साकार होती एक लोक कथा

प्रायः प्रत्येक अंचल में पाई जानेवाली लोक कथा का ‘वृद्ध पुरुष संस्करण’, (यदि सब कुछ वैसा ही सामान्य बना रहा है जैसा इस क्षण है तो) अपनी पूर्णता के अन्तिम सोपान पर है और मैं इसका हिस्सा हूँ।

इस लोक कथा में किसी एक देश का राजकुमार या राजकुमारी किसी दूसरे देश की अनदेखी राज कुमारी का नख-शिख वर्णन सुनकर या अनदेखे राजकुमार के साहस और शूर-वीरता का बखान सुनकर मोहित हो, उसी से विवाहबद्ध होने का प्रण ले लेता/लेती है। अनेक घटनाओं/प्रसंगों से गुजरती हुई लोक कथा का समापन दोनों के विवाह से होता है।

कुछ ऐसा ही यहाँ हो रहा है। बड़ा अन्तर यह कि इस कथा में न तो कोई राजकुमारी है न ही राजकुमार। दोनों पात्र पुरुष हैं और आधिकारिक रूप से ‘वृद्ध’ हैं - एक 77 वर्ष का और दूसरा 72 वर्ष का।

 मैं ईश्वर चन्द्रजी को नहीं जानता। उन्हें देखा भी नहीं। उनके बारे में कभी-कुछ सुना भी नहीं। मुझे लेकर यही स्थिति ईश्वर चन्द्रजी की भी है। फेस बुक पर ही उनके चित्र देखे और उनकी पोस्टें पढ़ीं। अब यह भी याद नहीं आ रहा कि उनकी ओर कब ध्यानाकर्षित हुआ। एक बार उनकी, आत्म-कथ्य जैसी एक पोस्ट पढ़ी थी जिससे मालूम हुआ कि वे आपातकाल के विरुद्ध अभियान में सक्रिय थे और (शायद) जेल भी गए थे। शायद उनके समाजवादी रुझान ने ही मुझे उनकी ओर आकर्षित किया होगा। लोहिया मुझे शुरु से लुभाते रहे हैं। व्यवस्था के विरुद्ध उनकी तथ्यपूर्ण, धारदार किन्तु शालीन आक्रामता मुझे विस्मित करती रही है। ओंकार शरद लिखित लोहिया की जीवनी मेरे पास बरसों सुरक्षित रही। लेकिन  कोई भरोसेमन्द मिलनेवाला उसे ले उड़ा। बाद में नीमचवाले डूँगरवालजी, जीरनवाले रामचन्द्रजी शर्मा, गाहे-ब-गाहे मन्दसौर-नीमच की यात्राओं पर आते रहे बाबू लाड़ली मोहन निगम (इन्हें मैंने देखा ही देखा है, सामुख्य कभी नहीं हुआ। इनकी बातें खूब सुनीं हैं।), ‘विषपायी’ के नाम से पहचाने जानेवाले बाबू भाई माली, मंगलजी मेहता, कमल जैन आदि-आदि समाजवादी चिन्तकों/विचारकों से लगातार निकट सम्पर्क ने समाजवादियों के प्रति आकर्षण को घना किया। जब समाजवादी आन्दोलन अपने विद्रोही तेवरों के चरम पर था तब से लेकर अब तक मेरी यह धारणा यथावत् बनी हुई है कि समाजवादियों के सत्तासीन होने ने भारतीय लोकतन्त्र की अपूरणीय हानि पहुँचाई है। समाजवादी यदि सत्ता में न जाते तो हमारा लोकतन्त्र आज की बदहाली नहीं भुगतता। ये लोग लोकतन्त्र के सच्चे रक्षक हो सकते थे लकिन सत्ता-सुन्दरी की रति-लिप्सा में स्खलित हो बैठे। सो, ईश्वर चन्द्रजी के समाजवादी रुझान ने ही मुझे उनके प्रति आकृष्ट किया होगा।

उनकी खुद की वाल पर उनकी पोस्टें और दूसरों की वालों पर उनकी टिप्पणियाँ पढ़-पढ़ कर उनकी सटीकता मुझे धीमे-धीमे कायल करने लगी। सूत्रों में बात करती, ‘सतसैया के दोहरे’ की तरह उनकी टिप्पणियाँ ‘बीज में वृक्ष’ की अनुभूति कराती  लगीं। (बाद में मालूम हुआ कि वे भवानीमण्डी रहते हैं। दीर्घानुभवी वकील हैं। कम बोल कर ज्यादा कहने का कमाल कोई वकील ही कर सकता है।) शेर-ओ-शायरी की शकल में उनकी भावनाएँ बड़ी नजाकत से गहरे पैठती लगती हैं। फूलों के सुन्दर चित्र उनके प्रकृति प्रेमी होने का सन्देस देते हैं। 

इसी इक्कीस फरवरी की सुबह तीन बजे नींद खुल गई। मेरे साथ ऐसा सामान्यतः होता नहीं। मैं ‘उन नौ लोगों’ में भी नहीं जिन्हें नींद न आए। लेकिन नींद का क्या है, खुल गई तो खुल गई। नींद खुलने के बाद चैतन्य होने के पहले ही क्षण विचार आया - ‘ईश्वर चन्द्रजी से मिलना चाहिए।’ इस बात को एक महीना होने को आ रहा है लेकिन अब तक समझ नहीं पाया कि यह विचार क्यों आया। विचार आते ही 03ः04 बजे मेसेंजर पर उन्हें सन्देश दिया - 

“यह शायद ब्राह्म मुहूर्त की वेला है। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसङ्ग मन में आया कि यदि कभी भवानीमण्डी आना हुआ और आपसे मिलने को जी चाहे तो किस पते पर पहुँचूँ?

भवानीमण्डी आज तक नहीं गया और दूर-दूर तक कोई कारण नजर नहीं आता भवानीमण्डी आने का।” 

सन्देश देकर मैं अपने काम पर लग गया। दिन भर खूब काम किया। दिन में किए काम का टेबल वर्क निपटाकर, भोजन करते-करते खूब देर हो गई। रात साढ़े ग्यारह बजते-बजते अचानक ईश्वर चन्द्रजी की याद आई। मेसेंजर खोला तो शाम 07ः53 पर आया उनका सन्देश देखा -

“आप ज़रूर पधारें। बहुत खुशी होगी। आपको ‘उपग्रह’ में पढ़ता रहा हूँ। ‘जनसत्ता’ में भी। अब यह अखबार यहाँ नहीं मिलता। मेरा पचपहाड़ में फार्म पर घर है आपको असुविधा नहीं होगी। भवानीमण्डी में वकालत करता हूँ यहाँ भी रामनगर गोटावाला  कॉलोनी में मकान है। बड़े भाई साहब से परिचित था। मेरा  मोबाइल नम्बर ------- है। आप कहें तो कार लेकर भानपुरा आ  सकता हूँ। आग्रह है आप अवश्य पधारें।”

इसके बाद हमारा संवाद शुरु हुआ -

मैं - “अरे! आप इतने समीप के निकले! सुखद आश्चर्य। 
आप भानपुरा क्यों आएँगे? मैं तो रतलाम में हूँ। आऊँगा तो भवानीमण्डी (अब पचपहाड़) ही आऊँगा। मुझे वहाँ कोई काम नहीं है। बस! उस भोर मन में बात आई। बता दी। नहीं जानता कि कब आऊँगा। लेकिन जब भी आऊँगा, अब पूछ/कह कर आऊँगा।”

ईश्वर चन्द्रजी - “मन की बात का ठेका मोदीजी का नहीं है।
कृपया जल्दी प्रोग्राम बना कर सूचित करें। स्टेशन पर स्वागत के लिए उत्सुक हूँ।”

मैं - “यह सब तो अब संस्मरण बनता जा रहा है।

बीमा एजेण्ट हूँ। लेकिन लालची नहीं। जरूरतें सब पूरी हो रही हैं लेकिन धन्धे की प्रकृति अनुमति नहीं दे रही। ‘मार्च-बाधा’ जनवरी से आड़े आ खड़ी है। ‘अन्नदाता’ जैसे कुछ कृपालु इन दिनों मुझे अपने पास ही चाह रहे हैं। जानता हूँ कि मेरे बिना उनका (उनका क्या, किसी का भी) काम नहीं रुकेगा। लेकिन रुकना है।

इसलिए, अभी तो मार्च तक रतलाम में ही। आगे प्रभु इच्छा।”

ईश्वर चन्द्रजी - “जी। समझ सकता हूँ। अप्रैल में पधारें।”

मैं - “प्रभु मुझे जल्दी आपके दरवाजे पर खड़ा करे।”

ईश्वर चन्द्रजी - “तथास्तु। बात यह है कि 78 पार कर रहा हूँ सो चाहता हूँ आप जैसे प्रिय लेखकों से इति के पहले मिल लूँ।

अच्छा लगेगा आपसे मिल कर।”

मैं - “मैं आपके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ - मार्च में 73वाँ शुरु हो जाएगा। रोचक संयोग यह कि जैसा आप सोच रहे हैं, मैं भी ठीक वैसा ही सोचे हुए हूँ। जब भी इन्दौर जाता हूँ, ऐसे ही अपने पसन्ददीदा दो-एक कलमकारों से जरूर मिल आता हूँ।

यह उतावलापन मुझे भी तनिक परेशान करने लगा है। लेकिन यह परेशानी आनन्ददायक है।”

ईश्वर चन्द्रजी - “अब आप समझ गये मेरी उत्सुकता। मुझे गम्भीरता से लेंगें, इस आशा के साथ, शुभरात्रि।”

वह दिन और आज का दिन। एक-एक करके दिन बीतते जा
रहे हैं। मैं अपना काम किए जा रहा हूँ। इस बीच अप्रेल के लिए काम आने शुरु हो गए हैं। पन्द्रह से इक्कीस अप्रेल तक की व्यस्तता अभी से पक्की हो गई है। यह स्थिति देख कर घबराहट हो रही है। मुझे जल्दी से जल्दी पचपहाड़/भवानीमण्डी जाना चाहिए। बिना काम की मुलाकतें जीवनी-शक्ति देती हैं। ऐसी मुलाकातों को लोग नफे-नुकसान से देखते-तौलते हैं, घाटे का सौदा मानते हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। लिख भी चुका हूँ। 

अब मुझे खुद को कसौटी पर कसना है।
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ईश्वर चन्द्रजी के चित्र मैंने फेस बुक से, उनकी वाल से ही लिए हैं। 
एक चित्र पुराना लगता है और दूसरा अभी-अभी का। 

    

‘नागरिक’ को मिल गया नल कनेक्शन


न तो गुस्सा न ही शिकायत। न ही उपहास। बात कोई अनूठी भी नहीं। ऐसा केवल रतलाम में ही नहीं हुआ। सब जगह होता होगा। लिखने का भी कोई मतलब नहीं। लिख कर भी क्या होगा? एक आदमी हो तो सुधारने की कोशिश की जा सकती है। लेकिन व्यवस्था को बदलने की कोशिश करना तो दूर, ऐसी कोशिश करने की सोचना भी निरी मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं। 


अपने रतलाम के एक ‘नागरिक’ को अपने घर के लिए नल कनेक्शन चाहिए था। वह नगर निगम दफ्तर गया। जल विभाग में मिला। सबने भाव खाया। किसी ने भाव नहीं दिया। बार-बार ‘हुजूर! माई बाप!’ किया लेकिन किसी पर कोई असर नहीं। अहसान करते हुए, अकड़कर जवाब दिया - ‘कम से कम तीन सप्ताह लगेंगे और रोड़ कटिंग तथा दूसरे खर्चों का लगभग दस हजार खर्च आएगा।’ ‘नागरिक’ ने कहा कि रकम पर वह सहमत है लेकिन कनेक्शन जल्दी चाहिए। लेकिन तीन सप्ताह से नीचे उतरने को कोई तैयार ही नहीं हुआ।

निराश, रुँआसी मुद्रा में ‘नागरिक’ बाहर आया। नगर निगम की सीढ़ियों पर खड़ा-खड़ा दाढ़ी खुजला रहा था कि एक आदमी सामने आया। बोला - ‘कनेक्शन फटाफट हो जाएगा और रुपये भी चार हजार से अधिक नहीं लगेंगे।’ ‘नागरिक’ को भरोसा नहीं हुआ। उसे ठगी की कई घटनाएँ याद आ गईं। लगा, कोई उसे दस लाख की लॉटरी खुलने की खबर देकर रकम जमा कराने के लिए उससे बैंक खाता नम्बर पूछ कर उसकी रकम हड़पने की कोशिश कर रहा है। उसने अविश्वास से देखा। ‘आदमी’ ने कहा - ‘पहले कनेक्शन करवा लो। पैसे बाद में देना।’ अब ‘नागरिक’ के पास इंकार करने का कोई कारण नहीं था।

