दोनों अनाथ

“क्यों? केवल बच्चे ही क्यों? अब तो बूढ़े भी अनाथ हो गए हैं। नहीं?” मेरी उत्तमार्द्ध ने कह तो दिया लेकिन कहते ही खुद ही हक्की-बक्की भी हो गई। कुछ इस तरह, मानो, उन्होंने अचानक ही ऐसा सच उजागर कर दिया जिसका सामना वे खुद भी नहीं करना चाहती थीं।

नेहा और वरुण कर बिटिया है अनन्या। अगले हफ्ते, 22 सितम्बर को दो बरस की हो जाएगी। घर में परी कहते हैं उसे। हम लोग एक ही मकान में रहते हैं। पहली मंजिल पर नेहा-वरुण। नीचेवाली मंजिल पर हम। वरुण एक निजी कम्पनी में नौकरी करता है और नेहा गृहिणी है। वरुण जब भी काम पर जाने के लिए निकलता होता  है, परी मचल जाती है। इसलिए, परी की नजरें बचा कर निकलना पड़ता है वरुण को। इसका एक उपाय अपने आप निकल आया। हम ही परी को नीचे बुला लेते हैं और वरुण के जाने के बाद परी को उसकी माँ के पास भेज देते हैं।

परी से हमारे मेलजोल की शुरुआत इसी तरह से हुई थी। उसके बाद उसका आना-जाना बढ़ गया। परी पहली मंजिल से हाँक लगाती है - ‘दादी! मैं आऊँ?’ हम लागों के कान भी उसकी यह हाँक सुनने का उतावले रहते हैं। प्रायः ही हम दोनों एक साथ जवाब देते हैं - ‘आजा।’ और परी ठुमकती-ठुमकती आ जाती है। यूँ तो बहुत बोलती है किन्तु उसके मन की बात हो जाने पर आनन्द लेती रहती है - चुपचाप। उसके मन की बात होती है - छोटा भीम।

आते ही कहती है - ‘टाटून लदाओ।’ ‘टाटून’ मतलब ‘कार्टून’। उन क्षणों में परी हमारा खिलौना बन जाती है। उसकी बात समझ जाने के बावजूद पूछते हैं - ‘कौन सा कार्टून?’ वह कहती है - ‘तोता बिम।’ उसका ‘टाटून‘ और ‘तोता बिम’ कहना हमें अच्छा लगता है। गुदगुदा देता है। हम उसे पलंग पर बैठा कर, टीवी खोल कर ‘पोगो’ लगा देते हैं। 

लेकिन ऐसा भी नहीं होता कि वह हर बार चुपचाप देखती रहे। देखते-देखते वह अचानक ही कुछ पूछने/कहने लगती है। उसकी भाषा हम अब तक नहीं समझ पाए हैं। हमें कुछ भी समझ नहीं आता। उसकी बात का मनमाना अर्थ लगा कर हम कुुछ तो भी जवाब दे देते हैं। इस तरह ‘जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी’ की तर्ज पर हमारे अर्थहीन सम्वाद चलते रहते हैं। हम समझते हैं, हम उसे बुद्धू बना रहे हैं लेकिन वास्तव में वही हमें बुद्धू बना रही होती है। 

लेकिन एक विशेष बात हम लोगों के ध्यान में आई। वह भले ही बात नहीं करे, चुपचाप कार्टून देखती रहे, लेकिन उसे हम दोनों में से किसी एक की उपस्थिति चाहिए होती है। परी का आना-जाना अधिकांशतः सुबह के समय ही होता है। वह समय हम दोनों की व्यस्तता का भी होता है। लेकिन परी का होना हमें जीवन्तता से जोड़े रखता है, हमारे घर को जगर-मगर बनाए रखता है। सो, हम दोनों अपना-अपना काम निपटाते हुए ऐसा कुछ करते हैं कि हम दोनों में से कोई न कोई उसके पास बैठा/बना रहे।
जब परी का जी भर जाता है तो हमारी ओर बाँहे पसार कर कहती है - ‘उतारो। मम्मा जाना।’ हम अनमनेपन से उसे पलंग से उतार कर सीढ़ियों के पास खड़ा कर देते हैं। वह ‘बाय!’ कहती हुई, एक-एक सीढ़ी चढ़ने लगी है। हम उसकी माँ को आवाज देते हैं - ‘नेहा! परी आ रही है। सम्हालना।’ और जब तक नेहा की शकल सीढ़ियों पर नजर नहीं आती, हम लोग परी को सीढ़ियाँ चढ़ते देखते रहते हैं।

लेकिन दो दिन पहले वह हो गया जिसका समापन मेरी उत्तमार्द्ध के ‘अकस्मात उजागर हुए सच’ से हुआ जिससे मैंने अपनी बात की शुरुआत की है।

