यह कहानी सबने कम से कम एक बार तो पढी और सुनी होगी ही ।
घूमते-घूमते एक सन्त एक गांव पहुंचे और अपना डेरा जमाया । चर्चा सुन कर कुछ दुष्ट पहुंचे और सन्त के साथ दुर्व्यवहार कर खूब अपमान किया । सन्त अविचलित बने रहे और दुष्टों को आशीर्वाद दिया - 'जहां बसे हुए हो,वहां और मजबूती से बसे रहो । एक क्षण के लिए भी तुम्हें वहां से हटना, विस्थापित नहीं होना पडे ।'
दुष्टों के जाने के कुछ ही देर बाद कुछ भले लोग पहुंचे । सन्त की खूब सेवा-सुश्रुषा की । वे चलने को हुए तो सन्त ने आशीर्वाद दिया - 'उजड जाओ । एक जगह पर तुम कभी भी ज्यादा दिन नहीं रहो । तुम्हारा कोई भी ठौर-ठिकाना स्थायी नहीं रहे ।'
भले लोगों के जाने के बाद शिष्यों ने कौतूहल और तनिक आक्रोश से पूछा - 'यह कैसा आशीर्वाद और न्याय ? जिन्होंने दुर्व्यवहार किया, अवमानना की उन्हें तो बसने का आशीर्वाद दिया और जिन्होंने सेवा की उन्हें उजड जाने का आशीर्वाद ?'
सन्त सस्मित बोले - 'दुष्ट लोग जितना कम विचरण करेंगे उतना ही जगत का भला होगा और सज्जन लोग जितना अधिक घूमेंगे, लोगों से मिलेंगे उतना ही अधिक भला जगत का होगा ।'
एक माह से भी कम समय हुआ है मुझे हिन्दी ब्लाग विश्व से जुडे लेकिन इसकी प्रचुर शक्ति का अनुमान मुझे भली प्रकार हो गया है । मैं तो कल्पना भी नहीं कर पा रहा था कि कम्प्यूटर और हिन्दी का रिश्ता इतना प्रगाढ हो सकता है । हिन्दी ब्लागियों ने मेरे सारे भ्रम दूरू कर दिए, मेरे जाले झाड दिए ।
हिन्दी ब्लाग के इतिहास की जितनी भी जानकारी मुझे मिल पाई है उसका लब-ओ-लुबाब यही है कि इस की शुरूआत न तो साहित्यिक कारणों से हुई और न ही व्यावसायिक कारणों से । इसका मूलभूत कारण और आधार रहा - हिन्दी को इण्टरनेट माध्यम से वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने और स्थापित करने की प्रबल भावना । कहना न होगा कि इस कोशिश को आशा से अधिक सफलता मिली और आज हिन्दी ब्लागिंग एक सशक्त विधा के रूप में स्थापित है और इसके परिवार में तेजी से बढोतरी हो रही है । बावजूद इसके कि यह अपनी शैशावस्था में है, इसने न केवल लेखन के सारे आयामों को समेट लिया है, इसने कइयों को लिखना-बोलना सिखा दिया है और यह क्रम निरन्तर बना हुआ है ।
लेकिन अभी भी आम आदमी को यह जानकारी नहीं हो पाई है कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में आसानी से सम्प्रेषण हो सकता है । मेरा शहर बेशक लगभग तीन लाख की आबादी वाला है लेकिन यहां तीन सौ लोगों को भी इस महत्वपूर्ण तथ्य की जानकारी नहीं है । यहां अभी भी लोग कम्प्यूटर व्यवहार के लिए अंग्रेजी को अपरिहार्य और अनिवार्य मानते हैं जबकि 1981 की जनगणना में मेरे शहर को 'प्रदेश का सर्वाधिक साक्षर शहर' का दर्जा दिया गया था । जो दशा मेरे शहर की है, कमोबेश वही तमाम शहरों, कस्बो, नगरों की है । जाहिर है कि इस मामले में अधिकांश 'हिन्दी वाले' लोग 'हनुमान' की दशा में जी रहे हैं जिन्हें 'जाम्बवन्त' की प्रतीक्षा है ।
क्या हमारे ब्लागिये बन्धु 'जाम्बवन्त' की यह भूमिका निभा सकते हैं ? मेरी निश्चित राय है-हां । जितने भी हिन्दी ब्लाग मैं ने देखे-पढे हैं उन सबमें परस्पर प्रशंसा और प्रोत्साहन का भाव प्रचुरता से उपलब्ध है जो आज के जमाने में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता । मुझे विश्वास हो रहा है कि ये तमाम ब्लागिये यदि 'अपनी वाली'पर आ जाएं तो सारे देश के सामान्य लोगों को (खास कर नौजवानों को) कम्प्यूटर के जरिए हिन्दी से जोडने का अविश्वसनीय काम कर सकते हैं । लोगों के मन से यह भावना जड-मूल से निकाल सकते हैं कि कम्प्यूटर पर काम करने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य और अपरिहार्य है और यह कि कम्प्यूटर पर हिन्दी में काम नहीं किया जा सकता ।
