वक्त कटी की बातें ‘महज बातें’ नहीं होतीं और फुरसती लोग फालतू नहीं होते। तनिक ध्यान से देखें, सोचें-विचारे तो लगेगा, इनके जरिए हमारा ‘लोक’ बड़ी ही प्रभावशीलता से जीवन के कड़वे यथार्थ उजागर करता है।
दोपहर की वेला। एलआईसी दफ्तर में भोजनावकाश। हाथ में काम कुछ खास नहीं। प्रीमीयम जमा करने के लिए आए दोे ‘रिटायर्डों’ से साबका पड़ गया। दोनों ही परिचित और परिहासप्रिय। प्रीमीयम जमा करने के बाद मुझसे पूछा - ‘चाय पीएगा या पिलाएगा?’ इतने अपनेपन और अधिकार से अब कौन बात करता है? मैं निहाल हो गया। बोला - ‘केवल चाय ही क्यों? साथ में और कुछ भी। आपने मुझे इस काबिल तो कर ही दिया कि आपकी सेवा कर सकूँ।’ दोनों खुश हो गए। एक ने मेरी पीठ पर धौल मारी और धकिया कर, दफ्तर के सामने, सड़क पार, मनोज की चाय की दुकान की ओर ले चले।
मनोज दुकान पर नहीं था। वह आए तो चाय बनाए। मनोज गैरहाजिर तो भला कोई ग्राहक क्यों हो? सो, हम तीन के तीन, सुनसान दुकान की बेंच पर बैठ गए।
‘और क्या चल रहा है?, मानसून दगा दे रहा है, भादों अभी आधे से ज्यादा बाकी है लेकिन अगहन सा तप रहा है’ जैसी रस्मी बातों से होते-होते ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’ वाले जुमले पर बात आ गई। दोनों खूब हँसे। एक बोला - ‘स्साले! नेता! अपने सिवाय सबको बेवकूफ समझते हैं। नहीं खाएँगे। मासूम बन कर बात करते हैं और सोचते हैं सब उनकी बातों पर आँख मूँद कर भरोसा कर लेंगे।’ मैं चुप रहा। बोलने पर कुछ महत्वपूर्ण से वंचित हो जाने का खतरा था। मुझे सम्बोधित करते हुए एक बोला - ‘चील कह रही है, मेरे घोंसले में गोश्त सुरक्षित रहेगा। अरे! एक-एक रैली में लाखों-करोड़ों खर्च हुए हैं और कह रहे हैं न खाऊँगा और न ही खाने दूँगा। ऐसा कहीं होता है? कहनेवाला जानता है कि वह सच नहीं बोल रहा लेकिन सुननेवाला भी नासमझ नहीं है, इतना भी विचार नहीं रहता इन लोगों को।’
फिर उन दोनों ने अपना-अपना एक-एक किस्सा सुनाया।
पहला किस्सा इस तरह था।
एक बहुत ही ‘चालू’ अफसर, एक ‘गृह वित्त (हाउसिंग फायनेन्स) कम्पनी’ के एरिया मैनेजर बन गए। सुविधा के लिए उनका नाम नेकीरमजी मान लें। नेकीरामजी वो आदमी जो साँस भी न तो मुफ्त में ले और न लेने दे। कम्पनी अच्छी-खासी दमदार। रोज, अखबारों में पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन देनेवाली। लोगों की रेलमपेल हो गई। लेकिन ताज्जुब की बात कि कोई भी भ्रष्टाचार की शिकायत नहीं कर रहा। क्या नेकीरामजी बदल गए?
