गाँव जीमने बुला लिया, चूल्हे के पते नहीं

आज का अखबार देख कर चुन्नी सेठ से हुई मुलाकात याद आ गई। उनके बुलावे पर पहुँचा था। वे कस्बे के जाने-माने केटरर मंगल से बात कर रहे थे। सामने एक खुली डायरी और कुछ कागज रखे थे। वे कह रहे थे - ‘देख भई मंगल! विजय और रजत ने सब बातें तय कर ही ली हैं। लेकिन मैंने दो-तीन बातों के लिए बुलाया है। पहली - भोजन स्वादिष्ट हो। दूसरी - भोजन कम नहीं पड़े। तीसरी - सर्विस बढ़िया हो। कहीं ऐसा न हो जाए कि अन्दर सामान पड़ा रह जाए और लोग भूखे चले जाएँ। चौथी बात जिसके लिए तुझे खास बुलाया है। आजकल रसोई में रोटी बनाने का चलन है। ऐसा नहीं कि मुझे रोटी पसन्द नहीं लेकिन रोटी को लेकर जो मारा-मारी होती है वह मुझे बिलकुल पसन्द नहीं। लोग तन्दूर के सामने खाली प्लेट लिए, तरसी नजरों से देखते खड़े रहते हैं। रोटियाँ आती हैं गिनती की और लेनेवाले बीस-पचीस। लोग जिस तरह टूट कर छीना-झपटी करते हैं वह देख कर मन खट्टा हो जाता है। ऐसा तो किसी अन्न क्षेत्र में भी नहीं होता। वहाँ भी तसल्ली से रोटी मिल जाती है। वो सब मेरे यहाँ नहीं होना चाहिए। एक भी आदमी रोटी के लिए खाली प्लेट लिए खड़ा रहे तो धिक्कार है अपने को। ऐसे बुलाने से तो नहीं बुलाना अच्छा। सारा इन्तजाम और किया-कराया बेकार। तन्दूर और कारीगर का खर्चा बचाने में तुम लोग मेहमानों को भिखारी बना देते हो। तुझे भले ही आठ-दस तन्दूर लगाने पड़े, लगा लेना। दो-चार हजार रुपये ज्यादा ले लेना लेकिन मेरे यहाँ वो सीन नहीं होना। और देख! झूठ-मूठ की हाँ मत भर लेना। मैं खुद खड़ा रह कर यह सब देखूँगा। यही कहने के लिए तुझे बुलाया।’ कस्बे के फन्ने खाँओं की जबान भी जिनके सामने नहीं खुले, उनके सामने मंगल क्या बोले! नजरें और माथा झुकाए, धीमी आवाज में ‘जी बाबूजी।’ बोल कर रह गया। ‘ठीक है। अब जा।’ कह कर चुन्नी सेठ ने मेरी ओर ध्यान दिया। मुझे बैठने का इशारा किया। नजरें मंगल पर ही थीं। वह दरवाजे पर पहुँचा ही था कि चुन्नी सेठ ने हाँक लगाई - ‘भूलना मत मैंने जो कहा। एक भी मेहमान रोटी के लिए खाली प्लेट लिए खड़ा न रहे।’ मंगल ठिठका। गर्दन घुमा कर मुण्डी हिलाई और तेजी से दरवाजा पार कर गया।

‘आओ बैरागीजी! बिराजो!’ कह कर चुन्नी सेठ ने अपने सामने के कागज मेरी ओर बढ़ा दिए। ‘आपके पोते रजत का ब्याह है। दस दिसम्बर को। उसी की तैयारी है। आप बड़े लोगों के फंक्शनों में जाते रहते हो। ये लिस्टें नजर से निकाल लो। कोई कमी नहीं रह गई हो।’ इक्कीस डिग्री तापमान पर वातानुकूलित उस कमरे में मुझे पसीना आ गया। बन्दर से अदरक का स्वाद बताने को कह रहे हैं। इज्जत दे रहे हैं या परीक्षा ले रहे हैं? लेकिन जहाँ दया याचिका पर भी सुनवाई न हो वहाँ न बोलना ही समझदारी। कागज देखते हुए बोला - ‘दिसम्बर तो बहुत दूर है भैयाजी! आप बहुत जल्दी नहीं कर रहे?’ ‘कहाँ दूर है? वक्त यूँ चुटकी बजाते निकल जाता है। और जल्दी भी है तो क्या बुराई है। मकान बनाना और ब्याह रचाना - दोनों बराबर। कभी पूरे नहीं होते। कोई न कोई कमी रहती ही है। यदि वक्त हाथ में है तो तैयारियाँ बार-बार देखने में क्या हर्ज है? कमी तो रहेगी। लेकिन कमी भी कम से कम हो, यह कोशिश करने में हर्ज ही क्या है? आनेवाला भले ही घड़ी भर को आए लेकिन उसे लगना चाहिए कि अपन ने उसकी फिकर की। बाकी तो जो है सो है ही।’

कागजों में एक सूची ने मेरा ध्यानाकर्षित किया- ‘बारीक और मोटा धागा। दोनों की सुइयाँ। छोटी और बड़ी कैंचियाँ। सुतली। (सुतली पिरोने का) सुइया/सूया। टोंचा (पोकर)। आम के पत्ते।’ मैंने कहा - ‘यह सब क्या है?’ चुन्नी सेठ बोले - ‘लड़की वाले यहाँ किसी को नहीं जानते। यहाँ कहाँ, क्या है, उन्हें क्या मालूम। सब कुछ अपने को ही करना है। यह उनके लिए ही है।’ ‘लेकिन ये आम के पत्ते?’ ‘बड़े पोते की लाड़ी निमाड़ की है। पिछली बार लड़कीवालों ने आम के पत्ते अचानक माँग लिए थे। बहुत भाग दौड़ करनी पड़ी थी इन पत्तों के लिए। छोटी लाड़ी भी निमाड़ की ही है। इनको भी आम के पत्ते लगेंगे ही। इसलिए लिखे।’ मुझे जवाब मिला। जैसे-तैसे अपनी जवाबदारी निभा कर लौटा।

आज के अखबार ने मुझे विचार में डाल दिया। पाँच रुपयों के नाम मात्र मूल्य पर गरीबों को एक समय का भोजन उपलब्ध कराने के लिए शिवराज सरकार ने कोई डेड़ महीना पहले ‘दीनदयाल अन्त्योदय रसोई योजना’ शुरु की। शुरु के दिनों में सब ठीक-ठाक चला। आज ‘सरकारी रसोई बंद होने की कगार पर, 15 दिन पहले चावल, 10 दिन पहले गेहूं खत्म’ शीर्षक से चार कॉलम समाचार छपा है। समाचार के मुताबिक प्रतिदिन 270-300 लोग भोजन कर रहे हैं। सरकार ने इसकी ओर से आँखें मूँद ली है। पखवाड़ा पहले चाँवल, दस दिन पहले गेहूँ खत्म हो गए हैं। ठेकेदार बाजार भाव पर यह सब खरीद कर लोगों को भोजन करा रहा है। गैस टंकी के लिए डायरी बनी ही नहीं है। ठेकेदार रोज 1300-1500 रुपये खर्च कर गैस की कमर्शियल टंकी खरीद रहा है। ‘दीनदयाल रसोई’ की शुरुआत 7 अप्रेल को हुई। उस दिन भी गेहूँ-चाँवल ठेकेदार ने खरीदा था। आठ अप्रेल को अप्रेल-मई महीनों के लिए नगर निगम ने 17 क्विण्टल गेहूँ और 7 क्विण्टल चाँवल दिया। उसके बाद से किसी ने पलट कर नहीं देखा। न नगर निगम ने न जिला प्रशासन ने। सात आदमी काम कर रहे हैं जिनका वेतन 40 से 42 हजार रुपये है। प्रतिदिन एक (कमर्शियल) गैस टंकी लगती है। जब गेहूँ-चाँवल ही नहीं मिल रहे तो तेल, दाल, नमक की बात कौन करे। एकदम निल बटा सन्नाटा। कलेक्टर की सलाह है कि मदद के लिए ठेकेदार भी समाजसेवियों से सम्पर्क करे।

समाचार में मुझे चुन्नी सेठ नजर आ रहे थे। रसूख और हैसियतवाले आदमी हैं। एक आवाज पर काम करनेवालों की फौज खड़ी कर सकते हैं। फोन करेंगे तो कस्बे के तमाम व्यापारी मुँह-माँगा सामान पहुँचा देंगे। काम भी बहुत बड़ा नहीं है। दो दिन का जलसा है। मुख्य भोजन तो एक ही है। वक्त भी खूब है - 6 महीने। भोजन करनेवालों की संख्या भी लगभग तय है। लेकिन चुन्नी सेठ अभी से हलकान हुए जा रहे हैं। इधर सरकार है जिसे पता है कि वह रोज दो समय के भोजन का उपक्रम शुरु कर रही है। आजीवन नहीं तो 2018 के चुनावों तक तो यह उपक्रम चलना ही है। इतना सब कुछ साफ-साफ मालूम होने के बाद भी सरकार और नगर निगम की खाल पर सिहरन भी नहीं हो रही। मुख्यमन्त्री की और पार्टी की फजीहत हो रही है लेकिन पार्टी के लोगों को भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा। एक चुन्नी सेठ हैं जो लोगों को बुलाने से पहले ही दुबले हुए जा रहे हैं और इधर, चुन्नी सेठों को हाँकनेवाली सरकार है जिसने गाँव जीमने बुला लिया लेकिन चूल्हे के पते नहीं।

यह, सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी सरकारों की चिन्ता की असलियत है। बात जब भूखों का पेट भरने की हो और योजना को अपने पितृ पुरुष का नाम दे रहे हों तो जवाबदारी और चिन्ता के मामलों में इन्हें चुन्नी सेठ का सौ गुना होना चाहिए। 

क्यों नहीं हो रहे? कोई जवाबदार होता तो यह सवाल पैदा होता?
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(दैनिक 'सुबह सवेरे',भोपाल में 25 मई 2017 को प्रकाशित)

पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी -3

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  


संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों का भी वही हाल हुआ जैसा पहले प्रेस सम्बन्धी बनी समितियों, आयोगों और वेज बोर्डों की सिफारिशों का हुआ था। लिहाजा समिति ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका परिणाम 2014 के आम चुनाव में देखने को मिला। यह बात अलग है कि आशंका व्यक्त करने वाली समिति के अध्यक्ष राव इन्द्रजीत भी उसी दल की नाव पर सवार हो गए, जिस पर 2014 के चुनाव को खरीदने का आरोप लगा। यह आम चुनाव इसलिए भी यादगार रहेगा क्योंकि यह अब तक का सबसे मँहगा चुनाव साबित हुआ। अरबों रुपए का वारा-न्यारा किया गया। पूरा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह लड़ा गया। जाहिर सी बात है कि पैसा भी उसी तरह से लगाया गया। दो साल पहले अमेरिका में हुए चुनाव पर 42,000 हजार करोड़ रुपए लगे थे, वहीं भारत के इस आम चुनाव पर अनुमानतः 31,950 करोड़ रुपये लगाए गए, जिसमें अकेले भाजपा ने ही 21,300 करोड़ रुपए खर्चे हैं। शेष राशि सभी दलों ने मिलकर खर्च की। करीब 3,350 करोड़ रुपए प्रिण्ट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर न्यौछावर किए गए। एक तरह से कारपोरेट और पीआर ने मिलकर चुनाव को कैप्चर कर लिया। भारतीय राजनीति में यह नया फेनोमिना था, जिसमें सब कुछ कारपोरेट और पीआर ने तय किया। यह फेनोमिना जहाँ भारतीय पत्रकारिता की कब्र खोदने का काम कर रहा है वहीं लोकतन्त्र को तहस-नहस कर देगा। अभी तक लोकतन्त्र में जनता की भूमिका अहम मानी जाती थी, लेकिन अब एमबीए डिग्रीधारी मैनेजर ही लोकतन्त्र की नींव माने जा रहे हैं। राजनीतिक दल करोड़ों-अरबों रुपए देकर जनता का मूड बदलने के लिए उन्हें हायर कर रहे हैं। वे ऐसा मानते हैं कि ये मैनेजर जनता का मूड उनके पक्ष में कर देते हैं। लोकतन्त्र की हत्या करने वाली इस परिपाटी पर शायद ही कहीं पत्रकारिता में सवाल उठें। ऐसी पत्रकारिता देखकर गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारीय नीति याद आती है। उन्होंने 1913 में साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ निकाला था, जिसके पहले अंक में ‘प्रताप की नीति’ के बारे में बताते हुए लिखा था ‘मनुष्य की उन्नति भी सत्य की जीत के साथ बँधी है, इसलिए सत्य को दबाना हम महापाप समझेंगे और उसके प्रचार और प्रकाश को महापुण्य।.......जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें, जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का अन्त हो जाए।’ अगर गणेश शंकर विद्यार्थी की इस कसौटी पर आज की पत्रकारिता को कसा जाए तो शायद ही कोई समाचार पत्र और टीवी न्यूज चैनल खरा उतरे।

