गाँधी और भगतसिंह को परस्पर विरोधी की तरह चित्रित/निरूपित किया जाता है। लेकिन सचाई इसके ठीक विपरीत है। दोनों ही एक दूसरे के मुक्त-कण्ठ प्रशंसक थे। यदि प्रशंसक नहीं भी थे तो, बैरी तो नहीं ही थे।
आज का भारत, निश्चय ही न तो गाँधी के सपनों का भारत है न ही शहीद-ए-आजम भगतसिंह के सपनों का। उन्हीं भगतसिंह के साथ हो रहे व्यवहार से मैं आज दो सवालों के बीच फँस गया। तय नहीं कर पा रहा कि कौन सा सवाल सही है।
पहला सवाल - क्या यह अच्छा ही हुआ कि अंग्रेजों ने भगतसिंह को फाँसी दे दी और उन्हें (भगतसिंह को) आज के भारत को देखने के दारुण दुःख से बचा दिया?
दूसरा सवाल - क्या यह अच्छा नहीं होता कि भगतसिंह आज हमारे बीच होते तो उनके नाम पर जो कुछ किया जा रहा है, वह नहीं होने देते और अपने सपनों का भारत बनाते?
भगतसिंह के बारे में मैं नाम मात्र को ही जानता हूँ। सुना अधिक। पढ़ा बहुत कम। लेकिन दो बातें अवश्य पढ़ी हैं। पहली तो यह कि वे नास्तिक/अनीश्वरवादी थे। और दूसरी यह कि वे जात-पाँत में भरोसा बिलकुल ही नहीं करते थे।
पहली बात तो उनके उस लेख से मालूम हुई जो उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर लिखा था। जाति-पाँति न माननेवाली बात उस घटना से मालूम हुई जो उन्होंने अपनी अन्तिम इच्छा के रुप में व्यक्त की थी।
अपनी अन्तिम इच्छा उन्होंने बताई थी कि फाँसी पर चढ़ने से पहले वे अपनी ‘बेबे’ (पंजाबी में माँ को ‘बेबे’ ही सम्बोधित किया जाता है) के हाथ की बनी रोटी खाना चाहते थे। जेलर परेशान हो गया था। इतने कम समय में भगतसिंह की माँ को कैसे बुलाया जाए? भगतसिंह ने तब कहा था कि ‘बेबे’ से उनका मतलब उस महिला से था जो उनके शौचालय की साफ-सफाई करती थी। भगतसिंह की सीधी-सपाट व्याख्या थी - माँ ही अपने बच्चों का मल-मूत्र साफ करती है। इसी व्याख्या से उन्होंने जेल में, उनके शौचालय की साफ-सफाई करनेवाली महिला को अपनी ‘बेबे’ कहा और माना था।
भगतसिंह की बात सुनकर वह महिला संकुचित हो गई थी। उसके मन पर हावी ‘जाति-बोध’ के चलते वह भगतसिंह के लिए रोटी बनाने को तैयार नहीं थी। लेकिन भगतसिंह की जिद के आगे उसे झुकना पड़ा। उसने रोटी बनाई और भगतसिंह ने बड़े प्रेम से खाई।
आज, ग्यारह सितम्बर 2014 को मैंने भगतसिंह की इन दोनों बातों को दफन होते देखा।
एक साहित्यिक संस्था ने भगतसिंह की मूर्ति, एक सार्वजनिक उद्यान में स्थापित करवाई। उद्यान नगर निगम ने विकसित किया और मूर्ति का मूल्य इस साहित्यिक संस्था ने चुकाया। आयोजन इसी उद्यान में था लेकिन मेजबानी इस साहित्यिक संस्था की थी। मुख्य अतिथि हमारे नगर के विधायक थे। वे भाजपाई हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता हमारे महापौरजी ने की। वे भी भाजपाई हैं। मंच यद्यपि साहित्यिक संस्था का था और पीछे बैनर भी इस संस्था का ही था लेकिन मंच पर संस्था का कोई प्रतिनिधि नहीं था। कुल सात लोग कुर्सियों पर विराजमान थे जिनमें विधायक, महापौर, भाजपा के जिलाध्यक्ष, भाजपा युवामोर्चा के जिलाध्यक्ष, क्षेत्रीय पार्षद (वे भी भाजपाई) और भाजपा के दो कर्मठ कार्यकर्ता शामिल थे। ऐसा लग रहा था मानो इस साहित्यिक संस्था ने भाजपा का, वार्ड स्तरीय भाजपा सम्मेलन आयोजित किया हो।
मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री 18 सितम्बर को मेरे कस्बे में आ रहे हैं। उसी तैयारी के लिए जिला प्रशासन द्वारा आयोजित बैठक में भाग लेने के लिए विधायक और महापौर को जाना था। दोनों को जल्दी थी। वे भगतसिंह को जल्दी से जल्दी निपटा कर मुख्यमन्त्री को सँवारने में लगना चाह रहे थे। दोनों ने संक्षेप में अपनी-अपनी बात कही। महापौर ने अपने कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनवाईं (उनका कार्यकाल इसी दिसम्बर में समाप्त हो रहा है)। उन्होंने भगतसिंह का उल्लेख केवल यह कह कर किया कि उनकी मूर्ति का अनावरण है।
विधायक ने भगतसिंह का उल्लेख कुछ अधिक वाक्यों में किया। भगतसिंह को अपनी राजनीतिक विचारधारा के आदर्श के रूप में उल्लेखित किया। कहा कि भगतसिंह के सपनों का भारत उनकी पार्टी ही बना सकती है और बनाएगी भी। उन्होंने महापौर से अधिक समय नहीं लिया।
दोनों भले ही बहुत कम बोले लेकिन स्वागत-अभिनन्दन के कारण कार्यक्रम काफी लम्बा खिंच गया था। स्थिति यह हो गई थी कि तय करना मुश्किल हो गया था कि किसे अधिक जल्दी है - विधायक, महापौर को या श्रोताओं को?
