पोस्ट पढते-पढते, ऊंट के पास बैठे वहीदा रहमान, सुनीलदत्त और इन दोनों सम्पूर्ण कलाकारों को अपने में समेटता हुआ अनन्त रेगिस्तान आंखों पर अपना साम्राज्य कायम करने लगा । गीत कानों में बजने लगा और उसके मादक प्रभाव से आंखें मुंदने लगीं । पूरा गीत मानो कायनात को मालवा के अफीम के खेत में बदल रहा हो जिसमें अफीम के लाल, बैंगनी, सफेद फूलों से लिपटे डोडे (ओपियम केप्सूल) एक ताल में नाच रहे हों और अफीम की आदिम मादक गन्ध का ऐसा समन्दर बना रहा हो जिससे बाहर आने को जी ही नहीं करे । और जब गीत समाप्त हो रहा होता है तो स्थिति नाडी जाग्रत होने वाली या फिर शवासन वाली आ जाती है । 'रेशमा और शेरा' से पहले भी रेगिस्तान अनेक फिल्मों में छायांकित किया जाता रहा है लेकिन इस फिल्म का रेगिस्तान 'निर्जीव' नहीं था । इसकी बालू का कण-कण स्पन्दित होता लगता था । 'धर्मयुग' के फिल्म समीक्षक ने इस रेगिस्तान को 'रेशमा और शेरा' अनूठा जीवन्त पात्र करार दिया था ।
लेकिन मुझे केवल यही सब याद नहीं आया । कई सारी वे बातें याद आ गईं जिन्हें इस समय उजागर करते हुए रोमांच हो रहा है, फुरहरी छूट रही है । यह 1969 से 1972 के बीच की बात है । तब दादा, मध्य प्रदेश के सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे । पण्डित श्यामाचरण शुक्ल (जिन्हें 'श्यामा भैया' का लोक सम्बोधन मिला हुआ था) मुख्यमन्त्री थे । दादा का निवास भोपाल में, शाहजहांनाबाद स्थित पुतलीघर बंगले में था । 'रेशमा और शेरा' के गीत लिखवाने के लिए जयदेवजी वहीं आए थे और कच्चा-पक्का एक सप्ताह भोपाल रहे थे । जयदेवजी को तो यही काम था लेकिन दादा के पास तो 'राज-काज' का झंझट भी था । उसी में से समय चुरा कर दादा, जयदेवजी के पास बैठते, उनकी
बातें सुनते, सिचुएशन सुनते, अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते । जयदेवजी ने पहली ही बैठक में स्पष्ट कर दिया था कि वे धुन पर गीत नहीं लिखवाएंगे, गीत के अनुसार धुन तैयार करेंगे । किसी भी रचनाकार के लिए यह स्थिति मुंह मांगी मुराद से कम नहीं होती । जयदेवजी का एक ही आग्रह था - मैं गीत लेकर जाऊंगा । यही हुआ भी ।
जयदेवजी चले गए । फिल्मों में गीत लिखने का दादा का यह कोई पहला मौका नहीं था । फिल्मी दुनिया के तौर तरीके और फिल्म निर्माण की गति से वे भली भांति वाकिफ थे । सो, जयदेवजी के जाने के बाद उत्कण्ठा तो बराबर बनी रही लेकिन वह बेचैनी में नहीं बदली । राजनीति, दादा को वैसे भी सर उठाने की फुरसत कम ही देती थी । वे भी खुद को साबित करने के लिए अतिरिक्त रूप से परिश्रम करते रहते थे । उन्हें बडी विचित्र स्थितियों का सामना करना पडता था । वे राजनेताओं के बीच कवि होते थे और कवियों के बीच राजनेता । दादा इस स्थिति से तनिक भी नहीं घबराते बल्कि अपने मस्त मौला स्वभाव के अनुसार आसमान फाड ठहाके लगा कर इस विसंगति को कुशल नट की भांति सुन्दरता से निभाते और सबकी मुक्त कण्ठ प्रशंसा पाते । राजनीति में अपने आप को साबित करने के लिए दादा जितना परिश्रम करते उससे अधिक परिश्रम वे 'राजनीति के राज रोग' से खुद को बचाने के लिए करते । विसंगतियों की इस विकट साधना के बीच समाचार सूत्रों से और फिल्मी अखबारों/पत्र-पत्रिकाओं से 'रेशमा और शेरा' की प्रगति सूचनाएं मिलती रहती थीं ।
