‘प्रधानमन्त्री
जन-धन योजना’ का स्वरूप और अन्तिम लक्ष्य अभी तक स्पष्ट नहीं
है किन्तु बैंकरों में इसका आतंक छाया हुआ है। प्रधानमन्त्री मोदी ने पन्द्रह
अगस्त को लाल किले से दिए अपने भाषण में इस योजना की घोषणा की थी। इस योजना की
विधिवत औपचारिक शुरुआत 28 अगस्त को हो रही है। अखबारों में जो विज्ञापन
आए हैं उनमें भी कोई बहुत बड़ी बात नजर नहीं आती सिवाय इसके कि प्रत्येक परिवार को ‘बैंकिंग’ से जोड़ा जाए।
लेकिन इसमें ‘ऐसा कुछ’ तो है जिसके लिए ‘जी’जान लगाकर’ भाग-दौड़ की जा रही है।
कल रविवार था किन्तु मेरे कस्बे के लगभग तमाम बैंक कल दिन भर और रात लगभग नौ बजे तक खुले रहे। इन्दौर में बसे, अधिकारी स्तर के कई लोग शनिवार को इन्दौर नहीं जा सके। उन्हें ‘हड़काकर’ रोक दिया गया। अधिकारी संवर्ग के कुछ लोग अपनी-अपनी बैंकों में बैठे थे तो कुछ लोग गाँवों में डेरा डाले हुए थे। प्रत्येक बैंक को उन गाँवों की सूची दे दी गई थी जहाँ के निवासियों के खाते खुलवाने थे। इन्हें कहा गया था कि ये गाँवों में जाएँ और लोगों के खाते खुलवाने की अपनी कोशिशों के प्रमाण भी प्रस्तुत करें। अखबारों में इनके समाचार भी छपवाएँ। लिहाजा ये बैंक अधिकारी अपने-अपने बैंक के बैनर साथ ले गए थे। इन्होंने वहाँ मजमा जमाया, लोगों को इकट्ठा किया और फोटू खिंचवाए।
प्रत्येक बैंक को खाते खुलवाने की न्यूनतम संख्या दे दी गई है। मेरे कस्बे में शुक्रवार, 22 अगस्त से ही विभिन्न बैंकों ने अपने-अपने दफ्तरों के बाहर बैनर सहित ‘स्टाल’ लगा दिए थे।
मुझे जब यह जानकारी मिली तो जानबूझकर बैंकों में गया। रविवार था लेकिन, जहाँ-जहाँ मैं गया, तमाम बैंक ‘आबाद’ तो थे लेकिन ‘गुलजार’ नहीं थे। दहशत और गुस्सा और मातमी उदासी पसरी हुई थी। मालूम हुआ कि स्थानीय स्तर पर ही नहीं, लगभग प्रत्येक बैंक के उच्चाधिकारी भी हलकान हुए, ‘मानीटरिंग’ कर रहे हैं। फोन पर फोन आ रहे हैं। केवल खाते खोलने के लिए ही नहीं, ‘रविवार को भी खाते खोले गए हैं’ यह रेकार्ड पर जताना/बताना भी जरूरी है। लिपिकीय स्तर के कुछ निष्ठावान कर्मचारी भी जुटे हुए थे। उच्चाधिकारियों के निर्देश थे - दिन भर गाँवों में रह कर खाते खोलो और रात में तमाम नए खातों को कम्प्यूटर में दर्ज कर ‘प्रोग्रेस रिपोर्ट’ भेजने के बाद ही घर जाओ।
दो मजेदार नमूने इस अभियान के ‘आतंक’ की कहानी अधिक प्रभावशीलता से कहते मिले। पहले नमूने में एक अधिकारी ने अपने भरोसे के एक ‘कार्यकर्ता’ को, ‘प्रति खाता दस रुपये’ के भाव से यह काम सौंप दिया। यह ‘कार्यकर्ता’ भी उत्साही है। इसने रविवार को ही, एक ही गाँव के 73 लोगों के न केवल फार्म भरवा लिए हैं बल्कि फार्माें की औपचारिकताओं के लिए तमाम कागज भी जुटा लिए हैं। उसने भरोसा दिलाया है - ‘आप बेफिकर रहो सा‘ब! आपका टारगेट पूरा कर दूँगा।’ अब स्थिति यह है कि उच्चाधिकारी इस बैंक के स्थानीय अधिकारी की मानीटरिंग कर रहे हैं और यह अधिकारी इस कार्यकर्ता की।