‘नागरिक’ के साथ ‘आदमी’ बाजार गया। नल कनेक्शन का सामान खरीदा। अपने एक सहायक के साथ ‘नागरिक’ के घर आया। दिन-दहाड़े, चौड़े-धाले सड़क खोदी, वाटर सप्लाय की मेन लाइन तलाश की और कुछ ही घण्टों में नल कनेक्शन कर दिया। ‘नागरिक’ पूरा भुगतान करने लगा तो ‘आदमी’ बोला - ‘मुझे पाँच सौ और इस हेल्पर को दो सौ दे दो। फिर आगे की बात बताता हूँ।’ ‘नागरिक’ ने आँख मूँदकर कहना माना।

अपनी मजदूरी लेकर ‘आदमी’ ने कहा - ‘अपने मोहल्ले के किसी आदमी से शिकायत करा दो कि तुमने अवैध नल कनेक्शन कर लिया है। शिकायत के दो दिन बाद नगर निगम चले जाना। अवैध नल कनेक्शन लेने का गुनाह कबूल करके कनेक्शन को वैध कराने की अर्जी दे देना। बत्तीस सौ रुपयों में कनेक्शन वैध हो जाएगा।’ ‘नागरिक’ ने अविश्वास से देखा तो ‘आदमी’ ने उसकी पीठ थपथपा कर भरोसा दिलाया।

‘नागरिक’ ने वैसा ही किया जैसा ‘आदमी’ ने बताया था। अपनी शिकायत करवाई और चौथे दिन नगर निगम पहुँच गया। अपना गुनाह कबूल किया। कनेक्शन को वैध कराने की अर्जी लगाई। थोड़ी लिखा-पढ़ी हुई। उससे बत्तीस सौ रुपये माँगे गए। ‘नागरिक’ ने फौरन दे दिए। हाथों-हाथ पूरी रकम की रसीद दे दी गई और उसका नल कनेक्शन वैध हो गया।

किस्सा यहीं खतम हो जाना चाहिए था। लेकिन नहीं हुआ। 

बत्तीस सौ की रसीद घड़ी करके ‘नागरिक’ जेब में रखकर निकलने ही वाला था कि उसे ‘नेक सलाह’ दी गई - ‘एक अर्जी लिख दो कि तुम्हें यह कनेक्शन नहीं चाहिए। सील-ठप्पे लगवा कर अर्जी की पावती लो और  हर महीने के डेड़ सौ रुपये देना भूल जाओ। चैन की नींद सो जाओ।’ ‘नागरिक’ को बात समझ में नहीं आई। सलाहकार ने कहा - ‘अरे! तुम अर्जी दे जाओ। हमें कनेक्शन काटने की फुरसत नहीं। ठाठ से पानी वापरो और जब रकम वसूल करनेवाले आएँ तो अर्जी की, सील-ठप्पेवाली पावती बता देना। कहना कि तुमने तो कनेक्शन कटवा लिया। अब पैसा किस बात का?’

‘नागरिक’ की आँखें फट गई - ‘अरे बाप रे! ऐसा भी होता है?’ लेकिन ‘नागरिक’ बोला - ‘नहीं भैया! मुझे तो नल कनेक्शन चाहिए था। जो खर्चा बताया था उसके चालीस परसेण्ट में ही हो गया। यही बहुत है। पानी की चोरी नहीं करूँगा।’ और इस तरह अपने ‘नागरिक’ को नल कनेक्शन मिल गया। 

जैसे हमारे इस ‘नागरिक’ के दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें।
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कमरे में दुनिया और बाजार में अकेलापन

कल शाम जब उपाध्यायजी से मिलने गया तब तक कल्पना भी नहीं थी कि मैं यह सब लिखूँगा। नहीं, ‘लिखूँगा’ कह कर ठीक नहीं कर रहा। यहाँ ‘लिखना पड़ेगा’ लिखना चाहिए था मैंने। अब दुरुस्त कर लेता हूँ - उपाध्यायजी से मिलने तक कल्पना भी नहीं थी कि यह सब लिखना पड़ेगा।

उपाध्यायजी याने डॉक्टर प्रोफेसर प्रकाश उपाध्याय। मेरे रतलाम की यशस्वी पहचानों में से एक। मृदुभाषी, सुरुचिसम्पन्न उपाध्यायजी जाने-माने साहित्यकार हैं। कबीर पर साधिकार बात करते हैं। मालवी लोक जीवन के गहरे जानकार। एक सरकारी कॉलेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। अच्छे-भले सामाजिक प्राणी हैं। कस्बे की अधिकांश गतिविधियों में उनकी मौजूदगी नजर आती है। घर-गृहस्थी के काम-काज निपटाते हुए यदा-कदा, आते-जाते दीख जाते हैं। जो भी देखता है, मान ही लेता है कि उपाध्यायजी उसे ही देखकर मुस्कुरा रहे हैं। मेरा उनसे नियमित मिलना तो नहीं होता किन्तु उनके बारे में इधर-उधर से जानकारी मिलती रहती है। उनसे मिलने का कोई मौका छोड़ता नहीं। उनसे मिलना और बतियाना सदैव ही सुखकर होता है। जब भी उनसे मिलता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ।

अभी, तीन दिन पहले, शनिवार को सुभाष भाई जैन के यहाँ बैठा था।  ओमजी (उपभोक्ता न्यायालय के नामित
न्यायाधीश) भी बैठे थे। बातों ही बातों में ओमजी ने बताया कि उपाध्यायजी की एंजियोप्लास्टी हुई है। सुनकर अच्छा नहीं लगा। साधु पुरुषों को ऐसी यन्त्रणा झेलनी पड़े, यह सूचना ही अपने आप में यन्त्रणादायी होती है। विश्वास नहीं हुआ। उपाध्यायजी की जिन्दगी सीधी लकीर की तरह है - नियमित, संयमित, अनुशासित। भला उन पर ईश्वर की यह कुदृष्टि क्यों? उसी क्षण तय किया कि जल्दी से जल्दी उपाध्यायजी से मिलना है।

कल, सोमवार की शाम को उनके घर पहुँच गया। पहले फोन कर दिया था। दरवाजा उपाध्यायजी ने ही खोला। बिलकुल सहज, सामान्य। सदैव की तरह ताजादम। चेहरे पर वही मोहिनी मुस्कान। रोग, पीड़ा की छोटी सी खरोंच भी चेहरे पर नहीं। लगा, ओमजी ने गलत जानकारी दे दी या फिर मैंने ही कुछ गलत सुन लिया।

मैं अधीर था। खुद को रोक नहीं पाया। बैठते-बैठते ही पूछ लिया - ‘सच्ची में आपकी एंजियोप्लास्टी हुई है?’ उपाध्यायजी की हँसी बिखर गई। बोले - ‘बैठिए तो! बताता हूँ।’ उसके बाद उपाध्यायजी ने जो कुछ सुनाया, उसी के कारण मुझे यह सब लिखना पड़ा।

उपाध्यायजी ने बताया, मई 2018 की एक शाम वे अपने स्कूटर पर बाजार जा रहे थे। एक नौजवान ने टक्कर मार दी। बाँये कन्धे में फ्रेक्चर हो गया। इलाज शुरु हुआ। उसी दौरान एक रात घबराहट हुई। सीधे सरकारी अस्पताल पहुँचे। वहाँ समाधान नहीं हुआ। एक निजी अस्पताल पहुँचे। वहाँ भी समाधान नहीं हुआ। डॉक्टर सुभेदार साहब के यहाँ पहुँचे। उन्होंने जल्दी से जल्दी इन्दौर जाने की सलाह दी। इन्दौर मेदान्ता में पहुँचे। जाँच का निष्कर्ष निकला - एंजियोप्लास्टी करनी पड़ेगी। दो स्टेण्ट लगाए। कुछ दिनों बाद रतलाम लौट आए। जिन्दगी पहले ही संयमित, नियमित थी। इसलिए डॉक्टर के निर्देश-पालन के लिए अतिरिक्त कुछ नहीं करना पड़ा। अब सब सामान्य है। ठीक-ठीक चल रहा है।

सुनकर तसल्ली तो हुई लेकिन यह सूचना मुझ तक पहुँचने में दस महीने लग गए! इसी बात ने मुझे विचार में डाल दिया। उपाध्यायजी घर-घुस्सू आदमी नहीं हैं। लोगों से मिलना-जुलना उन्हें अच्छा लगता है। किसी समागम में शामिल होने का, लोकाचार निभाने का मौका नहीं छोड़ते। रतलाम बहुत बड़ा कस्बा नहीं। अधिकाधिक पन्द्रह मिनिट में कस्बे के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुँचा जा सकता है। मैं बीमा एजेण्ट हूँ। लगभग दिन भर घर से बाहर रहता हूँ। मुख्य बाजार हो या दूर-दराज का मुहल्ला, कस्बे के हर हिस्से में मेरा आना-जाना होता ही है। रोज ही दस-बीस लोगों से मिलता हूँ। कई लोग ऐसे हैं जो मेरे और उपाध्यायजी के सम्पर्क क्षेत्र में समान (कॉमन) हैं। लेकिन उपाध्यायजी की यह जानकारी मुझे कहीं नहीं मिली! इसी बात ने मुझे चौंकाया और विचार में डाल दिया।

हम कहाँ आ गए हैं? क्या हो गए हैं? उपाध्यायजी के और मेरे, समान (कॉमन) परिचितों से बात करते हुए हमने कभी किसी अपनेवाले के बारे में बात करने की जरूरत ही अनुभव नहीं की! अपनी और अपने काम की बातें करते रहे! अपने मतलब तक ही सिमटे रहे! हमारी बातों में किसी तीसरे, ‘अपनेवाले’ का जिक्र आया ही नहीं! इण्टरनेट ने हमें, अपने घर में बैठे, बन्द कमरे में होते हुए भी सारी दुनिया से जोड़ दिया लेकिन घर से बाहर, दुनिया के बीच बैठकर भी हम अपने आप में ही रहने लगे! दुनिया अंगुलियों की पोरों पर आ सिमटी है। कोई भी सूचना हो, कुछ ही पलों में हर-एक के पास पहुँच जाती है। लेकिन उपाध्यायजी की यह सूचना, गाँव की गाँव में मुझ तक दस महीनों में पहुँची! यह एकान्त हमने बुना या हम अनायास ही इस एकान्त के शिकार हो गए?

उपाध्यायजी से मिल कर लौटे हुए मुझे लगभग सोलह घण्टे हो गए हैं। लेकिन यह विचार पीछा नहीं छोड़ रहा। इस समय भी, जब मैं यह सब लिखने को विवश हुआ और लिख चुका।
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एक आदमी के दो एड्रेस प्रूफ दीजिए

यह ‘बाबू राज’ का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसकी शिकायत भी नहीं की जा सकती क्योंकि सुननेवाला कोई नहीं है।

मामला भारत सरकार के एक उपक्रम के कार्यालय का है। इसके एक आवेदन में, आवेदक को दो पते देने की व्यावहारिक सुविधा उपलब्ध कराई गई है - एक पता पत्राचार का और दूसरा पता स्थायी या आवासीय पता। जाहिर है, आवेदन फार्म का प्ररूप बनाते समय यह व्यावहारिक सुविचार सामने आया होगा कि कोई आदमी रहता कहीं और होगा और काम कहीं और करता होगा। मुझे यह प्रावधान सराहनीय लगा। 

सरकार ने डाक विभाग को दयनीय दशा में ला खड़ा कर दिया है। किसी भी शहर में डाकियों के पूरे पदों पर भर्ती नहीं है। मेरे रतलाम में ही कई डाकियों को दो-दो, तीन-तीन बीटों की जिम्मेदारी दी हुई है। ऐसे में वे चाह कर भी अपना रोज का काम रोज पूरा नहीं कर पाते। सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। कस्बे के बाहरी इलाके के कुछ डाकिए सप्ताह में एके दिन डाक बाँटते हैं। ऐसे में, उक्त प्रावधान लोगों को अत्यधिक अनुकूल और सुविधाजनक है। कस्बे के बाहरी इलाकों में रहनेवाले लोग अपने काम-काजी स्थल का पता दे कर अपनी चिट्ठियाँ प्राप्त करने की सुनिश्चितता हासिल कर सकते हैं। 

