22 अगस्त की अपराह्न मैंने फेस बुक पर, अपनी दीवाल पर निम्नांकित टिप्पणी लिखी -
“आज ‘दूरदर्शन नेशनल’ पर दोपहर में, ‘बाम्बे टाकिज’ कार्यक्रम देखने का मौका मिला।
“कार्यक्रम की सूत्रधार देवीजी निश्चय ही ‘एंग्लो इण्डियन’ थीं। उन्हें हिन्दी बोलने में बड़ी तकलीफ हो रही थी। उनकी प्रस्तुति में अंगरेजी शब्दों की भरमार थी।
“ऐसे प्रस्तोताओं से बचा जाना चाहिए। ‘दूरदर्शन’ की पहुँच दूर-दराज के गाँवों तक है। सहज हिन्दी बोलनेवाले प्रस्तोता अधिक उपयोगी और प्रभावी होंगे।”
मेरी इस टिप्पणी पर, फेस बुक पर जो टिप्पणियाँ आईं वे तो अपनी जगह किन्तु 24 अगस्त की शाम तक मुझे दिल्ली से चार फोन आए। फोन करनेवाले चारों ही सज्जन किसी न किसी रूप में ‘दूरदर्शन’ से जुड़े थे। एक सज्जन तो सप्ताह में कम से कम चार बार ‘दूरदर्शन’ जाते ही हैं।
इन चारों से, प्रत्येक से लगभग पाँच-पाँच मिनिट बात हुई। चारों ने जो कुछ कहा उसने मुझे अचरज में ही डाला। लेकिन मैंने इन सबकी बातें एक कान से सुनीं और दूसरे कान से निकाल दीं।
किन्तु कल, शनिवार को आए एक फोन ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। इन सज्जन ने कोई आठ मिनिट मुझसे बात की और आप बीती सुनाई।
मुझे नहीं पता कि इन सबने जो कुछ कहा वह सब, वैसा ही सच है जैसा उन्होंने कहा या कि ‘दूरदर्शन’ में सब कुछ वैसा ही होता है। लेकिन ‘कुछ न कुछ’ नहीं हो तो भी ‘कुछ’ तो है ही। बिना आग के भला धुँआ होता है?
इन सबकी बातों का निष्कर्ष था कि ‘दूरदर्शन’, केन्द्र सरकार के अफसरों (खास कर आईएएस अफसरों) की बीबीयों का शरणस्थल या तो बन गया है या बनता जा रहा है।
इनमें से तीन ने तो कुछ सम्वादों के नमूने दिए। जैसे -
- मिसेस ने फाइन आर्ट्स में पीजी कर रखा है। उनके लिए थोड़ा स्पेस बनाइये ना!
- मेडम से तो आपकी मुलाकातें होती रहती हैं। उनसे खूब डिस्कशन भी होता रहता है आपका। आपके यहाँ तो किसी न किसी टॉपिक पर डिस्कशन्स होते ही रहते हैं। उन्हें पेनेलिस्ट या प्रजेण्टर बनाने की आपने कभी सोचा ही नहीं। थिंक टू डू ए फेवर।
- मिसेस एस्थेटिक टेस्टवाली हैं। आर्ट, कल्चर और लिटरेचर में अच्छा-खासा दखल है। उनके लिए कुछ कीजिए भाई!
कभी-कभी उल्टा होता है। याने, किन्हीं खास अफसरों को खुश करने के लिए ‘दूरदर्शन’ के कुछ लोग उनकी सद्गृहस्थ पत्नियों को जबरिया प्रेजेण्टर बना देते हैं।
लेकिन कल आए फोन ने तो सब गड़बड़ ही कर दिया। फोन करनेवाले सज्जन केन्द्र एक सरकार के एक उपक्रम में पदस्थ हैं और अपने विषय के विशेषज्ञ की हैसियत रखते हैं। उनके विषय पर बात करने के लिए ‘दूरदर्शन’ ने उन्हें बुलाया था। वे तो पूरी तैयारी से पहुँचे थे किन्तु उनसे बात करनेवाली देवीजी का, कैमरे का सामना करने का यह पहला ही मौका था। ‘दूरदर्शन’ का सपोर्टिंग स्टाफ पसीना-पसीना हो गया लेकिन उनसे बोला ही नहीं जा रहा था। सवाल पूछना तो दूर रहा, उनसे तो सवाल पढ़े भी नहीं जा रहे थे। समय तेजी से बीत रहा था लेकिन होने के नाम पर कुछ भी नहीं हो रहा था। इन विशेषज्ञजी का धीरज छूट गया। आगे जो हुआ, वह कुछ इस तरह था -
“मेरे पास बहुत ही सीमित समय था। अपने बाकी अपाइण्टमेण्ट निपटाने के लिए मुझे जल्दी लौटना था। लेकिन उधर देवीजी के बोल नहीं फूट रहे थे। आखिरकार मैंने रास्ता बताया। बोला कि देवीजी भले ही पूछ नहीं पा रही हैं लेकिन सवाल तो लिखे हुए हैं ही। उन सवालों के हिसाब से मेरे जवाब रेकार्ड कर लें और मुझे छुट्टी दे दें। बाद में इन देवीजी से सवाल रेकार्ड कर लें और बाकी काम सम्पादक पर छोड़ दें।
“प्रोड्यूसर को मेरी बात जँच गई। मेरे जवाब रेकार्ड कर लिए गए। मैं लौट आया। दो दिन बाद मुझे उस कार्यक्रम प्रसारण की सूचना मिली तो मैं धड़कते दिल से देखने बैठा - कहीं ऐसा न को कि सवाल कुछ हो और जवाब कुछ और। लेकिन सम्पादक ने सब कुछ सम्भाल लिया।”
अब, जब-जब भी ‘दूरदर्शन’ देखता हूँ तो मुझे ‘दूरदर्शन’ के प्रतीक चिह्न पर ‘दूरदर्शन’ के बजाय ‘बीबीयों की सराय’ लिखा नजर आता है।
सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का मामला है, जिनके पास प्रतिभा होती है वे मारे मारे फिरते हैं, दुखद !!
ReplyDeleteलोग-बाग बोलते हैं कि स्वातंत्र्योत्तर भारत को नेताओं ने बर्बाद किया है... दरअसल, नेता नहीं, आईएएस बाबुओं और उनकी पत्नियों ने बर्बाद किया है. :(
ReplyDeleteबहुत ई सुन्दर प्रस्तुति ! व्यंग्य अच्छा है !!
ReplyDeleteहकीकत भरा यह व्यंग , सोचने समझने को मजबूर करता है कि दूरदर्शन में कितनी पोल है , देश को इन नेताओं व अफसरों ने अपनी बपौती समझ लिया है व ये उसका कितना दुरूपयोग करते हैं , अब यदि जनता का इस चैनल से मोहभंग होता है तो दर्शकों की क्या गलती है ?
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