मैं आप सबका ध्यान श्री अशोक चक्रधर की उस बात पर आकर्षित करना चाहता हूं जो उन्होंने 'चक्रधर की चक्कलस'वाले अपने ब्लाग में 'विश्व हिन्दी सम्मेलन सिलसिले' शीर्षक आलेख में कही है । उन्होंने लिखा है - 'नई सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ अभी हम हिन्दी में नहीं उठा पा रहे हैं । कम्प्यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए है कि कम्प्यूटर, कलम जैसा ही एक औजार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढा देता है ।'
ब्लागियों के नामों में ऐसे-ऐसे नाम शामिल हैं जो शासन और प्रशासन को प्रभावी और निर्णायक रूप से प्रभावित कर सकते हैं । ये सब लोग अपने-अपने पद और प्रभाव का उपयोग कर हिन्दी को कम्प्यूटर से जोडने का अभियान छेड दें तो काया पलट हो सकता है । इनमें से कई लोग नीति-नियामक की स्थिति में हैं ।
मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का एजेण्ट हूं । 'निगम' की ओर से ग्राहकों भेजे जाने वाले अधिकांश पत्र निर्धारित प्रारूप के स्वरूप में भेजे जाते हैं । ये सारे के सारे प्रारूप अंग्रेजी में हैं । राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के तहत 'क' क्षेत्र में समूचा पत्राचार हिन्दी में और 'ख' क्षेत्रों में पत्राचार द्विभाषा में किया जाना चाहिए । शाखा कार्यालय स्तर पर मैं ने इस बात को जब-जब भी उठाया तो मुझे रटा-रटाया जवाब मिला - 'हम अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर सकते क्यों कि हमें तो जो 'प्रोग्राम' केन्द्रीय कार्यालय से मिला है, उसे ही 'आपरेट' कर रहे हैं ।' यदि केन्द्रीय कार्यालय से ये तमाम प्रपत्र हिन्दी में ही उपलब्ध करा दिए जाएं (जो कि आसानी से उपलब्ध कराए जा सकते हैं) तो भारतीय जीवन बीमा निगम से प्रति माह भेजे जाने वाले करोडों पत्रों को इसके ग्राहक पढ पाएंगे । अभी तो लोग इन्हें देखते भी नहीं और फेंक देते हैं क्यों कि अधिकांश ग्राहक अंग्रेजी जानते ही नहीं । यही दशा बैंको तथा ऐसे अन्य तमाम संस्थानों की है । ऐसे में न केवल हिन्दी अपने अधिकर से वंचित हो रही है, करोडों रूपयों का कागज और डाक खर्च भी बेकार जा रहा है । आपकी सूचना के लिए बता रहा हूं कि भारतीय जीवन बीमा निगम की जिस शाखा से मैं सम्बध्द हूं, उस शाखा से प्रति माह कम से कम पन्द्रह हजार ऐसे प्रपत्र भेजे जाते हैं और पूरे देश में भारतीय जीवन बीमा निगम की 2048 शाखाएं हैं और सारी की सारी शाखाएं कम्प्यूटरीक़त हैं । इनमें से कम से कम 50 प्रतिशत शाखाएं, राजभाषा अधिनियम के हिसाब से 'क' और 'ख' क्षेत्र में आती हैं । आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि भारतीय जीवन बीमा निगम के केन्द्रीय कार्यालय को खनखना दिया जाए तो हिन्दी और कम्प्यूटर के सत्संग की जानकारी देश के कितने सारे लोगों को हो जाएगी । इससे हिन्दी का भला तो होगा ही, अधिक महत्वपूर्ण बात यह होगी कि लोगों को भरोसा होगा कि कम्प्यूटर ज्ञान और संचालन के लिए अंग्रेजी कोई विवशता नहीं है ।
अब मैं अपनी उसी बात पर आता हूं कि हिन्दी ब्लागिंग शुरू करने का मूलभूत कारण और आधार था - हिन्दी को इण्टरनेट माध्यम से वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने और स्थापित करने की प्रबल भावना । हम हिन्दुस्तानी लोग चूंकि बहुत कम में और बहुत जल्दी सन्तुष्ट होने के 'आनुवांशिक रोग' से ग्रस्त हैं इसलिए कहीं ऐसा तो नहीं कि हिन्दी ब्लागिंग की मूल भावना को भूले जा रहे हैं ?
