- प्रताप भानु मेहता
कभी किसी ने कानून की परिभाषा की थीः ‘वह सीधी, सरल रेखा की तरह हो जिसमें अपराध-जगत व अपराधी मानस जैसी जटिल गलियों व चालबाजियों की जगह न हो।’ हम हमेशा याद रखें कि जब न्यायालय कानून की इस परिभाषा से बाहर जाकर, कानूनों को जटिल जाल की तरह और फैसलों को शतरंजी चाल की तरह पेश करता है तब वह दूसरा कुछ नहीं, अपनी असमर्थता व न्याय से अपने विचलन की मूक घोषणा करता है।
हमें इस बात के लिए सर्वाेच्च न्यायालय का आभारी होना चाहिए कि उसने विजय मदनलाल चौधरी तथा ओआरएस बनाम भारतीय महासंघ के मामले में, जिसमें पीएमएलए ( प्रिवेंशन ऑफ मनीलाण्ड्रिंग एक्ट ) के कई प्रावधानों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी, अपना फैसला इस तरह सुनाया कि भारतीय राज्य का असली चरित्र उजागर हो उठा। जस्टिस ए. एम. खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी व सी. टी. रविकुमार की बेंच ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया कि सर्वाेच्च न्यायालय की नजरों में पका-पकाया खाना ही सबसे लज्जतदार होता है और न्यायालय का नजरिया प्रशासन से भी अधिक प्रशासकीय होता है। न्यायपालिका आज नागरिक अधिकारों के संरक्षक से अधिक, नागरिक अधिकारों के लिए खतरा बन गई है। अदालत ने भारतीय न्याय-व्यवस्था को ऐसी पतनावस्था में पहुँचा दिया है, जिसे देखना भी विषादजनक है।
पीएमएलए को 2002 में वित्तीय हेराफेरी (मनीलाण्ड्रिंग) की रोकथाम के लिए बनाया गया था। फिर उसमें कई संशोधन हुए। वित्तीय हेराफेरी फिर एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या बनती गई और भारत इसके खिलाफ कई प्रतिबद्धताओं से जुड़ता चला गया। अब अदालत ने फैसला यह दिया कि पीएमएलए की जिन धाराओं को अदालत में चुनौती दी गई है, वे सभी धाराएँ संविधानसम्मत हैं। इस मामले में दाँव पर क्या लगा हुआ है, इसे न देखते हुए, अदालत का सिर्फ यह देखना कि इस एक्ट के प्रावधान क्या हैं, पूरी तस्वीर की परिपूर्णता की अनदेखी करना है।
एक ऐसे कानून की कल्पना कीजिए जिसकी दानवी पहुँच है। आपके खिलाफ एक जाँच शुरु होती है। आरोप की कुछ मोटी, धुँधली बातें आपको बताई जाती हैं लेकिन पूरे मामले के बारे में आपको एकदम अँधेरे में रखा जाता है। आपकी पेशी तो होती है लेकिन आपको यह पता ही नहीं है कि आपकी पेशी अभियुक्त के नाते हो रही है कि गवाह के नाते। गिरफ्तारी का सम्पूर्ण आधार आपके साथ साझा ही नहीं किया जाता है। अब मान लीजिए कि आप जमानत की अर्जी देने की सोचते हैं तो आपको पता चलता है कि राज्य के लिए आपको इतना बड़ा खतरा मान लिया गया है कि आरोप लगाने वालों को सुने बिना आपको जमानत मिल ही नहीं सकती है। अब दोष को पूरी तरह जाने बिना ही आपको, खुद को निर्दाेष साबित करना है। अब आप यह समझिए कि आप एक ऐसे कानून के तहत पकड़े गए हैं जो सुरसा की तरह अपना मुँह बढ़ाता जाता है - पीएमएलए के तहत वह सारा कुछ आ जाता है जो हमारे घर की रसोई में पकता है और पड़ोसी के साथ साझा किया जाता है। इस कानून के कारण सत्ता के पास ऐसी अपरिमित शक्ति आ गई है कि वह जिसे चाहे अपराधी घोषित कर दे। यह ऐसा नायाब कानून है जो निपराध होने की परिभाषा ही बदल देता है।
