लगभग 18 बरस पहले, चन्दूलालजी गर्ग ने माँगीलालजी यादव से, काटजू नगर में एक मकान खरीदा था । सौदा पक्का होते ही भुगतान भी कर दिया गया था और चन्दूलालजी अपने परिवार सहित उस मकान में रहने लगे थे । सारी बातें मुँह-जबानी रहीं । लिखा पढ़ी कुछ भी नहीं हुई । अभी-अभी, कोई सप्ताह भर पहले मकान की रजिस्ट्री कराने की बात आई। यादवजी तत्काल ही तैयार हो गए । इन अठारह बरसों में मकान की कीमत बीस-बाईस गुना हो चुकी थी । रजिस्ट्री के मध्यस्थ को जब पूरी बात मालूम पड़ी तो उसने यादवजी को ‘समझाइश' दी । जमाना देख चुके यादवजी को यह समझाइश पहली ही बार में समझ में आ गई ।
तयशुदा तारीख को, नियत समय पर यादवजी अपनी श्रीमतीजी सहित रजिस्ट्रार कार्यालय पहुँचे - मकान श्रीमती यादव के नाम पर था सो दस्तखत तो उनके ही होने थे । लिखा-पढ़ी और सील-ठप्पे लगने की प्रक्रिया शुरु हुई । बाबू ने दस्तखत लेने और अंगूठा-अंगुलियों के निशान लगवाना शुरु किया । मध्यस्थ हसरत भरी नजरों से लेवाल और बेचवाल को देख रहा था । उसकी हसरत पूरी नहीं हुई । रजिस्ट्रार ने पूछताछ की औपचारिकता पूरी की, दस्तखत किए, रसीद काटी, कार्रवाई पूरी हुई और दोनों पक्ष, निर्विकार भाव से, चुपचाप बाहर निकल आए ।
मध्यस्थ से नहीं रहा जा रहा था । वह कुछ पूछता उससे पहले मानो चमत्कार हो गया । चन्दूलालजी ने यह कहते हुए कि सौदा तो अठरही बरस पहले बहुत ही कम कीमत में हुआ था और रजिस्ट्री आज के भाव पर हुई है सो उन्हें (यादवजी को) ‘दीर्घावधि पूँजीगत प्राप्ति’ (लांग टर्म केपिटल गेन) का टैक्स लगेगा, दस हजार रुपये यादवजी के हाथों मे रख दिए । चन्दूलाजी इतने पर ही नहीं रुके । उन्होंने यादवजी से कहा कि यदि टैक्स की रकम ज्यादा हो तो निस्संकोच सूचित करें, अन्तर की रकम का भुगतान वे ही करेंगे ।
मध्यस्थ के लिए बोलने को अब कोई गुंजाइश बची ही नहीं थी । अब तक वह यादवजी को नादान समझ रहा था, अब चन्दूलालजी भी नादान साबित हो रहे थे । उसे समझ आ गई कि दोनों ही लोग ‘पिछड़े हुए’ हैं जो अपने हाथों अपना नुकसान किए जा रहे हैं ।
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में रहते हुए, रातों-रात करोड़पति बनने को उतवाले, अगली ही छलांग में बाईसवीं सदी में पहुँचने को छटपटा रहे जिन लोगों को इस किस्से पर यकीन नहीं आ रहा हो, वे फौरन मुझसे सम्पर्क करें । इस घटना के सारे पात्र रतलाम में ही सशरीर जीवित हैं । मैं उनसे मिलवा दूँगा । लेकिन आने से पहले वे लोग अपने आप को, अपनी नजरों में शर्मिन्दा होने से बचाने की हिम्मत जुटा कर आएँ । ऐसे ‘पिछड़े लोग’ उनके मुकाबले, जिन्दगी के हर पहलू में समृध्दि और सम्पन्नता के मामले में चरम पर मिलेंगे ।
(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, साप्ताहिक 'उपग्रह' के, 26 जून 2008 के अंक में, 'बिना विचारे' शीर्षक स्तम्भ में प्रकाशित हुई है ।)
ये पिछडे हि अच्छे है...
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