बहुत मुश्किल है कार से उतरना



अब सब कुछ सहज था और गुल्लू भैया बेलौस। अपनी रवानी को बरकरार रखते हुए उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई -

“आजादी के फारन बाद का वह वक्त कुछ अलग ही किस्म का था। गाँधी-नेहरू ने हमें ‘सिविलियन’ बना दिया था लेकिन हम रियाया ही बने हुए थे। अंग्रेज जा चुके थे लेकिन उनके होने का अहसास मानो फिजाँ में घुला हुआ था। एक दौर जा रहा था और दूसरा आ रहा था। बदलाव की अजीब कसमसाहट पूरे माहौल में घुली हुई थी। समाजवाद अजूबा था लेकिन हर कोई उसका जिक्र करने को उतावला लगता था। इस सबके बीच जमींदारों/जागीरदारों की धमक और रईसों की ठसक वैसी की वैसी बनी हुई थी। कार तो बहुत बड़ी बात थी, ताँगा रखना भी रईसी की निशानी थी। निजी कारें और ताँगे अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। 

“उन दिनों 12,000 रुपयों में नई फिएट कार आती थी। पौने दो रुपयों में एक गैलन, याने करीब पाँच लीटर पेट्रोल मिलता था। ढाई-तीन सौ रुपयों में कार मेण्टेन का जा सकती थी।

“लेकिन हमारे घर में कार नहीं थी। ताँगा था। मुझे अच्छी तरह अहसास था कि हम कार रख सकते हैं लेकिन वालिद ने इस बारे में कभी सोचा भी हो - ऐसा कभी नहीं लगा। इसके बरखिलाफ मेरी हसरत थी कि हमारी अपनी कार हो।

“अपनी इस हसरत को मैं ज्यादा दबा नहीं पाया। एक दिन मैंने अपने वालिद से कह ही दिया - ‘पप्पा! अपन कार क्यों नहीं खरीद लेते? ताँगे की वजह से बदबू भी आती है और चारे-चन्दी का कचरा भी होता है। सईस के नखरे उठाने पड़ते हैं। रख-रखाव में भी मुश्किल आती है। हिसाब-किताब करेंगे तो सब मिलाकर कार, ताँगे के मुकाबले अपने को सस्ती ही पड़ेगी।’

“मेरी बात सुनकर वालिद हँस दिए। बोले - ‘बात तो तू सही कह रहा है गुल्लू। ताँगे और कार का तेरा हिसाब भी ठीक है। अपन कार खरीद भी सकते हैं। आज ही खरीद सकते हैं। लेकिन एक ही बात मुझे रोकती है बेटा!’

“वालिद की बात ने मेरे कान खड़े कर दिए। वे कार खरीदने से इंकार नहीं कर रहे थे। मेरी बात की ताईद भी कर रहे थे। मुझे लगा, किसी बहुत ही मामूली बात को लेकर वालिद ने कार खरीदने का फैसला रोक रखा है। मैंने पूछा - ‘कौन सी बात पप्पा?’

“मेरी बात के जवाब में मेरे वालिद ने जो कहा, उसने मेरी आँखें खोल दीं, जिन्दगी जीने का सलीका और जिन्दगी के मायने समझा दिए। बहुत ही लाड़ से बोले - ‘बेटा! मेरी बात समझने की कोशिश करना। कार में चढ़ना, बैठना तो बहुत आसान है लेकिन उसमें से उतरना बहुत ही मुश्किल है।’

