हिन्दी : अपनों के अत्याचार

 हिन्दी का रास्ता आसान नहीं रह गया है। इसे दोहरा संघर्ष करना पड़ रहा है - चतुर, चौकन्ने अंग्रेजीपरस्तों से और अपने ही असावधान, आलसी, क्रूर सपूतों से। तय कर पाना मुश्किल लगता है कि किससे पहले निपटा जाए या किससे पहले बचा जाय?

यहाँ दी गई कतरन देखिए। यह उस अध्यापिका का वक्तव्य है जो बच्चों को हिन्दी पढ़ाती रही है। मध्य प्रदेश में अध्यापकों की सेवा निवृत्ति आयु, अन्य शासकीय कर्मचारियों से दो वर्ष अधिक है। सारे कर्मचारी 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं जबकि अध्यापक 62 वर्ष की आयु में। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि इस अध्यापिका ने 35 बरस बच्चों को पढ़ाया।  कल्पना ही की जा सकती है कि इस अध्यापिका ने बच्चों को कैसी हिन्दी सिखाई/पढ़ाई होगी! यह भी तय है कि ‘ऐसी हिन्दी’ पढ़ानेवाली यह एकमात्र अध्यापिका नहीं ही होगी। पूरी जमात ऐसी भले ही न हो लेकिन हाँडी का चाँवल तो है ही।

इस समय मुझे मेरे छोटे बेटे का एक कक्षापाठी याद आ रहा है। इस समय उसकी अवस्था 26 वर्ष से अधिक नहीं होगी। कोई दो बरस पहले, एक दिन वह अचानक फेस बुक पर प्रकट हुआ और अपनी सत्रह कविताओं की पहली खेप मुझे अर्पित कर कहा - ‘अंकल! ये मेरी कुछ कविताएँ हैं। इन्हें जरा देख लीजिएगा।’ मुझे अच्छा तो लगा लेकिन कुछ ही देर तक। पहली कविता की पहली ही पंक्ति से, वर्तनी की अशुद्धियों का क्रम जो जारी हुआ तो एक कविता पूरी पढ़ने में मुझे रोना आ गया। शेष कविताएँ नहीं पढ़ सका! अगले दिन उसने (फेस बुक पर ही) पूछा - ‘मेरी कविताएँ देखी अंकल? कैसी लगी?’ मैंने उत्तर दिया - ‘एक कविता ही पढ़ पाया। वह भी बड़ी मुश्किल से। वर्तनी की अशुद्धियों ने जी खट्टा कर दिया। पहले अपनी वर्तनी सुधारो। उसके बाद ही कविता लिखना।’ उसने ‘दन्न’ से पूछा - ‘ये वर्तनी क्या होता है अंकल?’ मेरी घिग्घी बँध गई। अपनी बुद्धि, शक्ति और सामर्थ्यानुसार उसे समझाया। उसने जवाब दिया - ‘आप जो कह रहे हैं वह सीखने में तो बहुत टाइम लग जाएगा अंकल! मुझे तो अपनी नौकरी से ही फुरसत नहीं मिल पाती। यह नया काम सीखने के लिए मुझे टाइम नहीं है।’ मैंने यही कहा कि इस दशा में वह मुझे अपनी कविताएँ न भेजे।

उसने मेरा कहा मानने का उपकार तो कर लिया किन्तु उसका ‘कविता-कर्म’ न केवल निरन्तर है बल्कि हिन्दी साहित्य की कई संस्थाएँ और मंच उसे सम्मानित कर चुके हैं। उसकी उम्र और कविता लिखने की गति देखते हुए लगता है कि वह यदि ‘सबसे कम उम्र में सर्वाधिक सम्मान पानेवाला हिन्दी कवि’ बन जाए तो ताज्जुब नहीं। हाँ, वर्तनी के प्रति उसकी असावधानी पूर्ववत बनी हुई है। मैं तय नहीं कर पा रहा कि किस पर गुस्सा अधिक करूँ - इस बच्चे पर या इसे सम्मानित करने वाली साहित्यिक संस्थाओं/मंचों पर?

