- डॉ. वीरेन्द्र सिंह
लोग कहते हैं: बहुत कठिन है गांधी की राह पर चलना! डॉ। वीरेन्द्र सिंह कहते हैं: बहुत आसान है यदि आप रोज-रोज उनकी तरफ चलते हैं! अपने ऐसे ही प्रयोगों की सरल डायरी लिखी है उन्होंने ‘गांधी-मार्ग’, जिसके कुछ पन्ने ‘गांधी-मार्ग’ के पाठकों के लिए धारावाहिक:
एक बार एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि उसे बीपीएल के दस्तावेज लाने के लिए दो बार गाँव जाना पड़ा। बीपीएल सेक्शन के लोग एक बार में सारे दस्तावेज माँगने के बजाय, हर बार उसे एक नया दस्तावेज लाने के लिए कह देते थे। आज उन्होंने फिर एक नये दस्तावेज की माँग कर दी है। मैंने बीपीएल सेक्शन के इंचार्ज डंगायचजी को बुलाया-‘आपने पहली बार में ही सारे दस्तावेज क्यों नहीं माँगे?’ कठोरता व खीझे से अन्दाज में वे बोले-‘सर बता दिए थे, यह रोगी भूल गया होगा। आजकल काम बहुत बढ़ गया है। इसलिए सबको बता नहीं पाते।’ उनके लहजे से स्पष्ट था कि लापरवाही हुई है। मैंने कहा, ‘यदि आप इनको दस्तावेजों की सूची लिखित में दे देते तो यह व्यक्ति 200 कि. मी. दूर गाँव दो बार जाने की तकलीफ से बच सकता था।’
‘गलती हो गई सर!’
मैंने कहा: ‘जरूरी कागजों का विवरण टाइप करवाकर रख लीजिए। भविष्य में हर व्यक्ति को वह लिखित कागज दें। इस गलती का प्रायश्चित क्या करेंगे?’
‘जो भी आप कहें।’
उन दिनों हमने लावारिस रोगियों की मदद के लिए ‘सेवा’ कार्यक्रम की शुरुआत की थी। मैंने कहा, “दो घण्टे ‘सेवा’ में लावारिस रोगी का परिजन बनसेवा कर सकेंगे आप?’
‘अवश्य।’ डंगायचजी ने कहा। जब वे सेवा करने पहुँचे तो पाया कि रोगी प्यासा है। उन्होंने उसे पानी पिलाया, बिस्किट भी खिलाए। डंगायचजी का चेहरा आत्मीयता के भाव से भरा था।
रोगी ने डंगायचजी को बताया कि वह बहुत दुखी इंसान हैं। शराब की लत के कारण पत्नी उसे छोड़ गई। माँ-बाप की मृत्यु के बाद वह नितान्त अकेला है। डंगायचजी ने उसे ढाढस बँधाया और आगे भी आकर मदद करने का भरोसा दिलाया-‘एक नयी-सी खुशी मिली सर!’
‘ऐसी ख़ुशी आपको रोजाना मिल सकती है।’
‘कैसे सर?’
