धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं


गुड्डू (अक्षय छाजेड़) ने कही खेत की। मैंने सुनी खलिहान की। पहले गुड्डू ने और फिर मैंने, अपना-अपना माथा ठोका और हँसे। हमने हँसना नहीं चाहिए था। बात हँसने की नहीं, दुःखी होने की थी। लेकिन हम दोनों ही हँसे।

यह कल, रविवार अपराह्न लगभग साढ़े तीन बजे की बात है। राखी का दिन था। उत्तमार्द्धजी मायके गई हुई थीं। मैं घर में अकेला था। दूरदर्शन पर आ रही फिल्म ‘मैं कलाम हूँ’ देख रहा था। पड़ौस से गुड्डू आया और तनिक गम्भीर मुद्रा में बोला - “धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं।” मैं चौंका। मुझे झटका लगा। धारवाजी को यह क्या सूझी?

धारवाजी मेरे पड़ौस में, बगलवाली गली में रहते हैं। सेवा निवृत्त शिक्षक हैं। अवस्था 75-80 बरस के आसपास है। थोड़ा कम सुनते हैं। वे मेरी सुबह का हिस्सा हैं। रोज सुबह उन्हें, स्नान कर, पण्डित शैलीवाली एकलंगी धोती पहने, उघड़े बदन पीपल को जल चढ़ाने जाते और लौटते हुए देखने से मेरा दिन शुरु होता है। सीधे आदमी हैं। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। अपने रास्ते जाते हैं, अपने रास्ते आते हैं। न तो विवाद पैदा करते हैं और न ही किसी विवाद का हिस्सा बनते हैं। गए कुछ दिनों से वे नजर नहीं आ रहे। पूछताछ में मालूम हुआ कि उनकी तबीयत नरम-गरम चल रही है।

हमारे नगर निगम का  चाल-चलन भी देश के बाकी नगर निगमों जैसा ही है - अपने आप में मगन और नागरिक समस्याओं से बेपरवाह। लेकिन हमारी कॉलोनी की सड़कों की दशा यदि बेहतर नहीं तो ‘ठीक-ठीक’ तो है ही। ऐसी तो बिलकुल ही नहीं कि लोग परेशान हों और चिल्लाने लगें। फिर, धारवाजी तो नेतागिरी करते नहीं! उनका एक भतीजा भाजपा का एक ‘ठीक-ठीक असरवाला’ स्थानीय नेता है। यदि धारवाजी को कुछ ऐसा लगा तो भला इस उम्र में खुदा को गेंती-फावड़ा हाथ में लेने की क्या जरूरत आ पड़ी? अपने भतीजे का उपयोग कर लेते!

एक पल में ये सारी बातें मेरे दिल-दिमाग में घूम गईं। मैंने तनिक घबरा कर गुड्डू से कहा - ‘उन्हें रोको भाई! यह सब करने की उनकी उम्र नहीं है। और फिर वे बीमार भी चल रहे हैं। कहीं, कुछ हो गया तो खुद भी परेशान होंगे और परिवारवाले भी परेशान होंगे।’

मेरी बात सुनकर गुड्डू ने हैरत से मेरी ओर देखा। पूछा - ‘किस बात से रोकूँ?’ 

अब मैंने गुड्डू को हैरत से देखा और प्रति-प्रश्न किया - ‘किस बात से? अरे भाई! सड़क सुधारने से! अभी  तुमने कहा न कि धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं!’ 

‘मैंने कब कहा कि धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं?’ मेरे चेहरे पर समझदारी और सावधानी तलाशते हुए गुड्डू ने सवाल के जवाब में सवाल किया।

‘तो फिर क्या कहा तुमने?’

जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, गुड्डू ने माथा ठोक लिया। बोला - ‘मैंने क्या कहा और आपने क्या सुना! मैंने कहा कि धारवाजी स्वर्ग सिधार गए हैं।’

और जैसा कि मैंने शुरु में कहा, इस बार मैंने माथा ठोक लिया। पहले हँसी आई फिर झेंप। इससे पहले, मेरी दशा देख कर गुड्डू भी हँस चुका था।

गुड्डू तो संजीदा ही आया था। गड़बड़ मैंने ही कर दी थी। अपनी झेंप से उबर कर अगले ही पल मैं भी संजीदा हो गया। गुड्डू ने बताया - पाँच बजे अन्तिम यात्रा निकलेगी।

मुझे इस अन्तिम यात्रा में शरीक होना ही था। ‘राम नाम सत्य है’ के मद्धम स्वरों के बीच, अर्थी के पीछे-पीछे चलते हुए मुझे एक बार फिर ‘धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं’ याद आ गया। मुझे फिर हँसी आ गई। इस बार झेंप नहीं आई। समानान्तर विचार मन में आया - धारवाजी ने अपनी सड़क सुधार ली। वे मुझे आगाह कर रहे हैं। कह रहे हैं कि मैं अपनी सड़क सुधार लूँ।

3 comments:

  1. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे!

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  2. शान्ति से रहे - शान्ति ही प्राप्त हो !

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