लेकिन इस दफ्तर के बाबू ने इस सराहनीय भावना और व्यवस्था की ऐसी-तैसी कर रखी है। उसका कहना है कि आवेदक जो भी पता देना चाहे, खुशी-खुशी दे। लेकिन आवेदक को ऐसे प्रत्येक पते का दस्तावेजी प्रमाण देना पड़ेगा। उदाहरण के लिए मैं यदि अपना पत्राचार का पता बाजार में अपनी बैठकवाले किसी व्यापारिक संस्थान का देना चाहूँ तो मुझे अपने उस पते का दस्तावेजी प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ेगा। ऐसा कर पाना मेरे लिए सम्भव ही नहीं। मेरे आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, ड्रायविंग लायसेंस, पासपोर्ट आदि में मेरा स्थायी आवासीय पता अंकित है। बाजार में स्थित मेरे मित्र के व्यापारिक संस्थान पर तो मेरी बैठक है जहाँ प्रतिदिन डाक वितरित होती ही है। जबकि, मेरे आवासीय इलाके का डाकिया कभी-कभी (दूसरी बीट की डाक निपटाने के कारण) मजबूरी में गैरहाजिर रह जाता है।

भारत सरकार के उपक्रम का यह बाबू इन सारी बातों को व्यक्तिशः तो मानता और कबूल करता है। लेकिन आवेदन को आगे बढ़ाने के मामले में अड़ जाता है। बड़ी ही विनम्रता से कहता है - ‘मैं पता लिखने से मना तो तो नहीं कर रहा ना? लेकिन मैं तो सरक्यूलर से बँधा हुआ हूँ जो कहता है कि मैं वही पता लिखूँ जिसका दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध कराया गया है। आप सरक्यूलर देख लो।’ वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं। उसे समझाने की कोशिश की - ‘भाई मेरे! प्ररूप की भावना को समझने की कोशिश करो। एक आदमी के दो-दो पतों के दस्तावेज कैसे हो सकते हैं? स्थायी पते का दस्तावेजी सबूत दे तो रहे हैं! पत्राचार के पते का दस्तावेजी प्रमाण कैसे जुटाया जा सकता है?’ बड़ी विनम्रमा से बाबू जवाब देता है - ‘देखो सा‘ब! मैं तो सरक्यूलर से बँधा हुआ हूँ। आप सरक्यूलर अमेण्ड करवा दो। आपका काम भी हो जाएगा और मेरा भी।’

ऐसे में, इस दफ्तर के इस आवेदन में लोगों को दोनों ही जगह एक ही पता लिखना पड़ रहा है। सरक्यूलर को अमेण्ड करवाने के मुकाबले यह बहुत-बहुत आसान है। सरकार अव्वल तो लोगों की सुविधा का ध्यान रखती नहीं। गलती से यदि रख भी लिया तो ‘बाबू’ उसकी ऐसी-तैसी कर देता है। 

यही ऐसी-तैसी यहाँ हो रही है।
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बात जरूर कर, लेकिन ‘यूँ ही’ मत कर

रतलाम में होता हूँ तो अखबार पढ़ने का मन नहीं होता। लेकिन जब इन्दौर में होता हूँ तो अखबार की तलाश रहती है। काम-धाम कुछ रहता नहीं। फुरसत ही फुरसत रहती है। वहाँ अखबार मुश्किल से मिल पाता है। दो-तीन दिनों के लिए जाता हूँ। बन्दी के अखबार बाँटनेवाले हॉकर के पास अतिरिक्त प्रतियाँ नहीं होतीं। रिंग रोड़ पर सिन्धिया प्रतिमा चौराहे पर अखबारवाला आता तो है लेकिन अपने मन का राजा है। उसके बाद अखबार मिलता है ठेठ पलासिया चौराहे पर। इतनी दूर कौन जाए? इसलिए, सुबह-सुबह सड़क पर आ खड़ा होता हूँ। इस उम्मीद से कि कभी, कोई हॉकर महरबान हो जाए। 

इसी ‘कृपाकांक्षा’ में परसों, मंगलवार की सुबह कनाड़िया मार्ग पर आ खड़ा हुआ। सामनेवाली मल्टी के नीचेवाली होटल की सर्विस रोड़ के लिए बनी दो-फुटी दीवाल पर टिक गया। सात बज रहे हैं। होटल खुली नहीं है। एक ऑटो खड़ा है। दो सज्जन बैठे हुए हैं। बतिया रहे हैं। कड़ाके की सर्दी है - तापमान सात डिग्री। मैं उनकी बातें सुनने लगता हूँ। अपनी तरफ मेरा ध्यान देखकर वे अपनी बातों का सिलसिला तोड़ देते हैं। पूछते हैं - ‘कहीं बाहर से आए हैं? नए लगते हैं। पहले कभी नजर नहीं आए।!’ मैं अपना परिचय देता हूँ और वहाँ बैठने का मकसद बताता हूँ। एक कहता है - ‘आपको अखबार शायद ही मिले। लेकिन थोड़ी देर राह देख लीजिए। पाँच-सात रुपयों के लालच में कोई हॉकर किसी बन्दी वाले का अखबार आपको दे-दे।’ मैं मौन मुस्कुराहट से जवाब दे देता हूँ। उनकी बातों का टूटा सिलसिला जुड़ जाता है -

‘बहू को अच्छी नहीं लगी कैलाश की बात।’

‘कौन सी बात?’

‘वही! प्रियंका को चिकना चेहरा कहनेवाली बात।’

‘हाँ। वो तो अच्छा नहीं किया कैलाश ने। ऐसा नहीं कहना चाहिए था। शोभा नहीं देता। लेकिन सज्जन ने भी तो वही किया! उसे क्या जरूरत थी जवाब देने की? चुप रह जाता!’

‘हाँ। सज्जन ने भी घटियापन का जवाब घटियापन से दिया।’
‘हाँ। पता नहीं इन लोगों को क्या हो गया है! इन्हें न तो अपनी इमेज की चिन्ता है न अपनी पार्टी की इमेज की। पता नहीं, इनकी ऐसी बातें सुन कर इनके टीचर लोग क्या सोचते होंगे!?’

‘क्या सोचते होंगे! अपना माथा कूटते होंगे। यही पढ़ाया हमने इनको? पता नहीं राजनीति में आते ही इन लोगों को क्या हो जाता है!’

‘ऐसी बातों से ही लोग राजनीति को गन्दी मानते हैं।’

‘हाँ। राजनीति के कारण ही सज्जन बोला होगा। सोचा होगा, चुप रह जाऊँगा तो लोग बेवकूफ समझेंगे।’

‘हो सकता है। लेकिन बोल कर बेवकूफ साबित होने से तो अच्छा है कि चुप रह बेवकूफ साबित हुआ जाए। बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता।’

सन्दर्भ मुझे समझ में आ जाता है। कैलाश याने कैलाश विजयवर्गीय और सज्जन याने मध्य प्रदेश सरकार के मन्त्री सज्जन सिंह वर्मा। हमारे राज नेता भाषा की शालीनता से दूरी बढ़ाने की प्रतियोगिता करते नजर आ रहे हैं। उन्हें रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं। लेकिन यह वार्तालाप सुनकर मेरी सुबह अच्छी हो गई - लोग हमारे नेताओं पर न केवल नजरें बनाए हुए हैं बल्कि उनकी भाषा पर भी ध्यान दे रहे हैं। आज अकेले में बात कर रहे हैं, कल मुँह पर बोलेंगे। बात निकलती है तो दूर तलक जाती ही है। बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता। खून के दाग खून से नहीं धोए जा सकते।

अब तक एक भी हॉकर इधर से नहीं निकला है। वे दोनों खड़े होते हैं। मुझे सलाह देते हैं - ‘अच्छा होगा कि आप माधव राव के पुतलेवाले चौराहे पर चले जाओ।’ उनके साथ-साथ मैं भी उठ जाता हूँ। 

रिंग रोड़ चौराहे पर खूब भीड़ है। बॉम्बे हास्पिटल की ओर से आ रहा एक ट्रक उलट गया है। नुकसान तो कुछ नहीं हुआ लेकिन यातायात अस्तव्यस्त हो गया है। जाम लगा हुआ है। शीत लहर के कारण कलेक्टर ने स्कूलों की छुट्टी कर दी है। स्कूलों के वाहन गलती से ही नजर आ रहे हैं। उद्यमों/संस्थानों के वाहन सड़कों पर हैं। उनके कर्मचारी अपने-अपने वाहन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सबको जल्दी है। ट्रेफिक पुलिस के दो जवान और तीन-चार समाजसेवी मिलकर ट्रेफिक क्लीयर करने में लगे हुए हैं। लोग उनकी परवाह नहीं कर रहे हैं। जिसे, जहाँ गुंजाइश मिल रही है, अपना वाहन घुसेड़ रहा है। ऐसा करने में खुद की और सबकी मुश्किलें बढ़ रही है। अखबारवाला नहीं आया है।एक ऑटो वाला कहता है - ‘अब नहीं आएगा। आना होता तो आ गया होता।’ मैं अपने मुकाम की ओर चल पड़ता हूँ। दारू की दुकान से दो दुकान आगेवाली होटल के सामने, दो लोग सड़क पर खड़े-खड़े चाय पीते हुए, दीन-दुनिया से बेपरवाह बातें कर रहे हैं। इस तरह कि रास्ते चलते आदमी को बिना कोशिश के ही सुनाई दे जाए। लगता है, दोनों एक ही संस्थान में काम करते हैं और कम्पनी के वाहन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। दोनों समवय हैं। चालीस-पैंतालीस के आसपास। मुखमुद्रा और बेलौसपन से एक झटके में समझ पड़ जाती है कि गम्भीर बिलकुल नहीं हैं। वक्तकटी की चुहलबाजी कर रहे हैं -

‘तुम स्साले काँग्रेसियों को उस एक खानदान के सिवाय और कुछ नजर नहीं आता। अपने घर के हीरों की न तो परख करते हो न ही पूछताछ। ये तो हम हैं जो बड़ा दिल करके तुम्हारेवालों को सम्मानित कर देते हैं। हिम्मत चाहिए इसके लिए। तुम सब तो मम्मी से डरते हो।’

तू कभी नहीं सुधरेगा! तेरे आका इतने भले नहीं है कि बिना किसी लालच के किसी के गले में माला डाल दे। इतने भले होते तो आडवाणी और जोशी की ये दुर्गत न करते। लोकसभा चुनाव में सीटों का घाटा पूरा करना है। इसलिए बंगालियों को खुश करने के लिए प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न दे दिया। लेकिन ये चाल उल्टी न पड़ जाए। जानता है प्रणव मुखर्जी कौन है? इन्दिरा गाँधी ने जो इमरजेन्सी लगाई थी, उसका ब्लाइण्ड सपोर्टर था! उस समय, उसकी केबिनेट में मिनिस्टर था। इन्दिरा की इमरजेन्सी का विरोध और इमरजेन्सी का समर्थन करनेवाले को भारत-रत्न! तेरे आकाओं ने ये भी नहीं सोचा कि उन्होंने इमरजेन्सी का समर्थन कर दिया है। अब किस मुँह से इमरजेन्सी को क्रिटिसाइज करेंगे? और अभी जो कमलनाथ ने मीसा बन्दियों की पेंशन खत्म करने का जो आर्डर जारी किया है, उसका विरोध किस मुँह से करोगे? मुँह उठाकर कुछ तो भी बोल देते हो! कुछ अक्कल-वक्कल है के नहीं?’

‘अरे! तू तो सीरीयस हो गया यार! कहाँ तो तू राहुल को पप्पू कहता है और कहाँ ऐसी बातें कर रहा है?’

‘तेने हरकत ही ऐसी की! मैं तो जानता हूँ कि मुझे राहुल और सोनिया रोटी नहीं देते। लेकिन तू तो ऐसे बातें करता है जैसे मोदी केवल तेरे भरोसे, तेरे दम पे पीएम बना हुआ है और वहीं से तेरा टिप्पन आता है! अरे भई! जब पढ़े-लिखे लोग भी ऐसी बातें करेंगे तो सबका भट्टा बैठेगा नहीं तो और क्या होगा? ईमानदारी से अपना काम करो। सही को सही और गलत को गलत कहो।’

‘सॉरी-सॉरी यार! तू सही कह रहा है। मैंने तो यूँ ही बात-बात में बात कर दी थी। दिल पे मत ले।’

‘बात-बात में बात तो जरूर कर लेकिन यूँ ही मत कर। पढ़ा-लिखा, समझदार, एक बच्चे का बाप है। जिम्मेदारी से बात किया कर।’ उसे कोई जवाब मिलता उससे पहले ही उनकी बस आ गई। 

वे दोनों चले गए। अब मुझे अखबार की जरूरत नहीं रह गई थी। जाते-जाते वह अनजान आदमी सूत्र दे गया - ‘बात जरूर कर लेकिन यूँ ही मत कर। जिम्मेदारी से किया कर।’ क्या यह सूत्र मुझ अकेले के लिए है?
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 31 जनवरी 2019

जरा तलाश करना! इन्हें आप्टे साहब मिले?


