बूढ़ों के साथ दशहरे की रेलमपेल और भीड़-भाड़ का मजा नहीं ले पाते। वहाँ दोनों पंछियों की तरह फुदकते-चहकते हुए मेले का मजा लेंगे।’ सुनकर वे मुस्कुरा दिए। बोले - ‘समझा रहे हैं मुझे? चलिए! मैं समझ गया। आपकी बात मान ली।’ फिर रुक कर, लम्बी साँस लेकर बोले - ‘लेकिन विष्णुजी! हम कहाँ आ गए हैं? अपने बच्चों को ऊँची-ऊँची पढ़ाई करवा कर हमने इनका नुकसान तो नहीं कर दिया? और केवल उनका ही क्यों? हमने अपन सबका नुकसान नहीं कर दिया? ठीक है कि बच्चों की तनख्वाहें अच्छी हैं। अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं। लेकिन इसकी कीमत कुछ ज्यादा ही नहीं चुका रहे? अब देखिए! बेटा बेंगलोर में है। आ नहीं सकता। लेकिन लाला? ये तो ढाई सौ किलो मीटर है दूर है! लेकिन ये ढाई सौ किलो मीटर भी बेंगलोर के बराबर हो गए! सोचा था, इस बच्ची को कुलदेवी के बारे में कुछ मालूम पड़ेगा। अपने परिवार की परम्परा के बारे में, अपनी संस्कृति के बारे में कुछ जानेगी। इसके मायके में अष्ठमी पूजन होती है और हमारे यहाँ नवमी। दोनों कुलों के नैवेद्य अलग-अलग हैं। इस अन्तर को  जानेगी, समझेगी। शादी के बाद अपनी इस पहली कुलदेवी-पूजा को आजीवन याद रखेगी। लेकिन यह सब हमारे हाथों से छिन गया! अब देखिए ना! त्यौहार है और हम तीन जगह बिखरे हुए हैं। हर पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को परम्पराएँ इसी तरह तो सौंपती हैं! संस्कृतियाँ इसी तरह तो अनवरत, अविरल प्रवाहमान होती हैं! यदि ऐसा ही होता रहा तो हमारी अगली पीढ़ियाँ तो खाली हाथ लिए बैठी रह जाएँगी? ऐसा ही चलता रहा तो कहीं ऊँची तनख्वाहों के पेकेज ही हमारी परम्परा तो नहीं बन जाएँगे? हम अपनी जिस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और गर्वीली परम्पराओं की दुहाई देते हैं वह सब हमारे सामने ही, हमारे हाथों ही तो नष्ट नहीं हो जाएँगी?’ 

मैं उलझन में था। उनकी बात मानने को जी नहीं कर रहा था लेकिन जो कुछ उनके साथ अभी-अभी घटा था उससे भी तो आँखें नहीं फेरी जा सकती थीं। किन्तु मेरे आशावाद ने मेरा हाथ थामा। मैंने कहा-“संस्कृति और परम्पराएँ तो सदानीरा गुप्त सरस्वती की तरह निरन्तर प्रवाहमान रहती हैं। मेरा मन कहता, इस बरस न आ पाने को वह एक अवसर की तरह लेगी। उसका फोन भाभीजी के पास आता ही होगा। वह सारी जानकारी लेकर अपनी गृहस्थी में, अपनी कुलदेवी का पहला पूजन कर ही लेगी। संस्कृतियाँ और परम्पराएँ तो ‘लोक संजीवनी’ से बनती-चलती हैं।” सुनकर मानो उनमें प्राण संचरित हो गए। उछलकर बोले - ‘ओह! भगवान करे वैसा ही हो जैसा आपने कहा।” और मैं उनकी कुछ मनुहार करूँ, उससे पहले ही, उठते हुए बोले - ‘अरे! मैं किस हालत में चला आया? चलता हूँ। श्रीमतीजी परेशान हो रही होंगी।’ और जैसे अस्तव्यस्त आए थे, वैसे ही अलमस्त लौट गए।
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‘नोटा’ की पुकार - मुझे ‘सोटा’ बनाओ

