आनन्द अभी-अभी गया है। मुझे फटकार कर। उम्र में मेरे बड़े बेटे से बरस-दो बरस ही बड़ा होगा, किन्तु डाँटता-फटकारता है बड़े भाई की तरह। आते ही शुरु हो गया - ‘आपका तो भगवान ही मालिक है। पता नहीं, क्या-क्या सनकें पाल लेते हैं! अब यह भी कोई बात हुई कि अखबार-टीवी का बॉय काट किए बैठे हैं! इन्हें क्या फरक पड़ेगा? फरक पड़ेगा तो केवल आपको। दीन-दुनिया से कटे रहेंगे। लीजिए! एक खबर है। आपके मिजाज की। तबीयत खुश हो जाएगी। अखबार पढ़ रहे होते तो पाँच-सात दिन पहले ही खुश हो जाते।’ कहते हुए एक अखबार मेरी ओर बढ़ा दिया। मैं कुछ नहीं बोला। मुस्कुराते हुए, हाथ बढ़ाकर अखबार ले लिया।
अखबार आठ दिन पुराना है-पाँच जून, सोमवार का। पहले पृष्ठ पर सदैव की तरह विज्ञापनी-नकाब (जेट) है। मैं मुखपृष्ठ खोलता हूँ। समाचार देखने की कोशिश करूँ, उससे पहले ही आनन्द बोला - ‘यहाँ नहीं। अच्छा समाचार है। मुखपृष्ठ पर कैसे मिलेगा? अन्दर है। ग्यारहवें पेज पर।’ और खुद ने ही खोलकर पन्ना मेरे सामने फैला दिया। समाचार का शीर्षक पढ़कर तबीयत वाकई में खुश हो गई - ‘गांव वालों ने मंदिर-मस्जिद से खुद उतारे लाउडस्पीकर, बोले- झगड़े जड़ खत्म’। समाचार रंगीन और सचित्र है। चार कॉलम समाचार को तीन कॉलमों में, पन्ने के निचलेवाले हिस्से में, प्रमुखता से छापा है।
समाचार के अनुसार, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले के थाना भगतपुर के गाँव थिरियादान के हिन्दुओं-मुस्लिमों ने खुद ही मन्दिर और मस्जिद से लाउडस्पीकर उतार कर पुलिस को सौंप दिए और तय किया कि गाँव में होनेवाले किसी भी धार्मिक काम-काज मे लाउडस्पीकर नहीं लगाया जाएगा। लाउडस्पीकर को लेकर गाँव में प्रायः ही विवाद होता और हर बार मामला गर्मा जाता। गाँववाले परेशान हो गए। गाँव के ही कुछ बुजुर्गों ने फैसला लिया कि ‘झगड़े की इस जड़ को ही खत्म कर दिया जाए’। ‘आनेवाले समय में कोई विवाद न हो, आनेवाली पीढ़ियाँ कोई मनमुटाव नहीं रखें और भाईचारा निभता रहे।’ 30 मई शनिवार को ग्राम प्रधान सुनीता रानी की मौजूदगी में सर्वानुमति से फैसला लिया और लिखित रूप में पुलिस थाने में दिया ताकि ‘सनद रहे और वक्त-जरूरत काम आए’। पंचायत में कहा गया गीता या कुरान, किसी में नहीं लिखा कि ऊपरवाले की इबादत लाउडस्पीकर से ही होनी चाहिए।
मैंने गूगल पर तलाशा तो पाया कि थिरियादान प्रायः ही साम्प्रदायिक विवादों में रहता आया है। जिला मुख्यालय मुरादाबाद से 25 किलो मीटर दूर है। गाँव की आबादी लगभग दो हजार है। हिन्दू आबादी 70 प्रतिशत और शेष 30 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है।
समाचार मैंने दो-तीन बार पढ़ा और विचार में पड़ गया। इन दो हजार लोगों ने बहुत जल्दी ‘झगड़े की जड़’ तलाश कर ली। संकट शायद आदमी को बुद्धिमान बना देता होगा क्योंकि वह सब पर समान रूप से आता है। वह हिन्दू-मुसलमान में फर्क नहीं करता। बार-बार के साम्प्रदायिक विवादों से उपजे संकटों ने इन लोगों को समझदार बना दिया। इन्हें समझ आ गई कि लाउडस्पीकर पूजा-इबादत के लिए जरूरी नहीं और न ही इनका उपयोग धार्मिक है। ‘क्योंकि भगवान की आराधना करने का यह तरीका पौराणिक नहीं है।’ और यह कि ‘किसी भी धर्म में नहीं लिखा कि लाउडस्पीकर से ही पूजा होगी।’ इन लोगों को अपने धार्मिक दबदबे के मुकाबले भावी पीढ़ियों की, उनके भाईचारे से रहने की चिन्ता अधिक हुई। उन्हें मालूम तो पहले से था लेकिन अनुभव अब किया कि लाउडस्पीकर से पूजा-इबादत करना धार्मिक-पौराणिक प्रावधान नहीं है, ऊपरवाला तो अपने बन्दों का मौन भी साफ-साफ सुन लेता है। थिरियादान के, गिनती के इन लोगों ने अपनी भावी सन्ततियों की शान्ति, सुख, कुशल की चिन्ता की।