इसीलिए मैं कह रहा हूं - ब्लागियों ! उजड जाओ । सब एक जगह एकत्रित हो कर बसने-रमने लगे हैं । जरा अपनी दुनिया से बाहर आओ । मेरे शहर के कम्प्यूटर कोचिंग केन्द्र वालों को जब मैं ने 'यूनीकोड' वाली बात बताई तो वे मुंह बाये मेरी तरफ देखते रहे । ऐसे तमाम केन्द्र, मानसिक अंग्रेज पैदा करने वाले कारखाने बन गए हैं । लिहाजा, अपने-अपने 'ठीयों' से उजडे हुए लोग जिस तरह बसने के लिए नई-नई जगहें तलाश करते हैं, उसी तरह तमाम ब्लागिए भी हिन्दी को बसाने के लिए अपने-अपने स्तर पर शुरू हो जाएं । हम लोग ब्लाग विश्व में तो निरन्तर सक्रिय रहें ही लेकिन तनिक समय निकाल कर मैदान में भी उतर जाएं । जो लोग सरकारी ओहदों पर बैठे हैं वे अपने पद और प्रभाव का उपयोग कर यह नेक काम शुरू कर दें । जो लोग निर्वाचित जन प्रतिनिधियों से दोस्ती रखते हैं, वे उन्हें समझाएं । शासन और प्रशासन का एक निर्णय केन्द्रीय स्तर पर परिणाम दे सकता है । याने,कम मेहनत और कम समय में अधिकाधिक अनुकूल नतीजे ।
श्री रवि रतलाम ने अभी-अभी ब्लाग विश्व में 'मालवी जाजम' बिछाई है । मैं उस पर श्री बालकवि बैरागी की दो पंक्तियां परोस रहा हूं -
मंगल मोहरत निकल्यां जई रयो, उतरो गहरा ज्ञान में ।
मेहनत करवा वारां मरदां, अई जावो मैदान में ।।
अर्थात् - मंगल मुहूर्त निकला जा रहा है । जरा विचार करो और पुरूषार्थियों-परिश्रमियों, मैदान में आ जाओ ।
ब्लागियों ! मैदान में आ जाओ । उजड जाओ
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दो गजलें
- विजय वाते
(1)
जैसे-जैसे हम बडे होते गए ।
झूठ कहने में खरे होते गए ।
चांदबाबा, गिल्ली डण्डा, इमलियां ।
सब किताबों के सफे होते गए ।
अब तलक तो दूसरा कोई न था ।
दिन-ब-दिन सब तीसरे होते गए ।
एक बित्ता कद हमारा क्या बढा ।
हम अकारण ही बुत होते गए ।
जंगलों में बागबां कोई न था ।
यूं ही बस, पौधे हरे होते गए ।
(2)
यार देहलीज छूकर न जाया करो ।
तुम कभी दोस्त बन कर भी आया करो ।
क्या जरूरी है सुख-दुख में ही बात करो ।
जब कभी फोन यों ही लगाया करो ।
बीते आवारा दिन याद करके कभी ।
अपने ठीये पे चक्कर लगाया करो ।
वक्त की रेत मुट्ठी में कभी रूकती नहीं ।
इसलिए कुछ हरे पल चुराया करो ।
हमने गुमटी पे कल चाय पी थी 'विजय' ।
तुम भी आकर के मजमे लगाया करो ।
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'गरीब'
(मालवी लोक कथा)
काली, अंधेरी रात । तेज, मूसलाधर बारिश । ऐसी कि रूकने का नाम ही नहीं ले रही । मानो सारे के सारे बादल आज ही रीत जाने पर तुले हों । पांच झोंपडियों वाले 'फलीए' की, टेकरी के शिखर पर बनी एक झोंपडी । झोंपडी में आदिवासी दम्पति । सोना तो दूर रहा, सोने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो रही । झोंपडी के तिनके-तिनके से पानी टपक रहा । बचाव का न तो कोई साधन और न ही कोई रास्ता । ले-दे कर एक चटाई । अन्तत: दोनों ने चटाई ओढ ली । पानी से बचाव हुआ या नहीं लेकिन दोनों को सन्तोष हुआ कि उन्होंने बचाव का कोई उपाय तो किया ।
