टाइम्स आफ इण्डिया (अहमदाबाद) के सम्वाददाताओं पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर किए जाने के खिलाफ, देश के अन्य भागों की तरह ही मेरे नगर (जो वस्तुतः बड़ा कस्बा है) के पत्रकारों ने भी रोष-विरोध प्रकट किया और राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन दिया । मैं नामधारी पत्रकार भी नहीं हूँ और न ही किसी पत्रकार-संगठन का सदस्य । मैं इस प्रदर्शन में स्वैच्छिक रूप से शामिल हुआ क्यों कि मैं अभिव्यक्ति पर किसी भी प्रकार के अंकुश को अनुचित मानता हूँ ।
इस प्रदर्शन में शरीक होने का मेरा अनुभव विचित्र न भी हो तो असमंजस भरा तो रहा ही । मेरे शहर में, पत्रकारों के छोटे-मोटे, चार-पाँच सगंठन हैं । सबकी सदस्य संख्या मिलाकर आँकड़ा डेड़ सौ के आसपास पहुँचता है । इन संगठनों में सदैव ही विवाद बना रहता है और प्रत्येक के सर्वेसर्वा अपने संगठन को ही पत्रकारों का एकमात्र और वास्तविक संगठन बताते हैं । इसी कारण आरोप-प्रत्यारोप ही नहीं लगते, सरकार को शिकायतें भी होती रहती हैं । कोई किसी को हाकरों का संगठन तो किसी को चाय-चटोरों का संगठन कहता है । विद्वान् कभी एकमत नहीं होते, इस उक्ति को सच मानते हुए मैं इन विवादों और आरोपों-प्रत्यारोपों पर ध्यान नहीं देता । वह मेरा विषय भी नहीं है । मेरा भला भी इसी में है मैं सबकी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दूँ । क्यों कि यदि इन सबकी बातों को सच मान लूँ तो पत्रकार तो एक भी साबित नहीं होगा ।
पत्रकारों को मिलने वाली प्राथमिकता और अतिरिक्त सम्मान (फिर भले ही वह भयाधारित क्यों न हो) के कारण हर कोई अपने आप को पत्रकार बताने-जताने का छोटा से छोटा मौका भी नहीं छोड़ता । इसीलिए, वार्ड स्तर के नेता की पत्रकार वार्ता भी भीड़ भरी हो जाती है । यदि किसी पत्रकार वार्ता में ‘भेंट’ की व्यवस्था भी हो तो भीड़ और बढ़ जाती है । ऐसी कुछ पत्रकार वार्ताओं में मैं भी दर्शक की हैसियत से शामिल हुआ हूँ और प्रत्येक बार मुझे यह देख कर हताशा हुई कि, पत्रकार वार्ता की समाप्ति के बाद, कुछ पत्रकार, आयोजकों से, अलग से भेंट माँग रहे हैं । पत्रकारों के लिए यदि कभी भोज के आयोजन हों या पत्रकार वार्ता के बाद ‘लंच’ अथवा ‘डिनर’ भी हो तो उस पत्रकार वार्ता में शत-प्रतिशत से भी अधिक की उपस्थिति रहती है ।
लेकिन, गुजरात के पत्रकारों के समर्थन में सड़कों पर आने वाले पत्रकारों की संख्या देख मुझे धक्का भी लगा और गहरी उदासी भी आई । सवेरे ग्यारह बजे का समय दिया गया था । लोग आए साढ़े ग्यारह बजे तक । हम लोग जब कलेक्टोरेट के लिए चले तो बमुिश्कल बीस लोग थे । नारे लगाने की स्थिति/मनःस्थिति में शायद ही कोई रहा । फिर भी ‘पत्रकारों पर अत्याचार - नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे’, पत्रकारों पर झूठे मुकदमे - वापस लो, वापस लो’ और ‘पत्रकार एकता - जिन्दाबाद’ जैसे नारे, मरी-मरी आवाज में लगाए गए । एक उत्साही पत्रकार ने ‘गुजरात सरकार मुर्दाबाद’ का नारा लगाया तो कुछ पत्रकारों ने घबराहट भरी नजरों से उसे देखा । मैं सबसे पीछे चल रहा था । मुझसे आगे चल रहे एक पत्रकार ने दूसरे से पूछा - ‘इसमें गुजरात सरकार बीच में कहाँ से आ गई ?’ दूसरे को कुछ पता नहीं था । दोनों ने पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा । मुझे कहना पड़ा कि राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर करने के लिय राज्य सरकार की पूर्वानुमति आवश्यक होती है । मेरी सूचना से, सवाल करने वाले पत्रकार को अच्छा नहीं लगा । लेकिन यह नारा दूसरी बार नहीं सुनाई दिया ।
कलेक्टोरेट पहुँचते- पहुँचते हम लोग करीब पैंतीस हो गए थे । मुकाम पर पहुँच कर फिर, दो-तीन बार नारे लगाने की रस्म अदायगी की गई । यह तो मुझे बाद में समझ आया कि स्थानीय चैनलों की रेकार्डिंग के लिए नारे लगाने जरूरी थे, वर्ना नारेबाजी शायद ही होती ।
कलेक्टर साहब रतलाम से बाहर थे, यह खबर सबको थी । एक डिप्टी कलेक्टर को पहले ही सूचित कर दिया गया था । फिर भी हम लोगों को कुछ मिनिटों तक उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी । वे आए । जुलूस के नेता ने ज्ञापन पढ़ा, डिप्टी कलेक्टर को सौंपा और सब लौटने लगे - ऐसे, मानो लोक दिखावे के लिए, किसी शवयात्रा में जबरन शामिल होकर लौट रहे हों । किसी के भी मन में न तो कोई आक्रोश था न ही कोई उत्तेजना । सब, निर्जीव चाबी वाले खिलौनों की तरह लौट रहे थे । हममें से किसी को भी उस पत्रकार का नाम मालूम नहीं था जिस पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लगाया गया है । उससे सम्बन्धित अखबार का नाम जरूर दो-तीन पत्रकारों को मालूम था । शेष सब केवल इसलिए आए थे क्यों कि आना शायद उनकी मजबूरी रही होगी ।
तमाम स्तर के पत्रकार जानते हैं कि बड़े शहरों के, खास कर राजधानियों के पत्रकार जोखिम बहुत कम उठाते हैं और सर्वाधिक लाभ (वे सम्मान के हों या सुविधाओं के) प्राप्त करते हैं जबकि कस्बाई और आँचलिक पत्रकार सर्वाधिक जोखिम उठाते हैं । स्थानीय होने के खामियाजे इन्हें सबसे ज्यादा भुगतने पड़ते हैं । सबको अपने-अपने स्तर पर, व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क और सम्बन्ध बनाए रखने पड़ते हैं, लिहाज पालने पड़ते हैं । इन्हें ही एकता की सर्वाधिक आवश्यकता है लेकिन सर्वाधिक विभाजित ये ही लोग हैं ।
यह कैसा संकट है ? पत्रकारों का या पत्रकारिता का ?
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