कार्यक्रम तो निपट गया लेकिन मैं अपने ही दो सवालों में उलझ गया। भगतसिंह के सपनों का भारत बनाने का दावा वे लोग कर रहे हैं जो ‘भगवा, भगवान और हिन्दू धर्म’ की डोर थामे सरकार में बैठे हैं। हिन्दू धर्म का आधार तो वर्णवादी व्यवस्था है! भगवान की दुहाइयाँ देनेवाले और अपने व्यवहार से वर्णवादी व्यवस्था को मजबूत करने में व्यस्त लोग भला भगतसिंह के सपनों का भारत कैसे बनाएँगे? मुझे भगतसिंह की जाति नहीं मालूम। लेकिन क्या हमें, आनेवाले दिनों में भगतसिंह के बारे में कुछ इस प्रकार सुनने को मिलेगा - ‘खत्री-शिरोमणी, हिन्दू धर्म के गर्व पुरुष, अमर शहीद भगतसिंह।’
गाँधी को काँग्रेसियों ने निपटा दिया। हालत यह कर दी कि अब गाँधी और गाँधीवाद से मुक्ति पाने की आवाजेें उठने लगी हैं। लेकिन यह स्थिति आने में 65 बरस लग गए। किन्तु लगता है, संघ परिवार भगतसिंह को उससे कहीं अधिक जल्दी निपटा देगा। भारत के शहीद-ए-आजम को दस-पाँच बरस में ही ‘खत्री शिरोमणी और हिन्दू धर्म का गर्व पुरुष’ बना देगा।
यह सच है कि संघ परिवार के पास, स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने की कोई विरासत नहीं है। वह अपने लिए किसी महापुरुष की तलाश में जुटा हुआ है। पहले कुछ हद तक लाल बहादुर शास्त्री और अब सरदार पटेल के जरिए वह अपनी टोपी में कुछ पंख खोंस रहा है। लेकिन क्या इसके लिए यह जरूरी है कि भगतसिंह की विशालता और व्यापकता को संकुचित, सीमित कर दिया जाए? समन्दर को नाले में बदल दिया जाए?
गाँधी को हम नहीं बचा पाए। लगता है, भगतसिंह भी गाँधी-गति को प्राप्त हो जाएँगे।
मैं अब भी अपने दोनों सवालों में उलझा हुआ हूँ।
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-09-2014) को "सपनों में जी कर क्या होगा " (चर्चा मंच 1735) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
व्यक्ति अपने विचारों और उनका अनुसरण करने से महान होता है...भगत सिंह जी ऐसी ही हस्ती थे...महान देशभक्तों की इस देश में कमी नहीं है...हाँ महिमामंडन सरकारों के हिसाब से होता है...
ReplyDeleteभारत के स्वाधीनता संग्राम में प्राण न्योछावर करने वाले हुतात्माओं के लिए जात-पांत और भेद-भाव से ऊपर उठना नैसर्गिक ही है। लेकिन भगत सिंह की नास्तिकता का पत्र कम्युनिस्टी प्रोपेगेंडा मात्र है। इस विषय पर लंबी बहसें होने के बाद भी उस इकलौते सबूत के प्रचारत उसकी सत्यता सिद्ध करने के बजाय बगलें झाँकते ही दिखे।
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