पिछले आम चुनाव में सत्ता में आने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार के शुरुआती महीनों में भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) की मीडिया स्वामित्व व उससे जुड़े मसलों पर रिपोर्ट आई। आयोग ने खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में स्वतन्त्रता और बहुलता सुनिश्चित करने के लिए समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रवेश करने वाले राजनीतिक दलों और कारपोरेट घरानों पर पाबन्दी  की सिफारिश की। न्यूज मीडिया में शेयर बँटवारे के ढाँचे, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हितों का खुलासा करने की बात कही। आन्तरिक बहुलता से निपटने के लिए आयोग ने 2008 के एक सुझाव को दोहराते हुए कहा कि राजनीतिक, सरकारी अथवा धार्मिक इकाइयों एवं उनसे जुड़े लोगों को बाहर करना चाहिए। चौथा बिन्दु-मीडिया को कम्पनियों के नियन्त्रण से मुक्त रखना होगा। पाँचवाँ-दूरदर्शन को स्वतन्त्र और निष्पक्ष ढंग से प्रसारण करने के लिए स्वायत्त बनाना होगा। छठा-प्रिण्ट और टीवी मीडिया के लिए एक ही स्वतन्त्र नियामक (इसमें अधिकतर मीडिया जगत से बाहर के प्रमुख लोगों को रखना) की स्थापना करना, जिसे पेड न्यूज व निजी समझौतों के आधार पर खबरों के प्रकाशन व सम्पादकीय स्वतन्त्रता से जुड़े मुद्दों की जाँच करने और जुर्माना लगाने का अधिकार देने की सिफारिश की है। इस स्वतन्त्र नियामक को पेड न्यूज पर सभी पक्षों की जिम्मेदारी तय करने की बात कही गई है। सातवाँ बिन्दु सम्पादकीय मण्डल में निजी समझौते, पेड न्यूज या विज्ञापन से जुड़े किसी भी हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगाना है तो आठवाँ बिन्दु राजनीतिक दलों, धार्मिक संस्थाओं, सार्वजनिक धन से चलने वाली संस्थाओं व उनकी सहायक एजेंसियों को प्रसारण और टीवी चैनल वितरण क्षेत्र में आने से रोका जाना है। साथ ही अगर किसी संगठन को पहले से मंजूरी मिली है तो उसे बाहर निकलने का विकल्प भी रखना चाहिए। लेकिन जैसी आशंका थी, मोदी सरकार ने ठीक वैसा ही किया। सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। सरकार के पास इसके सिवा दूसरा विकल्प भी नहीं था, क्योंकि जिन लोगों (कारपोरेट, पीआर और मीडिया) ने सामूहिक रूप से मोदी को यहां तक पहुँचाने में अहम किरदार निभाया हो उन पर मोदी सरकार शिकंजा कसेगी, यह उम्मीद करना बेमानी है।

गाँधी ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को दिशा देने का काम किया। जीवन के अन्तिम समय तक राजनीतिक और सामाजिक काम किए। सत्याग्रह, जुलूस से लेकर आन्दोलनों का नेतृत्व किया। इसके बावजूद उन्होंने अपनी पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा संगठन का मोहरा नहीं बनाया। वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे। उसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम के बारे में सोचते थे। सच की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे। इसके साथ ही वह पाठकों को यह अधिकार देते थे कि वे समाचार पत्र पर नजर रखें कि कहीं कोई अनुचित और झूठी खबर तो नहीं छपी है। अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है। उन्होंने यहाँ तक लिखा कि ‘सम्पादक पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए, जिसका उपयोग सम्पादक के बिगड़ने पर हो।’ ऐसा लिखते हुए गाँधी एक तरह से पत्रकारिता को चोट पहुँचाने वालों को शक की नजर से देखने की वकालत करते थे। शक करने वाली उनकी सीख का मायने आज कहीं अधिक है। मौजूदा समय के जनसंचार माध्यमों में जिस तरह से खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में पक्षपात किया जा रहा है उसे देखते हुए पाठकों और दर्शकों को हर खबर को शक की नजर से देखना होगा। उन पर आँख मूँदकर भरोसा करने के बजाय उसके आगे और पीछे के बारे में सोचना होगा। पत्रकारिता ने तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला सिद्धान्त लगभग बिसरा दिया है, लेकिन लोगों को ये जिम्मेदारी उठानी होगी कि वे पत्रकारिता में पेश किए जा रहे तथ्यों को क्रॉस चेक करें। तत्पश्चात अपनी राय बनाएँ। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनमें और एक अशिक्षित व्यक्ति में किसी तरह का अन्तर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में आप वही भाषा बोलेंगे जो समाचार पत्र बोलता है और टीवी बोलता है।
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा सन्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)



अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं।
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पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी -2

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  

पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी - 1


- अटल तिवारी -

इस तरह पत्रकारिता के लिए आपातकाल वाला दशक सबसे अधिक नुकसानदायक रहा। आपातकाल के बाद सत्ता में आने वाली जनता पार्टी सरकार के सूचना एवं प्रसारण मन्त्री लालकृष्ण आडवाणी ने अभियान चलाकर पत्रकारिता में एक खास विचारधारा के लोगों को प्रमुख पदों पर नियुक्त कराया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे समाचार पत्रों में उस खास विचारधारा के लोगों की बहुतायत हो गई। यही वजह है कि जब मण्डल के बाद कमण्डल का दौर आया तो पत्रकारिता, खासकर हिन्दी पत्रकारिता में उक्त विचारधारा वालों ने पत्रकार कम बल्कि विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता वाली भूमिका ज्यादा निभाई। दूसरी ओर उर्दू पत्रकारिता में पत्रकारों ने पत्रकार कम बल्कि मुस्लिम लीग से जुड़े होने का परिचय अधिक दिया। इन पत्रकारों ने गाँधी की उन पंक्तियों को भी याद नहीं रखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के लिए विषयों तथा शब्दावली को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूं, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता।’ राम मन्दिर-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पत्रकारिता की बात लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में भी विस्तृत रूप से कही गई है। रिपोर्ट का सार है कि पत्रकारिता ने तटस्थ रूप से काम करने के बजाय लोगों को भड़काने का काम किया। एक बात ध्यान देने वाली है कि अगर किसी खास विचारधारा के लोगों को नियुक्त किया जाता है तो उसका असर तत्काल नहीं बल्कि आने वाले समय में देखने को मिलता है। इसकी गवाही मन्दिर-मस्जिद विवाद के साथ ही मुम्बई, गुजरात से लेकर मुजफ्फरनगर दंगे तक में की जाने वाली पत्रकारिता से मिलती है। ऐसी पत्रकारिता करने वाले पत्रकार और सम्पादकों के लिए पराड़करजी की चन्द पंक्तियां फिट बैठती हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘यदि हममें योग्यता हो और यदि सचमुच हम कुछ देश सेवा करना चाहते हों तो हमें अपने पत्रों में सदा सर्व प्रकार से उच्च आदर्श को स्थान देना चाहिए। पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरणमूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रुचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।’ आज यही काम अधिकांश पत्रकारिता कर रही है। वह देश भक्ति के नाम पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को कठघरे में खड़ा कर रही है। उन्हें देशद्रोही बता रही है। अश्लील समाचारों को महत्व दे रही है। अपराधियों का महिमामण्डन कर रही है। उसे नहीं पता कि गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान प्रेस के सम्बन्ध में कहा था ‘राष्ट्रीय संस्थाओं और राष्ट्रीय नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हितों को कभी नुकसान नहीं होगा।’ इतना ही नहीं नागरिकों को किसी विचार अथवा नीतियों से असहमति जताने का अधिकार सम्विधान से मिला है। इसके बावजूद मौजूदा समय में असहमति जताने वालों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाया जा रहा है और ऐसा करने वालों को सरकार की तरफ से भी अपरोक्ष रूप से शह मिली है।

कमण्डल के दरम्यान ही लागू की जाने वाली भूमण्डलीकरण की नीतियों ने देखते ही देखते भारतीय पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य बदल दिया। समाचार पत्रों के राज्य संस्करण, जिलेवार संस्करणों में तब्दील हो गए। जिलेवार संस्करणों को भरने के लिए कुछ भी प्रकाशित किया जाने लगा। गम्भीर बातों को नजरअन्दाज करके लफंगों को महत्व दिया जाने लगा। आज स्थिति यह है कि अगर 15 से 20 लफंगे आपके बनाए बनते हैं, जो किसी भी मसले पर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद नारे लगा सकते हों, किसी के ऊपर जूता फेंक सकते हों, किसी के चेहरे पर स्याही फेंक सकते हों, पाकिस्तान को औकात बता देने वाली भाषा बोल सकते हों तो आप किसी भी समाचार पत्र के पृष्ठ पर सुशोभित हो सकते हैं। किसी भी टीवी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम में मेहमान हो सकते हैं। अचानक आपकी पूछ बढ़ जाती है। आप अपने में गौरवान्वित महसूसते हैं।

दूसरे प्रेस आयोग ने कहा था कि भारतीय भाषाओं, स्थानीय तथा अन्य छोटे और मध्यम समाचार पत्रों के विकास में योगदान देना जरूरी है। आयोग का मानना था कि ऐसा होने से पत्रकारिता में विविधता बनी रहेगी। मोनोपाली का खतरा नहीं होगा। लेकिन आयोग की इस सिफारिश पर किसी भी दल की सरकार ने तवज्जो नहीं दी। आज करीब 38 साल बाद आयोग की आशंका पूरी तरह सच साबित हो रही है। भारतीय पत्रकारिता में कुछ कारपोरेट घरानों का एकाधिकार हो चुका है। चन्द मीडिया घरानों ने पत्रकारिता के अधिकांश क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। देश के प्रिण्ट मीडिया पर 9 बड़े मीडिया घरानों का प्रभुत्व हो चुका है। यही स्थिति इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी है। मीडिया के इस बदले परिदृश्य में एक-एक घराने के कई-कई टीवी न्यूज चैनल हैं। एफएम रेडियो स्टेशन, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, वेबसाइट्स हैं। वे एक तरह के मीडिया एकाधिकार के तहत काम कर रहे हैं। यानी जिस खबर को वह चमकाना चाहते हैं वह चमकती है और जिसे मिटाना चाहते हैं वह फिर कहीं नहीं ठहरती। अगर यही हाल रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में पूरी तरह से मीडिया एकाधिकार के हालात पैदा हो जाएँगे।