दूसरा नमूने को ‘व्यंग्य’ भी कहा जा सकता है और ‘कारुणिक विडम्बना’ भी। अपराह्न चार बजे के आसपास मैं एक बैंक में पहुँचा तो शाखा प्रबन्धकजी ने ‘असमंजसी मुद्रा’ में मेरी अगवानी की। मुझे कुछ पूछना नहीं पड़ा। उनकी शकल ही काफी-कुछ कह रही थी। मैंने पूछा - ‘कैसा चल रहा है?’ बोले - “आप ही बताओ कि मैं रोऊँ या हँसूँ? आर. एम. साहब कह रहे हैं - ‘यार! तुम फार्म बाद में भरवाना। पहले कम्प्यूटर में सारे खाते खोल लो और फौरन जानकारी भेजो। ऊपरवाले साँस नहीं लेने दे रहे हैं।”
एक बात मैंने तेजी से अनुभव की कि प्रायः सारे के सारे अधिकारी केवल अधिकाधिक खाते खोलने के ही दबवा में नहीं हैं, वे इस योजना के (अब तक) अघोषित लक्ष्य का अनुमान कर भयभीत हुए जा रहे हैं। इस योजना के विज्ञापन में ‘6 माह तक खाते के संतोषजनक परिचालन के बाद ओवरड्राफ्ट की सुविधा’ वाली बात से सभी बैंक अधिकारी भयभीत और नाखुश हैं। अलग-अलग चर्चाओं में सबने एक ही बात कही कि 6 महीनों के बाद प्रत्येक खाताधारक को रुपये 5,000/- के ओवर ड्राफ्ट की सुविधा दी जानी है। यह ऐसा उधार होगा जो कभी नहीं चुकाया जाएगा। एनपीए के विशाल आकार से जूझ रहे बैंकों के लिए यह ऐसा खतरा है जिसकी जानकारी उन्हें है तो सही किन्तु बचाव का कोई उपाय, इनमें से किसी के पास नहीं है। यही डर इन सबको खाए जा रहा है।
इस योजना के लक्ष्य तो 28 अगस्त को ही मालूम हो सकेंगे लेकिन यदि मेरे कस्बे को पैमाना बनाऊँ तो इस क्षण का निष्कर्ष तो यही है कि ‘अन्धों का हाथी’ बनी इस योजना ने बैंक अधिकारियों का खाना-पीना-सोना हराम कर रखा है।
कल रविवार था किन्तु मेरे कस्बे के लगभग तमाम बैंक कल दिन भर और रात लगभग नौ बजे तक खुले रहे। इन्दौर में बसे, अधिकारी स्तर के कई लोग शनिवार को इन्दौर नहीं जा सके। उन्हें ‘हड़काकर’ रोक दिया गया। अधिकारी संवर्ग के कुछ लोग अपनी-अपनी बैंकों में बैठे थे तो कुछ लोग गाँवों में डेरा डाले हुए थे। प्रत्येक बैंक को उन गाँवों की सूची दे दी गई थी जहाँ के निवासियों के खाते खुलवाने थे। इन्हें कहा गया था कि ये गाँवों में जाएँ और लोगों के खाते खुलवाने की अपनी कोशिशों के प्रमाण भी प्रस्तुत करें। अखबारों में इनके समाचार भी छपवाएँ। लिहाजा ये बैंक अधिकारी अपने-अपने बैंक के बैनर साथ ले गए थे। इन्होंने वहाँ मजमा जमाया, लोगों को इकट्ठा किया और फोटू खिंचवाए।
प्रत्येक बैंक को खाते खुलवाने की न्यूनतम संख्या दे दी गई है। मेरे कस्बे में शुक्रवार, 22 अगस्त से ही विभिन्न बैंकों ने अपने-अपने दफ्तरों के बाहर बैनर सहित ‘स्टाल’ लगा दिए थे।
मुझे जब यह जानकारी मिली तो जानबूझकर बैंकों में गया। रविवार था लेकिन, जहाँ-जहाँ मैं गया, तमाम बैंक ‘आबाद’ तो थे लेकिन ‘गुलजार’ नहीं थे। दहशत और गुस्सा और मातमी उदासी पसरी हुई थी। मालूम हुआ कि स्थानीय स्तर पर ही नहीं, लगभग प्रत्येक बैंक के उच्चाधिकारी भी हलकान हुए, ‘मानीटरिंग’ कर रहे हैं। फोन पर फोन आ रहे हैं। केवल खाते खोलने के लिए ही नहीं, ‘रविवार को भी खाते खोले गए हैं’ यह रेकार्ड पर जताना/बताना भी जरूरी है। लिपिकीय स्तर के कुछ निष्ठावान कर्मचारी भी जुटे हुए थे। उच्चाधिकारियों के निर्देश थे - दिन भर गाँवों में रह कर खाते खोलो और रात में तमाम नए खातों को कम्प्यूटर में दर्ज कर ‘प्रोग्रेस रिपोर्ट’ भेजने के बाद ही घर जाओ।
