न लेखक, न वरिष्‍ठ, न पत्रकार

'कस्‍बा' में रवीश कुमारजी की पोस्‍ट पढकर मुझे बिलकुल वैसा ही सुख मिला जैसा एक विधवा को, दूसरी विधवा को देख कर मिलता है । रवीशजी के साथ परिचय (या कि 'कुपरिचय') की यह दुर्घटना यदा-कदा ही होती होगी लेकिन महज सवा दो लाख की आबादी वाले मेरे कस्‍बे में, मुझे इस दुर्घटना से आए दिनों दो-चार होना पडता है ।


मैं एक पूर्णकालिक (फुल टाइमर) बीमा एजेण्‍ट हूं और इसके सिवाय ऐसा और कोई काम नहीं करता हूं जिससे 'दो पैसे' मिलते हों । प्रत्‍येक अवसर पर मैं अपना परिचय भी यही कह कर देता हूं कि मैं एक पूर्णकालिक बीमा एजेण्‍ट हूं और इसके सिवाय और कुछ भी नहीं करता हूं । जाहिर है कि मेरे परिवार को 'दो वक्‍त की रोटी' इस बीमा एजेंसी से ही मिलती है । इस एजेंसी से मिली आर्थिक निश्चिन्‍तता के कारण ही मैं अपने तमाम शौक पूरे कर पाता हूं । लेकिन मैं यह देख कर बार-बार हतप्रभ हो जाता हूं कि मेरे सार्वजनिक परिचय में मेरा बीमा एजेण्‍ट होना एक बार भी उल्‍लेखित नहीं हुआ । हर बार मुझे बीमा एजेण्‍ट कहने से ऐसे बचा जाता है मानो बीमा एजेण्‍ट होना निहायत घटिया या फिर देश द्रोही होने जैसा है ।


गए दिनों मेरे कस्‍बे की यातायात व्‍यवस्‍था को लेकर हुई बैठक में (जिसका जिक्र मैं ने अपनी, इससे ठीक पहले वाली पोस्‍ट 'अंग्रेजों ! लौट आओ' में किया है) मैं ने भी अपनी बात कही थी । वहां भी मैं ने खुद को एक बीमा एजेण्‍ट बताया था । लेकिन अगले दिन अखबारों में मुझे 'लेखक, चिन्‍तक और व्‍यंग्‍यकार' के रूप में उल्‍लेखित किया गया ।


जीवन बीमा के साथ ही साथ मैं साधारण बीमा का काम भी करता हूं । जिस साधारण बीमा कम्‍पनी का मैं एजेण्‍ट हूं, उस बीमा कम्‍पनी ने अपनी कुछ नई बीमा योजनाओं की जानकारी देने के लिए अपने एजेण्‍टों की बैठक बुलाई । मुझे, मेरे विकास अधिकारी के माध्‍यम से, एक बीमा एजेण्‍ट की हैसियत से ही सूचना दी गई और मैं ने उसी हैसियत में भाग भी लिया । लेकिन अगले दिन अखबारों में मुझे 'नगर के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार' के रूप में उल्‍ले‍खित किया गया । यह समाचार, बीमा कम्‍पनी द्वारा ही जारी किया गया था । याने खुद बीमा कम्‍पनी अपने एजेण्‍ट को बीमा एजेण्‍ट मानने को तैयार नहीं ।


