बाबा, मुख्य मन्त्री और हम लोग याने हमाम के नंगे

बाबाओं को राज्य मन्त्री का दर्जा देनेवाले मामले में किसकी असलियत सामने आई? बाबाओं की? सरकार की? या फिर हम, आम लोगों की? मुझे लग रहा है - हम सबकी असलियत सामने आ गई। सारी बातें जानते तो सब थे लेकिन सब खुद से नजरें बचा रहे थे। 

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। राजा के सिपाहियों से बचने के लिए एक ठग गिरोह ने दूर-दराज के एक गाँव में ठौर ली। मुखिया ने बाबा का चोला धारण किया। मुखिया प्रमुख बाबा और बाकी सब उसके अनुचर सन्यासी। जल्दी ही बाबा का मुकाम ‘बाबा का धाम’ बन गया।

एक दिन गाँव का साहूकार, रुपयों से भरी थैली लेकर आया। बोला कि एक विवाह प्रसंग में उसे पाँच दिनों के लिए बाहर जाना है। अपने जीवन की सारी कमाई, सुरक्षा के लिए बाबा के पास छोड़े जा रहा है। लौट कर ले लेगा। बाबा ने थैली रख ली। छठवें दिन साहूकार लौटा और अपनी थैली माँगी। बाबा ने थैली जस की तस थमा दी। साहूकार खुश हो, बाबा की जैकार करता चला गया। उसके जाते ही साथियों ने पूछा - ‘थैली क्यों लौटा दी? कोई गवाह तो था नहीं। मना कर देते तो साहूकार क्या कर लेता?’ मुखिया ने कहा - “हम भले ही ठग हैं लेकिन ‘बाने की लाज’ रखनी पड़ती है। साहूकार ने ‘बाबा’ को थैली थमाई थी, ‘ठग’ को नहीं।’ किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कुछ बाबाओं ने राज्य मन्त्री का दर्जा लेने से जरूर मना कर दिया है लेकिन बाकी बाबाओं ने ‘बाने की लाज’ नहीं रखी। इनमें से एक तो भोपाल पहुँच भी गए हैं और सर्किट हाउस की छत पर धूनी रमा रहे हैं।

मुख्य मन्त्री ने क्या किया? निश्चय ही अनुचित किया। लेकिन डगमगाती कुर्सी को थामे बैठा राजनेता किसी भी सीमा तक चला जाता है। तब नैतिकता, ईमानदारी, मूल्य जैसी बातें जुमले बन कर रह जाती हैं। मुख्य मन्त्री को पता था कि जिन मुद्दों पर बाबा लोगों ने पूरे पैंतालीस दिन, पैंतालीस जिलों के गाँव-गाँव जाकर सरकार के भ्रष्टाचार की पोल खोलने की बात कही है, वे सारी बातें सच हैं। बाबा की कही बातों पर लोग वैसे भी बिना सोचे भरोसा कर लेते हैं। सो मुख्य मन्त्री ने बाबाओं को अपनी जमात में शरीक कर लिया। मुझ जैसे तुम भी हो जाओ। अब भला, एक भ्रष्ट आदमी, दूसरे भ्रष्ट आदमी की पोल कैसे खोल सकता है? लिहाजा, भ्रष्टाचार को उजागर करनेवाली, बाबाओं की जन-यात्रा, पद प्राप्ति योजना में बदल गई। यह साफ-साफ दो टू सौदा था। मुख्यमन्त्री ने सरेआम रिश्वत दी और बाबाओं ने सरे आम यह रिश्वत कबूल की। लेकिन किसी मुख्य मन्त्री की इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि वह किसी साधु-सन्त को इस तरह जगजाहिर प्रलोभन दे? जवाब आसान है। मुख्य मन्त्री को खूब पता था कि इन बाबाओं ने कबीर की बात पर अमल किया है - ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।’ 

मुख्यमन्त्री की इस पेशकश ने मुझे काका हाथरसी की बरसों पुरानी एक कुण्डली याद दिला दी -

कूटनीति मंथन करी, प्राप्त हुआ यह ज्ञान।
लोहे से लोहा कटे, यह सिद्धान्त प्रमाण।
यह सिद्धान्त प्रमाण, जहर से जहर मारिए।
चुभ जाए काँटा तो काँटे से निकालिए।
कह ‘काका’ क्यों काँप रहा है रिश्वत लेकर?
रिश्वत पकड़ी जाए, छूट जा रिश्वत देकर।

सारी दुनिया ने इस कुण्डली को साकार होते देखा। इस तरह, बाबाओं की और राजनीति की वह असलियत सामने आई जिसे हम सब पता नहीं कब से जानते हैं। इसीलिए, रिश्वत के इस लेन-देन पर हमें न तो ताज्जुब हुआ और न ही गुस्सा आया। तलाश कीजिए कि इस लेन-देन पर कितने लोगों ने आपत्ति ली? कितने लोग गुस्सा हुए? कितने लोग सड़कों पर आए? अनगिनत बाबाओं के इस देश में गिनती के पाँच-सात बाबा अप्रसन्न हुए। यह देश चूँकि ‘पार्टी लाइन’ पर चलता है, इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी के उत्साही वक्तव्यवीरों की भी बोलती बन्द हो गई। बड़े नेताओं ने तो बढ़-चढ़ कर मुख्य मन्त्री का समर्थन किया। रही बात प्रति पक्ष की! तो उसकी तो मानो बाँछें खिल गईं। मुख्य मन्त्री ने उन्हें एक नया औजार थमा दिया है। यदि कभी सत्ता में आए तो इसे काम में लेंगे। लिहाजा, प्रतिपक्ष भी अण्टा गाफिल मुद्रा में, चुप पड़ा रहा। सत्तारूढ़ पार्टी के दो-चार लोग विरोध में, चैनलों के पर्दे पर बोले जरूर लेकिन उनके विरोध को किसी ने ‘ईमानदार विरोध’ माना ही नहीं। उनका कहा, उनके कहने से पहले ही हवा हो गया।