मुझे एक और ‘कवि’ याद आ रहे हैं। उम्र में मुझसे छोटे थे। अब दिवंगत हो चुके हैं। ऐसे में उनका नाम देना अशालीन होगा। मैं अपना काम कर रहा था। वे अपनी कविता-डायरी में व्यस्त थे। अचानक ही पूछा - “भाई साब! ये ‘सैलाब’ क्या होता है?” मैंने कहा - ‘सामान्य अर्थ तो बाढ़ या पानी का उफान होता है। लेकिन यदि वाक्यों में प्रयोग करके पूछो तो अधिक स्पष्ट बता सकूँगा।” अपनी डायरी में नजर गड़ाए बोले - ‘वाक्यों में प्रयोग तो मैंने कर लिया। तुक भी मिल गई। आप तो बस इसका अर्थ बता दीजिए।’ मैं क्या जवाब देता? बताने के लिए मेरे पास बचा ही क्या था?

‘अपनी हिन्दी’ के प्रति हिन्दीवालों के व्यवहार का एक और नमूना। साथवाला चित्र देखिए। एक अखबार में छपा यह विज्ञापन कल, 12 सितम्बर 2014 का ही है। इस अखबार की जड़ें राजस्थान में हैं। इसके संस्थापकजी को ‘हिन्दी-पुरुष के रूप में जाना जाता था। पत्रकारिता के पुरोधा बताते हैं कि अपने इसी अखबार की हिन्दी को ‘निर्दोष और अनुकरणीय’ बनाने के लिए उन्होंने अखबार में एक स्वतन्त्र विभाग बनाकर कुछ लोग नियुक्त किए थे। संस्थापकजी तो दिवंगत हो चुके हैं। उनके सुपुत्र ही अब इसके स्वामी और नियन्त्रक हैं। वे खुद ‘स्थापित हिन्दी साहित्यकार’ हैं और ‘श्रेष्ठ हिन्दी सेवी’ के रूप में एकाधिक राज-पुरुषों के हाथों, देश के विभिन्न स्थानों में राजकीय और साहित्यिक/सामाजिक सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। हिन्दी साहित्य की लगभग समस्त विधाओं में इनका हस्तक्षेप है। इनकी, कम से कम एक दर्जन पुस्तकें तो प्रकाशित हो चुकी हैं। इन पुस्तकों के विज्ञापन भी इनके इसी अखबार में छपते हैं।

पाँच बरस पहले, 12 सितम्बर 2009 को इस अखबार का, मेरे कस्बे का संस्करण शुरु हुआ था। छपता तो अब भी इन्दौर में ही है किन्तु मेरे कस्बे के लिए अलग से पन्नों की व्यवस्था है। कल, इस अखबार के, मेरे कस्बेवाले संस्करण के पाँच बरस पूरे हुए। छठवाँ वर्ष शुरु हुआ। उसी प्रसंग पर यह सूचना, मेरे कस्बे के पन्नेवाले हिस्से के मुखपृष्ठ पर छपी थी। यह अखबार हिन्दी का है, हिन्दी (क्षमा करें, ‘हिंग्लिश’) में छपता है, इसके संस्थापक ‘हिन्दी-पुरुष’ थे, इसके वर्तमान स्वामी ‘श्रेष्ठ हिन्दी सेवी’ हैं, इसका दावा है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ (दोनों हिन्दी प्रदेशों में) इसके 46 लाख पाठक हैं। लेकिन अपना छठवाँ स्थापना दिवस याद करने, इस प्रसंग पर गर्वित होने और अपने पाठकों को बताने के लिए इस अखबार को अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ा।

क्या कहा जाए? क्या-क्या कहा जाए? किससे, किस-किससे कहा जाए? कब तक कहा जाए? अंग्रेजीपरस्तों पर गुस्सा किया जाए या नहीं? किया जाए तो क्यों किया जाए? मेरे पास अपने ही सवालों का जवाब नहीं है। अचानक ही मुझे एक शेर याद आ गया है। सम्भव है, शब्दशः इस स्थिति पर लागू न हो किन्तु अंशतः ही सही, मेरी बात प्रकट तो करता ही है -