परी ने अभी-अभी बालवाड़ी जाना शुरु किया है। ग्यारह - साढ़े ग्यारह बजे का समय है उसका। नेहा ने उसे तैयार कर हमें आवाज लगाई और उसे नीचे भेज दिया। उस समय मैं अपने हिसाब-किताब के कागज-पत्तर तैयार कर रहा था और उत्तमार्द्ध रसोई घर में व्यस्त थीं। परी आई। उत्तमार्द्ध ने मुझे हँकाला - ‘बच्ची को देखना। मैं सब्जी छौंक रही हूँ।’ उस समय मैं हिसाब मिला रहा था। अनमनेपन से उठा और परी से कहा - ‘भीम देखेगी?’ उसने इंकार कर दिया - ‘कूल जाना।’ मैंने बहलाया - ‘अच्छा। बैठ। मैं आता हूँ।’ और मैं नोट जमाने में लग गया। उत्तमार्द्ध मेरे भरोसे थी। उन्होंने देखने/जानने की कोशिश ही नहीं की। मुझे लगा, परी बैठी ही है। सो, अपने काम में लगा रहा।

अचानक ही उत्तमार्द्ध की आवाज आई - ‘क्या कर रहे हैं? छोरी कहाँ है? उसकी आवाज सुनाई नहीं दे रही।’ मैंने कहा - ‘बैठी है।’ मेरी बात पूरी हो उससे पहले की करछुल हाथ में लिए उत्तमार्द्धजी मेरे सामने खड़ी थीं - ‘कहाँ बैठी है? यहाँ तो नहीं है। कहाँ गई? आपको कहा था उसका ध्यान रखने को!’ मैंने भी देखा - परी कहीं नहीं थी। उसकी आवाज भी सुनाई नहीं दे रही थी। फौरन नेहा को आवाज लगाई। उसने कहा - ‘आपके पास ही तो है दादीजी!’ हम दोनों पसीना-पसीना हो गए। भाग कर बाहर आए। देखा - परी, बन्द फाटक के पास, कुछ इस तरह से खड़ी थी कि फाटक खुले तो सड़क पर चली जाए।

हम दोनों की साँसें लौटी। पहले एक-दूसरे पर खीझे और फिर नेहा पर - ‘कैसी माँ है? बच्ची को अकेले ही नीचे भेज दिया! साथ में आना था ना!’ नेहा भाग कर आई और परी को सम्हाला।

उसके बाद जो होना था, हुआ। लेकिन बड़ी देर तक हम दोनों के बोल नहीं फूटे। 

मैं विचार कर रहा था - संयुक्त परिवार रहे नहीं। स्थिति ‘एकल परिवार’ से भी नीचे उतर कर ‘एकल गृहस्थी’ पर आ गई। बच्चे छोटे और माँ-बाप को अपने काम पर जाना। अपना काम सम्हालें या बच्चे। तालमेल बैठाना कठिन। घर में कोई बड़ा-बूढ़ा हो तो बच्चों को देख ले, सम्हाल ले। मुझे लगा: माँ-बाप के होते हुए भी बच्चे अनाथ हो गए। 

मेरे मन पर उदासी छा गई। लगभग रुँआसी आवाज में अपनी उत्तमार्द्ध को मैंने यह बात कही तो उन्होंने सूनी नजरों से मुझे देखा और पूछा - ‘अनाथ से आपका मतलब?’ मैंने डूबे स्वरों में ही कहा - ‘अनाथ मतलब अनाथ। जिसके माँ-बाप नहीं।’ मेरी उत्तमार्द्ध ने मेरी आवाज से भी अधिक भीगी, अधिक डूबी और अधिक सर्द आवाज में कहा - ‘आप शाब्दिक अर्थ बता रहे हैं। आज तो अर्थ बदल गया है। अब अनाथ का मतलब है - जिसकी देखभाल करनेवाला, सार-सम्हाल करनेवाला कोई नहीं। आप केवल छोटे बच्चों को देख रहे हैं। जरा अपनी तरफ और अपने परिचितों में अपने जैसों की तरफ देखिए। सबके बच्चे बड़े होकर, ऊँची पढ़ाई कर अपनी-अपनी नौकरियों के लिए बाहर गए हुए हैं। अकेले बूढ़े दम्पतियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। बूढ़ों के जिम्मे मानो अपने-अपने मकानों की देखभाल का काम रह गया हो। उन्हें अपनी देखभाल भी करनी है और मकान की भी। आप कह रहे हैं कि आज के बच्चे अनाथ हो गए हैं। केवल बच्चे ही क्यों? अब तो बूढ़े भी अनाथ हो गए हैं। नहीं?’

जहाँ से शुरु किया था, खतम करते-करते वहीं पहुँच गया हूँ। इंकार करूँ तो झूठ बोलूँगा और सच कबूल करने की इच्छा नहीं हो रही। हिम्मत तो बिलकुल ही नहीं हो रही।
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(चित्र में परी के साथ मेरी उत्तमार्द्ध।)

4 comments:

  1. सच कहा आपने एकल परिवार में बच्चे अनाथ जैसे ही पल रहे हैं ..
    गंभीर चिंतन

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  2. द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय, द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥
    भली कही। जब सबै भूमि गोपाल की थी तो सारी दुनिया परिवार थी। आज अगर सब कुछ मेरा है तो सब सुख के साथ, सब दुख और अकेलापन भी स्वतः ही मेरा होना चाहिए।

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