“यदि हर गरीब बीपीएल रोगी की आप उसी भावना से मदद करें, जिस भावना से आपने ‘सेवा’ में ड्यूटी करते समय उस लावारिस रोगी की मदद की थी।”
‘समझ गया सर।’ हँसते हुए वे बोले।
जब भी कोई जरूरतमन्द अपने काम के लिए हम जैसे किसी सरकारी या गैर-सरकारी व्यक्ति के पास आता है तो उसके चेहरे पर अपेक्षा, मुस्कराहट और आशंकापूर्ण विश्वास के भाव होते हैं, और हम जैसे काम करने वाले व्यक्ति का चेहरा कठोरता, शक और अहंकार से भरा होता है। कुछ पाने की लालसा या बड़प्पन का अहंकार फन उठाकर खड़ा होता है। जरूरतमन्द की तकलीफ को हम अपने अहंकार के मद में भुला देते हैं। अहंकार की तुष्टि का आनन्द भी लेते हैंः ‘अरे! देखो, आया था तो बड़े अकड़ में था। तीन चक्कर लगवाए तो सारी अकड़ निकल गई।’ लावारिस रोगी की प्रायश्चित ड्यूटी डंगायचजी के लिए प्रेरणादायक बनी। भविष्य में छोटी बातों के लिए लाचार रोगियों से चक्कर लगवाने की उनकी आदत छूट गई।
जीवन में कभी-कभी मिलने वाली बड़ी खुशी से दिनचर्या में मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियाँ ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं। काम के बोझ के कारण दस्तावेजों के बारे में पूरा नहीं बताने की समस्या का समाधान निकला एक लिखित कागज, जिसमें आवश्यक दस्तावेजों का पूरा उल्लेख रहता था। सहृदयता नये रास्ते खोज लेती है।
ए/बी वार्ड में भर्ती एक रोगी का परिजन मेरे पास आया - ‘11 बज गए हैं लेकिन रोगी को इंजेक्शन नहीं लगे।’ मैंने रेजिडेण्ट डॉक्टर एवं कम्पाउण्डर को बुला भेजा। रेजिडेण्ट डॉक्टर ने कहा, ‘सर! रात को भर्ती का दिन था। पूरी रात यह काम चला। रजिस्टर में ऑर्डर लिखने का समय नहीं मिला। लेकिन मैंने कम्पाउण्डर को जबानी कह दिया था।’ कम्पाउण्डर बोला-‘सर! मैं भी पूरी रात जागकर इंजेक्शन लगा रहा था। सुबह 7 बजे धर से फोन आया कि मेरे बच्चे की तबीयत खराब है, तो घबराहट में रोगी को बिना इजेक्शन लगाए ही घर चला गया।’
‘गलती किसकी है?’
पूरी रात जागकर रोगियों को संभालने वाले रेजिडेण्ट डॉक्टर पर दया आती है। पूरी रात जागकर गम्भीर रोगियों को इंजेक्शन लगाने वाले कम्पाउण्डर व उसके बच्चे के बीमार होने पर दया आती है। तीनों एक स्वर में बोले-‘सर! हम गलत थोड़े ही कह रहे हैं।’ लेकिन दया से काम तो नहीं होता। ड्यूटी तो ड्यूटी है! आखिर मैंन इस चित्र में दिया गया 6 का
अंक लिखा और तीनों से पूछा-‘क्या लिखा है?’ ‘छह है सर।’ तीनों बोले। मैंने कहा-’नहीं यह सच नहीं है। 6 बजे की स्थिति पर बैठे मुझ जैसे व्यक्ति के लिए 6 है लेकिन 12 की स्थिति पर खड़े रेजिडेण्ट डॉक्टर के लिए 9 है, 3 बजे की जगह खड़े कम्पाउण्डर के लिए बड़ी ‘ऊ’ की मात्रा है। आप सभी सच ही बोल हैं। सभी दया के पात्र भी हैं लेकिन ड्यूटी, ड्यूटी है। अपनी लापरवाही को दया से ढकने की कोशिश न करें।’ रेजिडेण्ट और कम्पाउण्डर ने परिजन को सॉरी कहा तथा आगे अच्छे से ड्यूटी करने का भरोसा दिलाया। बतौर प्रायश्चित उन्हें कहा गया कि इस रोगी की इतनी सेवा करें कि यहाँ से जाने के बाद भी वह उन दोनों को हमेशा याद रखे।