अब रही बात आम लोगों की। आपकी-हमारी। हम सबकी। तो हम सब जानते हैं कि इन बाबाओं को बाबा हम ही ने बनाया है। भेंट-पूजा-पत्री, नारियल-प्रसाद, फूल मालाएँ, चढ़ावे की थालियाँ लिए हम ही लम्बी कतारों में लग, इनके दर्शनों की प्रतीक्षा में अपनी टाँगें पतली करते रहे। ये बाबा जैसे भी हैं और जो कुछ भी कर रहे हैं, उसके लिए तो हम ही जिम्मेदार हैं। यदि हम लोग इन्हें भाव न दें तो भला मुख्य मन्त्री इन्हें क्यों पूछे। हम सबने इनके पिछलग्गू बनकर खुद को वोट बैंक में बदल लिया है। मुख्य मन्त्री को वोट चाहिए। और जब चुनाव ऐन सामने हों तब तो चाहिए ही चाहिए। मुख्य मन्त्री ने वही किया। हमने ताज्जुब जरूर किया लेकिन हमारे ताज्जुब में ताज्जुब कम और उपहास ज्यादा था। हम जब इनका उपहास कर रहे थे तब वास्तव में हम अपनी ही खिल्ली उड़ा रहे थे। ऐतराज तो हम कर ही नहीं सकते थे। कैसे करते? खूब जानते हैं कि सारा किया-धरा तो हमारा ही है! हम यही कह-कह कर अपना मन समझाते रहे कि बाबाओं और मुख्यमन्त्री, दोनों ने एक-दूसरे का उपयोग कर लिया। जबकि हकीकत यह है कि इन दोनों ने हमारा उपयोग किया है। इन दोनों ने तो माल कूटा है। ठगाए तो हम हैं और हम खुशी-खुशी ठगाए हैं।

जो समाज अनुचित पर चुप रह कर अपनी सहमति देता है, वह ठगाने के लिए अभिशप्त रहता है। मुझे याद आ रहा है कि जैन समुदाय के साधु-सन्त ऐसा व्यवहार नहीं कर पाते।  प्रत्येक जैन साधु अवचेतन में भी जानता है कि उसके आचरण पर श्रावक समुदाय नजर बनाए हुए है। यायावरी, जैन साधु जीवन की अनिवार्य शर्त है। कोई जैन साधु यदि किसी एक स्थान पर तीन दिन से अधिक रुक जाए तो श्रावक करबद्ध हो, विनीत भाव से पूछ लेता है - ‘आपकी इच्छा क्या है महाराज साब?’ स्खलित आचरण के कारण जैन साधुओं को, श्रावक समुदाय द्वारा सांसारिक वेश धारण कराने के कुछ मामलों की जानकारी तो मुझे निजी स्तर पर है। वहाँ ‘श्रावक’ सजग-सावधान रह, अपनी जिम्मेदारी निभाता है। लेकिन अपने हिन्दू होने पर गर्व करने का आह्वान करनेवाले हम अपने किसी साधु से कभी कोई पूछताछ नहीं करते। हमें हिन्दू धर्म विरोधी करार दिए जाने का खतरा बना रहता है। 

दरअसल, सर्वाधिक अधर्म, अनाचार, अत्याचार धर्म के नाम पर ही होता है। हमारे अज्ञान के कारण हमारा धर्म अन्धों का हाथी बन कर रह गया है। सबके पास धर्म की अपनी-अपनी व्याख्या और अपना-अपना स्वरूप है। तरलता और पारदर्शिता धर्म की प्रकृति है। लेकिन हमने धर्म को जड़ और लौह आवरण में बदल कर रख दिया है। हमने प्रतीकीकरण को धर्म मान लिया है।

यह सब कुछ हमारा ही किया-धरा है। नेता हो या बाबा, हमें वही और वैसा ही मिल रहा है जिसकी पात्रता हमने अर्जित की है। बबूल बोये हैं तो आम कहाँ से पाएँगे? 

आइये! काँटों की चुभन के साथ आनन्दपूर्वक जीने का अभ्यास करें।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 12 अप्रेल 2018

2 comments:

  1. बाबा ख़ुद रईस और भक्तों को बाबा बनाये जा रहे है,फिर भी अन्ध भक्तों की आंखें नही खुल रही है । शिवराज तो पट्टा लिखाने के लिए अनेक अनैतिक कार्य करने में मशगूल है और कांग्रेस राहुल,सोनिया को छोड़ नहीं पा रही है । चाह बर्बाद करेगी हमें मालूम न था ( सहगल साहब याद आ रहे है )

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-04-2017) को बैशाखी- "नाच रहा इंसान" (चर्चा अंक-2939) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    बैशाखी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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