इक्कीसवीं सदी की पत्रकारिता में पत्रकारिता और लोकतन्त्र को चोट पहुँचाने वाली अनेक घटनाएँ घटी हैं। इसमें सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाली पेड न्यूज की कुप्रवृत्ति का सामने आना है। पेड न्यूज मतलब पैसा देकर प्रकाशित/प्रसारित कराई जाने वाली प्रचार सामग्री, जिसमें पाठक और दर्शक को यह तक न बताया जाए कि उक्त सामग्री खबर नहीं बल्कि विज्ञापन है। पेड न्यूज की शिकायतें पहले से रही थीं, लेकिन 2009 के आम चुनाव में ये भयावह रूप में सामने आईं। इसकी भयावहता को हरियाणा की एक घटना से समझा जा सकता है। उस समय राज्य में काँग्रेस की सरकार थी।  भूपेन्द्र सिंह हुड्डा मुख्यमन्त्री थे। चुनाव के दौरान काँग्रेस के विरोधी दल की रोहतक में एक छोटी सभा थी। उसकी खबर एक समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर छपी, जिसमें सभा में शामिल लोगों की संख्या अनेक गुना बढ़ाकर बताई गई थी। मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने समाचार पत्र के मालिक को फोन किया। रैली के सम्बन्ध में प्रकाशित खबर के बारे में बात की तो जवाब मिला कि वह विज्ञापन था। जिसने पैसा दिया, उसका मजमून छप गया। समाचार पत्र के मालिक का जवाब सुनकर हुड्डा सन्न रह गए। उन्होंने पूछा कि ‘पैसा देकर क्या कोई कुछ भी छपवा सकता है?’ जवाब मिला-‘बिल्कुल, सामग्री का जिम्मा उसी का होता है।’ मैंने कहा-कल के अंक में पहला पूरा पृष्ठ हमारे लिए बुक कीजिए और एक पंक्ति बड़े-बड़े हर्फों में हमारे खर्च पर छापिए कि यह समाचार पत्र झूठा है। छापेंगे न? समाचार पत्र के मालिक बोले-आप कैसी बात कर रहे हैं?’ पेड न्यूज नामक बीमारी के शुरुआती दौर में लगा था कि इक्के-दुक्के समाचार पत्र ही इसकी गिरफ्त में हैं। मगर धीरे-धीरे ऐसी शिकायतें आम हो चलीं। देखते-देखते पेड न्यूज का सिलसिला एक ओढ़ी जाने वाली बीमारी की तरह अधिकांश समाचार पत्रों और टीवी न्यूज चैनलों को घेरता चला गया। कुछ सम्पादकों और पत्रकारों ने इसके खिलाफ अभियान चलाया। प्रेस परिषद से लेकर संसद की स्थायी समिति तक ने इसका अध्ययन किया। सभी ने पेड न्यूज को भारतीय लोकतन्त्र और पत्रकारिता के लिए खतरनाक माना।

पेड न्यूज के मामले में प्रेस परिषद की जाँच रिपोर्ट पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने मन्त्री समूह गठित किया था। समूह ने इस मसले पर विचार किया। इसके बावजूद समूह की सिफारिशों को अन्तिम रूप नहीं दिया जा सका। इतना ही नहीं यह फैसला भी लिया गया था कि पेड न्यूज सम्बन्धी मन्त्री समूह को पुनर्गठित नहीं किया जाएगा। जब भी मुद्दे को आवश्यक समझा जाए, उपयुक्त मन्त्रिमण्डल समिति/मन्त्रिमण्डल के समक्ष रखा जाएगा। इस बात पर संसद की स्थायी समिति को बताया गया चूँकि मुद्दा सम्वेदनशील है और इस पर अन्तर-मन्त्रालयी परामर्श की जरूरत है, इसलिए मन्त्रालय ने पेड न्यूज सम्बन्धी समूह को पुनर्गठित करने के लिए मन्त्रिमण्डल सचिवालय से अनुरोध किया है। इस प्रकरण पर संसद की स्थायी समिति ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, ‘सरकार इस महत्वपूर्ण नीति की पहल पर निर्णय लेने में हिचक रही है, क्योंकि इस सम्बन्ध में आम चुनाव 2009 में ध्यान में आई कमियों पर पीसीआई (भारतीय प्रेस परिषद्/प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया) द्वारा नियुक्त समिति द्वारा जुलाई 2010 में की गई सिफारिशों पर निर्णय लेने में सरकार की विफलता उजागर हुई है। अतः समिति पुरजोर सिफारिश करती है कि मन्त्रालय पीसीआई (भारतीय प्रेस परिषद्/प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया) की रिपोर्ट पर शीघ्र कार्रवाई करे।’ असल में पत्रकारिता को लेकर जितने भी नियम-कानून बने हैं, उनको मीडिया घराने ठेंगा दिखाते रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इन घरानों पर कानून लागू किए जाएँ। इसके लिए एक नियामक अधिकरण बने। यह संस्था बिना टालमटोल के मामलों में त्वरित फैसला ले। एक बात ध्यान रखी जाए कि नियामक अधिकरण की बात करते हुए हम मीडिया पर सरकारी हस्तक्षेप की वकालत नहीं कर रहे हैं। इसमें प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रमुख लोगों को रखा जाए। उन्हें विषय वस्तु की जाँच करने और गलती पर चेतावनी देने फिर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए। प्रेस परिषद की शक्तियों में इजाफा किया जाए। राव इन्द्रजीत की अध्यक्षता वाली समिति ने प्रेस परिषद की सिफारिशों पर फैसला न लेने के लिए सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर की थी। समिति ने प्रेस परिषद का पुनरुद्धार करने पर बल देते हुए मीडिया, विशेषकर मीडिया की आय के स्रोत को सूचना का अधिकार के अधीन एवं लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने की बात कही थी। सबसे अहम बात यह कि पेड न्यूज के तहत होने वाले फिजूलखर्ची को रोकने के लिए आगामी आम चुनाव से पहले ठोस कदम उठाए जाएँ। अगर इसका संज्ञान नहीं लिया गया तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में इस बीमारी के और अधिक भयावक रूप लेने की आशंका है। 
(आलेख का शेष भाग तीसरी कड़ी में)
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा न्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)





अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं।
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पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी - 1

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  


1925 में, वृन्दावन में आयोजित हिन्दी सम्पादक सम्मेलन में सभापति के हैसियत से सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने, ‘समाचार पत्रों का आदर्श’ शीर्षक से दिए गए व्याख्यान में, भविष्य में हिन्दी के समाचार पत्र के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा था: ‘पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गम्भीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायगी। यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे।’

करीब 92 साल पहले पराड़करजी के दिए गए व्याख्यान से पता चलता है कि वह पत्रकारिता की मौजूदा अनुभूतियों के साथ-साथ भविष्य में होने वाले बदलावों को भी बखूबी पहचान रहे थे। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्रों के सम्बन्ध में जब यह बात कही थी उस समय टेलीविजन पत्रकारिता का नामोनिशां नहीं था, लेकिन उनकी बात हिन्दी समाचार पत्रों के साथ-साथ आज की टेलीविजन पत्रकारिता पर भी पूरी तरह से लागू होती है। जैसा कि सब जानते हैं, भारत में पत्रकारिता की शुरुआत मुनाफा कमाने के लिए नहीं हुई थी। पत्रकारिता का उद्देश्य देश में नवजागरण लाने और उस नवजाग्रत समाज को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित करने का था। आज की तरह उस समय ऐसे व्यावसायिक पत्रकार नहीं थे, जिनका काम महज एक समाचार पत्र निकालना अथवा टीवी न्यूज चैनल चलाना होता। उस समय सभी भाषाओं के बड़े लेखकों ने समाचार पत्र निकालने अथवा उसमें सहयोग करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया था। ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी लेखनी से चेतना का प्रसार करने और बराबरी का समाज बनाने का काम किया। पहले जिस तरह लेखक ही पत्रकार और सम्पादक होते थे उसी तरह पहले के अधिकांश नेता भी पत्रकार और सम्पादक की जिम्मेदारी निभाते थे। काँग्रेस की स्थापना करने वाले करीब 70 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में पत्रकारिता से जुड़े थे। बाबूराव विष्णु पराड़कर जिस समय सक्रिय पत्रकारिता करते हुए नवजागरण लाने की दिशा में काम कर रहे थे ठीक उसी समय महात्मा गाँधी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में गाँधी की जो भूमिका रही है, हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में पराड़करजी का भी वही योगदान है। पराड़करजी जिस समाचार पत्र ‘आज’ के लम्बे समय तक सम्पादक रहे वह गाँधी की नीतियों का प्रबल पक्षधर था। गाँधी समाचार पत्रों की ताकत को पहचानते थे। उसका सदुपयोग वह दक्षिण अफ्रीका में ‘इण्डियन ओपीनियन’ नामक पत्र निकाल कर कर चुके थे। एक तरह से गाँधी एक चालाक राजनीतिज्ञ थे। यहाँ चालाक शब्द का इस्तेमाल नकारात्मक तौर पर नहीं किया जा रहा है। गाँधी को यह पता था कि उन्हें अपनी बात आम जनमानस के बीच कैसे पहुँचानी है। इसी नीति के तहत उन्होंने भारतीय राजनीति में समाचार पत्रों का देश और समाज हित में सबसे ज्यादा सदुपयोग किया। उनकी पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य जनता तक पहुँचना था। अपने इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने समाचार पत्रों को खासा महत्व दिया। उन्हें यह स्वीकारने में गुरेज भी नहीं था। अपनी इसी बेबाकी का परिचय देते हुए उन्होंने 2 जुलाई 1925 को ‘यंग इण्डिया’ में लिखा था कि ‘पत्रकारिता में मेरा क्षेत्र मात्र यहाँ तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है।’

गाँधी तकरीबन आधा दर्जन समाचार पत्रों के सम्पादन और प्रकाशन से जुड़े रहे। इसके अलावा उनका प्रयास रहता था कि उनकी लिखी और बोली बातों को देश के अन्य समाचार पत्र भी महत्व दें। इसके लिए वह जिस भी शहर की यात्रा करते थे वहाँ के समाचार पत्रों के सम्पादकों से अवश्य मिलते थे। इस मेल-मिलाप के लिए उन्हें अनेक बार घण्टों इन्तजार तक करना पड़ता था। यही नहीं, उन्हें अपने विरोधी पक्ष वाले सम्पादकों से भी मिलने में गुरेज नहीं था। एक घटना प्रयाग से प्रकाशित होने वाले ‘पायोनियर’ पत्र से जुड़ी है। जुलाई 1896 में गाँधी कलकत्ता-बम्बई मेल से राजकोट के लिए जा रहे थे। पाँच जुलाई को लगभग 11 बजे दिन में ट्रेन इलाहाबाद पहुँची, जहाँ उसका 45 मिनट का ठहराव होता था। गाँधी इस समय का सदुपयोग करना चाहते थे। इतने समय में इलाहाबाद की एक झलक लेने के साथ ही उन्हें दवा लेनी थी। दवा लेने में देर लग गई और जब गाँधी स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी चलती दिखाई दी। स्टेशन मास्टर भला था सो उसने गाँधीजी का सामान उतरवा दिया था। इस परिस्थिति में गाँधी को अब दूसरे दिन ही जाना था। एक दिन का उपयोग कैसे हो, इसके लिए गाँधी ने अंग्रेज सरकार के हिमायती पत्र ‘पायोनियर’ के सम्पादक से मिलने की सोची। गाँधी लिखते हैं ‘यहाँ के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी है, यह मैं जानता था। मुझे याद पड़ता है कि उस समय मि. चेजनी उसके सम्पादक थे। मैं तो सब पक्षों के आदमियों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिए मैंने मि. चेजनी को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। चेजनी ने बुला लिया। उन्होंने गौर से मेरी बातें सुनीं। मुझे आश्वासन दिया कि आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उस पर तुरन्त टिप्पणी करूँगा। परन्तु मैं आपको यह वचन नहीं दे सकता कि आपकी सब बातों को मैं स्वीकार कर सकूँगा।’