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक सवेरे वह हो गया जिसे दादा न तो कभी भूल पाएंगे और न ही कभी भूलना चाहेंगे । मन्त्री रहते हुए भी दादा ने 'मन्त्री पद' और 'मन्त्रीपन' को खुद पर हावी नहीं होने दिया । वे यथासम्भव सवेरे जल्दी उठ जाते अपने विधान सभा क्षेत्र से आने वाले कार्यकर्ताओं /मतदाताओं की अगवानी करते, उन्हें अतिथिशाला में ठहराते, उनकी चाय-पानी की व्यवस्था करते । मन्त्रियों के टेलीफोन सूरज उगने से पहले ही घनघनाते लगते हैं । ऐसे टेलीफोनों को दादा खुद ही अटेण्ड किया करते थे । सामने वाले की 'हैलो' के जवाब में जब दादा कहते - 'बोलिए, मैं बैरागी बोल रहा हूं' तो सामने वाला विश्वास ही नहीं करता । सब यही मानते कि मन्त्रीजी के कर्मचारी तो अभी आए नहीं होंगे और अपना काम कराने के लिए आया हुआ कोई कार्यकर्ता या कोई छुटभैया नेता मौके का फायदा उठा कर, 'बैरागी' बन कर बात कर रहा है । ऐसे लोग फौरन डांटते और कहते - 'अपनी औकात में रहो और मन्त्रीजी को फोन दो ।' दादा ऐसे क्षणों का भरपूर आनन्द लेते और कहते - 'भैया, मानो न मानो, मैं बैरागी ही बोल रहा हूं ।' सुन कर सामने वाले की क्या दशा होती होगी, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है ।
ऐसा ही एक फोन 'उस' सवेरे आया । दादा ने फोन उठाया । उधर से नारी स्वर आया - 'हैलो ! बैरागीजी के बंगले से बोल रहे हैं ?' दादा उठे-उठे ही थे । लेकिन ऐसा भी नहीं कि नींद के कब्जे में हों । खुमारी थी जरूर लेकिन यह 'हैलो' कानो में क्या पडी, मानों सम्पूर्ण जगत की चेतना कान के रास्ते शरीर में संचारित हो गई हो - बिलकुल बिजली की तरह, निमिष मात्र में । पता नहीं, दादा ने उत्तर दिया था या वे हल्के से चित्कारे थे - 'अरे ! दीदी आप !' उधर से लताजी बोल रही थीं । उस एक क्षण का वर्णन कर पाना मेरे बस में बिलकुल ही नहीं है । आप दादा से ही पूछिएगा और मुमकिन हो तो किसी सार्वजनिक समारोह में पूछिएगा । सब सुनने वालों का भला होगा । 'कहन' के मामले में दादा अद्भुत और बेमिसाल हैं । जब वे कोई घटना कह रहे होते हैं तो सुनने वाले उस घटना के एक-एक 'डिटेल' को 'माइक्रो लेवल' तक देख रहे होते हैं ।
सो, उस अविस्मरणीय पल को दादा ने जिस तरह जीया वह कुछ इस तरह था - लताजी की आवाज मानो कानों में मंगल प्रभातियां गा रही थीं या फिर सूरज की अगवानी में भैरवी गाई जा रही थी । वे बोल रही थीं लेकिन मैं उनके एक एक शब्द को देख पा रहा था, मानो बाल रवि की अगवानी में शहद के फूलों की सुनहरी घण्टियां प्रार्थनारत हो गई हैं । दादा को वह एक पल एक जीवन जी लेने के बराबर लगा ।