फेस बुक पर अचानक ही यह तस्वीर नजर आई। कुछ दिन पुरानी है। फिल्मी दुनिया के कुछ लोग प्रधान मन्त्री मोदी से मिलने गए थे। उसी समय की तस्वीर है यह। चित्र में प्रधान मन्त्री मोदी, अभिनेत्री परिणीति चोपड़ा से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाए नजर आ रहे हैं। जवाब में परिणीति हाथ मिलाने के बजाय हाथ जोड़ कर नमस्कार करती दिखाई दे रही हैं। इस चित्र ने फेस बुक की ‘चाय की प्याली में तूफान’ ला दिया। अधिकांश लोगों ने परिणीति के इस व्यवहार को प्रधान मन्त्री मोदी का अपमान माना और खिन्नता जताते हुए परिणीति को अनेक परामर्श दिए। कुछ लोगों ने इस व्यवहार को भारतीय संस्कृति का निर्वाह मानते हुए परिणीति की सराहना की। ‘लाइक’ और ‘ट्रोलिंग’ से ‘आच्छादित’ इस समय में कुल मिलाकर लोगों ने अपनी भावनानुरूप ही मूरत देखी। चित्र पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखकर मुझे, पचास बरस से अधिक पहले, अंग्रेजी के अपने प्रोफेसर आप्टे साहब से खाई जोरदार डाँट-फटकार याद आ गई। 

मैं उस समय के अविभाजित मन्दसौर  जिले के रामपुरा कॉलेज में बी. ए. के दूसरे साल में था। अंग्रेजी के प्रोफेसर एस. डी. आप्टे साहब उसी बरस स्थानान्तरित होकर रामपुरा आए थे। मैं मन्दसौर कॉलेज से बी. एससी. के पहले साल में फेल होकर रामपुरा कॉलेज में, बी. ए. में भर्ती कराया गया था। रामपुरा बड़े गाँव जैसा कस्बा था। उसके मुकाबले मन्दसौर बहुत बड़ा शहर होता था। कॉलेज में छात्रों की संख्या का आलम यह कि मन्दसौर कॉलेज में, बी. एससी. के प्रथम वर्ष की तीन कक्षाओं की छात्र संख्या, रामपुरा कॉलेज की सभी वर्षों की सभी कक्षाओं की छात्र संख्या के बराबर। रामपुरा कॉलेज का प्रत्येक प्रोफेसर, कॉलेज के प्रत्येक छात्र/छात्रा को नाम और शकल से पहचानता था। बी. ए. दूसरे वर्ष की कक्षा में हम कुल चौदह छात्र/छात्रा थे। ‘मन्दसौर रिटर्न’ होना मुझे रामपुरा में सबसे अलग करता था। मेरा रहन-सहन, चाल-चलन ‘फैशनेबल’ माना जाता था। अपनी यह दशा अनुभव कर मैं भी खुद को ‘स्मार्ट’ मानने लगा था और वैसा ही व्यवहार भी करने लगा था।

आप्टे साहब स्थूल शरीर, ऊँचे डील-डौल और गुरु-गम्भीर व्यक्तित्व वाले थे। बड़ी-बड़ी आँखें और गूँजती आवाज। कम बोलते थे। उनका कम बोलना हमें आतंकित करता था। शुरु के कुछ महीनों तक उनके सामने हमारे बोल ही नहीं फूटते थे। स्थिति ‘तनावपूर्ण किन्तु नियन्त्रण में’ जैसी बनी रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे बर्फ पिघली तो मालूम हुआ - ‘अरे! आप्टे साहब तो नारियल हैं! ऊपर से हड्डी तोड़ कठोर लेकिन अन्दर से सजल मुलायम और मीठे।’ जिस पर लाड़ आता, उसे ‘अरे! गधे’ कह कर पुकारते। कुछ ही महीनों में, गिनती के हम विद्यार्थियों में ‘गधा’ बनने की होड़ शुरु हो गई। 

सब कुछ ऐसा ही चल रहा था। लेकिन एक दिन मेरी ‘ओव्हर स्मार्टनेस’ ने मुझे आप्टे साहब के हत्थे चढ़ा दिया। उस दिन मैं कक्षा में सबसे बाद में लेकिन आप्टे साहब से पहले पहुँचा। मैं कक्षा में घुस ही रहा था कि आप्टे साहब आते दिखे। मैं रुक गया। सोचा, सर के पीछे ही कक्षा में जाना चाहिए। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन वह मूर्खता हो गई जिसने जिन्दगी का बड़ा पाठ पढ़ा दिया। 

मैं कक्षा की दहलीज के बाहर खड़ा था। आप्टे साहब पहुँचे तो उन्हें प्रभावित करने के लिए, हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए, विनम्रताभरी एँठ से बोला - ‘गुड मार्निंग सर!’ अपनी रौ में झूमते चले आ रहे आप्टे साहब झटके से ठिठक गए। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें हैरत से और बड़ी हो गईं। मुझे घूरकर देखने लगे। मुझे पल भर भी नहीं लगा यह समझने में कि मैंने कोई बड़ी गड़बड़ कर दी है और मैंने अब अपनी खैर मनानी शुरु कर देनी चाहिए। आप्टे साहब की शकल देखकर मैं हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। 

यह स्थिति कुछ ही क्षण रही। आप्टे साहब धीरे-धीरे मेरे पास आए। अपना भारी-भरकम हाथ उठाया। मुझे लगा - ‘आज तो बेटा विश्न्या! तू गया काम से!’ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बहुत ही धीमे से उन्होंने मेरी टप्पल में धौल टिकाई और बोले - ‘अरे गधे! तू गधा ही रहेगा।’ कहकर, कसकर मेरी गर्दन पकड़ी। दो-तीन बार झटके से इधर-उधर हिलाई और बोले - ‘इंगलिश लिटरेचर ले लेने का मतलब अंग्रेज हो जाना नहीं होता। यू आर स्टडिंग इंगलिश लिटरेचर ओनली। डोण्ट ट्राय टू बी एन इंगलिश मेन। इट इज ग्रेट टू बी एन इण्डियन। बी ए गुड इण्डियन एण्ड रीमेन लाइक देट।’ मेरी गरदन लोहे के पंजे में जकड़ी हुई थी। साँसें घुट रही थीं। बोल पाने का तो सवाल ही नहीं था।

मेरी गरदन को इसी तरह जकड़े हुए आप्टे साहब कक्षा के बाहर खड़े थे। अन्दर बैठे सारे तेरह साथी/साथिनें यह अद्भुत और अनूठा ‘सीन’ देख रहे थे। आप्टे साहब गुस्से में बिलकुल नहीं थे लेकिन मेरी गर्दन पर उनकी पकड़ रंच मात्र भी ढीली नहीं हो रही थी। इसी दशा और मुद्रा में आप्टे साहब ने उस दिन अपना पूरा ‘पीरीयड’ एक अकेले विद्यार्थी को पढ़ाया।

आप्टे साहब ने कहा कि हाथ मिलाना पाश्चात्य शिष्टाचार की परम्परा है। भारतीय परम्परा नमस्कार करने की है। अर्थ तो दोनों का एक ही है - अभिवादन कर आदर जताना। किन्तु दोनों की प्रक्रिया एकदम अलग-अलग है। लगभग विपरीत। पाश्चात्य परम्परा में वरिष्ठ को शाब्दिक अभिवादन (यथा, गुड मार्निंग/गुड नून/गुड इवीनिंग सर!) किया जाता है। जवाब में वरिष्ठ शाब्दिक अभिवादन तो करता ही है, कनिष्ठ के प्रति प्रेम और सम्मान भाव प्रकट करते हुए अपना हाथ बढ़ाता है। तब ही कनिष्ठ उससे हाथ मिलाता है। पाश्चात्य संस्कृति में कनिष्ठ कभी भी पहले हाथ नहीं बढ़ाता। भारतीय संस्कृति में हाथ नहीं मिलाया जाता। हमारे यहाँ कनिष्ठ व्यक्ति, विनयपूर्वक, दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर अभिवादन करता है। जवाब में वरिष्ठ व्यक्ति प्रेमपूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वचन से उसे समृद्व करता है। विस्तार से समझा कर आप्टे साहब ने मेरी गर्दन छोड़ी और पूछा - ‘डिड यू अण्डरस्टेण्ड?’ घिघियाते हुए मेरे बोल फूटे - ‘यस सर!’ आप्टे साहब बोले - ‘नो। इट इज नाट सफिशियण्ट। लेट अस हेव ए प्रेक्टिकल।’ कह कर खुद दो कदम पीछे हटे और बोले - ‘आई एम कमिंग टू क्लास। विश मी ए गुड मार्निंग।’ मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। मेरी दशा देख कर बोले - ‘अरे! गधे! विश मी ए गुड मार्निंग।’ मन्त्रबिद्ध दशा में मैंने खुद को यन्त्रवत बोलते सुना - ‘गुड मार्निंग सर!’ खुश होकर आप्टे साहब ने जवाब दिया - ‘व्हेरी गुड मार्निंग माय ब्वाय। हाऊ डू यू डू?’ और अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया। मैंने उसी दशा में अपना लुंज-पुंज हाथ उनके हाथ में दे दिया। वे खुश हो गए। मेरा हाथ छोड़ कर बोले - ‘अब भारतीय संस्कृति का प्रेक्टिकल हो जाए।’ कह कर फिर दो कदम पीछे हटे। इस बार मैंने न तो प्रतीक्षा की न ही देर। बोला - ‘नमस्कार सर!’ पूरी ऊँचाई तक अपना दाहिना हाथ आकाश में उठाते हुए आप्टे साहब गद्गद् भाव से बोले - ‘आयुष्मान् भव। यशस्वी भव।’ कहते-कहते मेरा माथा सहलाया और कक्षा में देखते हुए बोले - ‘तुम सबने सुना?’ सबने मुण्डियाँ हिला कर हामी भरी। देखकर आप्टे साहब बोले - ‘आज की क्लास हो गई। सी यू टुमारो।’

उसके बाद क्या हुआ, क्या नहीं, यह बताने का कोई मतलब नहीं। वह सब आज याद आ गया - प्रधान मन्त्रीजी और परिणीति की यह तस्वीर देखकर। पता नहीं, इन दोनों को कभी कोई आप्टे साहब मिले या नहीं।
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‘राज’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें

‘दोनों में डिफरेंस ही क्या है? दोनों एक ही तो हैं अंकल!’ सुनकर मैं चौंका भी और हतप्रभ भी हुआ। 

यह 25 जनवरी की अपराह्न है। सत्तरवें गणतन्त्र दिवस से ठीक एक दिन पहले की अपराह्न। मेरे परम मित्र रवि शर्मा के भानजे लकी के विवाह प्रसंग के कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए बिबड़ोद मार्ग स्थित एक मांगलिक परिसर में बैठा हूँ। सब लोग फुरसत में गपिया रहे हैं। लोकसभा चुनावों पर बातें हो रही हैं। ‘सरकार किसकी बनेगी?’ इस पर हर कोई बढ़-चढ़कर, विशेषज्ञ की मुद्रा में अन्तिम राय दे रहा है। सबकी अपनी-अपनी पसन्द है। वे अपनी पसन्द की सरकार बनवा रहे हैं। मैंने अचानक ही कह दिया - “सरकारें तो बनती-बिगड़ती रहती हैं। आती जाती हैं। बेहतर होगा कि ‘राज’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें।’ मेरी इसी बात के जवाब में एक अपरिचित नौजवान ने वह कहा जो मैंने शुरु में लिखा है। वह नौजवान स्नातक कक्षा के अन्तिम वर्ष का विद्यार्थी है। वह ‘राज्य’ और ‘राज’ को पर्यायवाची माने बैठा है। यह हमारी, भाषागत विफलता है या अपनी अगली पीढ़ी से बनी हमारी संवादहीनता का परिणाम? मेरा भाग्य अच्छा था कि उस नौजवान ने समझने की खिड़कियाँ बन्द नहीं कर रखी थीं। उसने इस अन्तर को समझाने का आग्रह किया। मेरी बात तनिक लम्बी हो गई लेकिन उस नौजवान ने पल भर भी धैर्य नहीं छोड़ा। वह मेरी बात चुपचाप सुनता रहा। 

