सूट को धक्के : लंगोटी की शाही अगवानी

अपने बेटों रियाज (बांये) और जफर(दाहिने) केसाथ गुल्‍लू भैया

‘चाय-पानी’ के बाद हम दोनों ही सामान्य और ताजादम हो चुके थे। भावावेग छँट चुका था और हम दोनों ही तैयार थेे - ‘कहने-सुनने’ के लिए। 

गुल्लू भैया को सुनते हुए मुझे एक अखबारी शीर्षक (शायद ‘जनसत्ता’ का) याद आता रहा - “बोले तो बहुत लेकिन कहा कुछ नहीं।” पल-पल लगता रहा कि गुल्लू भैया ने जो बोला, कहा उससे कहीं ज्यादा और वह भी ऐसा जो, जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, उतना ही जरूरी जितना कि पौधों-पत्तों के लिए क्लोरोफिल। 

“यह आजादी मिलने के बाद की बात है। रतलाम में एक क्लब बना था - सज्जन क्लब। रतलाम के महाराजा सज्जनसिंहजी के नाम पर यह क्लब उनकी बहन, रतलाम की राजकुमारी गुलाब कुँवरने स्थापित किया था। रेल्वे के और राज्य सरकार के राजस्व विभाग के अफसर ही सदस्य ही इसके सदस्य बन सकते थे। शहर के गिने-चुने, नामचीन लोगों को इसकी सदस्यता मिली थी। मेरे वालिद इस क्लब के संस्थापक सदस्य थे। 

वालिद के कारोबार का लेना-देना केवल रेल्वे से था लेकिन कलेक्टर समेत, राजस्व विभाग के तमाम आला अफसरों से भी वालिद का मेलजोल था। उस वक्त के कलेक्टर से उनकी दोस्ती भाईचारे की शकल ले चुकी थी।

“इन्हीं कलेक्टर साहब के तबादले की खबर आई ही थी कि उन्हीें दिनों बैरिस्टर साहब (रतलाम के पहले और तब से लेकर अब तक के एकमात्र ‘बैरिस्टर’, अब्बासी साहब) का मुम्बई जाने का कार्यक्रम बना। मुम्बई तक बॉम्बे हुआ करता था। अनेक विदेशी वस्तुओं पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था। विदेशी कपड़े भी उनमें शरीक थे। मेरे वालिद कलेक्टर को कोई ‘अच्छी सी गिफ्ट’ देना चाहते थे। उन्होंने बैरिस्टर साहब से कहा कि मुमकिन तो वे, विदेशी कपड़े का (इंगलैण्ड/मेनचेस्टर का बना) कोई अच्छा सा ‘सूट पीस’ लेते आएँ।

“वालिद को, बैरिस्टर साहब से यह कहते हुए सुनकर मेरा भी जी हो आया। मैंने वालिद से कहा - ‘पप्पा! एक सूट पीस मेरे लिए भी मँगवा दीजिए।’ वालिद ने मुझे जिस नजर से देखा, वह मैं इस लमहे तक नहीं भूल पाया हूँ। वह नजर मझे अब तक अपने चेहरे पर बनी हुई लग रही है। तब भी नहीं समझ पाया था और इस पल तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि उस नजर में क्या था - मुहब्बत, रहम, करुणा, फिक्र, निराशा, गुमान या झंुझलाहट? ये सब या इनमें से कोई एक? एक पल इसी नजर से मुझे देखा और मक्खन सी आवाज में बोले - ‘गुल्लू! बेटा! तूने माँगा तो भी क्या माँगा? एक सूट पीस। बस? तू तो मेरा बेटा है। मेरा खून है। तू तो मेरी उम्मीदों में से एक है। मेरा नाम रोशन करनेवाला। तेरे लिए एक सूट पीस कहाँ लगता है? जब मैं मुँहबोले भाई, कलेक्टर के लिए एक सूट पीस मँगवा सकता हूँ तो तेरे लिए नहीं मँगवा सकता?’

“मुझे लगा, वालिद ने मेरी बात मान ली है और अब मेरा सूट पीस पक्का। लेकिन हकीकत कुछ और ही थी। वालिद ने इसके बाद जो कुछ कहा, उसने जिन्दगी को लेकर मेरा नजरिया बदल दिया। मेरी जिन्दगी सँवार दी। अपने बेटे के आनेवाले कल को लेकर फिक्रमन्द एक बाप अपने बेटे को इससे बहेतरीन और क्या दे सकता है? सुन कर मुझे भी लगा, अपने आप पर झेंप भी आई कि यार! गुल्लू! तूने माँगा तो भी क्या माँगा - एक सूट पीस? बस! 

“वालिद ने कहा - ‘मन में से यह बात निकाल दे बेटा कि कपड़ों से आदमी की इज्जत, औकात बनती या बिगड़ती है या कि कम-ज्यादा होती है। सूट तो गाँधीजी ने भी पहना था। लेकिन हुआ क्या? जिसकी सल्तनत में सूरज नहीं डूबता था, उस सल्तनत की महारानी के, दो टके के नौकर ने गाँधीजी को रेल के डब्बे में से फेंक दिया था। अगर सूट की ही अहमियत होती तो ऐसा नहीं होना चाहिए था। लेकिन ऐसा ही हुआ। इसके बर-खिलाफ जब गाँधीजी ने कमीज पहननी छोड़ दी, धोती भी आधी ही कर ली तब उसी महारानी ने, खुद चलकर, लन्दन के हवाई अड्डे पर ऐसे, ‘अधनंगे’ गाँधी की अगवानी की। सूट ने, दो टके नौकरों से धक्के दिलवाए और खादी की लंगोटी ने महारानी को झुका दिया।’

