अपन तो बिन्दास चलाते हैं अंकल!

लोग अलग-अलग, घटनाएँ भी अलग-अलग किन्तु सन्देश एक ही। कुछ इस तरह जैसे धर्म, पन्थ अलग-अलग लेकिन सबका सन्देश एक ही। घटनाओं, व्यक्तियों, प्रस्तुतियों की विविधता ही इसे रोचक बनाए रखती है। 
कल भी ऐसा ही हुआ।

बीमा-सम्भावनाएँ तलाशता हुआ एक जगह, जवान इकलौते बेटे के पिता से गपिया रहा था। पिता खुद के बजाय बेटे का बीमा कराना चाह रहा था। मैं जोर दे रहा था कि वह खुद का ही बीमा कराए क्योंकि घर के लिए रोटी वही कमा रहा है। बेटा तो अभी पढ़ रहा है। पढ़-लिख कर काम-धन्धे से लग जाए, खाने-कमाने लगे तो उसका बीमा करा ले। अभी बेटा जिम्मेदारी बना हुआ है। वे बेटे का ही बीमा कराना चाह रहे थे। बेटा बाहर था। कुछ ही देर में आनेवाला था। सो हम इधर-उधर की बातें करने लगे।

बात शुरु हुई थी एक जवान बेटे से और पहुँच गई उस जवान बेटेवाली पूरी पीढ़ी तक। वे अत्यधिक खिन्न और क्षुब्ध थे। उनके मतानुसार आज के नौजवान पूरी तरह बिगड़ चुके हैं। मनमानी करते हैं। बड़ों की इज्जत नहीं करते। आँख की शरम खो दी है इन्होंनें। किसी की परवाह नहीं करते। इनके माँ-बाप भी इन्हें कुछ नहीं कहते। 

मैंने हर बार टोका-रोका। कहा कि ये बच्चे अपनी मर्जी से दुनिया में नहीं आए हैं। इन्हें हम ही दुनिया में लाए हैं और ये ही हमारा आनेवाला कल हैं। हमें इन्हीं के कन्धों पर जाना है। हम अपने वक्त में ठहरे हुए हैं। यदि चलकर इनके वक्त में आएँ तो ये ही बच्चे हमें भले लगने लगेंगे। ये वैसे ही बने हैं और बन रहे हैं जैसा हमने इन्हें बनाया है और बना रहे हैं। ये ही हमारी सेवा करेंगे और हमारा नाम रोशन करेंगे। हमें इन पर भरोसा करना चाहिए। 

मेरी टोक-रोक का उन पर कोई असर नहीं हुआ। वे अपनी बातों पर अड़े हुए रहे। बोले - “दूसरी बातें छोड़ो। आपने इन्हें फटफटी (मोटर सायकिल) चलाते देखा? कभी देखो। अन्धे होकर चलाते हैं। किसी की परवाह नहीं करते। ऐसे तेज चलाते हैं जैसे जंगल में चला रहे हों। कोई मरता हो तो मर जाए। इन्हें परवाह नहीं। और इनके हार्न सुने? कान के परदे फट जाएँ। और, कोई सामने हो और बजाए तो ठीक। लेकिन ये तो बिना बात के ही बजाते रहते हैं। जैसे बिना बात के हार्न बजाने के इन्हें पैसे मिल रहे हों।”

यह बात मेरे मन की थी। मैं ने उत्साह से उनकी इस बात का समर्थन किया - “हाँ! आपकी यह बात तो ठीक है।” उन्होंने मुझे फौरन ही पकड़ लिया। मुझे निर्देश देते हुए सवाल किया - “तो फिर आप ही क्यों नहीं कुछ करते हो? आपका तो अफसरों के बीच उठना-बैठना है। उनसे कहो कि इन स्सालों को पकड़े। दो लप्पड़ लगाएँ। कम से कम हजार-पाँच सौ का जुर्माना ठोके। इन्हें होश में लाए। इनके माँ-बाप को लाइन हाजिर करे। उन्हें भी तो पता लगे कि उनके पूत क्या कर रहे हैं?”

मैंने सरकार का बचाव किया। बोला - “सरकार क्या-क्या करे? माँ-बाप यदि अपने बच्चों को समझाएँ तो शायद बात बन जाए।”

सरकार की तरफदारी पर वे भड़क गए। तैश में बोले - “सरकार क्या-क्या करे से क्या मतलब आपका? सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा? और सरकार क्यों नहीं करे? करना पड़ेगा। हम सरकार को टैक्स देते हैं। और माँ-बाप की तो आप बात ही मत करो। आजकल की हालत आप देख रहे हो? काम-धन्धे से ही फुरसत नहीं मिलती। घर चलाएँ, काम-धन्धा करें या बच्चों को समझाएँ?”

उनके गुस्से ने मेरी आवाज धीमी कर दी। धीमी आवाज में ही प्रतिवाद करने की कोशिश की - “लेकिन सबसे पहले खतरा तोे अपने बच्चे की जान पर ही आता है। माँ-बाप की जिम्मेदारी तो बनती है। और किसी बात के लिए नहीं, अपने बच्चे की सलामती के लिए ही सही, माँ-बाप ने टोकना, समझाना तो चाहिए। इतना फर्ज तो बनता है।” मानो मेरी हर बात खारिज पर तुल गए हों, कुछ इस तरह बोले - “माँ-बाप क्या समझाएँ? उन्हें तो एक-दूसरे से ही फुरसत नहीं। एक-दूसरे में मगन रहते हैं। एक-दूसरे से फुरसत मिले तो बच्चों से बात करें।”