तो क्या थिरियादान के ये लोग अब धार्मिक नहीं रहे? अधर्मी हो गए? निश्चय ही नहीं। ये सब धार्मिक तो पहले भी थे ही किन्तु तब ‘कट्टर धार्मिक’ या ‘धर्मान्ध कट्टर’ थे। इन्होंने अपनी-अपनी धर्मान्धता या कि कट्टरता छोड़ी। धर्म नहीं। समाचार की शब्दावली ध्यान देने योग्य है। गाँववालों ने लाउडस्पीकर को ‘झगड़े की जड़’ कबूल किया। कबूल किया कि देव-आराधना या कि इबादत के लिए लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं। अनुभव किया कि गाँववालोें में मनमुटाव का कारण उनका ईश्वर, उनका खुदा, उनका धर्म या उनकी पूजा पद्धति नहीं, यह लाउडस्पीकर ही है। उन्होंने अनुभव किया कि वे अपने धर्म के साथ ही सुख से रह सकते हैं, लाउडस्पीकर या ऐसे ही किसी अन्य बाहरी उपकरण के साथ नहीं।
वस्तुतः, धर्म तो मनुष्य को अधिक मूल्यवान बनाता है लेकिन मनुष्य अपने मूल्यवान होने को जता कर, उसके कारण और उसके आधार पर अपनी पहचान जताना चाहता है। तब वह ‘धार्मिक होने’ के मुकाबले ‘धार्मिक दीखने’ को सर्वोच्च प्राथमिकता जितना महत्वपूर्ण मान बैठता है। यहीं से मुसीबत शुरु होती है। मनुष्य जैसे ही अपने ‘मूल्यवान होने’ को जताना चाहता है वैसे ही खुद को ‘बिक्री योग्य’ घोषित कर बिकने के लिए बाजार में आ बैठता है। लेकिन बाजार का अपना चलन है। वहाँ तो ‘बेहतर’ या फिर ‘सस्ता’ ही खरीदा जाता है। बाजार में तो हर आदमी से बेहतर और हर आदमी से सस्ता आदमी उपलब्ध होता है। ऐसे में, हर कोई खुद को सर्वाधिक धार्मिक दिखाने के चक्कर में सबसे सस्ता होने की प्रतियोगिता में आ जाता है। तब पाखण्ड और प्रदर्शन की प्रतियोगिता अपने आप शुरु हो जाती है। ऐसे में उसका मूल्यवान होना अपना मूल्य खो देता है। इसके साथ ही साथ एक प्रक्रिया और शुरु हो जाती है - अनुयायियों के आचरण के आधार पर धर्म का मूल्यांकन। तब ही दुनिया किसी धर्म को अच्छा या बुरा तय करती है। यह सचमुच में रोचक विसंगति है कि जो धर्म मनुष्य को मूल्यवान बनाता है वही मनुष्य अपने (आचरण से) धर्म को लोकोपवाद की विषय वस्तु बना देता है।
धर्म आदमी को मूल्यवान बनाता है, उसका ‘बिक्री मूल्य’ नहीं बढ़ाता। धर्म यदि ‘बिक्री मूल्य’ बढ़ाता होता तो थिरियादान का यह समाचार देश के तमाम अखबारों में पहले पन्ने पर जगह पाता और तमाम चेनलों पर कई दिनों तक छाया रहता। किन्तु निश्चय ही ऐसा नहीं हुआ होगा। वर्ना आनन्द के बताने से पहले ही यह सब मुझे बहुत पहले ही मालूम हो चुका होता।
धर्म आत्म-शुद्धि का, आत्मोन्नयन का उपकरण है, मुनाफे का नहीं। यह न तो खुद बिकता है न ही किसी का बिक्री मूल्य बढ़ाता है। बिक्री मूल्य और बिक्री तो दिखावे से ही बढ़ती है। उपभोक्ता वस्तुओं के मामले में ‘विज्ञापन’ यह दिखावा है और धर्म के मामले में ‘पाखण्ड’ और ‘प्रदर्शन’। अधिकांश सरकारी स्कूलों में न तो बिजली है न पीने के पानी की व्यवस्था और न ही शौचालयों की। भण्डारे पर लाखों रुपये खर्च करनेवाले किसी ‘धार्मिक-दानी’ से अनुरोध कीजिए कि वह यह रकम किसी एक स्कूल पर खर्च कर, समस्याओं का स्थायी निदान करने का पुण्य लाभ ले ले। वह तत्क्षण इंकार कर देगा। क्योंकि स्कूल में दिया पैसा किसी को नजर ही नहीं आएगा और उसकी वाह वाही नहीं होगी। यह इसलिए कह रहा हूँ कि धार्मिकों-दानियों से ऐसा अनुरोध कर इंकार सुन चुका हूँ।
वस्तुतः, थिरियादान के लोगों को ‘आचरण’ और ‘प्रदर्शन’ का अन्तर समझ में आ गया। उन्होंने महसूस कर लिया कि ‘आचरण’ से ही उद्धार है, ‘प्रदर्शन’ से नहीं। धार्मिक कट्टरता या कट्टर धर्मान्धता से मुक्ति पाकर, उन्होंने आचरण को अपनाया। उन्होंने अपने लिए सुख-शान्ति ही नहीं जुटाई, अपने-अपने धर्म का मान भी बढ़ाया।
यही तो धर्म है!
-----
(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 15 जून 2017 को प्रकाशित)
Hamesha ki tarah prerak aur patniya. Salaam.
ReplyDeleteसभी धर्म के लोगों को और सभी नगर,मोहल्ले के लोगों को इसका अनुकरण करना चाहिए ।
ReplyDeleteसभी धर्म के लोगों को और सभी नगर,मोहल्ले के लोगों को इसका अनुकरण करना चाहिए ।
ReplyDelete