हम स्वभावतः लोकतान्त्रिक समाज रहे हैं। शासक भले ही एक व्यक्ति (राजा) रहा हो लेकिन वह भी ‘लोक’ केन्द्रित ही रहा। भारत का इतिहास जनपदों और गणराज्यों के उल्लेखों से भरा पड़ा है। शासक कोई भी रहा हो, ‘गण’ और ‘जन’ ही उसके लक्ष्य रहे हैं। राजाओं ने राज तो किया लेकिन ‘राज्य’ ही उनकी पहली चिन्ता और पहली प्राथमिकता रहा। राम के वनवास काल में भरत ने राज तो किया लेकिन राजा बनकर नहीं। उन्होंने ‘अवध’ की चिन्ता की, खुद के पद की नहीं। मेवाड़ के शासकों ने भगवान एकलिंगजी के प्रतिनिधियों के रूप में राज किया। जिन्होंने ‘राज’ की परवाह की, वे लोकोपवाद के रूप में उल्लेखित किए गए और जिन्होंने ‘राज्य’ की परवाह की वे इतिहास बन गए।

कानूनी और तकनीकी विवेचन से तनिक नीचे उतरकर बोलचाल की भाषा में बात करें तो ‘राज्य’ एक स्वतन्त्र, सार्वभौम भूमि प्रदेश होता है और ‘राज’ उसकी संचालन व्यवस्था। भारत एक स्वतन्त्र, सार्वभौम गणराज्य है और निर्वाचित संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली इसकी संचालन व्यवस्था। इस प्रणाली से ही हम अपनी सरकार चुनते हैं। ऐसी प्रत्येक सरकार (याने कि ‘राज’) अस्थायी होती है लेकिन ‘राज्य’ तो स्थायी, अविचल बना रहता है।

लेकिन ‘सेवक भाव’ से राज करने की बात अब ‘कल्पनातीत’ से कोसोें आगे बढ़कर ‘मूर्खतापूर्ण सोच’ हो गई है। अब तो जो भी सरकार में आता है, वह आजीवन वहीं बना रह जाना चाहता है। इसीलिए प्रत्येक ‘राजा’ खुद को ‘राज्य’ साबित करने लगता है। तब, ‘व्यक्ति विरोधी’ को ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित किया जाने लगता है। इसका पहला उदाहरण इन्दिरा राज में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने ‘इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा’ कह कर पेश किया था। तब, विरोधियों की बात तो दूर रही, अनेक काँग्रेसियों ने भी इस ‘अमृत वचन’ से असहमति व्यक्त कर इसकी खिल्ली उड़ाई थी। 1977 के आम चुनावों में देश ने बरुआ का मुगालता दूर कर दिया। खुद इन्दिरा गाँधी ही चुनाव हार गई।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘राज’ और ‘राज्य’ का अन्तर जिस तरह से हमें समझाया वह अद्भुत है। उन्होंने ‘राज्य’ (भारत) को मुक्ति दिलाने के लिए ‘राज’ (अंग्रेजी राज) को उखाड़ फेंका। गाँधी के प्रत्येक आग्रह, अभियान को अंग्रेज सरकार ने राष्ट्रद्रोह कहा लेकिन गाँधी ने हर बार साबित किया कि वे देश का नहीं, अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे थे। आश्चर्य यह कि यह अनूठा विरोध भी वे अंग्रेज सरकार के (याने ‘राज’ के) कानूनों का पालन करते हुए कर रहे थे। क्रान्तिकारियों का साथ न देने के कुछ आरोप् गाँधी पर इसलिए भी लगे कि गाँधी ने, अपने सिद्धान्तों के अधीन, ‘राज’ के कानूनों का उल्लंघन करने से इंकार कर दिया था। 
‘राज’ और ‘राज्य’ कभी भी समानार्थी या कि पर्यायवाची नहीं रहे। केवल तानाशाही शासन पद्धति में ही ये दोनों समानार्थी माने जाते हैं। तब, राजा को ही राष्ट्र बना दिया जाता है। राजा के विरोधी को राष्ट्र का विरोधी करार दिया जाता है और मृत्युदण्ड या देश निकाला दे दिया जाता है। इन्दिरा राज में इन्दिरा विरोधियों को देश विरोधी करार दिया जाता था। वही दौर आज फिर लौट आया है। प्रधान मन्त्री मोदी को ‘राष्ट्र’ निरूपित किया जा रहा है। उनके विरोधियों को राष्ट्र विरोधी करार दिया जा रहा है और ऐसे ‘राष्ट्र विरोधियों’ को पाकिस्तान भेजने का तो मानो मन्त्रालय ही स्थापित हो गया है। इतिहास गवाह है कि तानाशाहों का अन्त या तो आत्म-हत्या से हुआ है या फाँसी से।

हमारे संविधान में राजनीतिक प्रतिबद्धता की बाध्यता नहीं थी। संविधान विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रधान मन्त्री चुनने के बाद संसद सदस्य राजनीति प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाते थे। किन्तु बाद के वर्षों में (सम्भवतः राजीव गाँधी के कार्यकाल में, जब दलबदल निरोधी प्रावधान प्रभाव में आए) पार्टी व्हीप की बाध्यता शुरु हुई।

आज ‘राज्य’ पर ‘पार्टी लाइन’ हावी हो गई है। प्रत्येक पार्टी के लोग जानते हैं कि उनकी पार्टी की अनेक बातें असंवैधानिक, अनुचित और आपत्तिजनक हैं। लेकिन वे सब केवल ‘पार्टी लाइन’ के अधीन ‘क्रीत दास भाव’ से उनका समर्थन करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कही गई अपनी अनगिनत बातों पर हमारे मौजूदा प्रधान मन्त्री मोदी ने जिस तरह से पलटियाँ खाई हैं और उनके तमाम समर्थक जिस तरह से मौन हैं, वह हमारे सामने है।

प्रत्येक गणतन्त्र दिवस हमारे आत्म निरीक्षण का अवसर बन कर सामने आता है। हम स्वतन्त्र, सार्वभौम, लोकतान्त्रिक गणराज्य हैं। यही हमारी पहली चिन्ता और पहली जिम्मेदारी है। सरकारें क्षण भंगुर हैं। देश चिरंजीवी, चिरन्तन है। हमारी सरकारें कर्तव्यच्युत न हों, यह हमारी जिम्मेदारी है। अपनी पार्टी के ‘राज’ का अन्ध समर्थन करते रहे तो ‘राज्य’ खो बैठेंगे। ‘राज्य’ हमारा माथा है और ‘राज’ उसे ढँकनेवाली टोपियाँ। सर है सलामत तो टोपी हजार। ‘गण’ (याने कि ‘हम, भारत के लोग’) अपने ‘राजा’ पर, वस्तुपरक भाव से (आब्जेक्टिवली) नजर रखें और पथभ्रष्ट होने पर उसे रोकें-टोकें। यह गुंजाइश रखंे कि ‘हमारा राजा’ मनुष्य है, गलती कर सकता है। यदि ‘राजा’ हमारी पार्टी का है तो हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। विरोधी कुछ कहे, उससे पहले हम ही उसे टोकें। 

कुर्सी पर बैठते ही प्रत्येक ‘राजा’ मुगालते में आ जाता है कि अब उसे कोई हटा नहीं सकता। उसे याद दिलाते रहें कि इस कुर्सी पर कल कोई और था, कल कोई और होगा। पदान्ध-मदान्ध हो रहे अपने राजा को राहत इन्दौरी का यह शेर जोर-जोर से, बार-बार सुनाएँ, सुनाते रहें -

आज जो सहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े  है?

गणतन्त्र दिवस की इस मंगल वेला में हम अपनी गरेबाँ में झाँकें। ‘राज’ या ‘राजा’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें। ‘राज्य’ बना रहेगा तो ‘अपना राजा’ और ‘अपना राज’ बनता रहेगा। ‘राज्य’ ही नहीं रहेगा तो कौन सा राजा और किसका राज?

गणतन्त्र दिवस की शुभ-कामनाएँ। अमर रहे गणतन्त्र हमारा।
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खाता-बही यहाँ जिन्दा है


सुरेश भाई को इस तरह देख कर झटका लगा। विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं इक्कीसवीं सदी में यह देख रहा हूँ। याद नहीं आता कि ऐसा दृष्य इससे पहले कब देखा था। मेरी दशा देख कर सुरेश भाई मुस्कुरा कर बोले - ‘विश्वास नहीं हो रहा न? मुझसे तो कम्प्यूटर पर काम हो नहीं पाता। मैं अब भी इसी तरह काम करता हूँ।’

सुरेश भाई याने रतलाम के चाँदनी चौक स्थित ‘चौधरी ब्रदर्स’ वाले सुरेश चौधरी। बिजली के सामान की, पीढ़ियों पुरानी दुकान है। इतनी पुरानी कि बस! नाम ही काफी है। काम लम्बा-चौड़ा है। चार भाई, सुरेश, जयन्ती, राजेन्द्र और जवाहर मिल कर सम्हालते हैं। सबने अपना-अपना काम बाँट रखा है। बड़े ग्राहक दुकान पर नजर नहीं आते। नजर आएँ भी कैसे? भाई लोग उनके दफ्तरों में पहुँच कर उनके काम जो कर देते हैं! देहात के ग्राहकों का जमावड़ा दिन भर लगा रहता है। मैं महीने-दो महीने में मिलने चला जाता हूँ। लेकिन सुरेश भाई को इस तरह, पारम्परिक ढंग से काम करते कभी नहीं देखा।

मैं जब एक औद्योगिक इकाई में भागीदार था तो हमारे यहाँ रजिस्टरों के आकारवाली केश-बुक और लेजर काम में आते थे। पारम्परिक खाता बहियाँ देखे मुझे बरसों हो गए। मनासा से निकलने के बाद रतलाम में भी दुकानों पर लाल रंग की खाता-बहियों में काम करते किसी को नहीं देखा। सुरेश भाई को देखा तो मुझे मानो ‘नास्टेल्जिया’ ने घेर लिया।

सुरेश भाई न केवल पारम्परिक खाता-बही में हिसाब-किताब रखते हैं, लिखने के लिए भी वे बॉल-पेन के बजाय स्याहीवाला पेन ही वापरते हैं। कहते हैं कि हर बरस स्याहीवाला नया पेन खरीदते हैं। स्याही की दावात जरूर दो-ढाई बरस में खरीदनी पड़ती है। स्याही सोखनेवाला कागज (स्याही सोख्ता याने कि ब्लाटिंग पेपर) तनिक कठिनाई से मिलता है। इसलिए उसे अतिरिक्त सावधानी से वापरते हैं।

मैं पहुँचा तब सुरेश भाई का काम पूरा होने को था। मैंने फटाफट ये फोटू लिए। आप भी देखिए और अपना गुजरा जमाना तो याद कीजिए ही, अपने बच्चों को भी इसके बारे में बताइए।  




खाता बही में प्रविष्टियाँ करते हुए सुरेश भाई

पेन में स्याही भरते हुए सुरेश भाई

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बस्तर से घिरे जीजाजी

जीजाजी ने मुझे जोर का धक्का दिया, बहुत धीरे से। प्रेमपूर्वक। आनन्ददायक। 

जीजाजी याने विनायकजी पोतनीस। सुभेदार परिवार के दामाद। हमारी नीलम ताई के जीवन संगी। कोई तीस-पैंतीस बरस से उनसे मिलना और बतियाना बना हुआ है। लेकिन वे ‘ऐसे’ भी हैं, यह कभी महसूस ही नहीं होने दिया। बहुत कम बोलते हैं और धीमी आवाज में। उन्हें सुनने के लिए अतिरिक्त चौकन्ना होना पड़ता है। 


यह बीस दिसम्बर की रात थी। सुभेदार परिवार का उपक्रम ‘आशर्वाद नर्सिंग होम’, अगली सुबह, 21 दिसम्बर 2018 को रतलाम के चिकित्सा व्यवसाय जगत में इतिहास का महत्वपूर्ण पन्ना जोड़ने जा रहा था। (इस पर मैं अलग से लिखूँगा।) इसी प्रसंग पर समूचा सुभेदार कुटुम्ब जुटा हुआ था। कार्यक्रम संचालन का सुख-सौभाग्य मुझे मिला था। इसी सिलसिले मैं वहाँ पहुँचा था। 