हमारा यह सम्वाद और चलता लेकिन रोक लग गई। बी. कॉम. प्रथम वर्ष में पढ़ रहा उनका बेटा दनदनाता हुआ दरवाजे पर रुका। उसे देखकर मेरा ‘दुर्जन’ प्रसन्न हो गया। वह बजाज कम्पनी की पल्सर मोटर सायकिल पर दनदनाता हुआ आया था और उसने किसी फिल्मी नायक की तरह एकदम ब्रेक लगा कर गाड़ी रोकी थी। उसे देखकर उनका गुस्सा तिरोहित हो गया। एकदम प्रेमल हो गए। “आजा! आजा!! अभी तेरी ही बात कर रहे थे। तेरा बीमा करा रहे हैं। जहाँ बैरागीजी कहें वहाँ दस्तखत कर दे और जो कागज माँगें, ला दे।”

‘दुर्जन’ को धकेल कर मेरा बीमा एजेण्ट आगे आया। कागजी खानापूर्ति की। कागज-पत्तर और पहली किश्त की रकम जेब के हवाले की। 

‘बीमा एजेण्ट’ का काम पूरा होते ही मेरा ‘दुर्जन’ हरकत में आ गया। अज्ञानी बन कर बच्चे से पूछा - “ये तो वही बाइक है ना जो बहुत तेज स्पीड से चलती है?” “हाँ अंकल। वही है। पल्सर। जोरदार बाइक है।” उसने गर्व और उत्साह से जवाब दिया। मेरे ‘दुर्जन’ ने फिर अज्ञानी का अभिनय करते हुए दुष्टतापूर्वक (और दुराशयतापूर्वक) पूछा - “तो सिटी में चलाने में तो तकलीफ आती होगी। अपने यहाँ तो लोगों में ट्रेफिक सेंस है ही नहीं?” मेरी बात को जोरदार धक्के से परे हटाते हुए लापरवाही से बोला - “अरे! बिलकुल नहीं अंकल! कोई प्रॉब्लम नहीं आती। सत्तर-अस्सी से कम पर इसे चलाई तो फिर इसे चलाने का मतलब ही नहीं। अपन तो बिन्दास चलाते हैं।” मेरा ‘दुर्जन’ खुश हो गया। चहक कर बोला - “इतनी स्पीड से चलाता है तो गाड़ी के ओरिजनल हार्न से काम चल जाता है?” मेरा सवाल उसे मूर्खतापूर्ण लगा। तनिक अचरज से बोला - “कैसी बात कर दी अंकल आपने? ओरिजनल हार्न की आवाज से कोई हटता है? इसमें तो तेज आवाजवाला ‘लाउड हार्न’ लगाना ही पड़ता है। ऐसा कि दो किलो मीटर आगे जानेवाला भी सुन ले और हट जाए।”

मेरे ‘दुर्जन’ का अभीष्ट पूरा हो चुका था। जैसे कोई ‘परम ज्ञान’ मिल गया हो, इस तरह उपकृत मुद्रा में उसे धन्यवाद दिया और अपना सयानापन जताते हुए सलाह दी - “वाह! यार नीलेश! क्या बात कही! मजा आ गया। फिर भी, अपना ध्यान रखना भई। कहीं, कुछ ऊँचा-नीचा न हो जाए।” मेरी अनदेखी करते हुए, लापरवाही से ‘थैंक्यू अंकल’ कहते हुए वह, जिस तरह दनदनाता घर के दरवाजे पर आया था, उसी तरह, दनदनाते हुए अन्दर चला गया।

मैंने उसके पिता की ओर देखा। उनकी दशा देखकर मेरा ‘दुर्जन’ भी परास्त हो गया।

मेरा काम तो पहले ही चुका था। रही बात उनके बातों के जवाब की? तो यह काम उनका बेटा मुझसे बेहतर ढंग से कर चुका था।  

9 comments:

  1. पर उपदेश कुशल बहुतेरे

    आजकल के अधिकांश परिवारों का सटीक चित्रण किया है आपने

    राजेश गोयल
    गाज़ियाबाद

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  2. उत्साहवर्द्धन के लिए अन्तर्मन से आभारी हूँ। धन्यवाक्स।

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  3. हमें भी अच्छा ज्ञान हो गया , जो आज बिंदास है , मुमकिन है कल वह और घर वाले उदास भी हों

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  4. बगल में छोरा, नगर ढिंढोरा ...

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  5. ये बच्चे अपनी मर्जी से दुनिया में नहीं आए हैं। इन्हें हम ही दुनिया में लाए हैं और ये ही हमारा आनेवाला कल हैं। हमें इन्हीं के कन्धों पर जाना है। हम अपने वक्त में ठहरे हुए हैं। यदि चलकर इनके वक्त में आएँ तो ये ही बच्चे हमें भले लगने लगेंगे। ये वैसे ही बने हैं और बन रहे हैं जैसा हमने इन्हें बनाया है और बना रहे हैं। ये ही हमारी सेवा करेंगे और हमारा नाम रोशन करेंगे। हमें इन पर भरोसा करना चाहिए!
    गौर कीजियेगा !!!
    "तात्पर्य जो आपके बच्चे को क्रियाकलाप कर रहें हैं वो आपकी ही परवरिश हैं "

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  6. Bairagi sahab.!
    Aapke bachhe Jo karte hai wo aaphi Ki parvarish ka aaina hai. To jara apne antarman se kuch sawal puche or aatmchintan kare Ki gyan Ki ganga dusro pr barsaate barsaate Chand bunde apne hi ghar pr daalna bhool gye.?
    Ye to wahi baat hogayi DIYA TALE ANDHERA.
    Dusro ko gireban Mai jhaakne Ki Salah dene k phle sarvprtham apne GIREBAN Mai jhaake to aapke sath sath oro ka bhi bhala hoga.

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