चटाई ओढे कुछ ही क्षण हुए कि आदिवासी की पत्नी असहज हो गई । पति ने कारण जानना चाहा । पत्नी बोली तो मानो चिन्ताओं का हिमालय शब्दों में उतर आया । उसने कहा - 'हमने तो चटाई ओढ कर बरसात से बचाव कर लिया लेकिन बेचारे गरीब लोग क्या करेंगे ?'
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ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया लिखे हैं. कामना करता हूँ कि आपके लेखन में निरंतरता बनी रहे.
ReplyDeleteआपके विचार पढ़कर बहुत अच्छा लगा। हिन्दी ब्लागजगत के और उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने हेतु आपके सुझाव बहुत सार्थक हैं। मुझे भी यही मार्ग सर्वोत्कृष्ट लग रहा है।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने ! बेहतरीन लेख ।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही विचार हैं आपके। लाखों की आबादी वाले मेरे शहर में दस लोग भी यूनिकोड के बारे में नहीं जानते होंगे। लोगों को हिन्दी टाइपिंग के बारे में यही मालूम है कि यह कुछ अलग हिन्दी फॉन्टों से होती है और इसके लिए टाइपराइटर पर टाइपिंग सिखी होनी चाहिए।
ReplyDeleteमेरा भी यही मानना है कि अभी तो बहुत आगे जाना है, जरा सोचिए करोडो़ इंटरनैट प्रयोगकर्ताओं में से हिन्दी का प्रयोग करने वाले कितने हैं, ब्लॉगर और नॉन-ब्लॉगर मिलाकर मुश्किल से एक हजार, इनमें से भी तो नियमित प्रयोगकर्ता बहुत कम।
अब हमें यही करना है कि यूनिकोड हिन्दी बारे जागरुकता फैलानी है। इंटरनैट पर भी और आम जीवन में भी। इस दिशा में मैंने काफी कुछ सोचा है और प्रयत्न कर भी रहा हूँ। कभी अपने अनुभव लिखूँगा।
क्या बात है. वाह वाह.
ReplyDeleteविजय जी तुसी छा गए. आप भी ग़ज़ल गो हैं ये तो आज पता चला. शानदार ग़ज़लें.
बढ़िया लेख!
ReplyDeleteलाखों वाले मेरे शहर का भी यूनिकोड के मामले में यही हाल है!!
यूनीकोड को आज कितने जानते हैं, इस बात को छोड़िये.
ReplyDeleteएक साल बाद लगभग सभी जानेंगे इसका विश्वास कीजिये.
जरूरी बातें लिखी हैं...शुक्रिया
ReplyDeleteबढ़िया आलेख और बेहतरीन गजलें. अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteबहुत बेबाक विवेचन है साथ ही विजय वाते की गजले वाह वाह बधाई
ReplyDeleteकोशिश कर्रोंगा आपको मोबाइल पर संपर्क करने की
मेरे ब्लॉग पर पधारे
http://manoria.blogspot.com
मुझे लगता है कि अभी भी बहुत देर नहीं हुई है इसलिए कह देता हूँ - हिन्दी ब्लोगिंग में स्वागत है!
ReplyDeleteलोककथा पढ़कर अच्छा लगा.