मेरी धारणा है कि भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे मँहगे चुनावों में हैं। नेता चुनाव लड़ता है। जीते या हारे, नतीजों के बाद वह खर्चे की भरपाई और अगले चुनाव की तैयारी के लिए धन संग्रहण में जुट जाता है। वह और कोई काम करे, न करे, धन संग्रहण करता रहता है। कह सकते हैं कि धन संग्रहण नेता का मुख्य काम है। इसीलिए भ्रष्टाचार ही आज हमारे नेताओं की मुख्य पहचान बन कर रह गया है। कोई भी नेता अकेला धन संग्रहण नहीं कर पाता। यदि वह सत्ता में है तो सरकारी  अधिकारी/कर्मचारी उसका सबसे बड़ा औजार होते हैं। हम अधिकारियों/कर्मचारियों को भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के लिए कोसते हैं। लेकिन तनिक ध्यान से समग्र स्थितियों का विश्लेषण करेंगे तो पाएँगे कि इसके मूल में अन्ततः नेता ही होता है जो चुनावों के लिए धन संग्रह करता है। इसीलिए प्रत्येक नेता, किसी अधिकारी/कर्मचारी के भ्रष्टाचार पर गर्जना के सिवाय कभी, कुछ नहीं कर पाता। भ्रष्ट नेता के पास वह नैतिक आत्म-बल  नहीं होता कि वह किसी को भ्रष्टाचार के लिए दण्डित कर सके। ऐसे में हमारे चुनाव पूँजीपतियों, नेताओं और अधिकारियों/कर्मचारियों के ‘बँधुआ मजदूर’ बन कर रह गए प्रतीत होते हैं। आज कोई ईमानदार, भला आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। उम्मीदवारी तय करते समय पार्टियाँ ‘जीतने की सम्भावना’ को एक मात्र पैमाना बनाती हैं और इस पैमाने पर कोई ईमानदार, भला, मैदानी कार्यकर्ता कभी भी खरा नहीं उतरता। अन्ततः कोई धन-बली, बाहु-बली ही हमारे सामने पेश किया जाता है।

चुनावों को इन जंजीरों से कैसे मुक्त कराया जाए? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय सरकार को समय-समय पर चुनाव सुधारों के लिए कहते रहते हैं। लेकिन चूँकि ये सारे सुझाव नेताओं की चुनावी सम्भावनाओं पर कुठाराघात करते हैं इसलिए वे (याने कि सरकार) इन पर ध्यान-कान ही नहीं देते। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी ही सरकार से आग्रह किया है संसद को अपराधियों से मुक्त कराने की दिशा में प्रभावी कदम उठाए। लेकिन जिस संसद में तीस प्रतिशत लोग ‘अपराध-दागी’ हों वे भला (संसद में प्रवेश के) अपने रास्ते क्यों बन्द करेंगे? 

ऐसे में मुझे ‘नोटा’ अवतार की तरह नजर आता है। मुमकिन है, मेरा सोचना ‘अतिआशावाद’ हो। लेकिन कोई भी व्यवस्था/प्रणाली सम्पूर्ण निर्दोष (जीरो डिफेक्ट) नहीं होती। ऐसे में न्यूनतम दोष (मिनिमम डिफेक्ट) वाली व्यवस्था/प्रणाली अपनाई जानी चाहिए। मुझे लगता है, ‘नोटा’ हमें यह व्यवस्था/प्रणाली देने में मददगार हो सकता है। 

अपने मौजूदा स्वरूप में ‘नोटा’, उम्मीदवारों के प्रति हमारी निराशा, उनके प्रति हमारा अस्वीकार तो प्रकट करता है किन्तु किसी एक को जीतने से रोक नहीं सकता। एक लाख मतदाताओं में से 99,900 मतदाता ‘नोटा’ का बटन दबा दें तब भी, शेष 100 में से सर्वाधिक वोट पानेवाला उम्मीदवार जीत जाएगा। मध्य प्रदेश में, 2013 के विधान सभा चुनावों में 26 उम्मीदवारों की और दिसम्बर 2017-जनवरी 2018 में हुए गुजरात विधान सभा चुनावों में 30 उम्मीदवारों की जीत का अन्तर ‘नोटा’ को मिले वोटों से कम था। जाहिर है, आज का ‘नोटा’ हमारी नाराजी तो जताता है किन्तु जिसे हम खारिज करना चाह रहे हैं उसे विधायी सदन में जाने से रोक नहीं पाता।