गाँधी पत्रकारिता में बाहरी धन लगाने को खतरनाक मानते थे। इसीलिए वह अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ और ‘यंग इण्डिया’ में विज्ञापन नहीं छापते थे। अपनी इस नीति के बारे में उनका मानना था कि विज्ञापन न छापने से उन्हें अथवा उनके पत्रों को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ बल्कि ऐसा करने से पत्रों के विचार स्वातन्त्र्य की रक्षा करने में मदद मिली। एक तरह से वह पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते थे-एक व्यावसायिक पत्रकारिता और दूसरा लोकसेवी पत्रकारिता। वह मानते थे कि पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले समाचारों और लेखों पर उस समय कितना ध्यान दिया जाता था, इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली घटना गाँधीजी से जुड़ी है, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है, ‘इण्डियन ओपीनियन में मैंने एक भी शब्द बिना बिचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध हुआ।......इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती थी।’ दूसरी घटना काँग्रेस और गाँधीजी की नीतियों के प्रबल पक्षधर ‘आज’ समाचार पत्र से जुड़ी है। बनारस से प्रकाशित ‘आज’ के मालिक शिव प्रसाद गुप्त थे और सम्पादक पराड़करजी। गुप्तजी आज के दौर के मालिकों की तरह नहीं बल्कि जानकार व्यक्ति थे। साहित्य अनुरागी थे। लेखकों और सम्पादकों का सम्मान करते थे। इसी दरम्यान उन्होंने एक लेख लिखा। पराड़करजी को देखने के लिए दिया। उन्होंने देखकर बताया कि लेख छपने योग्य नहीं है। इसे दोबारा लिखने का प्रयास करें। शिव प्रसाद गुप्त लेख दोबारा लिखकर पराड़करजी से मिलने पहुँचे। उन्होंने पढ़ा और कहा कि गुप्तजी बात बनी नहीं। गुप्तजी ने अनुरोध किया कि मेरी इच्छा है कि यह छप जाए। पराड़करजी ने सुझाव दिया कि यह विज्ञापन के रूप में छप जाएगा। और वह लेख विज्ञापन के रूप में छपा, जिसका शिव प्रसाद गुप्त ने बाकायदा भुगतान किया। इन दो घटनाओं से उस दौर की पत्रकारिता को समझा जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि उस समय की पत्रकारिता में कमियाँ नहीं थीं। उस दौर में भी पत्रकारिता के एक हिस्से पर आरोप लगे। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगा। जिस समाचार पत्र ‘मतवाला’ का बड़े सम्मान के साथ नाम लिया जाता है उसके मालिक को जेल तक जाना पड़ा। समाचार पत्रों के इस रवैये से खिन्न होकर ही भगत सिंह ने जून 1927 में ‘किरती’ पत्रिका में लिखा था ‘पत्रकारिता व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल कराते हैं। एक-दो जगह नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिये दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, पर दुख है कि इन्होंने अपना कुल कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक लड़ाई-झगड़ा करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।’

करीब 90 साल पहले लिखी भगत सिंह की बातें इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की पत्रकारिता पर एकदम सही साबित हो रही हैं। पहले और आज के समय में अन्तर केवल इतना है कि आज अज्ञानता, साम्प्रदायिकता, संकीर्णता फैलाने और साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करने के कारोबार में समाचार पत्रों से आगे टीवी न्यूज चैनल अपनी भूमिका निभा रहे हैं। जहाँ तक गाँधीजी की बात है तो वह समाचार पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सन्दर्भों में पहचानते थे। उसको लेकर सचेत रहते थे। इसी बात को केन्द्र में रखकर उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव के गाँव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है।’ वैसे पत्रकारिता में जब-जब कलम निरंकुश होती है तो उसकी भरपाई देश और समाज को करनी पड़ती है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दरम्यान जहाँ पत्रकारिता के एक हिस्से पर ही सवाल उठे थे वहीं आजादी के बाद खासकर सत्तर के दशक के बाद उसमें खासी गिरावट देखने को मिली। आपातकाल एक ऐसी घटना है, जहाँ भारतीय पत्रकारिता दो खेमों में बँटी नजर आई। एक पक्ष आपातकाल के समर्थन में खड़ा नजर आया तो दूसरा आपातकाल के विरोध में। बहुत कम लोगों ने तीसरे पक्ष यानी सन्तुलित होकर बात की। इसे दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि आपातकाल से जहाँ सत्ता का अलोकतान्त्रिक चेहरा सामने आया वहीं सेंसरशिप ने भारतीय पत्रकारिता की अवसरवादिता को सामने लाने का काम किया। इससे यह भी पता चला कि आधुनिक कही जाने वाली भारतीय पत्रकारिता ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को अलग कर लिया है। इस बदलाव का लाभ पत्रकारिता के कुलीन तबके को मिला। सत्ताधारियों और समाचार पत्र के मालिकों को यह अहसास हो गया कि सम्पादकों और पत्रकारों का आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी के साथ सम्पादकीय आचार-विचार का दोहन शुरू हो गया। पत्रकारिता में नई-नई प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं। प्रबन्धन और विज्ञापन संस्था का प्रभुत्व बढ़ने लगा तो सम्पादकीय का प्रभुत्व कमजोर होने लगा।
(आलेख का शेष भाग दूसरी और तीसरी कड़ियों में)
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा सन्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)


 अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता  पढ़ाते हैं।
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......और मैंने शेर भगा दिए

पत्रकारिता की विश्वसनीयता को लेकर जब लिख रहा था तब, लिखते-लिखते ही मुझे मेरी एक दुस्साहसभरी मूर्खता याद आ रही थी। मेरी यह मूर्खता, पत्रकारिता की विश्वसीनयता से सीधे-सीधे शायद न जुड़ती हो लेकिन मुझे यह अन्ततः जुड़ती हुई ही लगती है। 

यह 1973-74 की बात है। मैं मन्दसौर में एक दैनिक का सम्पादक था। तब, जिला स्तर के अखबार टेªडल पर छपते थे और आकाशवाणी के रात पौने नौ बजेवाले समाचार बुलेटिन के बाद अन्तिम स्वरूप ले लेते थे। तब, लेण्ड लाइन टेलिफोन ही सम्पर्क का एकमात्र साधन होता था। अपने शहर/कस्बे से बाहर बात करने के लिए ट्रंक कॉल बुक करने पड़ते थे। तब, एसटीडी सेवाएँ भी नहीं थीं।

वह तेज बरसात की रात थी। शिवना में बाढ़ आई हुई थी। आधा से अधिक मन्दसौर बाढ़ के पानी से लबालब था। निचली बस्तियाँ पानी में डूबी हुई थीं और मुख्य बाजार की मुख्य सड़कें नहरें बनी हुई थीं। उन दिनों शिवना की बाढ़ वार्षिक प्रतीक्षित घटना हुआ करती थी। लोग त्रस्त भी रहते थे और दुःख का आनन्द भी लिया करते थे। शहर की मुख्य बाजार की मुख्य सड़क, कालिदास मार्ग पर एक वर्ष मैंने भी नौका विहार किया था। जिला प्रशासन को पहले से ही मालूम रहता था कि कहाँ-कहाँ, क्या-क्या हो सकता है। उसकी तैयारी पूरी रहती थी। इसी के चलते बाढ़ से निपटने के इन्तजामों को लेकर हम अखबारवालों को जिला प्रशासन की आलोचना करने के मौके बहुत ही कम मिल पाते थे।

उस वर्ष, बरसात के उस मौसम में मन्दसौर में एक सर्कस आया हुआ था। बाढ़ ने उसके डेरे-तम्बू उखाड़ दिए थे। सर्कस में तीन या चार शेर भी थे। बाढ़ के कारण उन शेरों के भाग जाने की चर्चा पूरे मन्दसौर में फैली हुई थी। बरसात से हमारा फोन बन्द पड़ा था। नयापुरा स्थित हमारा दफ्तर बाढ़ से तनिक भी प्रभावित नहीं था किन्तु हम पूरी दुनिया से कटे हुए थे। ‘लेटेस्ट’ समाचार जानने के लिए लोग आ-जा रहे थे। मैं उनसे शेरों की खबर की ही पूछताछ कर रहा था। किसी के पास पक्की खबर नहीं थी लेकिन अपना अनुमान जताने में कोई भी देर नहीं कर रहा था। लगभग प्रत्येक कहता - ‘एँ! ये भी कोई पूछने की बात है? वो तो कभी के भाग गए होंगे।’ 

उन दिनों मैं मन्दसौर का युवतम पत्रकार का तमगा हासिल किए था। उत्साह से लबालब। हमारा अखबार नया-नया था। मैं पहली बार सम्पादन कर रहा था किन्तु इन्दौर-भोपाल के अनेक पत्रकारों से मेरा सम्पर्क हो चुका था। उनका काम करने का तरीका मैं देख चुका था। इसका मुझे अतिरिक्त लाभ मिला था। मेरे सम्वाददाताओं में मेरे प्रति अतिरिक्त विश्वास, मालिक से मिली छूट और मेरी थोड़ी-बहुत मेहनत के कारण हमारे अखबार ने लोगों के बीच हमारी उम्मीदों से अधिक विश्वसनीयता हासिल कर ली थी। हमें गर्मजोशी से हाथोंहाथ लिया जा रहा था।  ये सारी बातें मुझे, अपने प्रतियोगी अखबारों को पछाड़ने की उद्दाम भावना के अधीन लोगों के अनुमान को अन्तिम सच मानने को उकसाए जा रही थी। पत्रकारिता (और बाद में बीमा में भी) मेरे गुरु (अब स्वर्गीय) श्री हेमेन्द्र त्यागी मेरे दफ्तर में ही बैठे थे। उन दिनों वे ‘नव-भारत’ का काम देख रहे थे। साहित्य, इतिहास और पुरातत्व में उनका बड़ा दखल था। वे जानकारियों और सन्दर्भों के भण्डार थे। मन्दसौर ही नहीं, पूरे जिले में उनका बड़ा दबदबा था। वे ‘घुमा कर’ बात करते थे। पत्रकारवार्ताओं में उनके सवाल सामनेवाले पर धोबी पछाड़ जैसा असर करते थे। वे मुझ पर बराबर नजर गड़ाए हुए थे। सर्कस के शेरों को लेकर जैसे ही कोई आगन्तुक अपना अनुमान जताता, बुलेट की तरह त्यागीजी का सवाल आता - ‘अन्दाज से कह रहे हो या तुमने भागे हुए शेरों को देखा या सर्कस के मालिक से बात की है?’ जवाब देनेवाले की मानो घिघ्घी बँध जाती। घुटी-घुटी आवाज आती - ‘अन्दाज से कहा।’ त्यागीजी कहते तो कुछ नहीं लेकिन जिन नजरों से सामनेवाले को देखते, वह उनकी ताब नहीं झेल पाता। वह जल्दी से जल्दी जाने की जुगत भिड़ाने लगता।