दोस्तों से जान पे सदमे उठाए इस कदर।
दुश्मनों से बेवफाई का गिला जाता रहा।

5 comments:

  1. अच्छा लिखा है आपने। बस 'छठवाँ' शब्द खटकता है। वह 'छठा' है, संस्कृत के षष्ठ (षष्ठम नहीं) से बना है। पंचम से पांचवाँ सही है, इसलिए षष्ठ से छठा। शुभकामनाएँ।
    - समदर्शी, भोपाल

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  2. कोटिशः धन्यवाद कि आप मेरे ब्लॉग तक आए और पढ़ा ही नहीं, पढ़कर, समय निकाल कर और कष्ट उठाकर उस पर टिप्पणी भी की। अन्तर्मन से आभार।

    ‘छठा’ सही ही होगा। इस सम्बन्ध में एक बार हिन्दी और संस्कृत के एक विद्वान से चर्चा हुई थी। उन्होंने बताया था कि (जैसा कि आपने भी लिखा है) ‘षष्ठ’ मूलतः संस्कृत का शब्द है। हिन्दी में इसे ‘छठा’ और ‘छठाँ’ कहा/लिखा जा सकता है किन्तु ‘छठवाँ’ लिखना अधिक अच्छा होगा। उनका कहना था कि संस्कृत और हिन्दी के अपने-अपने व्याकरण हैं और व्याकरण का सामान्य नियम है कि जब भी कोई शब्द अपनी मूल भाषा से इतर भाषा में जाता है तो उस पर इतर भाषा का ही व्याकरण और व्यवहार लागू होगा। उन्होंने ‘आत्मा’ का उदाहरण दिया था कि ‘आत्मा’ संस्कृत में पुल्लिंग है जबकि हिन्दी में स्त्रीलिंग।

    ‘छठवाँ’ प्रयुक्त करने के पीछे उनका परामर्श और आग्रह ‘छठी’ के कारण रहा। हिन्दी में ‘कक्षा छठी’, ‘छठी बार’ जैसे प्रयोग होते हैं जबकि ‘छठी’ एक विशेष रस्म है जो बच्चे के जन्म के छठवें दिन पूरी की जाती है। ‘छठी का दूध याद आ जाना’ उसी रस्म से जुड़ा मुहावरा है। इसीलिए ‘कक्षा छठी’, ‘छठी बार’ अनुचित प्रयोग हैं और ‘कक्षा छठवीं’, ‘छठवीं बार’ उचित प्रयोग होंगे।

    इसी आधार पर इन विद्वान् महोदय ने ‘छठवाँ’ का परामर्श दिया था और यही प्रयुक्त करने का आग्रह भी किया था। मैंने उनका कहा माना।

    कृपया मेरे इस स्पष्टीकरण को अपनी टिप्पणी से असहमति बिलकुल मत समझिएगा। मैं आकण्ठ विश्वस्त हूँ कि आपने मेरी बेहतरी के लिए ही ‘छठा’ प्रयुक्त करने का आग्रह किया है और अपनी सम्पूर्ण सदाशयता/सद्भावना से किया है। ऐसे विमर्श मुझे सदैव ही लाभकारी रहे हैं।

    अब ‘वे’ विद्वान सज्जन जब भी मिलेंगे तब आपके उल्लेख सहित एक बार फिर उनसे चर्चा करूँगा। यदि कुछ उल्लेखनीय हुआ तो आपको अवश्य सूचित करूँगा।