न्यूरोलॉजी के डॉक्टर जितेन्द्र सिह एक बार इमरजेंसी में ड्यूटी पर नहीं मिले। कारण? ‘वार्ड में सीरियस रोगी का कॉल आया था।’ ‘लेकिन निश्चित जगह की ड्यूटी छोड़ना क्या उचित है?’ उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की। प्रायश्चित? न्यूरोसर्जरी में ऑनलाइन रेफरेंस को पुख्ता लागू करने की जिम्मेदारी उन्हें दी गई।
भरसक कोशिश के बावजूद हम लोग न्यूरोसर्जरी में ऑनलाइन रेफरेंस व्यवस्था को लागू नहीं कर पा रहे थे। डॉ। जितेन्द्र सिंह की कोशिश से एक सप्ताह में यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलने लग गई।
प्रायश्चित यदि कार्यस्थल की किसी कठिन योजना के क्रियान्वयन का हो तो उससे जुड़ा व्यक्ति वह काम ज्यादा अच्छी तरह से कर सकता है। यदि वह व्यक्ति क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दिल से स्वीकार करता है तो वह व्यवस्था निश्चित रूप से सफल होती है।
०० एक बार एक वरिष्ठ रेजिडेण्ट डॉक्टर ड्यूटी पर अस्पताल पहुच तो कार पार्किंग को लेकर गार्ड से कहा-सुनी हो गई। परिचय देने के बाद भी गार्ड का तेज आवाज में बोलना शोभनीय नहीं था। बात मुझ तक पहुँची। पूछा तो गार्ड ने अपनी गलती स्वीकार कर ली। प्रायश्चित के तौर पर उसने बीड़ी छोड़ने का वादा किया। मुझे पता लगा कि इस घटना के बाद गार्ड ने बीड़ी नहीं पी।
००० जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में हर महीने 80-90 लावारिस रोगी गम्भीर अवस्था में भर्ती होते हैं। इनके साथ कोई भी परिजन नहीं होता है। कई बार ऐसे लोग बहुत गन्दी स्थिति में, मल-मूत्र से सने बिस्तर पर पड़े रहते हैं।
गाँधीजी के समय लेप्रसी यानी कोढ़ की बीमारी से ग्रसित लोगों को परिवारजन लावारिस अवस्था में छोड़ जाते थे। गाँधीजी ऐसे बहुत से लोगों को अपने आश्रम में लाकर उनके घावों की मरहम-पट्टी कर सेवा करते थे। अस्पताल में लावारिस रोगियों की स्थिति देखकर मन बड़ा व्याकुल रहता था। कई बार विचार आया कि जब गाँधीजी लेप्रसी के रोगियों की सेवा कर सकते थे, तो क्यों न मैं ही अपने वार्ड के लावारिस रोगियों को स्नान कराके और उनका मल-मूत्र साफ करके इसकी शुरुआत करूँ? लेकिन मुझमें इतना साहस नहीं था और इसी कारण मैं संकोच रूपी दीवार को नहीं तोड़ सका।
एक रोज 3 डी/ई वार्ड के दौरे के समय हमारी यूनिट के डॉ. ओम नारायण मीणा ने कहा - ‘सर! क्या हम ऐसे लावारिस रोगियों के लिए कुछ नहीं कर सकते?’ मन बड़ा दुखी हुआ। सोचते-सोचते मैं अपने ऑफिस की ओर आ रहा था तभी मेरी नजर सामने से आ रहे नर्सिंग के कुछ छात्रों पर पड़ी। विचार आया कि लावारिस रोगी सेवा मानवीय संवेदना से जुड़ी है और नर्सिंग कर्मचारी सेवा की प्रतिमूर्ति माने जाते हैं। यदि लावारिस रोगियों की सेवा के साथ नर्सिंग छात्रों को जोड़ दिया जाए तो उनमें संवेदना जागृत होगी जो कि उनके पेशे की आत्मा है।