रात के नौ बज चुके थे। शेरों के भाग जाने की प्रतीक्षामय अपेक्षा में मैंने पहला पेज रोक रखा था। कम्पोजिटर चाह कर भी नहीं जा पा रहे थे। उनकी पूरी बस्ती पानी में डूबी हुई थी। उन्हें सुबह तक प्रेस में ही रुकना था। सवा नौ बजते-बजते मेरा धीरज उबलने लगा। अचानक ही एक सन्देशवाहक आया। वह त्यागीजी के लिए सन्देश लेकर आया था। उन्हें तत्काल ही घर के लिए रवाना होना पड़ा। लेकिन जाने से पहले, किसी कड़क थानेदार की तरह मुझे हिदायत दे गए - ‘मैं जानता हूँ, तू शेरों को भगाने के लिए उतावला बैठा है। तेरे पास काई अधिकृत खबर नहीं है। पीआरओ या कलेक्टर या एसपी से तेरी बात नहीं हुई है। आनेवाले सबसे मैंने तेरे सामने ही पूछा है। एक ने भी ने भी शेरों के भागने की खातरी नहीं की है। मैं जा रहा हूँ। तू शेर भगा मत देना। बहुत ही नाजुक मामला है। जिला प्रशासन पहले से ही परेशान है। शेरों के भागने की खबर से लोगों में दहशत फैलेगी और भगदड़ मच सकती है। किसी भी कीमत पर शेरों का भगाना मत।’

और त्यागीजी चले गए। उनकी हिदायत मुझे बिलकुल ही अच्छी नहीं लगी। मेरा मन उसे मानने को तैयार ही नहीं था। साढ़े नौ बजते-बजते मुख्य कम्पोजीटर रमेश बोला - ‘बैरागीजी! हमें तो रात भर यहीं रहना है। लेकिन बाकी लोगों को तो घर जाना है! अखबार कब छपेगा और कब बाहर जाएगा? जो भी करना हो, करो।’ दफ्तर में अब मैं ही मैं था। मालिक तो वैसे भी नहीं रहते थे। जो भी थे, मेरा कहा माननेवाले ही थे। उत्साह के अतिरेक मैंने जोखिम लेने का फैसला किया। शेरों के भागने का समाचार लिखा और रमेश को थमाया। रमेश ने अविश्वास और हैरतभरी नजरों से मुझे देखा और निराशाजनक स्वरों में बोला - ‘तो अपन शेर भगा रहे हैं?’ मैंने अनुभवी पत्रकार और सम्पादकीय रुतबे से कहा - ‘हाँ। अपन ने भगा दिए। अपन ने क्या भगा दिए, वे सच्ची में भाग गए।’

अखबार छपा। यूँ तो मैं देर से उठता हूँ किन्तु उस दिन जल्दी उठ गया। बाढ़ का पानी लगभग रात जैसा ही बना हुआ था। सरकारी मदद से कोतवाली पहुँचा। मैं गर्वोन्मत्त, इतराया हुआ था। लेकिन कोतवाली पहुँचते ही वहाँ मौजूद तमाम सरकारी अधिकारी मुझ पर टूट पड़े। पिटाई के अलावा बाकी सब मेरे साथ हुआ। मैं वहाँ से भाग जाना चाहता था लेकिन चारों ओर पानी ही पानी। जाने के लिए सरकारी मदद चाहिए और सारे के सारे मुझसे नाराज। बिना चाय-पानी, ग्यारह बज गए। त्यागीजी भी वहाँ पहुँच गए। मुझे देखते ही उनकी आँखों से मानो लपटें उठने लगी। मैंने प्रणाम किया तो मेरे दोनों हाथ झटक कर अन्दर चले गए। उसके बाद कोई सप्ताह भर तक मुझसे बात ही नहीं की। वह समय मेरे लिए अत्यधिक पीड़ादायक रहा। लेकिन कहता भी तो किससे कहता और क्या कहता?

मेरी खूब जग-हँसाई हुई। जो प्रतियोगी पत्रकार मेरा लिहाज पालते थे, सबको ख्ुालकर खेलने का मौका मिल गया। मेरी दशा यह कि घर में रुक नहीं सकता और बाहर कहीं बैठने की हिम्मत ही न हो। कोई एक पखवाड़े बाद त्यागीजी ने मेरी ओर देखा। मेरी पीठ पर खूब घूँसे मारे। उसके बाद दिन में जब भी पहली बार मिलते या फोन पर बात होती तो पहला सवाल करते - ‘आज कितने शेर भगाए?’ जवाब में मुझे रोना-रोना आ जाता।

तब संचार साधन बहुत सीमित थे। इसलिए, हमारे अखबार के पाठकीय क्षेत्र के बाहर बात बहुत ही धीरे-धीरे लोगों तक पहुँची। मेरी तकदीर अच्छी रही कि पुरानी हो जाने के कारण कहीं भी ज्यादा देर नहीं टिकी। 

किन्तु आदमी अपनी मूर्खताएँ कभी नहीं भूलता। भूल ही नहीं सकता। उसे डर लगा रहता है - कोई पुराना जानकार उस मूर्खता को उजागर न कर दे। और वैसा होता ही होता है। आज भी, जब उन दिनों के साथी-संगाती मिल जाते हैं तो कोई न कोई तो मजे ले ही लेता है - ‘अच्छा हुआ रे! जो तूने पत्रकारिता छोड़ दी। वर्ना जाने कहाँ-कहाँ जाने कितने शेर भगाता रहता।’  

समझदार लोग अपनी मूर्खताओं से अकल लेते हैं। अधिक समझदार वे होते हैं जो दूसरे की मूर्खता से अकल लेते हैं। आपके लिए यह बहुत ही बढ़िया मौका है।
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पहली बार सुना ऐसा इंकार

‘हलो!’

‘हलो।’

‘प्रियम्वदजी बोल रहे हैं?’

‘जी हाँ! मैं प्रियम्वद बोल रहा हूँ।’

‘नमस्कार प्रियम्वदजी। मैं रतलाम से विष्णु बैरागी बोल रहा हूँ।’

‘ओह! विष्णुजी! नमस्कार! नमस्कार!! कहिए!

‘आप मुझे अकार 46 की कितनी प्रतियाँ उपलब्ध करा सकते हैं?’

‘आप कहें उतनी। लेकिन आपको क्यों चाहिए?’

‘अपने कुछ मित्रों को भेंट देने के लिए। दरअसल इस अंक में अटल तिवारी का लेख मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं उसे, पत्रकारिता से जुड़े अपने कुछ मित्रों को पढ़वाना चाहता हूँ।’

‘माफ करें विष्णुजी। अकार मुफ्त वितरण के लिए नहीं है।’

‘मुफ्त नहीं। प्रतियों का मूल्य मैं चुकाऊँगा।’

‘जी। आप चुकाएँगे। वे नहीं, जिन तक यह पहुँचेगा। आप जिसे भी भेजना चाहते हैं, उन्हें अकार का अता-पता दे दीजिए। लेख के बारे में उन्हें बता कर अकार की सिफारिश कर दीजिए और अंक का मूल्य भेजने के लिए कह दीजिए। हम डाक खर्च लिए बिना उन्हें अंक उन्हें भेज देंगे।’

‘भुगतान वे करें या मैं करूँ, आपको क्या फर्क पड़ता है? आपको तो आपके पैसे मिल रहे हैं!’

‘जी। हमें तो हमारे पैसे मिल रहे हैं लेकिन आप उन्हें जबरिया पढ़ा रहे हैं, वह भी मुफ्त में। हम इसके खिलाफ हैं।’

‘मुझे थोड़ी अजीब लग रही है आपकी बात।’

‘सही कहा आपने। अजीब लग ही रही होगी क्योंकि ऐसी बात सामान्यतः कोई सम्पादक-प्रकाशक नहीं करता। आप जिसे भी अकार का यह अंक भेजना चाह रहे हैं वे कितने भी गरीब हों लेकिन इतने भी नहीं कि पचास रुपये भी खर्च न कर सकें। हमारे (हिन्दीवाले) लोग, घर से निकल कर, दुकान पर जाकर, दो हजार का जूता खरीद लेते हैं लेकिन हिन्दी की किसी किताब या पत्रिका के लिए घर से निकल कर पोस्ट ऑफिस/बैंक जाकर पचास रुपये चुकाने को तैयार नहीं। हम इस मानसिकता से न तो सहमत हैं न ही इसे बढ़ावा देते हैं।’

‘..............’

‘हलो! विष्णुजी! सुन रहे हैं?’

‘जी। सुन रहा हूँ।’

‘पता नहीं आपने ध्यान दिया या नहीं, अकार बिना विज्ञापन के छप रहा है। आसान नहीं है ऐसा करना। हम करने की कोशिश में लगे हुए हैं। हम इसे लेखकों, पाठकों का प्रकाशन बनाना चाहते हैं। हम तो इसे इनका को-आपरेटिव बनाना चाहते हैं। उनका सहकारी स्वामित्व चाहते हैं। अकार के प्रत्येक अंक में अकार के बैंक खाते के ब्यौरे दिए रहते हैं। हमें सहयोग राशि भी चाहिए और कीमत चुका कर पढ़नेवाले भी। इसलिए विष्णुजी! क्षमा करें! इस अंक की प्रतियाँ तो हैं  किन्तु आपको नहीं भेजेंगे।’

‘ठीक है।’

यह ‘ठीक है।’ कहते समय मेरी आवाज में रंच मात्र भी निराशा या गुस्सा नहीं था। ताजगी अनुभव की मैंने अपनी आवाज में। जब से सूझ-समझ (अब, वह जैसी भी है) आई है तब से पहली बार ऐसा इंकार सुना। यह इंकार, हिन्दी के आकाश में गूँजे, गरजे। इस इंकार को समूचा हिन्दी समुदाय बाहुपाश में ले। इस तरह कि छूट न पाए। वहीं कैद रह जाए ताकि फिर किसी प्रियम्वद को ऐसा इंकार उच्चारित करने का अवसर नहीं मिले। जितने लिखने, छपनेवाले हों उसके सौ-हजार गुना खरीद कर पढ़नेवाले हों।

‘अकार’ के सम्पर्क ब्यौरे - अकार प्रकाशन,           
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(जिन मित्रों को अकार का यह अंक भेजना चाह रहा था, उन सबको अब इस ब्लॉग पोस्ट की लिंक भेज रहा हूँ।)

पत्रकारिता: विश्वसनीयता की जगह विज्ञापन

एक मई को पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा में घुस कर भारतीय सेना के नायक सुबेदार परमजीति सिंह और सीमा सुरक्षा बल के प्रेम सागर की हत्या कर दी। दोनों के शवों के साथ बर्बरता भी बरती। देश उद्वेलित था कि कुछ समाचार चेनलों ने समाचार दिया कि जवाब में भारतीय सेना ने दो पाकिस्तानी चौकियाँ ध्वस्त कर दीं और सात पाकिस्तानी जवानों को मार गिराया। आक्रामक तेवरों के कारण विशिष्ट पहचान बनानेवाले, सत्तारूढ़ भाजपा के आधिकारिक प्रवक्ता सम्बित पात्रा ने एक शहीद की विधवा पत्नी को ये सूचनाएँ, गर्वपूर्वक देकर तसल्ली दी। लोगों ने सन्तोष और राहत अनुभव की। किन्तु जल्दी ही यह तसल्ली छिन गई। सेना की उत्तरी कमान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि सेना ने बदले की कोई कार्रवाई नहीं की है। चैनलें अपनी मर्जी से समाचार दिखा रही हैं। सेना जब बदला लेगी, तब आधिकारिक रूप से बयान जारी किया जाएगा। यह चौंकानेवाला, हताशाजनक समाचार था। लेकिन एक भी समाचर चैनल ने इस गलत प्रसारण के लिए न माफी माँगी न खेद प्रकट किया। सेना को अपनी विश्वसनीयता की चिन्ता हुई। वहाँ से प्रतिवाद किया गया। लेकिन समाचार चेनलों को अपनी विश्वसनीयता की चिन्ता हुई हो, ऐसा नहीं लगा।

