आज की यह पोस्ट श्री विजय शर्मा के खाते में। यह उन्हीं के कारण लिखी जा रही है और उन्हीं को समर्पित है।
उद्यमिता के दिनों में हमारे उद्यम का खाता ‘इन्दौर बैंक’
(जिसका पूरा/वास्तविक नाम स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर था जो अब भारतीय स्टेट बैंक बन चुका है) की औद्योगिक क्षेत्र शाखा में था। अभिरुचि सम्पन्न श्री विजय नागर वहीं पदस्थ थे। उन्होंने बहुत जल्दी भाँप लिया कि मुझमें व्यापार-धन्धे की और लेजर, केश-बुक की कोई सूझ-समझ नहीं है। वे मुझे अपने पास बैठाते और अपना काम करते-करते कविता, गजल की बात करते। राहत इन्दौरी का नाम मैंने पहली बार उन्हीं से सुना था। उन्होंने ही शर्माजी से मेरा परिचय कराया।
अभी तो शर्माजी सेवा निवृत्त जीवन जी रहे हैं। लेकिन वे नौकरी में थे तब भी उन्होंने कभी बैंक, बैंकिंग और आँकड़ों की बात नहीं की। नागर साहब की तरह ही शर्माजी भी अभिरुचि सम्पन्न हैं और नागरजी की तरह ही, मित्रों को उनकी और खुद की मनपसन्द किताबें पढ़वाने का शौक है।
मैं सेंधवा से रतलाम लौट रहा था। टैक्सी, रतलाम से दस-बारह किलो मीटर पहले वाले टोल नाके पर रुकी हुई थी। तभी शर्माजी का फोन आया। टोल नाके पर रुकने की बात मालूम होने पर जोर से हँसे। बोले - ‘क्या संयोग है! अभी आपकी वही पोस्ट पढ़ रहा हूँ जिसमें आपने टोल नाके पर रोके जाने से गुस्साए विधायक की बात कही है।’ बात लम्बी हुई लेकिन बातों की बातों में उन्होंने, रोके जाने पर वीआईपी से जुड़े दो अनुभव सुनाए। दोनों का अपना-अपना रंग और अपना-अपना मजा है।
इन्दौर बैंक ने बेडमिण्टन का कोई आयोजन किया था। महू के एक बड़े सैन्य अधिकारी और नईदुनिया के प्रधान सम्पादक अभयजी छजलानी मुख्यतः आमन्त्रित थे। शिष्टाचार भेंट के दौरान सैन्य अधिकारी ने पूछा - ‘आपको मुझसे कोई मदद चाहिए तो बताईए।’ मिलनेवालों ने कहा - ‘गेट पर चेंकिंग के लिए आपके कुछ जवान दिलवा दीजिए।’ अधिकारीजी ने अपेक्षा से अधिक जवान तैनात करवा दिए।
गेट पर तैनात जवानों को बताया गया कि दो ही आधारों पर लोगों को अन्दर आने दें - आगन्तुक के पास टिकिट हो या फिर उसके शर्ट पर आयोजकों द्वारा उपलब्ध कराया गया, रिबिन का फूल लगा हो। जवानों ने सलाम ठोक कर आश्वस्ति दी - ‘बेफिकर रहिए। इसके सिवाय कोई अन्दर नहीं आ पाएगा। परिन्दा भी नहीं।’
आयोजक निश्चिन्त होकर चले गए। अब दरवाजे पर फौजी जवान ही थे। वे चुस्ती से अपना काम कर रहे थे। थोड़ी ही देर में अभयजी प्रवेश द्वार पर पहुँचे। उनके पास न तो टिकिट था न ही रिबिनवाला फूल। टिकिट खरीदने का तो सवाल ही नहीं और फूल अन्दर, कार्यक्रम के दौरान लगाया जानेवाला था। जवान ने कहा - ‘टिकिट प्लीज।’ अभयजी ने, उन्हें लानेवाले कार्यकर्ताओं की ओर देखा। एक बोला - ‘अरे! ये तो चीफ गेस्ट हैं।’ जवान ने अदब से कहा - ‘जरूर होंगे सर! लेकिन हम तो केवल आर्डर ओबे कर रहे हैं।’ कार्यकर्ता ने बुद्धिमता बरती। अपना फूल निकाल कर अभयजी की शर्ट पर लगा दिया। बोला - ‘अब तो ठीक?’ जवान ने अदब से ‘यस सर!’ कहते हुए आदर से अभयजी को प्रवेश दिया। अभयजी के पीछे-पीछे वह कार्यकर्ता सहज भाव से जाने लगा तो जवान ने रोक लिया। बोला - ‘टिकिट प्लीज!’ कार्यकर्ता पहले तो अचकचाया, फिर झुंझलाया। चिढ़ कर बोला - ‘अरे! तुमने देखा नहीं? अभी मैंने अपना फूल अभयजी को लगाया था?’ बड़ी अदब से जवान बोला - ‘यस सर। देखा। लेकिन आपके शर्ट पर रिबिन फ्लॉवर नहीं है।’ कार्यकर्ता समझदार था। फौजी जवानों से हील-हुज्जत करने के खतरे जानता होगा। अपने प्रवेश की व्यवस्था की और जवानों की तसल्ली के बाद अन्दर गया।
