नामली में लोकतन्त्र



नामली और उसके आसपास के देहातों के शूरवीर लोगों को सलाम । मैं उन पर न्यौछावर । लोकतन्त्र की परिभाषा ‘जनता का शासन, जनता के लिए, जनता द्वारा’ इन सबको पता है या नहीं लेकिन इसे शब्दश: साकार कर दिया है इन सबने ।


महू-नीमच प्रान्तीय राजपथ पर, मन्दसौर-नीमच की ओर, रतलाम से कोई 12-13 किलोमीटर की दूरी पर है नामली । कस्बे से छोटा और गाँव से बड़ा । कोई 15-20 गाँव इससे जुड़े हुए हैं । रतलाम इसका न केवल जिला मुख्यालय बल्कि मुख्य बाजार भी । अपना सामान बेचने और खरीदने के लिए इन गाँवों के लोग-लुगाइयों को रतलाम आना ही पड़ता है । आते समय तो सारी बसें भरी रहती हैं सो बैठने की जगह मिलने का सवाल ही नहीं उठता । लेकिन इन लोगों को रतलाम से नामली लौटते समय भी बसों में बैठने की जगह नहीं मिलती । पूरी बस खाली हो तो भी । लम्बी यात्रा करने वाले (याने ज्यादा किराया देने वाले) यात्रियों को जगह देने के लिए नामली के लिए बैठे हुए लोगों को उठा दिया जाता है । इस तरह उठाते समय, उठाए जाने वाले की दशा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता - वृध्द हो, बीमार हो, महिला गर्भवती हो या गोद में दुधमुँहा बच्चा लिए । किसी के लिए जगह नहीं । पूरा-पूरा किराया दो और ओव्हरलोड बस में बमुश्‍िकल खड़े रहते हुए यात्रा करो । यदि कोई प्रतिवाद करे तो बस मालिक, ड्रायवर, कण्डक्टर, खलासी (जो भी उस समय बस में मौजूद हो) की झिड़कियाँ, प्रताड़ना झेलो । औरतों को तो गालियाँ भी सुननी पड़ती हैं ।


जब बात हद से बाहर जाने लगी तो नामली जाने वाले लोगों ने प्रतिवाद से आगे बढ़कर प्रतिरोध करना शुरू किया । जवाब में सुनने को मिला कि नामलीवाले तो बदमाश हैं । इसके बाद नामलीवालों के सब्र ने साथ छोड़ दिया । उन्होंने नियमों और कानून से सहायता माँगी । उनकी सुनवाई नहीं हुई । बस मालिकों (याने धन्धेबाजों) को नेताओं और अफसरों का पूरा-पूरा भरोसा। इस तिकड़ी की ‘दुरभि सन्धि’ से सारा देश परिचित और त्रस्त है । आखिरकार नामलीवालों ने सड़क पर बसें रोकी, महिलाओं के साथ गाली-गलौच करने और नामलीवालों को बदमाश कहने के लिए बसवालों से क्षमा-याचना करने की, भविष्‍य में अपना व्यवहार सुधारने और बस में सीट की माँग की । बस वालों ने कोई तवज्जो नहीं दी । सड़क पर खड़ी छोटी सी भीड़ को ‘भाड़’ बनने में देर नहीं लगी । बसों में तोड़फोड़ हो गई । जो सरकारी तन्त्र अब तक अन्धा-बहरा बना हुआ था, फौरन हरकत में आ गया । दोनों पक्षों ने अपनी बात रखी । पुलिस ने अपना स्थापित चरित्र दिखाया । बसवालों के खिलाफ नागरिकों की रिपोर्ट तो दर्ज नहीं कि अलबत्ता बसवालों की शिकायत पर चार-पाँच लोगों के खिलाफ नामजद एफआईआर दर्ज कर ली । बसवाले इतने पर ही नहीं रूके । अगले दिन उन्होंने बसें बन्द कर दीं ।


