यह तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है कि अभी-अभी मैं जिन दो अनुभवों से गुजरा हूं, वे अनुभव हैं या हादसे ?
डॉक्टर विनोद वैरागी उज्जैन में रहते हैं । हम सब उन्हें 'विनोद भैया' ही कहते हैं । वे बी. ए. एम. एस. याने बेचलर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसीन एण्ड सर्जरी हैं । लोग उन्हें 'डॉक्टर' कहते हैं जबकि वे खुद को 'वै़द्य' कहलाना पसन्द करते हैं । मेरी शादी में उनसे पहली भेंट हुई थी । उम्र में मुझसे छोटे हैं किन्तु चूंकि वे मेरी पत्नी के मामा होते हैं इसलिए रिश्ते में मेरे मामिया ससुर होते हैं । लेकिन न तो मैं ने उन्हें कभी ससुर माना और न ही उन्होंने मुझे कभी दामाद । सहज मैत्री हम दोनों को जोडे हुए है ।
विनोद भैया की बिटिया पूर्वा का ब्याह, दो साल पहले ही, कोटा निवासी, श्री विष्णु दत्तजी शर्मा के बेटे प्रियंक से हुआ है । विष्णु दत्तजी मेरे साढू होते हैं । चूँकि वह रिश्ता काफी दूर का है सो उनसे जीवित सम्पर्क नहीं रहता । लेकिन पूर्वा की शादी के कारण वे 'दुगुने सम्पर्की' हो गए । कोई एक पखवाडे पहले, विष्णुदत्तजी के पिताजी का देहावसान हो गया । शोक पत्रिका मुझे भी आई । बडे भाई साहब से मिली आदत के कारण मैं प्रत्येक पत्र का उत्तर देता हूं । सो, विष्णु दत्तजी को उत्तर लिखने बैठा । लेकिन जब पता लिखने की बारी आई तो देखा कि शोक पत्रिका में पेषक के स्थान पर जो पता लिखा है, वह उनके संयुक्त परिवार का है । जिस पते पर विष्णु दत्तजी रहते हैं वह पता कुछ और है ।
मैं ने सीधे विनोद भैया को फोन लगाया-उज्जैन । विनोद भैया नहीं मिले । उनकी अर्ध्दांगिनी अनीता मिली । उसने बताया कि उसे अपने समधीजी का पता मालूम नहीं है । मैं चौंका । जिस घर में बेटी दी है, उसका पता नहीं मालूम ! मैं ने कारण पूछा तो अनीता ने बताया कि पूर्वा से फोन पर, लगभग रोज ही बात होती रहती है और पत्र लिखने की जरूरत ही नहीं पडती । सो पता याद रखने की नौबत ही नहीं आई । लेकिन यह सब बताते-बताते अनीता को संकोच हो आया । उसने कहा िक वह डायरी में पता देख कर थोडी देर में मुझे फोन करेगी । मैं ने परिहास किया कि जब उसे अपनी बेटी का पता ही याद नहीं तो वह जब भी कोटा जाती होगी तो बेटी के घर तक कैसे पहुँचती होगी । उसने तत्क्षण उत्तर दिया - कोई न कोई स्टेशन पर लेने आ ही जाता है । खैर, मैं पते के लिए अनीता के फोन की प्रतीक्षा करने लगा ।
थोडी ही देर में फोन की घण्टी बजी । मैं ने फोन उठाया तो उधर से अनीता के बजाय विनोद भैया बोल रहे थे । वे कोटा ही थे । उन्होंने अपने समधीजी का पता लिखवाया । मैं ने पूछा कि अनीता ने पता क्यों नहीं बताया । विनोद भैया हँसे और बोले कि अनीता को शायद यह भी पता नहीं कि पतों वाली डायरी कहां रखी है ।
खैर ! मुझे विष्णु दत्तजी का पता तो मिल गया लेकिन इस घटनाक्रम ने मुझे चौंका दिया । एक मां को अपनी बेटी ( बेटी, जिसे पेट की आंत कहा जाता है और जो बेटे के मुकाबले मां-बाप की चिन्ता ज्यादा करती है) का पता ही याद नहीं । यही नहीं, यह पता याद रखने की जरूरत भी उसे अनुभव नहीं होती ! इस स्थिति को क्या ऐसे समझा जाए कि संचार क्रान्ति ने लिपी को अनावश्यक बना दिया ? 'यन्त्र' ने 'अक्षर' को विस्थापित कर दिया ? या फिर, मनुष्य ने यन्त्र बनाया और खुद उसका दास हो गया ?
इस हादसे से उबरा भी नहीं था कि 'कोढ में खाज' वाली दशा में आ गया । मुम्ब्ाई से श्रीयुत एन.एन.वैष्णव साहब का फोन आया । उन्होंने कहा कि दिल्ली निवासी श्री यू. के. स्वामी का संक्षिप्त परिचय लिख्ा कर उन्हें भेज दूँ । स्वामीजी का मोबाइल नम्बर मेरे पास था ही । मैं ने स्वामीजी को कहा कि वे अपने व्यक्तिगत ब्यौरे मुझे भिजवा दें । उन्होंने कहा - जल्दी ही भिजवाता हूँ । लेकिन दो मिनिट बाद ही उनका फोन आया । वे कह रहे थे कि उन्हें लिखने की आदत बिलकुल ही नहीं रही है इसलिए क्या यह सम्भव है कि वे फोन पर बोलते जाएं और मैं लिख लूँ ? मैं ने मंजूर कर लिया । बोले कि वे फुरसत से मुझे लिख्ावा देंगे ।
स्वामीजी ने अपना फोन बन्द कर दिया था लेकिन मैं अपने फोन को कान से लगाए, लगभग जडवत था । मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह कौन सा मुकाम है जहां दूसरों के बारे में लिखना तो दूर की बात रही, आदमी खुद के बारे में भी, दो शब्द लिखने की स्थिति में नहीं रह गया है ? उसके पास समय तो है लेकिन लिखने की आदत नहीं रही !