काम की बातें हो चुकी थीं। हम लोग बेबात बतिया रहे थे। जीजाजी चुपचाप उठे। अन्दर गए। एक छोटी सी पुस्तिका लिए लौटे। मैं बेध्यान हो, गप्पों में व्यस्त था। जीजाजी सीधे मेरे सामने आए और पुस्तिका मुझे थमाते हुए बोले - ‘इसे देखिएगा विष्णुजी! शायद आपको अच्छी लगे।’ मैंने देखा, कविता संकलन था। कवि का नाम था - विनायक पोतनीस। मेरे लिए यह उल्कापात से कम नहीं था। मैंने जड़ अवस्था में ही पन्ने पलटे। तीस पृष्ठों की, बहुरंगी मुखपृष्ठवाली  इस पुस्तिका में छब्बीस कविताएँ थीं। मैं अवाक् हो गया।

जीजाजी अच्छे-भले सिविल इंजीनीयर हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यान्त्रिकी (पी एच ई) विभाग की नौकरी में जिन्दगी खपा दी। बेदाग और निर्विवाद रहते हुए विभाग के सर्वोच्च पद, प्रमुख यन्त्री (इंजीनीयर-इन-चीफ) से सेवानिवृत्त हुए। जब भी मिले, प्रायः चुप ही मिले। लोग अपनी अफसरी के किस्से शेखियाँ बघार-बघार कर सुनाते हैं। लेकिन जीजाजी तो कभी खुद के बारे में भी बताते नहीं मिले! ऐसे ‘चुप्पा’ जीजाजी कवि भी हैं! मुझे अचानक ही निदा फाजली याद आ गए -

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना।

मैंने तो जीजाजी को कई बार देखा लेकिन वे ‘ऐसे’ तो कभी नजर नहीं आए! मेरी नजर का ही दोष है यह। मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। घरघराई आवाज में पूछा - ‘आप कविताएँ भी लिखते हैं?’ जवाब लगभग निस्पृह स्वरों में मिला - ‘हाँ। यह चौथी किताब है।’ मैं रोमांचित हो, असहज हो गया था। मुझे सम्पट नहीं बँध रही थी। थरथराते हाथों से मेंने किताब के पन्ने पलटे। दो-एक कविताएँ पढ़ीं। मुझे कविता की समझ नहीं है। लेकिन कविताएँ मुझे अच्छी लगीं। उनके सामने पढ़ी कविताओं पर दो-चार बातें कीं और लौट आया।

घर आकर कविताएँ पढ़ीं। कई बातें मन में आने लगीं।

जीजाजी ने छत्तीस बरस की नौकरी में दस बरस छत्तीसगढ़ में गुजारे। 1996 में सेवा निवृत्ति के बाद भी छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना रहा। अभी जीवन के बयासीवें बरस में चल रहे हैं। भोपाल में बस गए हैं। लेकिन बस्तर आज भी उनके मन में बसा हुआ, साथ बना हुआ है। अब भी ‘हाण्ट’ करता है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मुझे दी पुस्तिका के शीर्षक में बस्तर प्रमुख है। यह पुस्तिका दो बरस पहले ही छपी है। सारी कविताएँ तो बस्तर पर नहीं हैं लेकिन बस्तर प्रमुखता लिए हुए है। 

मैं कहूँ, उससे बेहतर है कि दो-एक कविताएँ खुद ही कहें-





हरा सलाम

कोई चालीस साल गुजरे
बस्तर से मेरा तबादला हुए
मेरे रहगुजर थे वो
हरी आस्तीनें हिलाकर सलाम जताते
हरी छत्री धरे साल की
मधुमक्खी के छत्ते जैसे जंगल में बसे
जगरमुण्डा से देर रात में बेखौफ लौटता
बस्तर अभय वरदान था।
हरा सलाम अचानक लाल हो गया
सुरंगों, दुनालियों से निकले लाल फव्वारे
हरा केवल पेड़ पत्तों में बहता रहे
लाल केवल शरीर की शिराओं में
बाहर नहीं।
+ +

स्वप्नदेश

सारी सृष्टि नवजात बालक सी
निर्बोध, निर्विकार, उल्लासमय
युवा तितलियों का स्वानन्द विचरण
मन्द, मादक महुए का वातावरण
तब बस्तर स्वप्नदेश था।
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जगरगुंडा में एक शाम

कंधे तक ऊँची घास के रास्ते
कटेकल्यान पठार से सीधे उतरे
एक शाम जगरगुंडा में
बितायी एक रात
अठपहरिया की थानागुड़ी में
बस गई यह रात मेरे अवचेतन में।
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मरमेड (मत्स्यपरी)

सोचा भी नहीं कभी मरमेड दिखेगी
अचानक बिजली सी कौंध गई
मछलीनुमा नुकीले पाँव, हीरे टपकाते केश
सुनामी जैसी आयी और
बरबाद कर गई।

पुस्तिका मिले साठ घण्टे से अधिक हो गए हैं लेकिन कविताएँ मेरे साथ ही बनी हुई हैं। जब मेरी यह दशा है तो जीजाजी ने इन कविताओं को तो जीया है! खुद को व्यक्त करने तक जीजाजी की क्या दशा रही होगी? सम्भवतः इसीलिए ‘कवि’ आजीवन आकुल, व्याकुल, व्यग्र बना रहता है। उसकी यह दशा ही समय और समाज को संजीवनी दे पाती है।

इस कविता पुस्तक ने एक और जीजाजी से ही मुलाकात नहीं करवाई, यह भी बताया कि हमारी नीलम ताई का पूरा और वास्तविक नाम नीलप्रभा है और वे सुन्दर रेखांकन भी करती हैं। पुस्तिका के मुखपृष्ठ का रेखांकन उन्हीं का है।

शासक और रचनाकार में यही अन्तर है। दोनों अपनी-अपनी दुनिया बसाते हैं। लेकिन शासक की दुनिया में किसी और के लिए जगह नहीं होती जबकि रचनाकार की दुनिया में सदैव भरपूर स्पेस उपलब्ध रहती है। इतनी कि पूरा ब्रह्माण्ड समा जाए तो भी जगह बची रहती है। जीजाजी की दुनिया में भी भरपूर जगह है।

इस सम्भावना के साथ कि आपको कविताएँ अच्छी लगी हों और उनसे बात करना चाहें, उनका अता-पता, सम्पर्क सूत्र दे रहा हूँ -

श्री विनायक पोतनीस
ए-124, मानसरोवर कॉलोनी,
शाहपुरा,
भोपाल-462039
मोबाइल नम्बर - 94244 07829
ई-मेल:vinayakpotnis124@gmail.com 

बोहरा सा’ब नहीं मिलते तो.....

मैं सचमुच में बड़भागी हूँ जो मुझे बोहरा सा’ब मिल गए। वे
क्या मिले, मुझे जीवन-पाथेय मिल गया। वे नहीं मिलते तो पता नहीं कि मैं ‘हाथ का साफ’ रह पाता या नहीं। बोहरा सा’ब जैसे लोग आत्मा को निर्मल कर देते हैं। 

मैं 1991 में बीमा एजेण्ट बना। उन दिनों विपन्नता के चरम को जी रहा था। एक बार फिर भिक्षावृत्ति के कगार पर आ खड़ा हुआ था। मेरी जीवन संगिनी वीणाजी तो अवलम्ब थीं ही, सहायता करने को उतावले, उदार हृदय मित्र ही मुझे सम्हाल रहे थे मुझे। एजेण्ट बने तीन-चार बरस हो रहे थे। सरकते-सरकते गति पकड़ रहे धन्धे से आत्म विश्वास और हौसला बढ़ता जा रहा था। हम एजेण्ट लोग ग्राहकों से पुराने बीमों की किश्तों की रकम लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं। लेकिन पुराने बीमों की किश्तें जमा कराना ही आज भी ‘मुख्य ग्राहक सेवा’ बना हुआ है। इसी कारण, मेरी जेब में हजार-पाँच सौ रुपये बराबर बने रहने लगे थे। दो छोटे-छोटे बच्चों की जरूरतों की भीड़वाली गृहस्थी। जेब में नोट। लेकिन नोट अपने नहीं। परायी अमानत। खुद को संयत और बच्चों को समझदार बनाने का निरन्तर संघर्ष। जेब में पैसे हैं लेकिन बच्चों की इच्छाएँ पूरी न कर पाने से उपजती झुंझलाहट रुला-रुला देती। मन कमजोर हो, बहक जाने को उतावला होता था लेकिन शायद माँ-पिताजी और दादा के दिए संस्कार थाम लेते थे। कुछ ऐसी ही डूबती-उतराती मनोदशावाले दिनों मे बोहरा सा’ब मिले।

पूरा नाम सज्जाद हुसैन बोहरा। सहायक शाखा प्रबन्धक के पद पर जावरा से स्थानान्तरित हो गृह नगर रतलाम स्थानान्तरित हुए थे। हम एजेण्टों को नए बीमे लाने के लिए प्रेरित करना और हमारी मदद करना उनका काम था। इसलिए बोहरा सा’ब के पास रोज दो-चार बार जाना, बैठना होता ही था। इसी तरह मिलते-मिलाते मालूम ही नहीं हुआ कि कब उनसे मानसिक नैकट्य स्थापित हो गया। हम दोनों अपना काम निपटाते हुए बेकाम की बातें करने लगते। आज, बरसों बाद मालूम हो रहा है कि वे बेकाम की बातें कितने काम आ रही हैं!

इसी तरह बेकाम की बातें करते-करते बोहरा सा’ब ने न जाने कितनी किश्तों में ‘अच्छा बीमा एजेण्ट’ बनने के कुछ गुर दिए। एलआईसी के सारे अफसर हमें ‘सफल एजेण्ट’ बनाने में लगे रहते हैं। लेकिन ‘धर्मनिष्ठ’ बोहरा सा’ब हमें ‘अच्छा एजेण्ट’ देखना चाहते थे। उनका मानना रहा कि एजेण्ट कितना ही बड़ा और कितना ही कामयाब क्यों न हो, वह यदि ‘अच्छा एजेण्ट’ नहीं है तो उसकी कामयाबी और उसका बड़ा होना ‘नीरस, निरर्थक आँकड़ा’ से अधिक कुछ नहीं है। यदि आप ‘अच्छा मनुष्य’ नहीं हैं तो फिर आपकी कामयाबी और बड़ापन, आपकी अचकन में लगा वह कागजी फूल है जो आपको दर्शनीय तो जरूर बनाता है लेकिन उसमें खुशबू नहीं होती। इसलिए वह आपको सार्थकता प्रदान नहीं करता, आपको उपयोगी नहीं बना पाता।

बोहरा सा’ब से बरसों हुई बातों में, खण्ड-खण्ड रूप में मिले ये सूत्र पहली नजर में जरूर बीमा एजेण्ट के धन्धे से जुड़े लगते हैं लेकिन तनिक ध्यान से विचार करें तो वे समूचे जीवन को उदात्तता और प्रांजलता प्रदान करते हैं। अपने पेशे की नैतिकता (प्रोफेशनल ईथिक्स) का ईमानदारी से पालन करना ही इन सारे सूत्रों का आधार और केन्द्र रहा।

पहला सूत्र - ‘आप जिस भी आदमी/औरत का बीमा करें, उसके शारीरिक नाप (ऊँचाई, पेट, सीना/छाती) खुद लें। यदि महिला का बीमा कर रहे हैं तो या तो किसी अन्य महिला की मदद लें और अपने सामने यह प्रक्रिया पूरी करें।’

मेरी एजेंसी का यह अट्ठाईसवाँ बरस चल रहा है। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह काम करने में हमारे एजेण्ट मित्रों को पता नहीं क्यों शरम आती है। बोहरा सा’ब की इस सलाह पर मैंने यथासम्भव पूरा अमल किया। आज भी मेरी जेब में इंची टेप बना रहता है। नाप लेने के लिए मैं जब जेब से इंची टेप निकालता हूँ तो मौके पर मौजूद तमाम लोग ताज्जुब भी करते हैं और हँसते भी हैं। ऐसा करते समय मुझे हर बार (जी हाँ, हर बार) सुनना पड़ा - ‘पहलेवाले (एजेण्ट) ने तो ऐसा नहीं किया था।’ एक अुगल का इंची टेप हर बार मुझे सारे एजेण्टों से अलग बना देता है। ये नाप खुद लेने से ही हमें ग्राहक की शारीरिक दशा की वास्तविक जानकारी हो पाती है। 