शर्माजी का सुनाया दूसरा किस्सा रंजक तो है ही, औपचारिक/आधिकारिक पहचान और वास्तविक पहचान का अन्तर और तैनात व्यक्ति की परिपक्वता का बहुत बढ़िया उदाहरण है।
रतोलियाजी उन दिनों मल्हारगंज (इन्दौर) थाने के टी आई थे। पुलिस अफसरी करते समय उनकी आवाज किसी कड़क पुलिस अफसर जैसी ही होती थी किन्तु उनकी आवाज वस्तुतः धीर- गम्भीर, मुलायम और उच्चारण सुस्पष्ट थे। दृष्टि बाधित बच्चों के लिए इन्दौर बैंक ने रतोलियाजी की आवाज में एक सीडी तैयार करवाई। वह सीडी देवास में विमोचित होनी थी।
विमोचन समारोह में शामिल होने के लिए बैंकवाले (जिनमें शर्माजी भी शामिल थे ही) बैंक की कार में रतोलियाजी को लेकर देवास जा रहे थे। रास्ते में टोल नाके पर कार रुकी। ड्रायवर जेब से पैसे निकालने लगा तो रतोलिया जी ने टोका - ‘उससे कह दो कि अन्दर मल्हारगंज के टीआई साहब बैठे हैं।’ ड्रायवर ने आदेश का पालन किया। सुनकर टोलवाले कर्मचारी ने कार में झाँका। रतोलियाजी ने वर्दी नहीं पहन रखी थी। टोलवाले को अन्दर झाँकते देख, रतोलियाजी ने खुद की ओर इशारा किया। अब नौकर तो नौकर ठहरा। उसे तो अपने मालिक का कहा मानना था। उसने सपाट लहजे में कहा - ‘सर! आपका आईसी दिखा दीजिए।’ टोल कर्मचारी का यह कहना था कि कार में मानो भूचाल आ गया। पीठ टिका कर, आराम से बैठे रतोलियाजी उचक कर आगे हुए, जलती आँखों से उसे देखा। सीडी में कैद ‘धीर, गम्भीर, मुलायम’ स्वर, पल भर में ‘असली पुलिसिया स्वर’ बन गया। लाल-भभूका बन चुके रतोलियाजी ने ‘सुस्पष्ट उच्चारण’ से गर्जना की - ‘स्साले! तेरा मेनेजर, तेरा सेठ मेरे सामने खड़ा रहता है और तू पचीस रुपयों के लिए मेरा आईसी माँग रहा है। तेरी ये हिम्मत?’ और जितनी गालियाँ उनके अवचेतन में आईं, तात्कालिक वाद-विवाद प्रतियोगिता के कुशल वक्ता की तरह रतोलियाजी ने धारा प्रवाह रूप से, एक साँस में सुना दीं। रतोलियाजी का ‘भस्म कर देनेवाला’ रूप देख कर और अनगिनत गालियाँ सुनकर टोल कर्मचारी, मानो अपनी जान बचा रहा हो, इस तरह कार से दूर छिटका और हाथ जोड़कर मिमियाते हुए बोला - ‘पहचान गया सा’ब! अब पहचान गया! आप सच्ची में टी आई सा’ब ही हो। सॉरी सर! सॉरी! गलती हो गई।’ उसके बोलते-बोलते ही बेरीयर उठ गया।
शर्माजी बोले - “हम लोग समझ ही नहीं पाए। रतोलियाजी अच्छे-भले, हँसते-बतियाते बैठे थे। लेकिन पल भर में ही उनका कायान्तरण हो गया। ‘पुलिसिया आत्मा’ से यह क्षणिक साक्षात्कार हम सबके लिए ‘आजीवन अविस्मरणीय संस्मरण निधि’ बन गया। टोल नाके से मीलों दूर निकल जाने के बाद भी हम सब हक्के-बक्के बने रहे। ये तो हमारेवाले, ‘वो’ रतोलियाजी नहीं। हमारी शकलें देख कर, जोर से हँसकर, रतोलियाजी ही हम सबको अपने आप में लाए।”
शर्माजी ये किस्से सुना रहे थे और मुझे इसके समानान्तर ढेबर भाई का एक किस्सा याद आ रहा रहा था।
यू. एन. ढेबर के नाम से पहचाने जानेवाले ढेबर भाई का पूरा नाम उछरंगराय नवलशंकर ढेबर था। वे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। सौराष्ट्र राज्य के पहले मुख्य मन्त्री वे ही थे। बाद में काँग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उसके बाद तीसरी लोक सभा के सदस्य।
जहाँ तक मेरी याददाश्त काम कर रही है, यह बात 1958 की है। मन्दसौर जिला काँग्रेस कमेटी ने, मन्दसौर में ‘सपत्नी सम्मेलन’ आयजित किया था। ढेबर भाई भी उसमें शामिल थे।
