‘कुछ’ अच्छे से जुड़ने की खुशी


कभी-कभी ‘कुछ’ ऐसा हो जाता है जिसे परिभाषित करना या व्याख्यायित करना तो दूर, उसका उल्लेख भी शायद आवश्यक न हो किन्तु उससे जुड़कर, उसका हिस्सा बन कर अच्छा लगता है। आत्मीय प्रसन्नता होती है। इससे तनिक आगे बढ़कर, आत्म सन्तोष भी होता है। कल, ऐसे ही ‘कुछ’ से जुड़ गया मैं। 

यह 28 या 29 दिसम्बर की शाम थी। हाश्मीजी के आदेश के अधीन मैं ‘विजन 20-20’ पर बैठा था। वाचनालय के आयतन और घनत्व में दिन-प्रति-दिन हो रही धीमी-धीमी बढ़ोतरी से समूचे वाचनालय परिवार की प्रसन्नता उनकी बातों से झलक रही थी। उन्हें इस बात की अतिरिक्त खुशी थी कि यह वाचनालय, ‘पढ़ने-लिखनेवालों के मिल-बैठने-बतियाने का अड्डा’ बनता जा रहा है। इस सबसे उत्साहित हो, इस बार 26 जनवरी को, वाचनालय की ओर सेे एक छोटा सा आयोजन करना तय हुआ। हाश्मीजी चाह रहे थे कि उस कार्यक्रम का संचालन मैं करूँ।

इस तरह वाचनालय पर मिलना-जुलना, बैठना-गपियाना, अड्डेबाजी करना, ऐसा आयोजन - यह सब कुछ मेरे मनपसन्द शगलों में शामिल है। सो, अच्छा तो मुझे लगना ही था। बस, एक बात अच्छी नहीं लग रही थी कि कार्यक्रम का संचलान मैं करूँ। 

मैंने हाश्मीजी से कहा कि काम मेरी पसन्द का है। यह काम मैं करता रहा हूँ। अब भी कर सकता हूँ। किन्तु आखिरकार किसी भी बात की हद तो होनी चाहिए! हम बूढ़े कब तक अपने बच्चों के  हक पर अतिक्रमण करते रहेंगे? डाके डालते रहेंगे? कब अपने बच्चों को अवसर देंगे? मैंने सवाल किया - ‘वाचनालय में आनेवाले बच्चों में से किसी बच्चे से यह काम क्यों नहीं करवाते?’ हाश्मीजी को बात अच्छी लगी। किन्तु अगले ही क्षण बोले - ‘लेकिन कोई शायद ही तैयार हो। किसी ने यह काम अब तक नहीं किया है।’ मैंने कहा - ‘कोई बात नहीं। नहीं किया तो अब कर लेंगे। कोई मुश्किल काम तो है नहीं!’ हाश्मीजी बोले - ‘आपके-हमारे लिए मुश्किल नहीं है। लेकिन जिसने कभी किया ही नहीं, उसके लिए तो बहुत मुश्किल है।’ बात सही थी। किन्तु अपने ‘एबलेपन’ के अधीन कहा - ‘मुश्किल हो सकता है। लेकिन नामुमकिन तो नहीं। आप किसी से बात तो कीजिए! कोशिश तो कीजिए! न हो तो उनके लिए घण्टे-दो-घण्टे की, कोई छोटी-मोटी वर्कशॉप आयोजित कर लीजिए।’ यह बात भी हाश्मीजी को पसन्द आई। बोले - ‘हाँ। आपकी यह बात गले उतरती है। लेकिन वर्कशॉप का इन्स्ट्रक्टर कौन हो?’ जवाब में अपनी आवाज सुनकर मैं खुद ही चौंक गया। मैंने सुना, मैंने बेसाख्ता कहा - ‘मैं बन जाऊँगा इन्स्ट्रक्टर।’ कह/सुन कर मैं सकपका गया। यह क्या हो गया? क्या कह दिया मैंने? क्यों और कैसे कह दिया? अब लग रहा है कि निश्चय ही मेरी कोई दमित, अव्यक्त कामना ही इस तरह, अनायास जबान पा गई! किन्तु यह देख कर तसल्ली हुई कि हाश्मीजी का ध्यान मेरी इस दशा की ओर गया ही नहीं। इसके विपरीत वे खुश होकर बोले - ‘लीजिए! आपने तो खुद ही, खुद के सवाल का जवाब दे दिया। बातइए! वर्कशॉप कब करें?’ 

अब मेरे बस में कुछ भी नहीं रह गया था। सब कुछ हाश्मीजी को ही तय करना था। उन्हीं ने तय कर दिया - रविवार, 6 जनवरी को सुबह ग्यारह बजे। स्थान - लायब्रेरी विजन 20-20. कौन आएगा, कैसे आएगा, कैसे खबर की जाएगी - सारा जिम्मा हाश्मीजी ने ले लिया। मुझे तनिक घबराहट हो रही थी जबकि हाश्मीजी ‘परम्-प्रसन्न’ थे।