दो मजेदार नमूने इस अभियान के ‘आतंक’ की कहानी अधिक प्रभावशीलता से कहते मिले। पहले नमूने में एक अधिकारी ने अपने भरोसे के एक ‘कार्यकर्ता’ को, ‘प्रति खाता दस रुपये’ के भाव से यह काम सौंप दिया। यह ‘कार्यकर्ता’ भी उत्साही है। इसने रविवार को ही, एक ही गाँव के 73 लोगों के न केवल फार्म भरवा लिए हैं बल्कि फार्माें की औपचारिकताओं के लिए तमाम कागज भी जुटा लिए हैं। उसने भरोसा दिलाया है - ‘आप बेफिकर रहो सा‘ब! आपका टारगेट पूरा कर दूँगा।’ अब स्थिति यह है कि उच्चाधिकारी इस बैंक के स्थानीय अधिकारी की मानीटरिंग कर रहे हैं और यह अधिकारी इस कार्यकर्ता की।
दूसरा नमूने को ‘व्यंग्य’ भी कहा जा सकता है और ‘कारुणिक विडम्बना’ भी। अपराह्न चार बजे के आसपास मैं एक बैंक में पहुँचा तो शाखा प्रबन्धकजी ने ‘असमंजसी मुद्रा’ में मेरी अगवानी की। मुझे कुछ पूछना नहीं पड़ा। उनकी शकल ही काफी-कुछ कह रही थी। मैंने पूछा - ‘कैसा चल रहा है?’ बोले - “आप ही बताओ कि मैं रोऊँ या हँसूँ? आर. एम. साहब कह रहे हैं - ‘यार! तुम फार्म बाद में भरवाना। पहले कम्प्यूटर में सारे खाते खोल लो और फौरन जानकारी भेजो। ऊपरवाले साँस नहीं लेने दे रहे हैं।”
एक बात मैंने तेजी से अनुभव की कि प्रायः सारे के सारे अधिकारी केवल अधिकाधिक खाते खोलने के ही दबवा में नहीं हैं, वे इस योजना के (अब तक) अघोषित लक्ष्य का अनुमान कर भयभीत हुए जा रहे हैं। इस योजना के विज्ञापन में ‘6 माह तक खाते के संतोषजनक परिचालन के बाद ओवरड्राफ्ट की सुविधा’ वाली बात से सभी बैंक अधिकारी भयभीत और नाखुश हैं। अलग-अलग चर्चाओं में सबने एक ही बात कही कि 6 महीनों के बाद प्रत्येक खाताधारक को रुपये 5,000/- के ओवर ड्राफ्ट की सुविधा दी जानी है। यह ऐसा उधार होगा जो कभी नहीं चुकाया जाएगा। एनपीए के विशाल आकार से जूझ रहे बैंकों के लिए यह ऐसा खतरा है जिसकी जानकारी उन्हें है तो सही किन्तु बचाव का कोई उपाय, इनमें से किसी के पास नहीं है। यही डर इन सबको खाए जा रहा है।
इस योजना के लक्ष्य तो 28 अगस्त को ही मालूम हो सकेंगे लेकिन यदि मेरे कस्बे को पैमाना बनाऊँ तो इस क्षण का निष्कर्ष तो यही है कि ‘अन्धों का हाथी’ बनी इस योजना ने बैंक अधिकारियों का खाना-पीना-सोना हराम कर रखा है।
ये कोई नई बात नहीं है.
ReplyDeleteजब मध्यप्रदेश में एक-बत्ती कनेक्शन योजना की शुरूआत हुई थी तो इसी तरह का आतंक विद्युत मंडल के अभियंता-प्रबंधकों को भी झेलनी पड़ी थी, जिसका एक भुक्तभोगी मैं भी हूँ. मैंने स्वयं अपनी तनख्वाह में से पैसे डालकर लक्षित मात्रा के कनेक्शन खुलवाए थे. जिन आदिवासी ग़रीबों के पास एक वक्त की रोटी का भी जुगाड़ नहीं होता था, वो 1 रुपए 65 पैसे (तब यही दर थी) जमा कर एक बत्ती कनेक्शन लेकर करते भी क्या!
खाता खोलकर वे शायद पासबुक के ऊपर सूखी रोटी रखकर खाएंगे तो शायद उसमें नमक और प्याज का स्वाद अपने-आप आएगा...
आपकी पासबुक के ऊपर सूखी रोटी रखकर खाने की बात सही लगती है। हमारे देश में पुलिस व्यवस्था की कमी को हेल्पलाइन खोलकर ही दूर किया जाता है।
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