ऑफिस पहुँचते ही मैंने नर्सिंग स्कूल की प्राचार्य श्रीमती मधुरानी से बात की और 6 सितम्बर 2013 को छात्रों से बातचीत की। उन्हें बताया गया कि लावारिस रोगियों का परिजन बनकर सेवा करने के जो भी इच्छुक हों वे अपना नाम वॉलण्टियर लिस्ट में लिखवाएँ। लावारिस रोगियों हेतु शुरु किए गए इस कार्य का नाम रखा गया- सेवा ! उनका उत्साह देखते ही बनता था। आश्चर्य हुआ जब करीब 100 छात्र-छात्राओं ने अपने नाम लिखवा दिए। अब समस्या आई, इस सेवा को कोऑर्डिनट करने हेतु एक सेवाभावी चिक़ित्सक दूँढने की। उन्हीं दिनों फिजिकल रिहेबिलीटेशन के डॉ. नरेंद्र सिंह को पोस्ट करना था। पहले उनको आर.आर.सी. में पोस्ट करना चाहा तो वहाँ के सीनीयर डॉक्टरों ने कहा - ‘साहब! नरेन्द्रजी हमें सूट नहीं करेंगे, हमारे यहाँ उन्हें पोस्ट नहीं करें। उनकी कार्यशैली इस सेवा के अनुरूप नहीं है।’ जब डॉ. नरेन्द्र की इच्छानुसार नेफ्रौलॉजी में उन्हें पोस्ट करने लगा तो वहाँ के चिकित्सकों ने भी मना कर दिया। तभी यह विचार कौंधा - डॉ. नरेंद्र ‘सेवा’ के कठिन कार्य के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हो सकते हैं। डॉ. नरेन्द्र ने कुछ देर विचार करने के बाद कहा, ‘सर, मैं यह काम कर लूँगा।’ उन्होंने नर्सिंग कर्मचारी बलदेव के साथ मिलकर यह काम शुरु कर दिया।
अभियान शुरु करने के तीन दिन बाद डॉ. नरेन्द्र सिंह मेरे पास आए और बोले - “सर! ये नर्सिंग छात्र तो काम के नहीं हैं। रात को डूयूटी वाली छात्रा ने कहा कि गन्दी स्थिति में पड़े ऐसे लावारिस की सेवा तो मेरे बस की बात नहीं है। मैंने झिड़क दिया, ‘वॉलण्टियर बनने की सहमति क्यों दी थी?’ सर! इसके बाद तो लगभग सभी छात्र-छात्राओं ने अपने नाम, ‘सेवा’ से वापस ले लिये।”
मैंने डॉ. नरेंद्र सिह को समझाया, ‘इन छात्रों में कम-से-कम भावना तो है सेवा की, जबकि हममें से अधिकांश संवेदनहीन हो चुके हैं। आप इन छात्र-छात्राओं का उत्साह बढ़ाओ। जो भी परेशानियाँ आएँ, उनका समाधान निकालो। अपने आप को ऑफिसर या डॉक्टर न समझ, एक मिशनरी मानो।’ बातचीत का असर हुआ और अगले कुछ दिनों में डॉ. नरेन्द्र का मिशनरी का रूप दिखाई दिया। नर्सिंग के सभी छात्र-छात्राएँ एक बार फिर इस अभियान से जुड़ गए। शहर के कुछ समाजसेवी भी श्रीमती सुमन चौधरी के नेतृत्व में इस अभियान से जुड़े।
नर्सिंग की द्वितीय वर्ष की छात्रा की ड्यूटी 3 डी/ई वार्ड में भर्ती लावारिस महिला रोगी के पास लगी। छात्रा जब उसके पास पहुँची तो तेज बदबू आ रही थी। उसने देखा कि अर्द्धचेतन रोगी के वस्त्र मल-मूत्र में सने थे। पहले उसके मन में आया कि भाग चलूँ। वह धीरे-धीरे निकलकर वार्ड के बाहर आकर 3 डी/ई कॉरिडोर में आ भी गई तभी आत्मा से एक आवाज आई-‘क्या मेरी माँ इस रोगी की जगह होती तो उसे भी मैं छोड़ कर चली जाती?’ दिल से आवाज आई-‘नही।’ और पूजा वापस उस रोगी के बिस्तर पर आई। उसने नीचे से स्वीपर को बुलाया और उसकी मदद से रोगी के कपड़े बदले। पूरी रात सेवा करने के बाद सुबह रोगी को होश आया। सुबह हॉस्टल जाते समय पूजा को एक सुखद अनुभूति हो रही थी। सेवा या मदद करने की तीन सीढ़ियाँ होती हैं रू झिझक, सेवा करने में तकलीफ और सेवा के बाद की खुशी!
००० शाम 7 बजे फोन आया कि एक रोगी के परिजन ने एक रेजिडेण्ट को चाँटा मामर दिया। पुलिस आई और परिजन को गिरफ्तार कर ले गई। रेजिडेण्ट डॉक्टर फिर भी बहुत उत्तेजित थे। सोचने लगा- ‘कैसे टालूँ इस समस्या को?’