दूसरा सूत्र - ‘बैरागीजी! आप बीमा करो तो यह याद रखते हुए करना कि आज बीमा किया और कल उसकी (ग्राहक की) मृत्यु हो जाए तो उसके नामित को दावे की रकम का भुगतान, पहली बार कागज पेश करने पर मिल जाए।’

यह बहुत ही बारीक और महत्वपूर्ण बात है। बीमा होने के तीन वर्ष की अवधि में बीमाधारक की मृत्यु होने की दशा में विस्तृत जाँच होती है। बीमा प्रस्ताव में ग्राहक के स्वास्थ्य-ब्यौरे (जिन्हें, बीमा शब्दावली में ‘मटेरियल फेक्ट’ कहा जाता है) विस्तार से पूछे जाते हैं। यह जगजाहिर तथ्य है बीमा फार्म ग्राहक नहीं भरता है। एजेण्ट ही भरता है। जाँच में ये ब्यौरे यदि झूठे पाए जाएँ तो बीमा कम्पनी मृत्यु दावे की रकम चुकाने से इंकार कर देती है। बोहरा सा’ब इस बात पर हर बार जोर दिया करते थे - ‘एक-एक कर, मटेरियल फेक्ट की पूरी जानकारी लो। कुछ भी गलत मत लिखो।’

तीसरा सूत्र - ‘किश्त की रकम के लिए ग्राहक जो नोट आपको दे, वे ही नोट केश काउण्टर पर जाने चाहिए।’

पहली नजर में यह यह बात हास्यास्पद होने की सीमा तक महत्वहीन लगती है। लेकिन ऐसा है नहीं। कोई नोट कटा-फटा, रंग में सना हुआ, नकली निकल आए तो बदलने के लिए आप ग्राहक से आत्मविश्वास और अधिकारपूर्वक कह सकेंगे। यदि आपने उसके दिए नोट किसी को छुट्टा देने के लिए या अपने काम के लिए बदल लिए तो फिर सारी जिम्मेदारी आपकी होगी और आपको ही आर्थिक भार उठाना होगा।

चौथा सूत्र - ‘ग्राहक ने आपको रकम दी। अगले दिन छुट्टी नहीं है और रकम आपने जमा नहीं कराई तो यकीन मानिए, या तो आपने बहुत बड़ी आफत मोल ले ली है या फिर आपकी नियत में खोट आ गया है। आप इस रकम का उपयोग अन्यत्र करने जा रहे हैं।’

एजेण्ट को रकम देते ही ग्राहक मान लेता है कि उसे बीमा सुरक्षा मिल गई है। यदि उसका बीमा प्रस्ताव अविलम्ब प्रस्तुत/स्वीकृत नहीं हुआ और आपके अभाग्य से कोई अनहोनी हो गई तो उस स्थिति की कल्पना खुद ही कर लीजिए। रकम तो कुछ हजार की होती है जबकि बीमा लाखों का होता है।

सूत्र तो मुझे और भी मिले लेकिन ये चार सूत्र मेरे बीमा व्यवसाय के मजबूत पाये साबित हुए। मैंने इन पर अमल करने की पूरी-पूरी कोशिश की। यह बड़ा कारण रहा कि मैं अपने ग्राहकों का, उनके परिजनों और परिचितों/मित्रों का विश्वास हासिल करने में कामयाब हो पाया। आज जब मैं जीवन के चौथे काल में चल रहा हूँ तो मुझे इस बात का परम आत्म सन्तोष है कि मुझ पर गलत बिक्री (मिस सेलिंग) का, अमानत में खयानत का एक भी छींटा नहीं पड़ा और मटेरियल फेक्ट में विसंगति के आधार पर एक भी मृत्यु दावा अस्वीकार नहीं हुआ। इन सूत्रों ने मुझे भरपूर सार्वजनिक प्रतिष्ठा और पहचान दिलाई।

ये सारी बातें अचानक ही याद नहीं आईं। मेरी आदत है कि जिस भी मुहल्ले में जाता हूँ तो उस मुहल्ले में रहनेवाले अपने अन्नदाताओं (ग्राहकों), परिचितों से मिलने की कोशिश भी करता हूँ। बोहरा सा’ब लक्कड़पीठा मे रहते हैं। बुधवार, 06 दिसम्बर को सुरन्द्र भाई सुरेका से मिलने गया तो बोहरा सा’ब से भी मिलने चला गया। मुझे देखकर वे चकित हुए भी हुए और बहुत खुश भी हुए। मुझे अकस्मात अपने सामने खड़ा देख वे ‘अरे!’ कहकर मानो हक्के-बक्के हो गए। आधा मिनिट तक बोल ही नहीं पाए। उम्र नब्बे बरस के आसपास हो आई है। तबीयत ठीक-ठीक ही है। घर से बाहर निकलना बन्द सा हो गया है। मैं बहुत ज्यादा देर तो उनके पास नहीं बैठा। लेकिन जितनी देर बैठा रहा, लगा किसी विशाल, घने नीम के नीचे बैठा हूँ जो मुझे ठण्डक भी दे रहा है और निरोग भी कर रहा है। 

वे बार-बार मुझे धन्यवाद दे रहे थे कि मैं उनसे मिलने पहुँचा। मैं चलने लगा तो बोले - ‘अब तो लोगों ने मिलना-जुलना बन्द ही कर दिया है। आप आए तो जी खुश हो गया। आते रहो।’ मैं उनसे कैसे कहता कि मैं तो खुद ही अपनी खुशी के लिए उनसे मिलने पहुँचा था। मेरी तो तीर्थ यात्रा हो गई। ईश्वर उन्हें स्वस्थ बनाए रखे। 

ऐसे बोहरा सा’ब सबको मिलें।
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कॅरिअर और परिवार के सन्तुलन का विकट संघर्ष

जीवन अपनी गति से चलता रहता है लेकिन कुछ क्षण ठहरे हुए रह जाते हैं। एक नवम्बर की उस शाम के कुछ मिनिट अब तक ठहरे हुए हैं। आध्या का कुम्हलाया चेहरा आँखों के सामने बना हुआ है और रुचि की भीगी आवाज सुनाई दे रही है। रुचि और अर्पित के बारे में मैं यहाँ लिख चुका हूँ।

वह, मेरे दाँतों के ईलाज का अन्तिम सोपान था। एक तो अपने मित्र के बेटा-बहू और दूसरा, चार महीनों के निरन्तर सम्पर्क में चार-चार, पाँच-पाँच घण्टों की बैठकें। इसके चलतेे मैं अर्पित और रुचि से ‘तू-तड़ाक’ से बातें करने लगा। दोनों की सस्ंकारशील शालीनता यह कि दोनों ने मेरे इस व्यवहार पर असहजता नहीं जताई। व्यक्ति और डॉक्टर के रूप में दोनों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। इतनी कम उम्र में दोनों ने डॉक्टरी पेशे में और मरीज के साथ व्यवहार में जो परिपक्वता हासिल कर ली है वह मेरे लिए ‘आश्वस्तिदायक, सुखद, सन्तोषदायक आश्चर्य’ ही है। ये बच्चे निश्चय ही डॉक्टरी के व्यवसाय को प्रतिष्ठा दिलाएँगे। मैं बहुत अधीर और अत्यधिक पूछताछ करनेवाला मरीज हूँ। लेकिन दोनों ने जिस धीरज और विनम्रता से मुझ जैसे अटपटे मरीज की चिकित्सा की उससे मुझे एकाधिक बार खुद पर ही झेंप आई। दोनों के हाथ इतने सध गए हैं कि आँखें बन्द कर, बातें करते हुए ईलाज करते लगते हैं। 

जब मेरा ईलाज शुरु हुआ था तो मित्रों-परिजनों ने बहुत चिन्ता की थी। ईलाज के दौरान एक-एक करके सबने मुझसे कम से कम एक बार तो पूछा ही पूछा - ‘दर्द कितना हुआ? बेहोश तो नहीं हुए? हर बार साथ में कोई न कोई था या नहीं? (चार महीनों के ईलाज के दौरान हर बार मैं अकेला ही गया था।) रात को सो पाए या नहीं? भोजन बराबर कर पा रहे हैं?’ मेरा जवाब हर बार सवाल पूछनेवाले को निराश करता था। मुझे एक पल भी दर्द नहीं हुआ। दर्द के मारे एक रात भी कष्ट से नहीं गुजरी। भोजन नियमित रूप से, सामान्य रूप से करता रहा। दाँतों का ईलाज कराने का मेरा कोई पूर्वानुभव नहीं रहा। इसलिए, लोगों के सवाल सुन-सुन कर अनुमान लगाया कि मरीज को बहुत तकलीफ होती होगी। बार-बार ऐसे सवाल सुन-सुन कर मुझे हर बार इस बात की तसल्ली हुई कि मैं अच्छे, विशेषज्ञता प्राप्त कुशल डॉक्टरों के हाथों में हूँ।

रुचि की बेटी आध्या अभी लगभग डेड़ बरस की है। माँ की सबसे बड़ी, सबसे पहली चिन्ता अपनी सन्तान और बच्चे की सबसे बड़ी, सबसे पहली जरूरत होती है माँ। इसीके चलते डॉक्टरी पर ममता प्रभावी हो जाती है और रुचि की दिनचर्या तनिक गड़बड़ा जाती है। मुझे यह बात दूसरी बैठक में अच्छी तरह समझ में आ गई थी। रुचि के साथ आध्या भी क्लिनिक पर आती है। इसलिए उससे भी मेरी देखा-देखी की पहचान हो गई। 

एक नवम्बर से पहलेवाली सारी बैठकों में आध्या मुझे हर बार तरोताजा, हँसती-खेलती, खिलखिलाती मिलती थी। लेकिन उस शाम वह सुस्त, चुपचाप, मुरझाई-कुम्हलाई हुई थी। मेरे मन में शंकाएँ-कुशंकाएँ उग आईं। रहा नहीं गया। पूछा बैठा - ‘आध्या सुस्त क्यों है? तबीयत तो ठीक है?’ रुचि ने जवाब दिया - ‘एकदम फर्स्ट क्लास है अंकल। तबीयत बढ़िया है।’ सुनकर तसल्ली तो हुई किन्तु आध्या का चेहरा, उसका गुमसुमपन रुचि की बात की पुष्टि नहीं कर रहा था। लेकिन रुचि की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। (वह तो खुद ही डॉक्टर है!) तनिक हिचकिचाते हुए मैंने पूछा - ‘सब कुछ फर्स्ट क्लास है और तबीयत भी ठीक है तो यह बीमार जैसी सुस्त क्यों है?’ रुचि ने जवाब तो दिया लेकिन मुझसे आँखें चुराते हुए - “वो क्या है अंकल, इसकी ‘स्लीप सायकिल’ बदलनी है। चाइल्ड स्पेशलिस्ट ने कहा है।” मैं चौंका। याने आध्या की दिनचर्या बदली जा रही है। ऐसे कामों को मैं प्रकृति के काम में अनुचित हस्तक्षेप मानता हूँ। फिर, बच्चों के मामले में तो मैं तनिक अधिक दुराग्रही हूँ। मेरा बस चले तो पाँच बरस की उम्र तक बच्चे के कान में ‘स्कूल’ शब्द पड़ने ही नहीं दूँ। ढाई बरस की उम्र होते-होते बच्चों को स्कूल भेजने को मैं बच्चों पर ‘क्रूर, अमानवीय अत्याचार’ मानता हूँ। यह बच्चों से उनका बचपन छीनने के सिवाय कुछ भी नहीं है। बच्चों को जब नींद आए तब उन्हें सोने दिया जाए। जब वे जागें तब उन्हें खेलने दिया जाए। मैं दो बच्चों का बाप हूँ। अपनी शिशु अवस्था में मेरे दोनों बच्चे दिन में सोते थे और रात में जागते थे। आधी रात के बाद तक (कभी-कभी भोर तक) उनके साथ जागना पड़ता था। उन्हें कन्धे पर लेकर, थपकते हुए कमरे में घूमना पड़ता था। इसका असर हम पति-पत्नी की, अगले दिन की दिनचर्या पर होता था। दिन में भरपूर काम रहता था। सोने की तनिक भी गुंजाइश नहीं। बिना कुछ सोचे मुझे बात समझ आ गई। आध्या भी दिन में सोती होगी और रात में जागती, खेलती होगी। डॉक्टर माँ-बाप थक कर चूर रहते होंगे। चाहकर भी उसे वक्त नहीं दे पाते होंगे। ऐसे में यही एक निदान हो सकता था। 

रुचि की आवाज में खनक नहीं थी। स्वर भी मद्धिम था। चार महीनों की बैठकों के दौरान आध्या के बहाने बच्चों के प्रति माँ-बाप के व्यवहार को लेकर मेरी मानसिकता से वह भली भाँति परिचित हो चुकी थी। उसे लगा होगा, मैं कोई खिन्नताभरी असहमत टिप्पणी करूँगा। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। 

यह केवल अर्पित-रुचि की बात नहीं थी। आज की पीढ़ी के, प्रत्येक व्यवसायी दम्पति (प्रोफेशनल कपल) की कष्टदायी हकीकत है। कॅरिअर तथा परिवार की चिन्ता और देखभाल में सफलत सन्तुलन करना ‘डूब कर आग का दरिया पार करना’ जैसा दुसाध्य है। फिर, यह सब वे बच्चों की बेहतरी के लिए ही तो कर रहे हैं!