‘सपाक्स’ ने दो दिन पहले ‘सपाक्स समाज दल’ के नाम खुद को राजनीतिक दल में बदलने की घोषणा की है। इससे पहले तक ‘सपाक्स’ के कार्यकर्ता ‘नोटा का सोटा’ का डर दिखा रहे थे। दोनों प्रमुख पार्टियाँ भयभीत भी थीं। किन्तु वे निश्चिन्त भी थीं कि ‘नोटा’ केवल ‘नोटा’ ही रहेगा, ‘सोटा’ नहीं बन पाएगा। वह किसी न किसी को जीतने से तो रोक नहीं पाएगा। सोटा याने लट्ठ, याने मारक/घातक, याने परिणामदायी। लेकिन आज का ‘नोटा’ मारक या घातक, प्रभावी या कि जन-मनोनुकूल और इससे आगे बढ़कर कहूँ तो जिस मकसद से यह लागू किया था उसके अनुकूल परिणामदायी नहीं है। 

इसलिए ‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदला जाना चाहिए। ‘नोटा’ को एक उम्मीदवार की हैसियत दी जानी चाहिए। तब ही यह इसका मकसद पूरा कर सकेगा। उसके बिना यह एक आत्मवंचना के झुनझुने से अधिक कुछ नहीं है। 

‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदलने के लिए इसे उम्मीदवार की हैसियत दी जानी चाहिए। यदि नोटा जीत जाए तो वहाँ फिर से चुनाव कराया जाए। इस चुनाव में वे लोग उम्मीदवार नहीं हो सकेंगे जो ‘नोटा’ से परास्त हुए थे क्योंकि मतदाता तो उन्हें पहले ही खारिज कर चुके हैं। यह प्रावधान चुनावी विसंगतियों के लिए ‘मारक’ साबित होगा और राजनीतिक दल खुद को दुरुस्त करने के लिए विवश होंगेे।

उपरोक्त प्रावधान हो जाए तो इसके चमत्कारी नतीजे मिलेंगे। मेरे कुछ आशावादी अनुमान इस तरह हैं।

पार्टी कार्यकर्ताओं/समर्थकों को छाताधारी उम्मीदवारों से मुक्ति मिलेगी। देश में आज भी कई लोक सभा, विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र ऐसे मिल जाएँगे जहाँ पहले चुनाव से लेकर आज तक, उस निर्वाचन क्षेत्र से बाहर का आदमी चुनाव जीत रहा है। पार्टी लाइन या पार्टी अनुशासन के नाम पर कार्यकर्ता, बुझे मन से, मन मारकर बाहरी उम्मीदवार को विजयी बनाते हैं। ‘नोटा’ के ‘सोटा’ बन जाने के बाद कार्यकर्ता अपने नेताओं को ‘नोटा’ का भय दिखाकर बाहरी उम्मीदवार को रोक सकेंगे। तब वे कह सकेंगे कि ऐसा करके वे किसी विरोधी को विधायी सदन में नहीं भेज रहे हैं क्योंकि ‘नोटा’ के जीतने पर सब उम्मीदवार खारिज हो जाएँगे। तब पार्टी को स्थानीय उम्मीदवार तलाशना पड़ेगा। तब, बरसों से पार्टी के लिए जाजम बिछानेवाले, दरियाँ झटकनेवाले कार्यकर्ताओं में से किसी को मौका मिल सकेगा। तब लोकतन्त्र की भवनानुरूप ऐसा सच्चा और वास्तविक, स्थानीय नेतृत्व सामने आएगा जिसे अपने क्षेत्र की समस्याओं की न केवल जानकारी होगी बल्कि उन्हें हल करने में भी उसकी दिलचस्पी होगी। ऐसे उम्मीदवार के लिए तमाम कार्यकर्ता अतिरिक्त उत्साह से काम करेंगे जिसका परोक्ष प्रभाव चुनावी खर्च पर भी पड़ेगा ही पड़ेगा।