6 जनवरी को मुझे पौने ग्यारह बजे ही वाचनालय पहुँचना था। मैं घर से निकलता, उससे पहले ही हाश्मीजी का फोन आ गया। मैं पहुँचा। वे प्रतीक्षारत थे। एक बच्चा बैठा हुआ था। हाश्मीजी ने परिचय कराया - शोएब पटेल। आनेवाले कल का, एक बेहतर चार्टर्ड अकाउण्टण्ट। कुल पाँच बच्चों ने रुचि दिखाई थी - तीन बच्चियाँ और दो बच्चे। बाकी चार की प्रतीक्षा थी। कुछ ही मिनिटों में दो बच्चियाँ आईं - राखी और सुरभि ओरा। दोनों बहनें। एक इंजीनियरिंग की और दूसरी कामर्स की छात्रा। थोड़ी ही देर में एक और बच्चा पहुँचा - यश गोयल। यह भी कामर्स का छात्र था। इससे, एक शाम पहले भी, इसी वाचनालय पर मुलाकात हो चुकी थी। अब पाँचवे प्रशिक्षु की प्रतीक्षा थी। हितैषी नामकी यह बच्ची लगभग साढ़े ग्यारह बजे पहुँची। यह भी चार्टर्ड अकाउण्टण्ट बनने वाली है।

हितैषी के आते ही हम लोग काम पर लग गए। मैं घर से कागजी तैयारी करके चला था। मुझे लगा था कि विषय बहुत ही मामूली है और एक घण्टा भी शायद ही लगेगा अपनी बात कहने में। किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ कि डेड़ घण्टे से भी अधिक समय लग गया, अपनी बात कहने और विषय को समेटने में। असंख्य ऐसी बातें सामने आती गईं जिनकी कल्पना खुद मैंने भी नहीं की थी। 

प्रशिक्षक के रूप में मैं। हाश्‍मीजी ने ये  चित्र भेजे और बाद में मालूम हुआ 
कि यह सब  उन्‍होंने फेस बुक पर भी दिया है तो ही मुझे यह सब सूझा।

मैं नहीं जानता कि बच्चों को कैसा लगा। किन्तु, सबसे बाद में आकर सबसे जल्दी जाने की उतावली बरतनेवाली हितैषी एक बार भी जाने को बेचैन नहीं हुई - इससे अनुमान कर रहा हूँ कि बच्चों को सब कुछ ठीक-ठीक ही लगा होगा। जानता हूँ कि बच्चों की प्रतिक्रियाएँ या तो मिलेंगी ही नहीं और मिलेंगी भी तो वे अनुकूल तथा प्रशंसात्मक ही होंगी। (आखिर, इतनी समझ तो उन्हें है ही!:):):):):)) किन्तु इतनी देर तक बच्चों से बात कर मुझे बहुत अच्छा लगा - ऊर्जा, ताजगी और स्फूर्तिदायक। पहले लगा था, मुझे आत्म-सन्तोष मिला है। किन्तु सच तो यह है कि बच्चों ने मुझे समृद्ध कर दिया।

तय हुआ है कि 20 जनवरी को हम सब एक बार फिर मिलेंगे। उसी समय और स्थान पर। पाँचों ही बच्चे, अपनी-अपनी कल्पना से एक-एक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर साथ लाएँगे और अपने संचालन की बानगी प्रस्तुत करेंगे। यह तो उसी दिन तय हो गया कि 26 जनवरी वाले कार्यक्रम का संचालन इन्हीं पाँच में से कोई एक करेगा। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि 20 तारीख को मैं इन्हें प्रतियोगी के रूप में देखूँ - कार्यक्रम का संचालक बनने हेतु प्रतियोगी के रूप में।

नहीं जानता कि यह सब कैसा, क्या, कितना उपयोगी, कितना सार्थक हुआ? किन्तु मैं बहुत खुश हूँ। आत्म सन्तुष्ट होने तक खुश। अच्छा लगा मुझे इस ‘कुछ’ से जुड़कर।

9 comments:

  1. आपका कार्यक्रम बहुत ही अच्छा होगा, ऐसी शुभकामनायें हैं।

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  2. आप श्रेष्ठ काम कर रहे हैं।

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  3. बहुत बढ़िया काम पापा . . . काश मैं भी इस वर्कशॉप का हिस्सा बन पाता।

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  4. भाईसाहब ! आपने वन्दनीय कार्य की शुरुआत की है .युवा ऐसा ही बहुत कुछ सीखना चाहते हैं लेकिन अपने गुरु मन्त्र अपने पास रखने और अपने ही लिए ताली बजवाने की मानसिकता उन्हें या तो अपने पास फटकने नहीं देती या फिर समयाभाव का बहाना बना देती है आप जैसे उदारमना ही युवाओं को आगे बढ़ा सकते हैं ---काश ! यह भाव जन-जन में आ जाए --/

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  5. फेस बुक पर श्री रवि शर्मा, इन्‍दौर की टिप्‍पणी -

    बधाई, भाई साहब एक अच्छे कार्यक्रम शुरू करने की ।

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  6. फेस बुक पर, श्री बृजमोहन श्रीवास्‍तव, गुना की टिप्‍पणी -

    श्रेष्ठ काम।

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  7. फेस बुक पर, श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    विजन 2020 लायब्रेरी? यह कहॉं है? यदि युवाओं को किताबों का चस्‍का लगा दिया जाए तो समाज की मौजूदा तस्‍वीर बदली जा सकती है।

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