आप यूँ समझिए कि यह कानून खुद ही खुद को परिपूर्ण घोषित कर देता है: कानून की दूसरी धाराओं में जो अपराध माने जाते हैं, यह कानून उन्हें भी खारिज करता है। यह कानून अपने ही तौर-तरीकों से इस तरह चलता है कि अपराध-शास्त्र की दूसरी सारी प्रक्रियाएँ ध्वस्त हो जाती हैं। अब यह भी देखिए कि इस कानून के तहत आपको जो सजा दी जाती है वह अपराध की तुलना में कहीं ज्यादा होती है। यह भी देखिए कि आपको ही ख़ुद को निरपराध भी साबित करना है। यह भी देखिए कि इसकी जाँच-प्रक्रिया ही आपकी सजा है: आपकी सम्पत्ति कुर्क की जा सकती है, जब तक जाँच पूरी नहीं हो जाती है आपकी जिन्दगी शीर्षासन करती नजर आ सकती है, सिद्धान्ततः यह कानून आपको सम्पत्ति से कुर्की के खिलाफ संरक्षण देता है लेकिन ये सारे प्रावधान इतने कमजोर हैं कि ये न आपकी प्रतिष्ठा का संरक्षण करते हैं, न व्यापार या आजीविका चलाते रह सकने का अवकाश ही देते हैं। यदि आपके पास किसी अपराध से सम्बन्धित कागजात हैं तो वे ही काफी हैं आपको अपराधी बनाने के लिए बगैर इस बात की फिक्र किए कि ये कागजात मेरे पास क्यों हैं, कैसे हैं और ये कागजात इस अपराध में मेरी संलग्नता कैसे साबित करते हैं। और यह भी कि जो अधिकारी मेरी जाँच कर रहे हैं, वे कहीं दूर-दूर तक भी पुलिस से सम्बन्धित नहीं हैं लेकिन कई मामलों में वे पुलिस से भी ज्यादा अधिकार रखते हैं। तो आप यह भी नहीं कह सकते कि आप पुलिसिया राज में रहते हैं क्योंकि आपको जिससे परेशानी है वह पुलिस तो है ही नहीं।
अब इससे आगे आप यह देखिए कि यह कानून बनाया भी बड़े बेढब तरीके से है। जिस संसदीय प्रक्रिया से यह कानून बना है उसे ही हम समुचित नहीं कह सकते हैं। एक मनी बिल के आवरण में इसे लाया गया था। गैर-कानूनी तरीके से यह कानून बनाया गया लेकिन हमने इसकी कभी पड़ताल नहीं की और इसे लागू भी कर दिया। वित्तीय अनियमितता के बारे में संविधान क्या कहता है? हम कह सकते हैं कि यह कानून दो तरह की मानसिकताओं का परिणाम है। वित्तीय अनियमितता अत्यन्त खतरनाक किस्म का अपराध है। आतंकवाद की तरह ही यह भी एक आत्यन्तिक परिस्थिति की मानसिकता में से पैदा हुआ है लेकिन आज आत्यन्तिक को ही नयी सामान्य परिस्थिति मान कर चला जा रहा है। अब इस पर कोई विचार नहीं करता है कि वित्तीय अनियमितता से कैसे परिणामकारी ढंग से निबटा जाए। इसलिए इस कानून के तहत अब तक बहुत ही कम सजाएँ हुई हैं। हम इस कानून के तहत हजारों मामले दर्ज करते हैं लेकिन 5 प्रतिशत से भी कम को सजा दिला पाते हैं। लेकिन लोगों की गिरफ्तारियाँ होती हैं, जिन्दगियाँ तबाह हो जाती हैं, सजाओं की अल्प दर के मामले में यह तर्क दिया जाता है कि हमें जमानत की शर्तों को ज्यादा कड़ा करना चाहिए। यह तर्क दरअसल कहता यह है कि सजा की प्रक्रिया ही सजा होनी चाहिए। मैं आपको इतनी सारी कल्पनाएँ करने को कह रहा हूँ लेकिन सच यह है कि यही पीएमएलए कानून की हकीकत है।