श्रीनितिन वैद्य ने मुझे भारतीय जीवन बीमा निगम का एजेण्‍ट बनाया था । उन दिनों वे मेरे कस्‍बे में विकास अधिकारी के रूप में पदस्‍थ थ्‍ो और बीमा एजेण्‍ट नियुक्‍त करना उनकी नौकरी का हिस्‍सा था । इन दिनों वे पदोन्‍नत होकर शाखा प्रबन्‍धक के रूप में, मुम्‍बई में पदस्‍थ हैं । उम्र में वे मेरे छोटे भतीजे से भी छोटे हैं और मुझे अति‍रिक्‍त आदर, सम्‍मान देते हैं । वे समीपस्‍थ कस्‍बे जावरा के मूल निवासी थे । एक आयोजन में वे मुझे वहां मुख्‍य अतिथि बना कर ले गए । आयोजन में मेरा परिचय उन्‍होंने ही दिया । लेकिन मैं यह देख-सुन कर हैरान रह गया कि उन्‍होंने मुझे 'रतलाम के अग्रणी समाज सेवी' के रूप में प्रस्‍तुत किया । जिस आदमी ने मुझे बीमा एजेण्‍ट बनाया और जिसके अधीनस्‍थ ही मैं बीमा एजेण्‍ट हूं, वही आदमी मुझे बीमा एजेण्‍ट बताने में शर्मा गया । है न ताज्‍जुब की बात ?


स्‍थानीय केबल चैनलें भी अपने समाचारों में मुझे कभी साहित्‍यकार तो कभी पत्रकार, कभी वरिष्‍ठ लेखक तो कभी अग्रणी चिन्‍तक जैसे विशेषणों से उल्‍लेखित करती हैं जबकि दोनों चैनलों के मालिकों से लगाकर छोटा से छोटा कर्मचारी भी मेरी असलियत से भली प्रकार वाकिफ है ।


ऐसा क्‍यों होता है ? किसी आदमी को उसके वास्‍तविक स्‍वरूप में हम उसे जस का तस स्‍वीकार क्‍यों नहीं कर पाते हैं ? यह हमारी फितरत है या मानव मनो‍विज्ञान की कोई अबूझ ग्रंथी ? क्‍या कोई मजदूर प्रबुध्‍द नहीं हो सकता ? क्‍या कोई सडक छाप आदमी सा‍हित्यिक अभिरूचि वाला नहीं हो सकता ? क्‍या किसी दफ्तर का कोई बाबू ललित कलाओं में दखल नहीं रख सकता ? यदि इन सबका उत्‍तर हां में है तो उसे उसके वास्‍तविक स्‍वरूप में उल्‍ले‍खित किए जाने में हिचक क्‍यों होती है ।


कोई जाने या न जाने, मैं अपनी असलियत भली प्रकार जानता हूं । मैं साहित्‍य प्रेमी हूं, लिखने-पढने वालों के आस-पास बने रहना, उनकी बातें सुनना मुझे अच्‍छा लगता है । लेकिन इस सबके कारण मैं सा‍हित्‍यकार या लेखक कैसे हो गया ? रवीश कुमारजी ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मैं जो हूं, भाई लोग मुझे वह मानने को तैयार नहीं और वे सब मिल कर मुझे जो साबित करना चाह रहे हैं, उसका कोई कारण मेरे आस-पास तो ठीक, कोसों दूर तक कहीं नहीं है ।


मेरा क्‍या होगा ?

3 comments:

  1. आज प्रात: हमारे चिट्ठे सारथी पर
    आप पधारे थे,
    प्रिय वि‍ष्णु बैरागी जी.
    पहले तो आभार जता दूं उसका.
    फिर अभार जताता हूं जो
    टिप्पणी की है आप ने.
    सहमत हूं बातों से सब,
    जो आपने लिखी वहां पर.

    आपकी टीप की "कडी" से
    मैं पहुंचा यहां आपके ठीये पर.
    "न लेखक, न वरिष्‍ठ, न पत्रकार"
    पढा, एवं रेखांकित करता हूं
    यहां पर
    मेरा आभार इस लेख
    के लिये

    -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

    ReplyDelete
  2. वाज़िब बात आदरणीय!!

    ReplyDelete
  3. बीमा एंजेंट श्रीमान विष्‍णु बैरागी जी,

    आपकी बात बाजिब है और ऐसा केवल बीमा ऐजेंट ही नहीं वरन, शिक्षक, हिंदी पत्रकार आदि क ेसाथ भी अक्‍सर होता है।

    पर आप डटे रहे हैं, अपनी पहचान का निर्धारण अन्‍यों को न करने दें।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.