यह सब सोचते-सोचते मुझे ध्यान आने लगा कि मेरी डाक में आने वाले पत्रों की संख्या भी दिन प्रति दिन कम होती जा रही है और जिन मित्रों को मैं पत्र लिखता हूं, उनके उत्तर भी तीन-तीन, चार-चार महीनों में आते हैं । मेरे तमाम मित्र अपनी-अपनी तीसरी पीढी को गोद में खेला रहे हैं । प्राय: सबके सब सेवा निवृत्त हो चुके हैं और कोई ताज्जुब नहीं कि फुरसत से परेशान हों । समय तो सबके पास भरपूर होगा लेकिन लिखने के नाम पर आलस्य से पहले थकान आ जाती होगी । लिखने की आदत जो नहीं रही ।
इस स्थिति को क्या माना जाए ? 'बाजार' के दबाव के चलते, लोक प्रचलित भाषा प्रयुक्त करने के आग्रह के अधीन अभी तो हम हिन्दी के अनेक शब्दों के विलुप्त हो जाने की दहशत से उबरे भी नहीं हैं और यह नया खतरा सामने आ रहा है ? क्या लिपियां अतीत की या किस्से-कहानियों की चीजें बन कर रह जाएंगी ? हम सम्भाषण और सम्परेषण तो खूब करेंगे लेकिन 'अभिलेख' हमारे पास नहीं रहेंगे । अभिलेखागारों के हमारे विशाल भवन तब सीडियों और डीवीडियों को सहेजने के काम आएंगे ।
क्या यह ठीक समय है कि कुछ कागजी दस्तावेजों को टाइम केप्सूल में बन्द कर रख दिया जाए ? वर्ना आने वाली पीढियां कैसे जान पाएंगी कि उनके पूर्वज अपनी अभिव्यक्ति के लिए 'कागज' नाम के जिस 'मटेरियल' का उपयोग करते थे, वह कैसा होता था ?
गम्भीर चिन्ता है । गुम तो नही लेकिन कम जरुर हो जाएँगी
ReplyDeleteफिक्र न करें लिपि/कागज/दस्तावेज वाले हम लोग भले ही अल्प संख्यक हों, रहेंगे जरूर!
ReplyDeleteबिना लिखे अब भी काम नहीं चलता, पत्र लिखना भले ई कम हो गया हो। अब प्रोजेक्ट लिखे जा रहे ऐं..
ReplyDeleteचिंता जायज है. व्यवहार में यह दिखता है कि कीबोर्ड पर अंगुली फिराते-फिराते कलम का अभ्यास छूट जाता है. इतना होश बनाए रखें कि उपकरण का प्रयोग हम करें, उपकरण हमारा प्रयोग न करे. बस.
ReplyDeleteअभी मैंने अपने चिट्ठे पर दो लाइन पेन से लिख कर छापना चाहा तो बड़ा अटपटा महसूस हुआ.
ReplyDeleteक्यों?
कागज कलम से लिखते हुए मुझे कोई तीन चार महीने हो गए थे!
लिपि तो गुम भले ही नहीं होगी, हस्त लेखन जरूर अजायब घर में बन्द हो जाएगा.
अभी मैंने अपने चिट्ठे पर दो लाइन पेन से लिख कर छापना चाहा तो बड़ा अटपटा महसूस हुआ.
ReplyDeleteक्यों?
कागज कलम से लिखते हुए मुझे कोई तीन चार महीने हो गए थे!
लिपि तो गुम भले ही नहीं होगी, हस्त लेखन जरूर अजायब घर में बन्द हो जाएगा.
दरणीय काका साब;
ReplyDeleteपाँव धोक.
बिलकुल ठीक कहा आपने..बच्चे अड़्तीस बोलो तो मतलब पूछते हैं और कहते हैं अंग्रेज़ी में डिजीट बताईये.सोचिये ये पीढी़ दूध का नाप,एक सेर,दो सूत,आखातीज,बदी-मिती,संडसी,तपेला,ज़ुराबें,सिवैया,शकरपारे,बंडी, कलेवा,जानीवासा(बारात के ठहरने का स्थान क्या समझेगी.एक ज़माना था लोगों को सौ सौ फ़ोन नम्बर याद रहते थे...आज बेटे को पिता का फ़ोन नम्बर याद नहीं क्योंकि सब मोबाइल की फ़ोन बुक में दर्ज़ है..हम साधनों के ग़ुलाम होते जा रहे हैं होना यह चाहिये कि साधन मनुष्य का ग़ुलाम होना चाहिये...लीपि का ख़त्म होते जाना रिश्तों में आ रही तल्खी़ को भी अभिव्यक्त करता है.कहीं ये मनुष्यता की समाप्ती का ब्ल्यू-पिंट तो नहीं ?
मेरी प्रतिक्रिया एक लेख के रूप में है! कृपया यहां देखिये hindini.com/eswami/?p=143
ReplyDeleteधन्यवाद,
ई-स्वामी
ज्ञानदत्त जी ने जो कहा वही हमारा भी कहना है और भाई संजय पटेल की चिंताएं हमारी भी चिंताएं हैं । बैरागी जी आपने हमारे मन की बात कही है ।
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