चैनलों को यह समाचार अपने सम्वाददाता से नहीं,  किसी व्यक्ति या संस्था से मिला था जो ‘जिम्मेदार और विश्वसनीय’ ही नहीं इस हैसियतवाला भी रहा होगा जिसे झूठा कहने का साहस कोई नहीं जुटा सका। किन्तु सामान्य समझवाला व्यक्ति भी जान गया कि किसके कहने से यह समाचार प्रसारित हुआ और क्यों एक भी चेनल उसका नाम नहीं बता पाया। भाग्यशाली हैं वे चेनल जो जग-हँसाई, भयभीत और आतंकित होने से बच गए।

हमें आठवीं कक्षा में समझाया गया था - यदि धन खोया तो कुछ नहीं खोया। स्वाथ्य खोया तो कुछ खोया। किन्तु चरित्र खोया तोे सब कुछ खो दो दिया। पत्रकारिता के सन्दर्भों में ‘विश्वसनीयता’ ही यह चरित्र होता है। 

मुझे इन्दौर से दैनिक भास्कर का शुरुआती समय याद आ रहा है। तब ‘नईदुनिया’ का एक छत्र दबदबा था। समाचारों की विश्वसनीयता, रिपोर्टिंग पर मैदानी सम्वाददाताओं द्वारा किया जानेवाला परिश्रम उसकी विशिष्ट पहचान था। तथ्यात्मकता के प्रति उसकी सावधानी का नमूना यह कि सरदार स्वर्ण सिंह जब विदेश मन्त्री बने तो उन्हें ‘स्वर्ण सिंह’ लिखा जाए या ‘स्वरन सिंह’, इस पर बहुत दिनों तक मन्थन होता रहा क्यों कि वे हिन्दी में अपने हस्ताक्षर ‘स्वरन सिंह’ करते थे। विश्वसनीयता यह कि अपने ही अखबार में छपे समाचार की तसल्ली करने के लिए भास्कर के लोग नईदुनिया देखा करते थे।

लेकिन समय काफी कुछ बदल ही देता है। अपवादों को छोड़ दें तो आज प्रायः हर अखबार/चौनल चारण की तरह बिरदाविलयाँ गा रहा है, भाट की तरह ‘अन्नदाता यजमान’ की वंश-वृक्षावली बाँच रहा है। ‘विश्वसनीयता’ की जगह विज्ञापन’ ने ले ली है। कस्बाई स्तर पर काम कर रहे, एक विज्ञापन एजेन्सी का प्रभारी आश्वस्ति देता है - ‘आप जो चाहेंगे, छप जाएगा। जो चाहेंगे, रुक जाएगा।’

पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ पुकारा जाता है। किन्तु शायद ही किसी को मालूम हो कि आधिकारिक रूप से लोकतन्त्र के तीन ही स्तम्भ उल्लेखित किए गए हैं - विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका। लेकिन ‘लोक स्वीकार’ ने इसे चौथा स्तम्भ बना दिया। विधायी सदनों में प्रतिपक्ष के जरिए लोगों की बात जाहिर होती है। लेकिन जब प्रतिपक्ष भी सत्ता पक्ष से मिल जाए तो? तब यह चौथा खम्भा ही जनता की आवाज बनता है। इसीलिए जनहितरक्षण की दृष्टि से पत्रकार सदैव ही प्रतिपक्ष में अपेक्षित रहता है - जो सरकार पर भी अंकुश लगाए और प्रतिपक्ष पर भी। लालच, स्वार्थ ने हमें आत्म-केन्द्रित बना दिया है। इस स्खलन से कोई नहीं बचा है। बच भी कैसे सकता है? जब तालाब का पानी उतरता है तो चारों दिशाओं में समान रूप से उतरता है। कोई इस स्खलन से नहीं बचा है। सब इसी दुनिया, इसी समाज के जीव हैं। इसके बावजूद समाज को हर समय तीन खेमों से उम्मीद बनी रहती है - न्यायपालिका, अध्यापक और पत्रकारिता। 

ऐसे में पत्रकारिता की विश्वसनीयता भंग होना हम सबकी चिन्ता होनी चाहिए। कभी पत्रकार को आदर से देखा जाता था। उसे अपनी पहचान जताने की आवश्यकता कभी नहीं होती थी। आज स्थिति उलट गई लगती है। आज तो पत्रकार जगत ही पत्रकारों से त्रस्त, क्षुब्ध है। वाहनों पर, लिखे ‘प्रेस’ पर लोगों का व्यवहार ‘इससे बचो’ जैसा होता है। यह मर्मान्तक पीड़ादायक है कि पत्रकारिता की जितनी निन्दा और भर्त्सना हमारे इस समय में हो रही है उतनी अब तक कभी नहीं हुई। लेकिन इसके लिए किसी और को दोष कैसे दिया जाए? पेटलावद विस्फोट काण्ड के दिनों में छाए अखबारी बवण्डर पर एक नेता ने अत्यन्त विश्वासपूर्वक कहा था - ‘आप जिन्हें वॉच डाग कह रहे हैं ना! देखना वे सबके सब जल्दी ही पूँछ हिलाते नजर आएँगे।’ ऐसा हुआ या नहीं, इस पर बहस हो सकती है किन्तु कोई नेता विश्वासपूर्वक ऐसा कहने की हिम्मत करता है, यही क्या कम चिन्ताजनक नहीं है?

पत्रकारों की व्यक्तिगत विचारधारा तब भी होती थी किन्तु तब वे ‘काँग्रेसी पत्रकार’, ‘जनसंघी पत्रकार’, ‘समाजवादी पत्रकार’ होते थे, ‘काँग्रेस के पत्रकार’, ‘जनसंघ के पत्रकार’, ‘समाजवादी पार्टी के पत्रकार’ नहीं। पत्रकारिता की विश्वसनीयता, शुचिता और सार्वजनिक प्रतिष्ठा की चिन्ता सब समान रूप से करते थे। 1975-76 में मैं, भोपाल में, अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ में नौकरी करता था। वहाँ हसनात सिद्दीकी काँग्रेसी,  यशवन्तजी अरगरे और संगीतजी संघी/जनसंघी और गोविन्दजी तोमर समाजवादी के रूप में चिह्नित किए जाते थे। किन्तु इनमें से किसी के भी कारण ‘हितवाद’ की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर कभी खरोंच नहीं आई। जो भी अखबार या व्यक्ति, पत्रकारिता के इन बुनियादी तत्वों से दूर हुआ, उसे दुर्दिन ही झेलने पड़े। नेशनल हेरॉल्ड की दशा हमारे सामने है। भाजपा का मुख-पत्र बने हुए,  एक अखबार को उसके अंश धारक भी नहीं खरीद रहे। 

पत्रकारों की स्थिति का अनुमान मैं भली प्रकार कर सकता हूँ। अखबारों, मीडिया घरानों के मालिक जब पूँजीपति हो तो पत्रकार भला पत्रकारिता कैसे कर सकते हैं? कर ही नहीं सकते। उन्हें नौकरी कर, अपने बाल-बच्चे पालने हैं। लेकिन पत्रकारिता की विश्वसनीयता का संकट इन्हें ही झेलना पड़ रहा है। लोग इनसे उम्मीद करते हैं कि ये सच लिखें लेकिन मालिक कहता है - सच कहने से बचने का विश्वसनीय तरीका निकालो। मैं भी कभी पत्रकार रहा हूँ। मैं इनमें खुद को देखता हूँ। जवाब इन्हें ही देना पड़ता होगा। ये क्या कहते होंगे? डॉक्टर बशीर बद्र साहब का यह शेर इनके काम आता होगा -

किसने जलाई बस्तियाँ, बाजार क्यों लुटे
मैं चाँद पर गया था, मुझे कुछ पता नहीं

समय कभी थमता नहीं। इसीलिए, वक्त तो बदलेगा ही। इलेक्ट्रानिक मीडिया के शुरुआती दिनों में प्रभाषजी जोशी रतलाम आए थे। चिन्तित युवा पत्रकारों से  उन्होंने कहा था - ‘तेज बहाववाली नदी में, बीच में खड़े हो। अपनी अंगुलियाँ, पूरी ताकत से रेत में गड़ाए रखो। बहाव स्थायी नहीं है। निकल जाएगा। बस! तुम बहने से बचो।’

पूँजी का यह हमला मारक है। सरकारी प्रश्रय इसे पल-पल बढ़ा रहा है। गंगा हिमालय से निकलती है लेकिन बाढ़ मैदानों में आती है। बचाव के रास्ते मैदानवालों को ही तलाशने पड़ेंगे। जूझना कायम रखिए। थकिए नहीं। बुरा से बुरा आदमी भी अच्छे दोस्त चाहता है। निष्पक्ष और विश्वसनीय पत्रकारिता की आवश्यकता देश-समाज को हर दौर में रही है, रहती ही है। जब आपातकाल में रास्ते तलाश लिए थे तो अब भी तलाश ही लेंगे। 

हर रात की सुबह होती है। शम्मा जलाए रखिए। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे, भोपाल में दिनांक 18/05/2017 को प्रकाशित)

असहमति में बसते हैं लोकतन्त्र के प्राण

एक थे रमेश दुबे। शाजापुर के विधायक थे। 1967 में भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चुने गए थे किन्तु बाद में, तत्कालीन मुख्य मन्त्री द्वारकाप्रसादजी मिश्र के प्रभाव से काँग्रेस में आ गए थे। यह किस्सा उन्होंने मुझे तो नहीं सुनाया था किन्तु जिस जमावड़े में सुनाया था, उसमें मैं भी मौजूद था।

बात आपातकाल की थी।  अखबारों पर सेंसरशिप लागू थी। तत्कालीन काँग्रेसाध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने ‘इन्दिरा ही भारत और भारत ही इन्दिरा’ (इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा) का नारा देकर अपनी अलग पहचान बनाई हुई थी। काँग्रेस का सिण्डिकेट जिस इन्दिरा गाँधी को ‘गूँगी गुड़िया’ कह कर कठपुतली की तरह नचाने के मंसूबे बाँधे हुए था वही इन्दिरा गाँधी सबको तिगनी का नाच नचा रही थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ‘दूसरी आजादी’ का उद्घोष कर चुके थे। पूरा देश उनके पीछे चल रहा था। जेपी समेत तमाम जेपी समर्थक काँग्रेसियों सहित विरोधी दलों के नेता जेलों में बन्द किए जा चुके थे। सेंसरशिप के बावजूद चुप न रहनेवाले पत्रकार भी कैद किए जा रहे थे। इन्दिरा गाँधी दहशत का पर्याय बन चुकी थी। किन्तु इन्दिरा खेमे में जेपी के नाम की दहशत थी। उन्हें खलनायक बनाने के उपक्रम शुरु हो चुके थे। इन्हीं में से एक उपक्रम था - फासिस्ट विरोधी सम्मेलन। गाँव-गाँव में ऐसे सम्मेलन आयोजित किए जा रहे थे। काँग्रेसी इन्हें ‘फासिस्ट सम्मेलन’ कहते थे। 

ऐसे ही एक सम्मेलन में तत्कालीन मुख्य मन्त्री प्रकाशचन्द्रजी सेठी ने जेपी को चुनौती दे दी - ‘मध्य प्रदेश में कहीं से विधान सभा  चुनाव जीतकर बता दें।’ उनका कहना था कि दुबेजी उठ खड़े हुए और बोले - ‘ओ साब! बस करो। आज ये कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसा कहने की भूल मत करना। हमारे गाँवों में पंचायतों के ऐसे वार्ड भी हैं जहाँ इन्दिराजी भी नहीं जीत सकती। किसी सड़कछाप आदमी  ने इन्दिराजी को ऐसी चुनौती दे दी तो, आप तो चले जाओगे लेकिन हम लोगों को लेने के देने पड़ जाएँगे। बोलती बन्द हो जाएगी। जवाब देते नहीं बनेगा।’ सेठीजी अपनी सख्ती के कारण अलग से पहचाने जाते थे। लेकिन कुछ नहीं बोले। अपना भाषण खत्म किया और बैठ गए। यह चुनौती उन्होंने कहीं नहीं दुहराई। 