बसवालों की मनमानी के खिलाफ लोग लामबन्द हो गए । सबने अपनी असहमतियाँ, मतभेद, झण्डे-डण्डे मलैनी नदी में फेंक दिए और ‘एक सौ पाँच’ बन कर खड़े हो गए । 30 मई को नामली और आसपास के गाँवों के हजारों लोग-लुगाई नामली बस स्टैण्ड पर आ खड़े हुए - सड़क के बीचों-बीच । यातायात ठप्प । नामली के दोनों छोरों पर वाहनों की मीलों लम्बी कतार लग गई । मोबाइल घनघनाए तो एसडीएम, एसडीओपी, आरटीओ जैसे तमाम अफसर ऐसे दौड़े आए मानो सबकी दुम में आग लग गई हो । इस बार लोग उत्तेजित, आवेशित लेकिन संयत और नियन्त्रित थे, विवेकवान और ‘भाड़’ बनने की न्यूनतम आशंका से कोसों दूर । अफसरों ने चाहा कि गिनती के लोगों से बन्द कमरे में बात कर ली जाए । लोगों ने कहा - बात यहीं सड़क पर होगी और सबके सामने होगी । सो, लोगों ने अपनी बात कही, खुलकर कही और ऐसे कही कि अफसरों की घिघ्घी बँध गई । आरटीओ साहब के पास लोगों के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि बस वालों ने परमिट की शर्तों का उल्लंघन कर, बिना सूचना दिए बसें बन्द कर दीं तो उन पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई । जिन देहातियों को सारे अफसर बड़े हलके से ले रहे थे वे बहुत भारी साबित हो रहे थे । अफसरों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई । एसडीएम को स्वीकार करना पड़ा कि जब इतनी सारी महिलाएँ, इतने सारे लोग, लू की लपटों के बीच इकट्ठे हुए हैं तो कोई न कोई बात तो होगी ही ।

बहरहाल, नामली और आसपास के देहातों के लोगों ने प्रशासन के ‘उचित कार्रवाई’ करने के आश्वासन पर अपने कदम पीछे खींच लिए हैं क्योंकि वे भी जानते थे कि सड़क पर कोई अन्तिम फैसला नहीं दिया जा सकता ।

लेकिन वे चुप नहीं बैठे हैं । कई लोगों से मेरी बात हुई है । उन्होंने कुछ बातें तय कर ली हैं । जैसे कि, बस वाले ‘चोर’ हैं और आरटीओ साहब ‘चोर की माँ’ हैं, सो उन्होंने अब आरटीओ को निशाने पर ले लिया है । वे यह मान कर ही चल रहे हैं कि आरटीओ आँखें मूँद कर, बसवालों के हितों की रक्षा करेंगे । चूँकि हमारी व्यवस्था ‘कागज’ से चलती है सो वे आरटीओ की लापरवाही (याने एकतरफा पक्षपात) के दस्तावेजी प्रमाण जुटाएँगे । वे साबित करेंगे कि आरटीओ और बस मालिक की मिली भगत से ही सारी मुसीबतें खड़ी हो रही हैं । उन्होंने यह भी तय कर लिया है कि अब वे यथासम्भव सरकार के दरबार में नहीं जाएँगे बल्कि सरकार को ही नामली की सड़क पर बुलाएँगे । अब वे अपनी पीठ पर ‘तन्त्र’ को सवारी नहीं करने देंगे और ‘तन्त्र’ को नकेल डाल कर ‘नागरिक अस्मिता’ की रक्षा करेंगे । लोगों ने काम बाँट लिए हैं क्यों कि वे समझ गए हैं कि एक आदमी के जिम्मे सब काम कर दिए तो एक भी काम नहीं हो सकेगा । चूँकि यह सबकी समस्या है सो सब एकजुट होकर इससे निपटेंगे ।

नामली का मेरा प्रिय मुकेश जैन (भंसाली) इस जन अभियान में शुरू से ही पहली पंक्ति में खड़ा होकर जन-भावनाओं को वाणी दे रहा है । मैं ने उससे कहा है कि अगली बार जब भी ‘नागरिक अस्मिता की रक्षा के लिए, ऐसा कोई जमावड़ा हो तो मुझे एक दिन पहले खबर करे । लोकतन्त्र’ की मूल भावना को व्यवहारतः साकार करने के लिए जोखिम उठाने वाले ऐसे शूरवीरों के नेतृत्व में चलने में मुझे अत्यधिक सुख और आत्म सन्तोष मिलेगा ।

मैं मुकेश के समाचारों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ - नामली और उसके आसपास के देहातों के जुझारू, ‘लोकतन्त्र’ के रक्षक लोग-लुगाइयों को एक बार फिर सलाम करते हुए ।

(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, 04 जून 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत 'शाबास ! नामलीवालों’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है ।)

1 comment:

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.