अभिवादन के शिष्टाचार के बाद सम्वाद शुरू हुआ तो लताजी ने जो कुछ कहा वह किसी भी रचनाकार की कलम के लिए अलौकिक पुरस्कार से कम नहीं हो सकता । लताजी ने कुछ इस तरह से कहा - 'कल पापाजी (जयदेवजी को फिल्मोद्योग में इसी सम्बोधन से पुकारा जाता था) ने मुझसे एक गीत रेकार्ड कराया है - रेशमा और शेरा के लिए । गीत तो मैं बहुत सारे गाती हूं लेकिन मुझे अच्छे लगने वाले गीत बहुत ही कम होते हैं । मुझे वह गीत बहुत अच्छा लगा । इतना अच्छा लगा कि गीतकार को बधाई दिए बिना चैन नहीं मिल रहा था । पापाजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि गीत आपका है । उन्हीं दसे आपका नम्बर लिया । इतना अच्छा गीत लिखने के लिए आपको बधाई । ऐसे ही गीत लिखते रहिएगा ।' यह गीत था - तू चन्दा मैं चांदनी ।
लताजी ने ठीक-ठीक क्या कहा था, यह तो दादा ही बता सकते हैं क्यों कि मैं तो उनसे सुनी-सुनाई लिख रहा हूं, वह भी इतने बरसों बाद । सम्भव है, कई पाठकों को यह किस्सा सुनकर रोमांच हो आए । लेकिन यह तो कुछ भी नहीं है । इस रोमांच का वास्तविक आनन्द तो दादा के मुंह से सुनने पर ही मिल सकता है क्यों कि मालवा में कहावत है कि आम की भूख इमली से नहीं जाती ।
सो, फिलहाल आप इस इमली से काम चलाइए । लेकिन इस गीत से जुडा यह एक ही संस्मरण नहीं है । एक और किस्सा है जो आप पाएंगे, 'तू चन्दा मैं चांदनी : विस्तार (2)' में - दो दिनों के बाद ।
शुक्रिया इस संस्मरण को बांटने के लिए!!
ReplyDeleteअभी तो काम चला लिया इमली से, मगर थी बहुत मीठी मतलब मजा आया. अब भाग दो के इन्तजार में बैठे है हम.
ReplyDeleteवाह बैरागी जी बिलकुल सही कहा आपने, अपने "दादा" हैं सरलमना, कोई उन्हें देख कर कह नहीं सकता कि ये व्यक्ति कभी केन्द्रीय मन्त्री भी रहा होगा, लोग अक्सर पूछते हैं सज्जन और साधु कैसा होता है, मैं उन्हें अक्सर बालकवि जी, नानाजी देशमुख आदि के उदाहरण देता हूँ.. बेहतरीन पोस्ट के लिये साधुवाद
ReplyDeleteदादा का ये गीत काल के भाल पर एक भाव-तिलक है.मैने लताजी के 75 जन्मोत्सव पर एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था प्रलय के बाद भी रहेगी लता की आवाज़....मुझे लगता है उस आवाज़ को कालातीत बनाने में जिन गीतों को श्रेय दिया जा सकता है उसमें तू चंदा मैं चाँदनी निश्चित रूप से एक है.जिन श्रोताओं को लताजी के कालजयी गीतों की सुध आती है वे पिछले जन्म से निश्चित ही कुछ पुण्य सिंचित कर लाए हैं .इस गीत में दादा ने मालवी रंगों की जो छटा बिखेरी है वह सुनने वाले को मनासा,जावरा,सैलाना,सीतामऊ,बाजना,आलोट,
ReplyDeleteसरवन,खाचरौद,तराना,उन्हेल,महिदपुर,नामली(मालवी मन के मोह से मजबूर होकर ऐसा लिख गया) जैसे जनपदीय अंचलों की मानस यात्रा करवा देती है.इस गीत में सायबा,लालम लाल,निहाल जैसे शब्दों की जो मालवी-राजस्थानी ध्वनि गूंजी है वह बेमिसाल है ..काका साब ऐसे ही गीत तो तमाम विकृतियों के बीच हमें इंसान बने रहने का हिम्मत देते हैं...दादा,दीदी और पापाजी को इस गीत का स्मरण करते हुए प्रणाम और हम तक यह शब्द-चित्र जीवंत करने के लिये आपको कोटिश: साधुवाद
आदरणीय भैया, इस गीत का मैं भी जबर्दस्त प्रशंसक हूं। आज इससे जुड़ी यादें भीं आपसे जान लीं।
ReplyDeleteबढिया संस्मरण है। बधाई।
ReplyDeleteयू आर ए मास्टर स्टोरी टेलर आई मस्ट से.
ReplyDeleteबहुत ही मोहक विवरण दिया है आपने इस गीत के सृजकों का.