“वालिद की यह बात सुनकर मुझे ध्यान आया कि मेरे वालिद ने भी लट्ठे का कमीज-पायजामा पहन रखा है और यही उनकी रोजमर्रा की ड्रेस भी है। जो आदमी, एक अफसर को मेनचेस्टर के कपड़े का सूट पीस गिफ्ट देने की बात कह रहा है, वह आदमी खुद लट्ठा पहने हुए है! मैं एक झटके से धरती पर आ गया। मेरे चेहरे पर एक रंग आ रहा था, दूसरा जा रहा था। पता नहीं यह खुद की बात पर पछतावा था या ऐसे ऊँचे खयालातवाले का बेटा होने का गुमान!

“लेकिन वालिद ने अभी आधी बात ही कही थी। बाकी आधी बात उन्होंने जो कही, वही मेरी जिन्दगी की बात बन कर रह गई। वालिद बोले - ‘बेटा! कपड़े या कहो तो ये सारी चीजें, ये सारी धन-दौलत तो आनी जानी है। इनसे यदि पहचाने जाओगे तो जब ये नहीं होंगी तो जाहिर है तब तुम्हें कोई नहीं पहचानेगा। तो हमने खुद में कोई ऐसी बात पैदा करनी चाहिए जो हमारी पहचान बने और ऐसी पहचान बने कि जो भी हम पहनें, उसकी इज्जत हो।’

“वह दिन और आज का दिन। पप्पा आज दुनिया में नहीं हैं। 1975 में, 84 बरस की उम्र में उनका इन्तकाल हुआ। तब मैं कोई 42 बरस का रहा होऊँगा। लेकिन इस वाकये के बाद, तब पप्पा की मौजूदगी में और 1975 से, उनकी गैर मौजूदगी में, मैं उनकी बात पर अमल करने की कोशिशें कर रहा हूँ। मैं खुद अपने बारे में क्या कहूँ? मुझे तो एक पल भी नहीं लगा कि मैं पप्पा की बात को हकीकत में बदल पाया हूँ। मुझे तो अपनी हर कोशिश नाकामयाब लगती है। मुझे दूर से देखनेवाले ही मेरी हकीकत जानते होंगे।”

गुल्लू भैया की बात रुकी तो मैंने पाया कि टेबल पर हम दोनों के हाथ गुँथे हुए हैं। पता नहीं कब उन्होंने मेरे हाथ, अपने हाथों में ले लिए थे। अपने आप में लौटने में हमें कुछ पल लगे। हमने अपने-अपने हाथ खींचे। उन्होंने सूनी लेकिन चश्म-ए-नम से मुझे देखा। 

मैं कुछ कहने की हालत में नहीं था। जी कर रहा था, कहूँ कि उनकी कोशिशों की कामयाबी न तो नाप सकता हूँ न ही गिन सकता हूँ। लेकिन कुछ तो ऐसा उन्होंने खुद में पैदा किया ही है जिसके चलते मैं उनसे यह सब सुनने के लिए उनसे इसरार कर रहा हूँ। उनकी आँखें मुझे सवालिया लग रही थीं। 

बमुश्किल मैंने कहा - “गुल्लू भैया! आपका शुक्रिया अदा करने के सिवाय मेरे पास कुछ नहीं है आपसे कहने के लिए। लेकिन यदि आपका इसरार है तो सुनी-सुनाई चार पंक्तियों  से शायद मेरे जजबात आप तक पहुँचें -

जिन्हें हम कह नहीं सकते,
जिन्हें तुम सुन नहीं सकते,
वही कहने की बातें हैं,
वही सुनने की बाते हैं।”

गुल्लू भैया खुश हो गए। बोले - “तो अब मेरी बाकी बातों पर भी ये सतरें लागू कर लीजिए और अपना वक्त जाया होने से बचा लीजिए।”

मैं घबरा गया। हड़बड़ा कर बोला - “क्या गजब कर रहे हैं आप? बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता। एक पैदायशी बैरागी आपके सामने बैठा है और आप अपने दरवाजे से उसे ऐसे का ऐसा बैरागी ही जाने देंगे? मेरी नहीं तो अपनी तो परवाह कीजिए! लोग क्या कहेंगे?”

गुल्लू भैया ठठा कर हँसे। उनके ठहाके ने सारा भारीपन, सारी नमी एक झटके में धो-पोंछ दी। बोले - “यह परवाह तो आप भी मत कीजिए कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन बेफिकर रहिए। एक और बात कहने का आपका कर्जा मुझ पर है। कम से कम वह तो कहूँगा ही।”

मुझे तसल्ली हुई।

और उसके बाद मिला मुझे दूसरा जीवन सूत्र। लेकिन वह अगली कड़ी में। 

5 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।

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  2. कोटिश: धन्‍यवाद। मनोबल बढाने के लिए आभारी हूँ।

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  3. आप सचमुच भाग्यशाली हैं विष्णु जी। गुल्लू भैया को हमारा प्रणाम पहुंचे।

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  4. संसमरण ही नहीं---जीवन का नि्चोड--दो बूम्दों में
    जिन्हें हम कह नहीं सकते
    जिन्हें तुम सुन नहीं सकते
    वही कहने व सुनने की बातें हैं

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  5. बहुत सुन्दर और प्रेरक।
    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।

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