इसी नजरिये से देखेंगे तो पाएँगे कि राजनीति में परिवारवाद, भ्रष्ट-बेईमान-दागी-दुराचारियों के उम्मीदवार बनने, पार्टियों में विद्रोह, गुटबाजी, भीतरघात की सम्भावनाएँ शून्यवत होंगी। सबसे अच्छी बात होगी कि पार्टियों में आन्तरिक लोकतन्त्र पनपेगा, विकसित होगा। आन्तरिक लोकतन्त्र किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी ताकत होती है। पार्टियों का आन्तरिक लोकतन्त्र किसी जमाने में हमारी विशेषता और पहचान हुआ करती थी। काँग्रेस की ‘युवा तुर्क तिकड़ी’ चन्द्रशेखर, कृष्णकान्त और मोहन धारिया पार्टी के अन्दर जिस तरह वैचारिक बहस करती थी उससे नेतृत्व को असुविधा होती थी। काँग्रेस के इतिहास में चन्द्रशेखर ऐसे पहले और एकमात्र व्यक्ति बने हुए हैं जिन्होंने इन्दिराजी की इच्छा के विरुद्ध अ. भा. काँग्रेस कमेटी के सदस्य का चुनाव लड़ा और जीता।  इन्दिराजी यह पराजय स्वीकार नहीं कर पाईं और पार्टी का आन्तरिक लोकतन्त्र ही खत्म कर दिया। यहीं से काँग्रेस का पराभव प्रारम्भ हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि सत्ता में आने के बाद प्रत्येक पार्टी काँग्रेस हो जाती है। इसीलिए आज किसी भी पार्टी में आन्तरिक लोकतन्त्र नजर नहीं आता। वामपंथी पार्टियाँ अपवाद होने का दावा कर सकती हैं किन्तु अपवाद सदैव ही सामान्यता की ही पुष्टि करते हैं।

‘नोटा’ को यदि उपरोक्तानुसार स्वरूप दे दिया जाए यह ‘लाख दुःखों की एक दवा हो सकता है। तब चुनाव लड़ने के लिए नेताओं को भारी-भरकम चन्दा जुटाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी जिसका अर्थ होगा, भ्रष्टाचार में भरपूर कमी। भ्रष्टाचार तब भी होगा किन्तु तब हमारे नेताओं में भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्रवाई करने का आत्म-बल होगा।

फिर कह रहा हूँ, ‘नोटा’ को लेकर मेरा सोच अतिआशावादी हो सकता है, इसमें कमियाँ हो सकती हैं। किन्तु ‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदलने पर हम ‘न्यूनतम दोष’ वाली दशा में आ सकते हैं।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 04 अक्टूबर 2018



चुनाव सुधारों के पक्ष में आक्रामक वातावरण चाहिए

मेरी यह पोस्ट दैनिक ‘सुबह सवेरे’ भोपाल में दिनांक 20 सितम्बर 2018 को (और रतलाम से प्रकाशित साप्ताहिक ‘उपग्रह में 27 सितम्बर को) छप चुकी थी। किन्तु इसका दूसरा भाग प्रकाशित होने तक के लिए मैंने इसे ब्लॉग पर देने के लिए रोक रखा था। आज, 04 अक्टूबर को इसका दूसरा भाग ‘सुबह सवेरे’ में छप गया है जिसे मैं कल ब्लॉग पर दूँगा। मुझे गा कि दोनों भाग एक के बाद एक देना बेहतर होगा। 

एक अखबारी खबर के मुतािबक एक आयोजन में बोलते हुए भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत ने, चुनाव में काला धन रोकने के लिए मौजूदा कानूनों को अपर्याप्त बताया है। मुमकिन है, मुख्य चुनाव आयुक्त ने और भी कुछ कहा हो लेकिन मुझ जैसे पाठकों तक तो केवल एक ही बात पहुँची कि वे केवल एक ही बात पर चिन्तित थे - चुनाव में काले धन को रोकने के लिए।

चुनाव में बढ़ता काला धन हमारी समस्या है तो जरूर लेकिन यह चिन्ता न तो एकमात्र है न ही आधारभूत। जब तक चुनावों का मौजूदा ‘अत्यधिक खर्चीला’ स्वरूप बना रहेगा तब तक काला धन न केवल अपना डंका बजाता रहा बल्कि इसका दखल बढ़ता ही जाएगा। लिहाजा, चुनावों में काले धन को नियन्त्रित करने से पहले, चुनावों को खर्चीला होने से बचाने पर विचार किया जाना चाहिए और यह काम केवल चुनाव सुधारों से ही सम्भव है। लेकिन यही सबसे कठिन काम भी है। इसलिए कि सुधार करने का अधिकार हमारे सांसदों के पास है और उनमें से शायद ही कोई इनमें विश्वास और रुचि रखता हो। यह स्थिति भारतीय चुनाव आयोग के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन इसे केवल चुनाव आयोग की जिम्मेदारी मानकर छोड़ देना हम सबका, सबसे बड़ा अपराध है - मेरे तईं, राष्ट्रद्रोह के स्तर का अपराध। 