बिलकुल ऐसा का ऐसा तो नहीं लेकिन मूल विचार में ऐसा ही किस्सा बैतूलवाले राधाकृष्णजी गर्ग वकील साहब ने सुनाया था। गर्ग साहब काँग्रेस के जुझारू मैदानी कार्यकर्ता रहे। यह किस्सा भी 1967 के विधान सभा चुनावों का है। उन्हें पूरा भरोसा था कि काँग्रेस की उम्मीदवारी उन्हें ही मिलेगी। उनकी तैयारी और भागदौड़ भी तदनुसार ही थी। किन्तु निजी नापसन्दगी के कारण द्वारकाप्रसादजी मिश्र ने किसी और को उम्मीदवारी दे दी। गर्ग साहब ने आपा नहीं खोया। सीधे जाकर मिश्रजी से मिले और बोले - ‘दादा! आपने मेरा टिकिट काट दिया। कोई बात नहीं। किन्तु मैं यह कहने आया हूँ कि मैं चुनाव लडूँगा और काँग्रेसी उम्मीदवार बन कर लडूँगा। मैं यही कहूँगा कि नाराजगी के कारण मिश्रजी ने भले ही मुझे उम्मीदवार नहीं बनाया किन्तु असली काँग्रेसी उम्मीदवार मैं ही हूँ। आज निर्दलीय लड़ने का मजबूर कर दिया गया हूँ लेकिन जीतने के बाद काँग्रेस में ही जाऊँगा। आपसे एक ही निवेदन है कि प्रचार के लिए आप मेरे विधान सभा क्षेत्र में मत आना। वहाँ आपके बनाए काँग्रेसी उम्मीदवार की हार तय है। आप प्रचार पर आओगे तो लोग इसे आपकी हार कहेंगे। यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा। आपने भले ही मुझे टिकिट नहीं दिया लेकिन मेरे नेता तो आप ही हो।’ मिश्रजी चुपचाप सुनते रहे। कुछ नहीं बोले।

अपनी बात कह कर गर्ग साहब लौट आए और काम पर लग गए। मिश्रजी ने गर्ग साहब का कहा माना। बैतूल क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। हुआ वही जो गर्ग साहब घोषित करके आए थे। काँग्रेसी उम्मीदवार को पोलिंग एजेण्ट नहीं मिले। गर्ग साहब अच्छे-भले बहुमत से जीते। वे ‘निर्दलीय’ के रूप में विधान सभा में पहुँचे लेकिन लोगों ने उन्हें काँग्रेसी विधायकों के बीच ही पाया। 

ये किस्से यूँ ही याद नहीं आए। गए दिनों प्रधानमन्त्री मोदी ने भाजपाई सांसदों को कुछ भी पूछताछ न करते हुए, चुपचाप, हनुमान की तरह दास-भाव से काम करने की सलाह दी। वही देख/पढ़कर मुझे दुबेजी और गर्ग साहब याद आ गए। दोनों ने अपने-अपने नेता को अनुचित पर टोका और टोकने के बाद भी निष्ठापूर्वक अपनी-अपनी जगह बने रहे। इसके समानान्तर यह भी उल्लेखनीय कि दोनों नेताओं ने इनकी बातों की न तो अनुसनी, अनदेखी की न ही इनकी बातों का बुरा माना। ये दोनों अपने नेताओं से असहमत थे लेकिन नेताओं ने इनकी असहमति को ससम्मान सुना और परिणाम आने से पहले ही स्वीकार किया। 

देश हो या दल, लोकतन्त्र के प्राण तो असहमति को सुनने और संरक्षण देने में ही बसते हैं। अंग्रेजी का ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ इन्दिरा गाँधी को ‘अ.भा. काँग्रेस समिति की एकमात्र पुरुष सदस्य’ (ओनली मेल मेम्बर ऑफ एआईसीसी) लिखता था। जिस पर इन्दिरा गाँधी की आँख टेड़ी हो जाती, उसका राजनीतिक जीवन समाप्त मान लिया जाता था। उन्हीं इन्दिरा गाँधी की इच्छा के विपरीत युवा तुर्क चन्द्रशेखर  काँग्रस समिति का चुनाव लड़े भी और जीते भी। लेकिन काई अनुशासनात्मक कार्रवाई करना तो दूर रहा, इन्दिरा गाँधी ने सार्वजनिक रूप से अप्रसन्नता भी नहीं जताई। ऐसा ही एक और मौका आया था जब जतिनप्रसाद चुनाव लड़े थे। वे हार गए थे किन्तु इन्दिरा गाँधी ने तब भी कोई कार्रवाई नहीं की थी। 

लेकिन कालान्तर में इन्दिरा गाँधी ने, पार्टी अध्यक्ष और प्रधान मन्त्री पद पर एक ही व्यक्ति रखने की शुरुआत कर काँग्रेस का आन्तरिक लोकतन्त्र खत्म कर दिया। काँग्रेस के क्षय का प्रारम्भ बिन्दु आज भी यही निर्णय माना जाता है। 

समाजवादी आन्दोलन का तो आधार ही असहमति रहा है। समाजवादियों से अधिक वैचारिक सजग-सावधान लोग अन्य किसी दल में कभी नहीं रहे। समाजवादियों की तो पहचान ही ‘नौ कनौजिए, तेरह चूल्हे’ बनी रही। एक समाजवादी सौ सत्ताधारियों पर भारी पड़ता था। संसद की तमाम प्रमुख बहसें आज भी समाजवादियों के ही नाम लिखी हुई हैं। समाजवादियों के कारण ही सत्ता निरंकुश नहीं हो सकी। किन्तु समाजवादियों का सत्ता में आना हमारे लोकतन्त्र की सर्वाधिक भीषण दुर्घटना रही। 

जहाँ तक संघ (भाजपा) का सवाल है, वहाँ तो आन्तरिक लोकतन्त्र की कल्पना करना ही नासमझी है। वहाँ तो ‘एकानुवर्तित नेतृत्व’ की अवधारणा ही एकमात्र घोषित आधार है। ऐसे में मोदी का, अपने सांसदों को चुप रहने की सलाह देना ही चकित करता है। याने, लोग बोलने लगे थे! यह तो संघ की रीत नहीं! वहाँ तो असहमति विचार ही अकल्पनीय है। भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में अग्रणी और भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक को आज कितने लोग जानते, याद करते हैं? वे मरे तो, दलगत आधार पर दस लोग भी नहीं पहुँचे। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने की सजा भुगतते आडवाणीजी को सबने देखा। कीर्ति आजाद, शत्रुघ्न सिन्हा की दशा सामने है। 

सवाल न करना, चुप रहना जीवन की निशानी नहीं। वह तो निर्जीव होने की घोषणा है। केवल ‘क्रीत दास’ (खरीदा हुआ गुलाम) ही सवाल नहीं करता। हमारी तो पहचान ही यह बोलना है - ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे। बोल! जुबाँ अब भी है तेरी।’ 

केवल सन्तुष्ट गुलाम ही सवाल नहीं करता। और सारी दुनिया जानती है कि आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन सन्तुष्ट गुलाम ही होता है।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) में दिनांक 20 अप्रेल 2017 को प्रकाशित जिसमें मैंने गलती से देवकान्त बरुआ की जगह हेमकान्त बरुआ लिख दिया।

कर्मफल पर अधिकार माँगनेवाला कलमकार

श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर ने देश के प्रख्यात भाषाविद्, मूूूूर्धन्‍य साहित्‍यकार डॉक्टर जयकुमार जलज को अपने छठवें ‘प्रान्तीय शताब्दी सम्मान’ से अलंकृत किया। इस सम्मान में शाल-श्रीफल सहित पचास हजार रुपये नगद भेंट किए जाते हैं। रविवार दिनांक 26 मार्च 2017 को यह सम्मान समारोह इन्दौर में, ‘समिति’ के मुख्यालय, मानस भवन में सम्पन्न हुआ। नब्बे वर्षों से निरन्तर प्रकाशित हो रही, ‘समिति’ की प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका ‘वीणा’ के, अप्रेल 2017 के अंक में जलजजी पर मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ है। अपना यह आलेख अपने ब्लॉग पर केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि यह स्थायी रूप से सुरक्षित रह सके। इसे पढ़ना और/या इस पर टिप्पणी करना आपके लिए बिलकुल ही जरूरी नहीं। किन्तु यदि आप ऐसा करते हैं तो यह मेरे लिए ‘अतिरिक्त बोनस’ ही होगा। इसके लिए आपको अन्तर्मन से आभार और धन्यवाद। हिन्दी की मौजूदा दशा पर केन्द्रित, जलजजी का एक महत्वपूर्ण आलेख यहाँ उपलब्ध है।


बाँये से ‘समिति’ के प्रधानमन्त्री श्री सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी, श्रीमती प्रीती जलज, डॉ. जयकुमार जलज, कार्यक्रम के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्रदत्तजी ज्ञानी, कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. सूर्यप्रकाशजी दीक्षित (लखनऊ) तथा ‘समिति’ के वाचनालय सचिव श्री अरविन्द ओझा।

जलजजी पर लिखना जितना सुखकर है उतना ही कठिन भी। किसी को उसके वास्तविक आकार में देखने के लिए एक निश्चित दूरी जरूरी होती है। बहुत पास आ जाए तो आकार धुंधला जाता है और दूर चला जाए तो ओझल हो सकता है। जलजजी और मेरे बीच की यह ‘आवश्यक निश्चित दूरी’ नहीं रही। लिहाजा मैं या तो उनके पीछे जयकार-मुद्रा मे हूँ या फिर ऐन सामने, मुठभेड़-मुद्रा में।

जलजजी पर लिखने की बात आई तो उनकी, एक के बाद एक अनेक छवियाँ उभरने लगीं। लेकिन एक भी ऐसी नहीं जो लिखने में मदद करे। जिस आदमी के पास घण्टा भर बैठने के बाद आपको गिनती के पाँच-सात वाक्य सुनने को मिलें, उस आदमी पर क्या लिख जाए? कैसे लिखा जाए? 