सम्मेलन नूतन स्कूल में आयोजित था। व्यवस्थाओं की
जिम्मेदारी काँग्रेस सेवादल को सौंपी गई थी। सभा-सत्रों में प्रवेश के लिए, आयोजकों द्वारा निर्धारित परिचय-प्रतीक दिखाना अनिवार्य था। एक सत्र में प्रवेश द्वार पर मनासा की सेवादल टुकड़ी तैनात थी। छगन भाई पुरबिया सबके प्रवेश-प्रतीक की खातरी कर रहे थे। तभी ढेबर भाई पहुँचे। वे अन्दर जाने लगे तो छगन भाई ने हाथ बढ़ा कर रोक दिया और कहा - ‘पास दिखाइए भाई साहब!’ ढेबर भाई मुस्कुराए और धीमे से बोले - ‘मैं ढेबर हूँ भाई!’ छगन भाई बोले - ‘जी भाई साहब! मैं जानता हूँ। लेकिन पास दिखाइए।’ ढेबर भाई तनिक भी असहज नहीं हुए। उसी तरह मुस्कुराते हुए बोले - ‘मैं काँग्रेसाध्यक्ष हूँ भाई!’ नजरों से नजर मिलाते हुए छगन भाई ने सपाट स्वर में जवाब दिया - ‘जी भाई साहब! मैं जानता हूँ। आप पास दिखाइए।’ ढेबर भाई के पीछे राष्ट्रीय और प्रान्तीय स्तर के कई नेता पंक्तिबद्ध थे। लेकिन सब चुपचाप देख-सुन रहे। पता नहीं, ढेबर भाई को मजा आ रहा था या वे आजमा रहे थे। बोले - ‘सत्र की अध्यक्षता मुझे ही करनी है भाई! जाने दीजिए।’ छगन भाई, उसी तरह अडिग बने बोले - ‘जी भाई साहब! मुझे मालूम है। लेकिन आप पास दिखाइए।’ इस सम्वाद में मिनिट-डेड़ मिनिट भी नहीं लगा, कोई कुछ नहीं बोला लेकिन सबकी बेचैनी साफ नजर आने लगी। ढेबर भाई ने अनुनय की - ‘सत्र का उद्घाटन मुझे ही करना है। पहला भाषण मुझे ही देना है। मेरे बिना सत्र शुरु नहीं होगा।’ छगन भाई को कुछ फर्क नहीं पड़ा। दुहराया - ‘जी! जानता हूँ भाई साहब! लेकिन आप अपना पास दिखाइए।’ ढेबर भाई की मुस्कान तनिक अधिक चौड़ी हो गई। जेब से अपना पहचान-प्रतीक निकाला। छगन भाई की ओर बढ़ाया। छगन भाई ने ध्यान से देखा। तसल्ली की और हाथ हटा कर विनम्रता से बोले - ‘धन्यवाद। जाइए भाई साहब।’ ढेबर भाई ने मुस्कुराते हुए अपना ‘पास’ जेब में रखा और गर्मजोशी से छगन भाई का कन्धा थपथपाते हुए ‘बहुत बढ़िया! शाबास!’ कहते हुए अन्दर चले गए।
ढेबर भाई के, अन्दर जाने से पहले ही पूरी बात, नूतन स्कूल की दीवारें पार कर चुकी थी। लोग छगन भाई के पास जुट आए। एक ने कहा - ‘ये क्या किया तुमने? ढेबर भाई को जानते नहीं? तुमने पूरी जिला कमेटी का नाश कर दिया। पता नहीं, तुम्हारी इस हरकत का दण्ड किसे झेलना पड़ेगा।’ छगन भाई बोले - ‘मुझे नायकजी ने कहा था कि बिना पास किसी को अन्दर मत जाने देना। मैंने तो आदेश का पालन किया। अब जो होना हो, हो।’ अन्दर, ढेबर भाई ने अपना भाषण शुरु ही इस घटना के उल्लेख से किया। छगन भाई का नाम तो वे नहीं जानते थे। उनका नाम लिए बिना उनकी प्रशंसा की और छगन भाई की टुकड़ी को, राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा दिए जानेवाले सर्वोच्च सम्मान स्वरूप पार्टी का रेशमी झण्डा प्रदान किया।
पहचान बताने का सबका अपना-अपना तरीका होता है। रतोलियाजी यदि अपना आईसी दिखा देते तो टोल कर्मचारी के सामने टी आई पद की प्रतिष्ठा और रौब नष्ट हो जाता। इसे वह अपनी कामयाबी मानता, लोगों के बीच रस ले-ले कर कहता कि उसने टीआई से उसका आईसी निकलवा लिया। और ढेबर भाई यदि पहचान-पत्र नहीं बताते तो पूरी पार्टी का अनुशासन उसी क्षण ध्वस्त हो जाता है। दोनों ने अपने-अपने पद की प्रतिष्ठा की रक्षा की। एक ने अपनी पहचान बताकर और दूसरे ने अपना पहचान-पत्र बता कर।
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गज़ब का प्रेरक संस्मरण
ReplyDeleteनवतपा की गर्मी कम हो गई भाई साहब