नया-नया अधीक्षक बना था। सोचा, ऑनकॉल डॉक्टर भेज देता हूँ। उस दिन उप-अधीक्षक डॉ. सुनित राणावत ऑनकॉल ड्यूटी पर थे। मैंने उन्हें समस्या का समाधान निकालने को कहा। आधे घण्टे में डॉ. राणावत अस्पताल पहुँच गए। करीब 9 बजे उनका फोन आया कि काफी संख्या में रेजिडेण्ट इकट्ठे हो गए हैं तथा स्थिति काबू में नहीं है। मैंने कहा, ‘मैं पहुँच रहा हूँ।’ मन में अनष्टि की आशंका व थोड़ी घबराहट के साथ मैं करीब 9ः50 बजे वहाँ पहुँचा। 50-60 रेजिडेण्ट डॉक्टर उपस्थित थे। सबको साथ लेकर मैं ऑफिस आ गया। पुलिस के एस.एच.ओ. श्री हरिराम कुमावत भी साथ ही थे।
रेजिडेण्ट चिकित्सकों ने विस्तार से घटना बतलाई। मैंने पूछा, ‘अब क्या करें?’ लिखित माफी, पुलिस केस, रेजिडेण्ट्स की माकूल सुरक्षा आदि कई सुझाव आए। अचानक मैंने कहा-‘एक तरीका यह भी हो सकता है कि मारपीट करने वाले इस परिजन की पिटाई कर इससे बदला ले लें।’ किसी रेजिडेण्ट ने मेरा समर्थन नहीं किया। तब मैंने कहा-‘कार्यवाही मुझ पर छोड़ दो।’ ‘ठीक है सर, लेकिन कार्यवाही अभी होनी चाहिए।’ रेजिडेण्ट बोले। ‘हाँ, अभी होगी कार्यवाही।’ मैंने कहा।
मैंने एस.एच.ओ. कुमावतजी से गिरफ्तार परिजन को लाने को कहा। थोड़ी देर में वह आ गया। मैंने उससे पूछा तो उसने अपनी गलती स्वीकार कर माफी माँगी। मैंने पूछा, ‘प्रायश्चित क्या करोगे?’
‘सर! गरीब रोगियों के लिए 5-10 हजार रुपये दे दूँगा।’ ‘क्या काम करते हो?’ मैंने पूछा। ‘नोएडा, दिल्ली में एक कम्पनी में मैनेजर हूँ।’ सभी रेजिडेण्ट्स ने रुपये की मदद का उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। तब मैंने पूछा-‘दोनों पक्ष मेरी बात मानोगे?’
‘यस सर।’ सभी बोले।
मैंने परिजन से कहा - ‘तुम सात दिन वार्ड में आकर दुखी रोगियों की सेवा करो या जरूरतमन्द रोगी को खून दो।’ उसने जवाब दिया, ‘सात दिन ड्यूटी छोड़ना प्राइवेट नौकरी में मुश्किल है। लेकिन मैं खून भी नहीं दूँगा।’ ‘क्यों नहीं दोगे खून?’ ‘डर लगता है सर। आज तक कभी खून नहीं दिया।’
‘क्या तुम्हें कभी खून मिला?’ “हाँ। जब पाँच साल का था तब पिताजी ने मुझे खून दिया था। ‘यदि तुम्हारे बच्चे को खून की आवश्यकता हो तो क्या तुम दोगे?’
‘हाँ, जरूर दूँगा।’
‘तब तो तुम अभी खून दे दो।’ वह मान गया और एक कैंसर पीड़ित को उसने खून दिया। इसके बाद परिजन और रेजिडेण्ट गिला-शिकवा भुलाकर गले मिले।
गलती स्वीकार करवाने में “6” का उपयोग काफी प्रभावी होता था। किसी भी विवाद का हल है-आपसी बातचीत। इसके चरण हैं: ग्लानि के साथ गलती स्वीकार करना, दोबारा नहीं करने का वादा, और प्रायश्चित। प्रायश्चित पीड़ादायक न होकर प्रेरणादायक या लाभदायक होता है तो गलती करने वाले व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन आता है। मुकाबला करने से समस्या का समाधान तो होता ही है, समाधान की खुशी भी मिलती है।
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(अगले अंक में कुछ और पन्ने)
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