अब अदालत क्या कर रही है: तोते की तरह बनी-बनाई अवधारणा को रट रही है, दोहरा रही है। इस कानून का पहला करुण पक्ष यह है कि जब यह बना था तब सारे दल इस बारे में एक राय थे। अब कोई भी सत्ताधारी दल नहीं चाहता है कि मनमाना करने की आजादी देने वाला ऐसा कानून हटाया जाए। ईडी का इस्तेमाल, खास कर राजनीतिक विपक्ष के खिलाफ इस सरकार ने जितना किया है, कर रही है वैसा किसी ने नहीं किया लेकिन यह भी सच है कि इस कानून को या कि इसकी बुनियाद को, पिछली किसी भी सरकार ने चुनौती नहीं दी। आज लोग इस कानून को लेकर इतने उद्विग्न इसलिए हैं कि चोटी के वकील, जो नागरिक स्वतन्त्रता आदि पर बड़े चुटीले व बुलन्द व्याख्यान देते हैं, वही जब उनकी सरकार सत्ता में होती है तो नागरिक स्वतन्त्रताओं की बुनियाद ही खिसका देने वाले इस कानून पर मुहर लगा देते हैं।
इसका दूसरा सन्दर्भ अन्तरराष्ट्रीय है। 9/11 के बाद आतंकी गतिविधियों को मिलने वाली आर्थिक मदद के बारे में चिन्ता काफी बढ़ गई और इसी आधार पर, कई ऐसी अन्तरराष्ट्रीय सन्धियाँ हुईं जिन्होंने नागरिक स्वतन्त्रता के संरक्षण की अवधारणा को मजबूत बनाने के बजाय उन्हें कमजोर किया। उन्हीं अन्तरराष्ट्रीय सन्धियों का हवाला देकर, अब राष्ट्र के भीतर की नागरिक स्वतन्त्रताओं को असुरक्षित किया जा रहा है। अब सरकार भारतीय संविधान के सन्दर्भ में नहीं, उन्हीं अन्तरराष्ट्रीय सन्धियों के सन्दर्भ में बात करती है। इस कानून के सन्दर्भ में सबसे बुरा तो यह हो रहा है कि खोखले शब्दों के इस युद्ध में जजों व वकीलों का रवैया ऐसा हो जाता है जैसे वे राष्ट्र की सुरक्षा की पताका थामे हुए हैं। किसी भी तरह का विवेकवान चिन्तन इस मामले में दिखाई नहीं देता है।
हमारे चीफ जस्टिस साहब लगातार ही असहमति के अधिकार की बात करते हैं, मीडिया को नसीहतें देते हैं। वे शिकायत करते हैं कि सोशल मीडिया पर न्यायपालिका की गरिमा कम की जा रही है। वे ठीक ही कह रहे हैं। सर्वाेच्च न्यायालय की यह अदभुत अपेक्षा है कि उसकी नहीं, सिर्फ असामाजिक तत्वों की गरिमा गिराई जानी चाहिए। साहित्य जगत में काफ्का का लिखा ‘द ट्रायल’ अपूर्व कृति मानी जाती है। मुझे विजय मदनलाल चौधरी के मामले में सुनाया गया फैसला उसी कोटि का फैसला लगता है। यह आँखों में उंगली डाल कर हमें दिखाता है कि एक असामान्य समय में, हम किस तरह एकतरफा बातों के आधार पर, अस्पष्ट समझ रखने वाले कानूनविदों की कृपा पर जी रहे हैं।
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(लेखक ‘गांधी-मार्ग’ के पाठकों के सुपरिचित राजनीति विश्लेषक व गांधी-अध्येता हैं)
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 09 सितंबर 2022 को 'पंछी को परवाज चाहिए, बेकारों को काज चाहिए' (चर्चा अंक 4547) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत-बहुत धन्यवाद। बडी कृपा आपकी।
Deleteअंधेर नगरी...
ReplyDeleteविस्तृत एवं सुंदर विश्लेषण।
सोचने को प्रेरित करता विश्लेषण .
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए तथा टिप्पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। विलम्बित उत्तर के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ।
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