चुनाव आयुक्त आते-जाते रहेंगे। वे सब अपने-अपने हिसाब से कोशिशें करते रहेंगे। वे जिस वर्ग से आते हैं, उसे मँहगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बाबू राज से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें पड़ता है। लेकिन हम ही उदासीन हैं। आयोग की प्रत्येक पहल अन्ततः हम आम लोगों का हित रक्षण ही करती है लेकिन हम ही इससे उदासीन हैं। हम चाहते हैं कि चुनाव आयोग ताकतवर बने लेकिन हम उसे ताकतवर बनाने में दिलचस्पी नहीं रखते। हम भूल जाते हैं कि हम ही चुनाव आयोग की ताकत हैं।

हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार सहित अनेक समस्याओं की जड़ हैं। ये जब तक मँहगे बने रहेंगे, काले धन का दबदबा बना रहेगा। आज पार्टियाँ उम्मीदवारों का चयन योग्यता, शिक्षा, चाल-चरित्र, ईमानदारी जैसे मूलभूत गुणों के आधार पर नहीं, ‘जीतने की सम्भावना’ के अधीन करती हैं। यह ‘सम्भावना’  धन-बल, बाहु-बल से जुटाई जाती है। इसी के चलते देश के विधायी सदन कभी-कभी अपराधियों की शरण स्थली अनुभव होने लगते हैं।

चुनाव सुधारों के लिए चुनाव आयोग प्रति पल प्रयासरत नही संघर्षरत रहता है। टी. एन. शेषन से पहले तक चुनाव आयोग ‘नख दन्त विहीन शेर’ था। शेषन ने इसे नई पहचान और नए तेवर दिए। उसके बाद से ही नेताओं को इससे असुविधा होने लगी। लेकिन गए तीन-चार बरसों में शेषन-पूर्व का समय लौटता नजर आने लगा है। इसके बावजूद चुनाव आयोग समय-समय पर जनोपयोगी और लोकतन्त्र की रक्षा करते हुए महत्वपूर्ण सुझाव देता रहता है। ‘नोटा’ ऐसा ही एक सुझाव था जो वास्तविकता बना। किन्तु आयोग के इन सुझावों को जन समर्थन कभी नहीं मिलता।

अभी-अभी आयोग ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। एक व्यक्ति एक ही स्थान से चुनाव लड़े, दो स्थानों से जीता हुआ व्यक्ति किसी एक स्थान से त्याग-पत्र दे तो वहाँ होनेवाले उप चुनाव का खर्च उससे वसूल किया जाए या, वहाँ दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाए। ये दोनों ही सुझाव ऐसे हैं जिन्हें मंजूर कराने के लिए पूरे देश को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। चुनाव आयोग ने तो यह सुझाव अब दिया है लेकिन मेरे कस्बे के चार्टर्ड इंजीनीयर जयन्त बोहरा कोई बीस बरस पहले ही यह सुझाव दे चुके थे। उनके साथ मिलकर मैंने भी खूब लिखा-पढ़ी की थी। किन्तु कार्रवाई तो दूर रही, मुझे पावती भी नहीं मिली। ‘व्यवस्था’ से जवाब पाना भाग्यशालियों को ही नसीब होता है। लेकिन, त्याग-पत्र देनेवाले से खर्च वसूल करना, मौजूदा व्यवस्था को मजबूत ही करेगा। हमारे नेताओं के पास अकूत धन है। वे आसानी से खर्चा दे देंगे। इसलिए, त्याग-पत्र के बाद वहाँ दूसरे नम्बर पर आए उम्मीदवार को ही विजयी घोषित किया जाना चाहिए। तब नेता को, विधायी सदन में एक विरोधी के बढ़ जाने की चिन्ता होगी। इस व्यवस्था से न केवल उप चुनाव के ताम-झाम और उपक्रम से मुक्ति मिलेगी बल्कि लोकतन्त्र के विचार को मजबूती भी मिलेगी। 

चुनाव आयोग के इन सुझावों को प्रचण्ड जन समर्थन मिलना चाहिए। आज का समीकरण यह बन गया है कि जो नेता के हित में होता है वह नागरिकों के लिए अहितकारी होता है। इसका विलोम समीकरण यही होगा कि जो नेता के प्रतिकूल होगा वह नागरिकों के अनुकूल होगा। चुनाव आयोग के प्रस्तावित सुधार नागरिकों के अत्यधिक अनुकूल हैं। इन्हें प्रचण्ड जन समर्थन मिलना चाहिए।

