खुद में लौटते हुए



धीरे-धीरे सदमे से उबर रहा हूँ। लौट रहा हूँ अपने आप में। रविजी (श्री रवि रतलामी) ने कहा था - सदमे को ही दवा बना लीजिए। वही कर रहा हूँ।

5 जून को अन्तिम पोस्ट लिखी थी। (शायद) सात जून को भोपाल कोर्ट ने भोपाल गैस काण्ड पर अपना बहु प्रतीक्षित निर्णय सुनाया था। उसके बाद से देश में जो हुआ, उससे मुझे गहरा सदमा पहुँचा। विश्वास ही नहीं कर पाया कि यह सब मैं अपनी आँखों देख रहा हूँ, अपने ही देश में देख रहा हूँ।

जो निर्णय आया वह तनिक भी अनपेक्षित नहीं था। अपराधियों को दो-दो वर्ष की सजा सुनाई गई थी। सजा की अवधि ने सारे देश में बवण्डर खड़ा कर दिया। किन्तु यह निर्णय तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में ही लिख दिया था जब मुकदमे की धाराओं में परिवर्तन किया गया था! कानून की नाम मात्र की भी जानकारी रखनेवाले को पता था कि न्यायाधीश चाहे तो भी अपराधियों को दो वर्ष से अधिक की सजा नहीं सुना सकता।

किन्तु सारे देश में भूचाल आ गया। लगा, कहीं गृह युद्ध न छिड़ जाए। तमाम राजनीतिक दल और तमाम नेता खुद को पाक-साफ जताने के लिए सामनेवाले पर अंगुली तान रहे थे, यह भूलकर कि ऐसा करने में उनकी तीन अंगुलियाँ खुद ही तरफ उठ रही हैं। भाजपाई और कांग्रेसी एक दूसरे के कपड़े उतारने में पणप्राण से जुट गए थे। यह सब वे जिस सहज निर्लज्जता से कर रहे थे, उसी ने मुझे सदमा पहुँचाया।

ये सब के सब कानून के जानकार थे। प्रत्येक को पता था कि भोपाल कोर्ट का फैसला क्या होगा। इससे भी पहले इनमें से प्रत्येक को पता था कि ये सबके सब, भोपाल गैस पीड़ितों के साथ दगाबाजी कर चुके हैं। किन्तु हर कोई ऐसे बात कर रहा था मानो वह अपराधियों को मृत्यु दण्ड मिलने की प्रतीक्षा कर रहा था और न्यायालय ने अन्याय कर दिया है। सबके सब मुखौटे लगा कर स्यापा किए जा रहे थे और इस तरह कर रहे थे कि मुखौटों के भी पपोटे सूज गए।

उसके बाद सबके सब खुद को पाक-साफ-बेदाग बताने और बनाने में जिस मनोयोग से जुटे उसने मुझे और अधिक हतप्रभ कर दिया। जो आज सत्ता में हैं, वे तब भी सत्ता में थे। भोपाल कोर्ट के फैसले के बाद वे जिस तरह से हरकत में आए, वह सब उन्हें, हादसे के फौरन बाद ही क्यों नहीं सूझा? जो आज प्रतिपक्ष में हैं और गैस पीड़ितों के लिए वर्धित मुआवजे की और विभिन्न स्वास्थ्य/चिकित्सा सुविधाओं की माँग कर रहे हैं, उनके पुनर्वास की योजनाएँ सुझा रहे हैं, ये सब काम उन्होंने तब क्यों नहीं किए जब वे दिल्ली और भोपाल में सत्ता में आए थे? गुजरे जमाने को भूल जाएँ तो भी भोपाल में तो वे गए साढ़े छः वर्षों से लगातार सरकार में हैं? जो पेशबन्दियाँ उन्होंने भोपाल कोर्ट के फैसले के बाद की हैं, वे पेशबन्दियाँ साढ़े छः वर्ष पहले क्यों नहीं कीं? यह पुण्य अर्जित करने में क्यों और कैसे चूक गए?

इनमें से प्रत्येक को वास्तविकता पता है। प्रत्येक जानता है कि एण्डरसन को किसने, क्यों और कैसे भगाया। दरअसल, पहलेवाले हों या बादवाले, सबने एण्डरसन के प्रति वफादारी बरती। एक ने भगाया तो दूसरे ने उसे भागते रहने दिया। सबके मुँह में चाँदी का जूता ठुँसा हुआ था और हाथ चम्पूगिरी में लगे हुए थे। क्या बोलते और क्या करते?