    मेरे ब्लॉग पर अपनी नजर और मुझ पर अपनी कृपा बनाए रखिएगा।

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    1. धन्यवाद। मेरी जानकारी में वृद्धि हुई। आपका (उन विद्वान सज्जन का) तर्क भी अपनी जगह सही प्रतीत होता है। वस्तुत: यह मानकीकरण की समस्या है। शब्द का जो भी रूप तय हो जाए, वही सब प्रयुक्त करें। हालाँकि हिन्दी के मामले में यह दूर की कौड़ी लगती है, क्योंकि हिन्दी तो ग़रीब की लुगाई सबकी भौजाई है। छठा बनाम छठवाँ तो छोटा-सा मामला है और दोनों के पक्ष में प्रयुक्त तर्क वाजिब लगते हैं, लेकिन यहाँ तो ऐसे विद्वानों की कोई कमी नहीं, जो कोई शब्द ग़लत लिखते हैं और बड़ी अकड़ के साथ ग़लत को ही सही बताते हैं। निश्चित रूप से, आप उनमें से नहीं हैं, क्योंकि जैसा कि उपर्युक्त प्रसंग में आपने विद्वान से चर्चा करने की बात लिखी है, आप जानने, समझने और बदलने के लिए तैयार हैं। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।
      हो सके तो लोगों को यह भी समझाएँ कि हिन्दी के पक्ष में हमें विचारधारा से ऊपर उठकर कार्य करना होगा, वरना कई विद्वान तो 'साम्प्रदायिक' लोगों के हिन्दी प्रेम और उनके योगदान को सिरे से खारिज़ कर देते हैं।
      - समदर्शी

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    2. बात गलत को सही बताने तक ही सीमित रहे तो भी कुछ-कुछ समझ आती है। लेकिन कई विद्वान इससे आगे बढ़कर सही को गलत बताने पर तुल जाते हैं। एक पुस्तक के शीर्षक में वसंत आने पर संस्कृत के एक "तथाकथित" विद्वान उसे संपादित करके बसंत करने लगे। इसी प्रकार हाल में आवंटन-आबंटन पर चर्चा सुनी। मुझे लगता है कि प्रयोग की दृष्टि से छठा और छठवाँ में मामूली अंतर हो सकता है लेकिन कम से कम रूहेलखण्ड में छठा ही कहते सुना है और मैं स्वयं भी उसी का प्रयोग करता रहा हूँ, यद्यपि छठवाँ पढ़कर भी शायद मुझे कभी असामान्य न लगे। हाँ, छठाँ कभी मैंने सुना हो ऐसा याद नहीं।

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  3. कल ‘उन’ विद्वान् सज्जन से भेंट हो गई। उनका कहना था कि वैयाकरणिक रूप से ‘छठा’, छठाँ’ और ‘छठवाँ’ तीनों ही सही और स्वीकार्य हैं। किन्तु अर्थ-स्पष्टता और व्यवहार के हिसाब से ‘छठवाँ’ अधिक उपयुक्त होगा।

    उन्होंने समझाया - ‘दाँया’ और ‘बाँया’ वैयाकरणिक रूप से सही हैं। किन्तु दोनों का ध्वन्यात्मक प्रभाव, कभी-कभी समान हो जाता है। इससे बचने के लिए ‘दाहिना’ और ‘बाँया’ प्रयुक्त करने की सलाह दी जाती है। इसी तरह, उनके मतानुसार ‘छठा’ या ‘छठाँ’ की अपेक्षा ‘छठवाँ’ अधिक व्यावहारिक होगा।

    मानकीकरण की समस्या तो, मुझे लगता है, असमाप्त ही रहेगी। (विद्वान् कभी एक मत जो नहीं होते।)

    मेरी तो धारणा है कि भाषा की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। यह तो विचारधारा की वाहक और प्रकटीकरण का माध्यम होती है। किन्तु इसके समानान्तर मुझे यह भी लगता है कि जब भी हिन्दी को हिन्दुओं की, उर्दू को मुसलमानों की और अंग्रेजी को इसाइयों की भाषा कहने जैसी बातें सामने आती रहेंगी तब हर बार वह समस्या सामने आएगी जिस पर आपने चिन्ता प्रकट की है।

    रही समझाने की बात। तो लगता है, आपने अत्यन्त कृपालु होकर मुझ पर बहुत अधिक भरोसा कर लिया है। मैं तो खुद अब तक विद्यार्थी हूँ। पहले खुद तो समझ लूँ!

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