मैंने मुक्तिबोध को नहीं देखा न ही उनके बारे में कुछ जाना। किन्तु मुक्तिबोध से जुड़ा परसाईजी का संस्मरण पढ़ते-पढ़ते मुझे जलजजी नजर आने लगे। परसाईजी लिखते हैं -  ‘वे एकदम किसी से गले नहीं मिलते थे।‘ और ‘सामान्य आदमी का वे एकदम भरोसा करते थे लेकिन राजनीति और साहित्य के क्षेत्र के आदमी के प्रति शंकालु रहते थे।’ जलजजी से बरसों से मिलता चला आ रहा हूँ लेकिन वे मुझे हर बार ऐसे ही लगे। उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत (क्षमा करें, ‘दिक्कत’ नहीं, ‘चिढ़’) यह है कि वे आसानी से नहीं बोलते। गप्प-गोष्ठी के काबिल तो वे बिलकुल नहीं हैं। गप्प-गोष्ठी की बतरस का आनन्द, काम की बात से नहीं, बेकाम की बातों में ही आता है। खुद की तारीफ करने और गैरहाजिर की निन्दा करने का मजा ऐसी ही बैठकों में लिया जा सकता है। लेकिन जलजजी इन दोनों कामों के लिए कंजूस या कि ‘मिसफिट आदमी’ हैं। लिखने की कठिनाई का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनके बारे में कोई अफवाह भी सुनने का नहीं मिलती। 

लेकिन जब ‘किनारे से धार तक’ की कविताएँ पढ़ीं तो बात समझ में आई। जलजजी बोलते हैं, खूब बोलते हैं, बखूबी बोलते हैं लेकिन अपनी कविताओं में, कविताओं के जरिए बोलते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था - ‘कविता नहीं तो जीवन नहीं।’ तब यह एक जुमला लगा था। लेकिन जब इनकी कविताओं से मुलाकात हुई तो जलजजी का न बोलना समझ में आया।

जलजजी की कविताओं ने मेरे सारे मुख्य प्रश्नों के उत्तर दे दिए। केवल पूरक प्रश्न रह गए जिनके उत्तर पाना बहुत कठिन नहीं था। वस्तुतः संघर्षों, प्रतिकूलताओं ने जलजजी को किसी और से बात करने का समय ही नहीं दिया। जिन्दगी ने कदम-कदम पर इम्तिहान लिए। जिद और जीवट यह कि हर कदम पर जवाब दिया - ‘तू तेरी करनी में कसर मत रख। बन्दा रुकनेवाला नहीं।’ पढ़ने के लिए घर से कानपुर चले तो मालूम था कि पढ़ने के साथ कमाना भी पड़ेगा। वहाँ से झाँसी आना पड़ा। कॉलेज में प्रवेश के साथ ही स्कॉलरशिप और फ्रीशिप, दोनों के लिए आवेदन दिया। प्राचार्य ने कहा - ‘कोई एक मिलेगा।’ जरूरतमन्द विद्यार्थी अड़ गया - ‘दोनों मिलें तो यहाँ पढ़ूँ। वर्ना मैं चला।’ प्राचार्य ने रोका नहीं। उल्टे डराया - ‘तुम फर्स्ट डिविजन नहीं ला पाओगे।’ जवाब जलजजी ने नहीं, उनकी अंकसूची ने दिया। संस्कृत में विशेष योग्यता के साथ इण्‍टर प्रथम श्रेणी में किया। मुकाम मिला इलाहाबाद में। ‘पढ़ाई और कमाई’ की जुगलबन्दी यहाँ भी जारी रखनी पड़ी। महादेवी द्वारा प्रकाशित ‘साहित्यकार’ में एक कविता छपने पर दस रुपये मिलते थे। उत्तर प्रदेश सरकार की डाक्यूमेण्टरी फिल्मों के आलेख लिखे। नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान में कविताएँ छपने लगीं। यह 1953 से 1957 का काल खण्ड था। 1958 में नौकरी लगी। बड़ौत (मेरठ) कॉलेज में ज्वाइन करना था। स्थिति यह रही कि मित्र राजकुमार शर्मा ने कुर्ता-पायजामा उपलब्ध कराया। वास्तविकता को झुठलाना या छुपाना कभी नहीं रुचा। जीवनसंगिनी का चुनाव खुद किया और विवाह से पहले ससुराल जाकर ससुरजी को साफ बता आए कि उनका दामाद बारात लेकर तो आएगा किन्तु सजधज कर नहीं आएगा। 

ये सारी और ऐसी अनेक कहानियाँं जलजजी की कविताएँ सूत्रों में कहती हुई बहती हैं। प्रतिकूलताओं से पेश चुनौती कबूल कर जलजजी जवाब में विधाता से कर्म पर ही नहीं, कर्मफल पर भी अधिकार की हठ कर ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन’ से आगे जाने की ताल ठोकते मिले। कहावतों के जरिए मजबूरी को छुपाना उन्हें नहीं सुहाया। चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होनेवाले भी खुद को संघर्ष-पूत बताने के मौके तलाशते रहते हैं। लेकिन जलजजी ऐसे मौकों से दूर की नमस्ते करते हैं। 

मैं 1977 में रतलाम आया। तबसे जलजजी को देखता-सुनता रहा हूँ। वे 1994 में रिटायर हुए। पहले प्राध्यापक, फिर हिन्दी विभागाध्यक्ष और फिर 1983 से लेकर 1994 तक, (सेवानिवृत्ति तक) प्राचार्य रहे। लेकिन मुझे आज भी ताज्जुब है कि वे विवादास्पद नहीं हुए जबकि राजनीतिक रूप से रतलाम कम सम्वेदनशील नहीं। प्राचार्यकाल में न तो किसी नेता से मिलने गए न ही कलेक्टर से। वे दिगम्बर जैन हैं। किन्तु अपना जैनी होना अपनी ओर से कभी नहीं जताया। जैन समाज ने बुलाया तो चले गए वर्ना अपने काम से काम। अब तो उन्हें याद भी नहीं कि उन्होंने खुद को ‘जयकुमार जैन’ के बजाय ‘जयकुमार जलज’ लिखना कब शुरु किया था। उनकी पढ़ाई के जमाने में जातिवाद बहुत प्रभावी था। किन्तु उन्हें जातिगत पहचान अनुचित लगी। सो,जैन से जलज बन गए। 

उनका जमाना, गाँधी-नेहरू का जमाना था। किन्तु मुझे वे क्रमशः जेपी (जयप्रकाश नारायण), राममनोहर लाहिया और गाँधी से प्रभावित लगे। जेपी की सादगी, लोहिया का फक्कड़पन और अपने विचार के प्रति गाँधी की दृढ़ता से वे आज भी मोहित और प्रभावित हैं। 

जलजजी से मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ मित्रों ने मुझे सावधान किया - ‘जलजजी मेनुपलेट करते हैं।’ मुझे बात समझ में नहीं आई। ‘मेनुपलेट’ पल्ले ही नहीं पड़ा। मुझे समझाया गया - ‘मूर्ख बनाकर अपना काम साधना।’ मैं सचमुच में सावधान हो गया। लेकिन यह देखकर हैरत भी हुई और खुशी भी कि जलजजी ने मुझसे अपने कुछ काम साधे तो जरूर किन्तु हर बार साफ-साफ कहकर। 

सन् 2002 में उनकी पुस्तक ‘भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन’ आई। एक प्रति मुझे भी दी और कहा - ‘पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया बताइएगा जरूर।’ मैंने किताब पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। वस्तुतः  इतनी सरलता से सुस्पष्ट तौर पर ‘महावीर’ मुझे पहली बार समझ में आए। अपनी अनुभूति सुनाते हुए मैंने जलजजी से कहा - ‘यह किताब आपको बहुत यश दिलाएगी।’ वे कुछ नहीं बोले। एक छोटी सी ‘हूँ’ करके रह गए। उनके न बोलने के स्वभाव से परिचित होने के कारण उनका कुछ न कहना मुझे अटपटा नहीं लगा।

किन्तु जब उस किताब के एक के बाद एक संस्करण आने लगे, विभिन्न भाषाओं में उसके अनुवाद होने लगे तो एक दिन अचानक ही बोले - ‘आपने जब कहा था कि यह किताब मुझे बहुत यश दिलाएगी तब मैंने आपकी बात को औपचारिक प्रशंसा ही माना था। किन्तु अब देख रहा हूँ कि आपकी बात सच साबित हुई।’ ‘जलजजी को  आखिरकार मेरी बात माननी पड़ी’ इस अहम् तुष्टि से अधिक इस बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया कि जलजजी ने अपने, उस समय के अविश्वास को बिना किसी भूमिका के, दो-टूक शब्दों में व्यक्त कर दिया। मैं तो शायद ही ऐसा कर पाता।

कलमकारों का शोषण मुझे आज तक नहीं रुचा। तब तो बिलकुल ही नहीं रुचता जब आयोजक धनपति हो और आयोजन से उसे सीधा-सीधा आर्थिक-सामाजिक लाभ हो रहा हो। मध्य प्रदेश सरकार ने अपने एक समारोह में रतलाम के कवियों का काव्य पाठ कराया। जलजजी भी उनमें शामिल थे। मुझे लगा था कि सरकार ने कवियों को यथेष्ठ पारिश्रमिक दिया ही होगा। किन्तु (कुछ दिनों बाद) मालूम हुआ कि सरकार ने तो मुफ्तखोरी कर ली। मुझे बहुत बुरा लगा। (अब तक लगा हुआ है।) उन दिनों मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में ‘कही-अनकही’ स्तम्भ लिखता था। उस स्तम्भ में मैंने ’वे मुफ्तखोर, ये फुरसतिये’ शीर्षक से बहुत ही कड़वी और पत्थरमार टिप्पणी लिखी। उसकी जैसी प्रतिक्रिया होनी थी, हुई। काव्य पाठ करनेवाले कुछ कवियों ने और कलेक्टर के मुँह लगे कुछ अधिकारियों ने नाराजी जाहिर की। नजदीकी कवि मित्रों ने कुछ खरी-खोटी भी सुनाई। किन्तु जलजजी ने एक शब्द भी नहीं कहा। मुझे लगा, वे मेरी उपेक्षा कर, मुझे चिढ़ा रहे हैं। मैंने तनिक अशिष्ट लहजे में उनसे बात की। वे बोले - ‘मुझे लगा कि जाना चाहिए। मैं चला गया। आपको लगा, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। आपने कह दिया। हम दोनों ने अपना-अपना काम किया। इसमें क्या कहना-सुनना?’ उनका जवाब अपनी जगह। किन्तु मैं आज भी गुस्सा हूँ और जलजजी आज भी अपनी बात पर कायम हैं। 

कोई दर्जन भर सम्मान आज जलजजी के नाम से जुड़े हुए हैं लेकिन यह सब उनके ‘सर पर सवार’ अनुभव नहीं होता। लगभग तीन लाख की आबादी वाले मेरे रतलाम में कोई साहित्यकार एक-दो बार मुख्य अतिथि या अध्यक्ष बन जाता हैं तो फिर वह श्रोता बनने से इंकार कर देता है। कोई साफ-साफ इंकार कर देता है तो कोई घुमा-फिरा कर। यह बात मैं यूँ ही, अनुमान से नहीं, अपने अनुभव से कह रहा हूँ। लेकिन जलजजी अहमन्यता के इस मामले में पिछड़े हुए हैं। श्रोता के रूप में बैठने में उन्हें आज भी असुविधा नहीं होती। 
मैं एक बहुत बड़े कवि का सगा छोटा भाई हूँ किन्तु आज के कवियों से घबराया, आतंकित की सीमा तक भयभीत रहता हूँ - पता नहीं, कौन, कब अपनी कविता सुनने का आग्रह कर दे! लेकिन इस मामले में  जलजजी ने सबको अभयदान दे रखा है। आप निश्शंक, निर्भय होकर जा सकते हैं। वे अपना ताजा लिखा या छपा न तो सुनाते हैं न ही पढ़ाते हैं। याद नहीं पड़ रहा कि मैं अब तक उनके घर कितनी बार गया। लेकिन यह पक्का याद है कि उन्होंने एक बार भी मुझे अपनी कविता नहीं सुनाई/पढ़ाई। 

जलजजी को सुनना आसान है लेकिन उनसे कुछ कहलवाना बहुत ही मुश्किल। वे बहुत सरल हैं। चौड़े पाटवाली, धीमे-धीमे बह रही, धीर-गम्भीर नदी की तरह सरल। इसीलिए उन पर लिखने को मैंने कठिन कहा है। धीमी बहती नदी में गर्जन-तर्जन नहीं होता। उसमें लहरें नहीं उठती। वह हिलोरें नहीं मारती। जलजजी को जलसों में सुना जा सकता है किन्तु अन्यथा तो मौन की साधना करनी पड़ेगी। वे नहीं बोलते। उनका मौन बोलता है। मैंने सुना है। मैं सुनता रहता हूँ।
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