इनमें से प्रत्येक खूब अच्छी तरह जान रहा था कि वह बेशर्मी को गहना बना रहा है। फिर भी जिस सहजता ये सब के सब दुहाइयाँ देने में और एक दूसरे के कपड़े उतारने में जुटे हुए थे, उसीने मुझे स्तब्ध कर दिया। सदमे में ला दिया।

किन्तु यह पूरा सच नहीं है। सच तो यह है कि मैं इन्हें दोष कैसे दूँ? ये सबके सब मेरे ही तो चुने हुए, मेरे ही तो भेजे हुए, मुझसे ही स्वीकार पाकर दिल्ली, भोपाल में बैठे हुए हैं! ये सब जो भी कर रहे हैं, उसके मूल में मैं ही तो हूँ! इनकी मनमानी का, इनकी बदगुमानी का, इनकी उच्छृंखलता का मैंने कभी प्रतिकार नहीं किया। ये सब आज जो व्यवहार कर रहे हैं, वह व्यवहार करने की छूट इन सबको मैंने ही तो दी!


मैंने या तो वोट दिया ही नहीं और यदि दिया भी तो वोट देने के बाद कभी पलट कर इनकी तरफ देखा ही नहीं देखा। इन लोगों को इस मुकाम तक मैंने ही पहुँचने दिया।

इन्हीं सारी बातों के चलते मैं अब तक सदमे में बना रहा, स्तब्धता से मुक्त नहीं हो पाया। जब-जब भी अखबार देखे, जब-जब भी समाचार चैनलें देखी, मेरे सदमे में बढ़ोतरी ही हुई। बीच में तो कुछ सप्ताह ऐसे निकले जब मैंने न तो अखबार पढ़े और न ही टीवी देखा। डरता रहा कि कहीं मेरी शर्मिन्दगी में पल प्रति पल इजाफा न हो जाए।

जी कड़ा कर संसद की बहस, यथा सम्भव अधिकाधिक देखी-सुनी। एक बार फिर निराशा गहराई। कोई भी ईमानदारी नहीं बरत रहा था। सबको अपनी-अपनी राजनीति की पड़ी थी। उम्मीद थी कि सुषमा स्वराज धीर-गम्भीर और सार्थक शुरुआत करेंगी। किन्तु वे भी अपनी पार्टी को बचाने और कांग्रेसियों को दोषी ठहराने में उलझ गईं। इस शुरुआत ने पूरी बहस की दिशा तय कर दी। इसी का प्रभाव रहा कि गृह मन्त्री चिदम्बरम ने राज्य सभा में अपने उत्तर का समापन भाजपा पर इसी प्रहार से किया कि भाजपाई जो सवाल आज पूछ रहे हैं, वे सवाल यदि 2001 में पूछे होते तो उन्हें मनमाफिक उत्तर मिलता। पूरी बहस में, दोनों ही सदनों में भाजपाई और कांग्रेसी एक दूसरे को निर्वस्त्र करने में जुटे रहे और यह भूल गए कि ऐसा करने में वे सारे देश के सामने अपनी ही नंगई उजागर कर रहे हैं।

किन्तु दो सांसदों ने मुझे आश्वस्त किया - पुरी (उड़ीसा) के लोकसभा सदस्य पिनाकी मिश्र (बीजद) और कांग्रेस के सत्यव्रत चतुर्वेदी। पिनाकीजी की अंग्रेजी जितनी मैं समझ पाया उसके अनुसार उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि एण्डरसन के प्रत्यर्पण की और सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1996 में कानूनी धाराएँ बदलनेवाले फैसले में संशोधन/परिवर्तन की बात भारत को भूल जानी चाहिए। पिनाकीजी ने ‘भारतीय नागरिक’ का समुचित मूल्यांकन कर, उसे यथेष्ठ महत्व देने और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उसके जीवन और सम्मान की रक्षा करने के उपायों पर कारगर कार्रवाई करने की बात कही।

चतुर्वेदीजी ने अपनी ही पार्टी के नेतृत्ववाली संप्रग सरकार से जानना चाहा कि भारत सरकार इस त्रासदी से क्या सबक ले रही है और ऐसे कौन से उपाय सुनिश्चित कर रही है जिनके चलते भविष्य में ऐसी त्रासदी फिर कभी न हो।

उपदेश दे पाना और अपेक्षा कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। अपने सदमे से मुझे ही उबरना होगा। अपनी स्तब्धता मुझे ही तोड़नी होगी। यह सदमा, यह स्तब्धता मुझे अकर्मण्य बना देगी। और तब मैं अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाऊँगा। वैसा ही निकम्मापन बरतता रहूँगा जो अब तक बरतता आया हूँ और जिसके कारण मेरे देश के तमाम राजनीतिक दलों और तमाम राजनेताओं को अपनी नंगई उजागर करने न तो देर लग रही है और न ही अटपटा लग रहा है।

इन सबको मैंने ही बिगाड़ा है। इन्हें दुरुस्त भी मुझे ही करना होगा।

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2 comments:

  1. आपका वापस आना अच्छा लगा।

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  2. आपसे काफी दिनों बाद मुलाकात हुई। आप तो ऐसे न थे। खैर... उम्मीद है अब आप पुनः नियमित हो जाएंगे इस अपेक्षा के साथ...

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