सीधे-सीधे उन्हीं से पूछ लिया - ‘क्या बात है? तबीयत तो ठीक है?’ नेकीरामजी ठठा कर हँसे और खुलकर बोले - ‘पहले कौन सी खराब थी जो अब ठीक होने का सवाल उठे? अब तो पहले से सौ गुना ज्यादा ठीक।’ पूछताछ के जवाब में उन्होंने रहस्य उजागर किया - “इण्डिविज्युअल एप्लीकेण्ट (व्यक्तिगत रूप से लोन माँगनेवाले) की तरफ देखता भी नहीं लेकिन ‘क्लस्टर फायनेन्स’ में कस कर वसूली करता हूँ।” ‘क्लस्टर फायनेन्स’ का मतलब नेकीरामजी ने बताया - बहुमंजिला इमारतों (मल्टियों) के फ्लेटों को लोन देना। ऐसा लोन मंजूर करने में खुले हाथों बटोरते हैं। एक-एक आदमी से बात करो तो मेहनत और वक्त तो ज्यादा लगेगा ही, बदनामी भी ज्यादा होगी। मल्टियों के फ्लेटों का लोन आठ, बारह, सोलह फ्लेटों के हिसाब से एक साथ होता है। एक ही आदमी से बातचीत करनी होती है और लेन-देन भी एक से ही होता है। यह आदमी या तो बिल्डर खुद होता है या उसका आदमी। सो, बदनामी के खतरे की कोई बात नहीं। पहली बात तो यह कि बड़े धन्धेवाला सड़क पर चिल्लाता नहीं और यदि वह चिल्लाता है तो सब ‘इण्डिज्युअल एप्लीकेण्ट’ उसे झूठा कहेंगे। कहेंगे - ‘हमसे तो एक पैसा नहीं लिया।’ नेकीरामजी ने कहा - ‘तुम वाकई में सठिया गये हो। कोई छोड़ता है भला? मैं दोनों हाथों से माल बटोर रहा हूँ और ईमानदार का ईमानदार बना हुआ हूँ।’
दूसरे का सुनाया किस्सा भी लगभग ऐसा ही था। पहलेवाला किस्सा तो रतलाम से बाहर का था लेकिन यह दूसरा रतलाम का ही था।
यह किस्सा इस तरह है -
कोई बीस-बाईस बरस पहले की बात है यह। मेरे एक परिचित रतलाम नगर निगम के कमिश्नर बन कर आए। आते ही उन्होंने मुझे फोन किया। अपने आने की खबर दी और फौरन मिलने के लिए बुलाया।
मिलते ही नाराज हुए - ‘मेरे आने की खबर मिलने के बाद भी मिलने नहीं आए! बुरी बात है। मिलना-जुलना न सही, इतना तो विचार करते कि नई जगह में मैं रोटी कहाँ खाऊँगा! चलो। कोई बात नहीं। मेरे, आज शाम के भोजन की व्यवस्था तुम्हारे जिम्मे।’
बातों ही बातों में नगर निगम में भ्रष्टाचार की बात चली। उनसे पूछा - “आपकी ‘स्ट्रेटेजी’ क्या होगी?” तपाक से बोले - “वेरी सिम्पल! ‘फोर फिगर्स’ से कम नहीं लूँगा।” उन्होंने भी वही राज बताया - “थ्री फिगर्स’ वाले ज्यादा हैं। उन्हें छोड़ूँगा। वे मेरा गुण-गान करेंगे। मेरी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटेंगे। उनसे हुए नुकसान की भरपाई ‘फोर फिगर्स’ वालों से करूँगा। मोटा आसामी गहरा होता है। जबान पर नहीं आता। छोटा आसामी जल्दी खुश और जल्दी गुस्सा होता है। छोटा आसामी मेरी पहचान बनाएगा और मोटा आसामी मुझे ‘राजी-खुशी’ जिन्दा रखेगा।”
अपना-अपना किस्सा सुनाकर दोनों ‘हो-हो’ करते हुए देर तक हँसते रहे। हँसी रुकी तो एक बोला - ‘ये तेरा चायवाला कब आएगा? अब तो हमने मेहनत भी कर ली और तेरा मनोरंजन भी। उसे देर हो तो सैलाना बस स्टैण्ड चल कर, कालू की चाय पी लेते हैं। गरमागरम कचोरी भी मिल जाएगी।’ मुझे लगा - जो कुछ मुझे मिला है उसके बाद, दोनों की कचोरी तो बनती ही बनती है।
अब हम तीनों, सैलाना बस स्टैण्ड पर, कालू की दुकान की ओर जा रहे थे।
अब इस भ्रस्टाचार को कहाँ मोदी रोकेंगे कहाँ अन्ना हजारे?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (23-08-2014) को "चालें ये सियासत चलती है" (चर्चा मंच 1714) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कोटिशः धन्यवाद। आभारी हूँ।
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