यह एक बीमा कम्पनी और उसके ग्राहक के बीच का एक मामला मात्र नहीं है। यह मामला है - ‘ग्राहक ही भगवान है’ की भारतीय संस्कारशीलता और ‘ग्राहक कभी गलती नहीं करता’ की पाश्चात्य आदर्शवादिता को घोलकर पी जाने की ‘सीनाजोर कृतघ्नता’ का।
मैं अक्षय छाजेड़ के ठीक पड़ौस में रहता हूँ। एक दीवार है हमारे बीच में। अक्षय ने, सरकारी बीमा कम्पनी युनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी से, दो मेडीक्लेम बीमा पॉलिसियाँ ले रखी हैं - एक अपने वृद्ध पिताजी के लिए और एक खुद के परिवार (खुद, पत्नी और दो बच्चों) के लिए। बीमा कम्पनी के कानूनों के चलते उसे दो पॉलिसियाँ लेनी पड़ती हैं। वर्ना, पिताजी कोई अलग परिवार नहीं हैं।
दोनों ही पॉलिसियाँ पुरानी हैं। 05 दिसम्बर 2013 को अक्षय ने दोनों पालिसियों का नवीकरण (रिन्यूअल) कराया तो अनुभव किया कि एक पॉलिसी में उससे 1,533/- रुपये अधिक लिए गए हैं - 7,658/- रुपयों के स्थान पर 9,191/- रुपये। इसके अतिरिक्त अक्षय ने देखा कि एक पॉलिसी में ‘नो क्लेम बोनस’ की छूट 9 प्रतिशत है और दूसरी में 5 प्रतिशत।
22 दिसम्बर 2013 को अक्षय को जैसे ही यह भान हुआ, उसने उसी दिन अपनी गणना प्रस्तुत करते हुए, ई-मेल के जरिए, कम्पनी के रतलाम शाखा कार्यालय को (जहाँ से अक्षय ने पॉलिसियाँ ली थीं) से कहा कि उससे ली गई प्रीमीयम की तथा नो क्लेम बोनस की छूट की दरों में विसंगति की पुनर्गणना करे और यदि वास्तव में कम्पनी से चूक हुई है तो उससे ली गई अधिक रकम वापस करे। शाखा कार्यालय ने चुस्ती-फुर्ती बरती और अक्षय का मेल, समस्त सम्बन्धितों को अग्रेषित (फारवर्ड) कर दिया। अपनी इस कार्रवाई की सूचना कम्पनी ने अक्षय को भी दी।
लेकिन वह दिन और आज का दिन, स्थिति में रत्ती भर बदलाव नहीं आया है। अक्षय ने मार्च 2014 में उन समस्त लोगों को, जिन-जिन को कम्पनी के शाखा कार्यालय ने अक्षय का मेल अग्रेषित किया था और ग्राहक सेवा विभाग (कस्टमर केअर सेल) को ‘स्मरण-मेल’ किया किया। लेकिन इस बार तो किसी ने पावती देने का न्यूनतम शिष्टाचार भी नहीं निभाया।
कम्पनी का शाखा कार्यालय अक्षय की नौकरी वाले दफ्तर के रास्ते में ही पड़ता है। सो, जब भी सुविधा मिलती है, अक्षय बीमा कम्पनी के दफ्तर चला जाता है। शाखा प्रबन्धक से लेकर सेवक तक, सब अक्षय से भली-भाँति परिचित हैं। शुरु-शुरु में, गर्मजोशी से ‘आईये! आईये!!’ से अक्षय की अगवानी की जाती थी जो धीरे-धीरे ‘आप क्यों अपना वक्त खराब करते हैं? हम देख रहे हैं ना? आपका काम हो जाएगा।’ से होते-होते ‘अरे! आप फिर आ गए? आपको एक बार बता तो दिया है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं है! जो भी करना है, ऊपरवालों को करना है! जैसे ही कोई खबर आएगी, आपको खबर कर देंगे।’ जैसे झुंझलाहट भरे जवाब को पार करते हुए ‘आप ग्राहक हैं साहब! आपको कुछ भी कहने का हक है। हमें तो सुनना ही सुनना है।’ जैसे बेशर्म जवाब पर आकर ठहर गई है। यह आखिरीवाला जुमला कहते हुए शाखा प्रबन्धक की मुख मुद्रा और कहने की शैली कुछ ऐसी होती है मानो कह रहा हो ‘तेरी बात चुपचाप सुनना मेरी मजबूरी है। अगर नौकरी की मजबूरी नहीं होती तो अभी, दो जूते मारकर, धक्के देकर निकलवा देता।’ और शायद यह भी कि ‘तुम कैसे बेवकूफ और घटिया आदमी को कि हजार-दो हजार की रकम के लिए मरे जा रहे हो! हमें परेशान किए जा रहे हो! इतना भी बर्दाश्त कर पाना मुमकिन नहीं है तो अगली बार से हमारे पास मत आना। किसी और कम्पनी से बीमा करा लेना।’
आज अक्षय बेबस खड़ा है। कम्पनी का शाखा कार्यालय ‘आवक-जावक बाबू’ की तरह काम कर रहा है, अपनी तरफ से कुछ नहीं कर रहा। ऊपरवालों के पास ऐसे हजारों ‘केस’ हैं। हजारों की इस भड़ में अक्षय तो ‘पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं है। कम्पनी, पहले लाखों की प्रीमीयम देनेवाले ‘जबरे’ ग्राहकों के दावे निपटाएगी। अक्षय जैसे ग्राहक तो, कम्पनी के कर्मचारियों/अधिकारियों की केवल ‘सेलेरी’ जुटाते हैं। सुविधाओं और ग्लेमर की चकाचौंध भरी जिन्दगी तो इन ‘जबरे’ ग्राहकों के दम पर ही जी जा सकती है। सो, ‘रोजी-रोटी’ देनेवाले की अनदेखी, अवमानना की जा रही है और मलाई देनेवालों को हाथों-हाथ लिया जा रहा है।
अक्षय के सामने एक ही रास्ता है - उपभोक्ता संरक्षण फोरम का दरवाजा खटखटाने का। पहली नजर में हर कोई कह रहा है कि अक्षय की जीत पक्की है। कम्पनी सौ जूते भी खाएगी और सौ प्याज भी। याने, ज्यादा ली गई रकम भी लौटाएगी, उस पर ब्याज भी देगी और अखबारबाजी के जरिए अपनी फजीहत भी कराएगी। वह सब मंजूर है। मंजूर नहीं है तो बस! एक औसत ग्राहक को सन्तोषजनक समाधान उपलब्ध कराना मंजूर नहीं है।
बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिए खोल देने के बाद सरकारी बीमा कम्पनियों को भीषण, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से जूझना पड़ रहा है। सरकार, बीमा क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश बढ़ाने के लिए पण-प्राण से कटिबद्ध है। बीमा क्षेत्र को बचाने के लिए तमाम श्रम-संगठन एकजुट हो, सड़कों पर आने की तैयारी करते नजर आ रहे हैं। लेकिन जमीनी वास्तविकता इस सबको पाखण्ड साबित कर रही है। सरकारी कम्पनियों के लोग अपने ‘अन्नदाता ग्राहक’ को किस तरह निजी कम्पनियों की ओर धकेल रहे हैं - यह बात, अक्षय के इस छोटे से नमूने से समझी जा सकती है।
मेरी पीड़ा केवल यही नहीं है। पीड़ा यह भी है कि एक जमाने में मुझे इसी कम्पनी से रोजी-रोटी मिलती थी। मैं भी कभी इस बीमा कम्पनी का एजेण्ट था। पर्दे के पीछे रहकर मैं भी यथा-शक्ति, यथा-सम्भव अक्षय की सहायता और कम्पनी की छवि बचाने की कोशिशें कर रहा हूँ। लेकिन साफ लग रहा है कि अकेला अक्षय ही नहीं, कम्पनी के लिए मैं भी ‘पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं ही हूँ।
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उत्साहवर्ध्दन हेतु कोटिश: धन्यवाद और आभार।
ReplyDeleteसच बयानी है !
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