“कह कर वालिद अपने काम में लग गए। मेरी ओर देखा भी नहीं। उन्हें लगा होगा कि उनकी बात से मैं दुःखी, पेरशान हुआ हूँगा। लेकिन वे मुझे देखते तो यकीनन बेहद खुश होते। मेरी शकल मानो मेरी नहीं रह गई थी। कोई दूसरा ही चेहरा मेरे चेहरे पर चस्पा हो गया था जिसे मैं खुद देखता तो खुद को ही नहीं पहचान पाता। उस दिन उनका बेटा गुल्लू,  गुलाम हुसैन एक बार फिर पैदा हुआ। यह गुलाम हुसैन, पहलेवाले गुलाम हुसैन से एकदम जुदा, दूसरे ही मिजाज का, दूसरी ही रंगत का गुलाम हुसैन था। आज जो मैं आपके सामने हूँ, आपसे बात कर रहा हूँ, जिसकी बातों को आप डूब कर सुन रहे हैं, वह वही दूसरा गुलाम हुसैन हूँ।”

गुल्लू भैया एकदम चुप हो गए। कुछ इस तरह मानो, पुराने जमाने के किसी सिनेमा घर में, प्रोजेक्टर पर चल रही फिल्म एक झटके से टूट गई हो। कुछ पल सन्नाटा, अँधेरा। सिर्फ प्रोजेक्टर के चलने की घर्राहट। ऐसा झटका, जिसके लिए मैं कतई तैयार नहीं था। मैं वाकई में अकबका गया था।

वे तो अपने में ही थे। मुझे अपने में लौटने में कुछ क्षण लगे। गुल्लू भैया अपनी सहज हँसी हँस रहे थे। मेरे हाथ थपथपा कर बोले - “मैंने अपना काम कर दिया। आपका कर्ज चुका दिया। ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ दे दीजिए।”

मैंने कहा - ‘वो तो अब देना ही रहा लेकिन एक बात बताईए। आपने कार खरीदी या नहीं?’ गुल्लू भैया बोले - ‘हाँ, हाँ। खरीदी क्यों नहीं? खरीदी।’ मैंने पूछा - ‘कब खरीदी और कौन सी खरीदी? और खरीद रखी है तो आप तो मुझे कभी कार में नजर नहीं आए? हमेशा पैदल ही नजर आते हैं?’ गुल्लू भैया ने जवाब दिया - ‘यह तो याद नहीं कि कब खरीदी। रियाज बता देगा। एक सेकण्ड हेण्ड मारुति-800 खरीद रखी है। मुझे तो जरूरत पड़ती नहीं। आना-जाना ही कितना है? घर से दुकान और दुकान से घर। आप यूँ मान लें कि उतरने की जोखिम से बचने के लिए मैं कार में बैठने की जोखिम नहीं लेता। बच्चों को कभी-कभार जरूरत पड़ जाती है तो वापर लेते हैं।’

गुल्लू भैया मुझे अभी भी ‘अजूबा’ लग रहे थे। मैंने हिम्मत करके पूछा - ‘जमाना बदल गया है गुल्लू भैया। कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। आपके वालिद की बातें आपके वालिद के साथ चली गईं। जरा ठाठ-बाट से रहिए।  लोग आपको कंजूस-मक्खीचूस समझते होंगे।’

जवाब में पहले तो गुल्लू भैया ख्ुालकर, ठठाकर हँसे। फिर तनिक रुककर, संजीदा होकर बोले - ‘मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आप भी इस फिक्र को ताक पर रख दें कि लोग क्या कहेंगे। लोगों को जो समझना हो, समझें। जो कहना हो, कहें। आप क्या समझते हैं कि मैं नहीं जानता कि जमाना बदल गया है? हाँ बैरागीजी! जमाना बदल गया है। बहुत बदल गया है। पूरी तरह बदल गया है। एक शेर आज के बदले जमाने की हकीकत बयाँ करता है -

ऐ जौक-ए-इनकिसार कोई और मशगला।
कहने लगे हैं लोग शराफत को बुजदिली।’

इसके बाद क्या कहना रहा? क्या सुनना रहा?

इजाजत लेकर गुल्लू भैया के दफ्तर से लौटा तो मुझसे तनकर नहीं चला जा रहा था। मैं झुक कर चल रहा था। 




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