यह चित्र रुचि की क्लिनिक में ही लिया हुआ है। मेरी इच्छा थी कि रुचि, डॉक्टर का एप्रेन पहन कर ही चित्र में रहे। लेकिन रुचि ने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया - ‘नहीं अंकल! आध्या को इनफेक्शन का खतरा मैं नहीं उठाऊँगी।’

ये सारी बातें, कुछ ऐसे युगलों के चित्र एक पल में मेरे मन में उभर आए। मैं कुछ नहीं बोला। बोलता कैसे? बोल ही नहीं पाया। मैं तो चुप हो ही गया था, रुचि भी चुपचाप अपना काम करती रही। काम खत्म करने के बाद बोली - ‘एक महीने बाद आपको फिर आना है अंकल। चेक-अप के लिए।’ उसकी आवाज अब तक सामान्य नहीं हो पाई थी।

मैं कल, चार दिसम्बर को अर्पित-रुचि के पास जा रहा हूँ।  अभी से असहज हो गया हूँ। आध्या मुझे कैसी मिलेगी? हँसती-खिलखिलाती, चहचहाती या सुस्त, मुरझाई-कुम्हलाई? उसकी दशा से ही मैं अर्पित और रुचि की दशा का अनुमान कर पाऊँगा।

ईश्वर अर्पित-रुचि को और तमाम अर्पितों-रुचियों को सदैव सुखी, समृद्ध रखे और यशस्वी बनाए। ये बच्चे ही हमारा कल हैं। ये सेहमतन्द रहें ताकि हमारा आनेवाला समूचा समय सेहतमन्द रहे। कॅरिअर और परिवार में समुचित सन्तुलन बनाए रखते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचना इनका विकट संघर्ष है। लेकिन इनकी उत्कट जिजीविषा इन्हें सफल बनाएगी ही। 

कल शुभेच्छा सहित जाऊँगा - आध्या चहकती मिले। आध्या तो मिले ही, उससे पहले रुचि मिले - चहकती हुई, निष्णात् चिकित्सक और श्रेष्ठ माँ: रुचि।
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ये समझ रहे हैं, रामजी इनके भरोसे हैं

26 नवम्बर सोमवार की दोपहर। चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। भाजपा और काँग्रेस के उम्मीदवार रैलियों के जरिये, कस्बे के प्रमुख बाजारों में मतदाताओं को अपनी शकलें दिखा रहे हैं, उनके हाथ जोड़ रहे हैं। 

चुनाव की रंगीनी और गहमा-गहमी तलाशते हुए, हम सात फुरसतिये बिना किसी पूर्व योजना के, अचानक ही माणक चौक में एक ठीये पर  मिल गए हैं। सातों के सातों सत्तर पार। देश की प्रमुख सभी राजनीतिक विचारधाराएँ इनसे प्रतिनिधित्व पा रही हैं। सबके सब घुटे-घुटाए। सूरदास की ‘कारी कामरियाँ’, जिन पर दूजा रंग चढ़ने की आशंका भी नहीं। प्रत्येक अपने आप में एक मदरसा। कोई डाइबिटिक है तो कोई बीपी का मरीज। सबके अपने-अपने परहेज हैं। लेकिन जैसे गणित में ऋण-ऋण मिलकर धन हो जाता है, उसी तरह यहाँ परहेजियों के सारे परहेज, कुण्ठित चटोरापन बन कर जबान पर आ बैठे हैं। कॉमरेड की दुकान की कचौरियाँ और शंकर स्वीट्स की कड़क-मीठी चाय आ गई है। सबकी जबानें नश्तर तो हैं लेकिन नुकीली नहीं। छिलके उतार रही हैं। चुभ नहीं रहीं। कचौरियाँ कुतरने और चाय चुसकने के बीच बातें होने लगीं - 

- कश्यप जीत जाएगा।

- अभी से क्या कहें! प्रेमलता  जोरदार टक्कर दे रही है।

- क्या टक्कर दे रही है? कश्यप के सामने कहाँ लगती है? खानापूर्ति कर रही है। 

- इस मुगालते में मत रहना। अण्डर करण्ट दौड़ रहा है। बरसों बाद कोई सनातनी उम्मीदवार सामने है। 

- तुम लोग धरम-जाति से कभी ऊपर भी उठो यार! ये क्या जैन-सनातनी लगा रखा है? एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। वो तुम्हारे धरम-जात के चक्कर में नहीं पड़ती। अपने दिमाग से काम लेती है। 

- हाँ! वो तो है। लेकिन उनके सामने आप्शन क्या है? 

- ये ‘नोटा’ को वोट नहीं दे सकते?

- दे सकते हैं लेकिन देंगे नहीं। वे कमिटेड नहीं हैं। तुमसे-हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, समझदार हैं। वोट को बेकार नहीं जाने देंगे। वोट तो किसी न किसी पार्टी को ही देंगे।

- हाँ। किसी न किसी पार्टी को ही देंगे। 

- देखो यार! इतने भावुक और आदर्शवादी मत बनो। अपना शहर, व्यापारी शहर है और व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता। इसलिए जीतेगा तो कश्यप ही। उसके जीतने में ही सबका फायदा है।

- लेकिन कश्यप से नाराज लोग भी कम नहीं। जीत भले ही जाए लेकिन इस बार पसीना आ रहा है। 

- अरे! यार! तुम लोग ये क्या कश्यप-प्रेमलता में उलझ गए! कल अयोध्या में जो हुआ वो मालूम है तुम्हें?

- लो! इससे मिलो! चौबीस घण्टे हो गए हैं। अखबारों और टीवी में सब आ गया। सबने कह दिया कि उद्धव ठाकरे का शो फ्लॉप हो गया। पाँच हजार भी नहीं थे उसके मजमे में।

- य्ये! येई तो सुनने के लिए मैंने इसे उचकाया था। उचक गया स्साला। उद्धव की तो बता दी लेकिन वीएचपी की नहीं बताई। जरा वीएचपी की भी तो बता दे!

- क्यों? वीएचपी की क्या बताना? भव्य प्रोग्राम रहा। 

- अच्छा! कितना भव्य रहा?

- मुझसे क्या पूछते हो? अखबार में पढ़ लो! टीवी में देख लो!

- अरे! शाणे! हमको क्या उल्लू समझता है? तीन बज रहे हैं। हम क्या सीधे बिस्तर से उठ कर चले आ रहे हैं? बिना मुँह धोये? अरेे! दुनिया की खबर ले कर आ रहे हैं! तेरे मुँह से सुनना है। बता! कितना भव्य रहा वीएचपी का मजमा?

- अरे! यार! बुड्डा हो गया है। याददाश्त चली गई है बिचारे की। मगज (बादाम) खाता तो है लेकिन असर नहीं करती। तू ही बता दे।

- वो तो मैं बता ही दूँगा। लेकिन पहले ये, उद्धव के मजमे की गिनती बतानेवाला तो कुछ बोले!

- चल! तू ही बता दे। तेरी आँखों पर तो पट्टी बँधी है। मैं कुछ भी बताऊँगा तो तू मानेगा तो नहीं। तू ही बता।

- बड़ी जल्दी मैदान छोड़ दिया तेने तो रे! अपनी जाँघ उघाड़ने में शरम आती है? चल! मैं ही बताता हूँ। दो लाख लोग इकट्ठा करने का दावा किया था। चालीस हजार भी नहीं पहुँचे! पण्डाल खाली था। 

- नहीं। चालीस नहीं। पचास हजार। लेकिन चालीस हजार भी कोई कम नहीं होते। 

- सवाल कम-ज्यादा का नहीं है रे! सवाल तो तुम्हारे होश उड़ने का है। उद्धव ने तुम्हारे होश उड़ा दिए। उसने तो तुम्हारी दुकान पर कब्जा कर ही लिया था। बाबरी डिमालेशन का क्रेडिट ले ही लिया था उसने तो। वो अयोध्या आने की बात नहीं करता तो तुम लोग ये मजमा लगाते?

- क्यों? क्रेडिट लेने की बात ही कहाँ है। वो तो हमने ही किया था।

- अच्छा! तुमने किया था? लेकिन उद्धव के दावे के जवाब में वीएचपी ने तो कबूल कर लिया कि उस डिमालेशन में केवल वीएचपी का नहीं, देश के दूसरे संगठनों का भी योगदान है!

- ये तो वीएचपी की शालीनता है। देश के सम्पूर्ण हिन्दू समाज को क्रेडिट दे रही है। लेकिन हिन्दू भावनाओं की चिन्ता तो हम ही कर रहे हैं? इसमें क्रेडिट की बात ही कहाँ है। छाती ठोक कर कहते हैं - हाँ हमने किया है। 

- अच्छा! ये छाती ठोकनेवाले तो सबके सब मादा बने हुए हैं। कोर्ट में  तो एक भी सूरमा जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। सबके सब एक भाव से कह रहे हैं कि बाबरी गिराने में उनका हाथ नहीं है। तुममें केवल एक ही मरद है। उमा भारती। उसी ने कहा कि वो बाबरी गिराने में शामिल है। बाकी तो तुम सबके सब मादा हो।

- अरे यार! क्यों इसके पीछे पड़ गया! हकीकत अपन सब जानते हैं।

- यही तो! जानता तो ये भी है लेकिन कबूल नहीं करता। अच्छा चल बता! अभी ये जमावड़ा क्यों किया? क्या प्रसंग था?

- क्या प्रसंग था? अरे! राम मन्दिर तो देश के हिन्दू समाज की आस्था का मामला है। बहुत राह देख ली।  अब नहीं देखेंगे। अभी नहीं तो कभी नहीं। बस! यही तो कह रहे हैं!

- अच्छा! साढ़े चार साल पहले जब एक साथ 282 आए थे लोक सभा में तब आते ही रामजी क्यों याद नहीं आए? चलो कोई बात नहीं। लेकिन उसके बाद अब तक क्या करते रहे? अडानी-अम्बानी के जरिए जेबें भरते रहे। पेट्रोल, नोटबन्दी और जीएसटी से लोगों की जान लेते रहे। अब जब लोग सामने आकर बोलने लगे हैं। हिसाब माँगने लगे हैं तो रामजी याद आ गए? लोग बेवकूफ नहीं हैं। सब जानते हैं। तुम तो लोगों की नब्ज टटोल रहे थे। लेकिन फ्लॉप हो गए। यही तुम्हारी परेशानी है। इसी से तुम घबरा रहे हो। तुम्हें रामजी नहीं, 2019 का चुनाव नजर आ रहा है। 

- ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव, चुनाव की जगह और राम मन्दिर अपनी जगह। मन्दिर बनाना तो हमारे जीवन का ध्येय है। तुम चाहे जितनी बाधाएँ खड़ी कर दो, मन्दिर तो बन कर रहेगा। हम ही बनाएँगे।

- अरे! यार! तुम दोनों ने चाय-कचोरी का नास कर दिया। बन्द करो यह सब। चलो! एक-एक कचोरी और चाय और बुलाओ।

- हाँ! हाँ! बुलाओ। मेरी ओर से। लेकिन एक बात तुम सब सुन लो। ये ऐसे बात कर रहा है जैसे रामजी इसके भरोसे हैं। जरा समझाओ इसे। रामजी इसके भरोसे नहीं, ये रामजी के भरोसे है। और ये ही नहीं, सारी दुनिया रामजी के भरोसे है। इसे समझाओ कि रामजी अपनी चिन्ता खुद कर लेंगे। चुनाव जीतने के लिए कोई और टोटका करे।

तीसरा कोई और बोलता, इससे पहले कॉमरेड की दुकान से कचोरियाँ आ र्गइं। सब उन्हीं में अपने-अपने रामजी देखने लगे।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 29 नवम्बर 2018