अजाक्स, अपाक्स, करणी सेना जैसे संगठनों ने, अपने-अपने कारणों से इन दिनों देश में आन्दोलन छेड़ रखा है। राजनीतिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर लोग जगह-जगह नेताओं-मन्त्रियों से सवाल पूछ रहे हैं, काले झण्डे दिखा रहे हैं, टमाटर फेंक रहे हैं। नेता-मन्त्री गूँगे हो गए हैं। उनके बोल नहीं फूट रहे। वे रास्ते बदल रहे हैं। दौरे निरस्त कर रहे हैं। ये तीन संगठन तो उदाहरण मात्र हैं। मेरा कहना है कि देश भर के तमाम सार्वजनिक संगठनों (इनमें मैं लायंस, रोटरी, जेसी जैसे ‘सेवा संगठनों’ को भी शरीक करता हूँ) ने चुनाव आयोग के प्रस्तावित सुधारों के पक्ष में भी ऐसा ही आक्रामक वातावरण बनाना चाहिए। केवल चुनाव सुधार ही हमें मँहगे चुनावों से मुक्ति दिला सकते हैं। 

चुनाव सुधारों में दो सुधार और फौरन शरीक किए जाने चाहिए। पहला, दलबदल करनेवाला अगले छः वर्ष तक किसी दल के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने का पात्र न रहे। वह निर्दलीय चुनाव लड़े और जीत जाए तो किसी दल में शामिल न हो सके।   

दूसरा - चुनावी चन्दे के मामले में मौजूदा सरकार ने, इलेक्टोरेल बॉण्ड की व्यवस्था कर एक पाप किया है। बढ़ती पारदर्शिता के इस समय में यह व्यवस्था काले धन को बढ़ावा देती है। पार्टी के समर्थकों/कार्यकर्ताओं को मालूम होना चाहिए कि उनकी पार्टी किन लोगों से चन्दा ले रही है। इलेक्टोरोल बॉण्ड यह जानकारी छुपाते हैं। यह व्यवस्था फौरन वापस ली जानी चाहिए।

सपाक्स और करणी सेना के आन्दोलन में नोटा का जिक्र खूब हो रहा है - एक धमकी के रूप में तमाम नेता और दल इस धमकी से आतंकित हैं। नोटा का वर्तमान स्वरूप अपर्याप्त और अप्रभावी है। अभी यह असन्तोष प्रकट करने का माध्यम मात्र है। नोटा को एक उम्मीदवार की हैसियत देकर इसे प्रभावी बनाया जाना चाहिए। मेरा तो मानना है कि नोटा को यदि इसके ‘आशय’ (इंटेंशन) के अनुरूप हैसियत दे दी जाए तो हमें शनै-शनै मँहगे चुनावों से ही नहीं, अनेक राजनीतिक समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाएगी जिसकी अन्तिम परिणति भ्रष्टाचार से मुक्ति होगी।

नोटा हमारे ‘लाख दुःखों की एक दवा’ है। यह अलग से स्वतन्त्र आलेख का विषय है। मैं इस पर अवश्य लिखूँगा। शायद अगले सप्ताह ही। लेकिन हम मूल बात को नहीं भूलें - चुनाव आयोग के प्रस्तावित चुनाव सुधारों से हम खुद को जोड़ें, आयोग को ताकत दें। हमने संसदीय प्रणाली अपनाई है। इसलिए चुनाव हमारे लिए अपरिहार्य हैं। हम चुनाव प्रणाली को ऐसी बनाएँ कि आप भी चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा सकें और मैं भी। 

हम सब अपने-अपने नेताओं से कहीं न कहीं असन्तुष्ट, अप्रसन्न और दुःखी हैं। हमारे ये नेता चुनाव आयोग से डरते हैं। गोया, चुनाव आयोग परोक्षतः हमारा (और प्रकारान्तर में लोकतन्त्र का) ही मनोरथ साध रहा है। इसलिए भी हमने चुनाव आयोग को खुलकर, मुक्त-हृदय, मुक्त-कण्ठ, मुक्त-मन, मुक्त-धन सहयोग करना चाहिए। 

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दैनिक ‘सुबह सवेरे’,  भोपाल, 20 सितम्बर 2018