75 वर्ष का पुरुषार्थी



‘उपग्रह’ की डाक में आया एक मनी आर्डर देख कर भैया साहब (श्रीयुत सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) अचरज से चिहुँक पड़े - ‘अरे ! लाड साहब का मनी आर्डर ?’ अनजाने-अनिष्ट से तनिक आशंकित और खिन्न मन से मनी आर्डर का, सन्देश वाला कूपन अलटा-पलटा । लाड साहब ने लिखा था - ‘मेरा पत्र देखें ।’ पत्र भी साथ ही साथ मिल गया । कठिनाई से दस पंक्तियों वाला वह पत्र पढ़कर भैया साहब, सजल नेत्रों से, देर तक शून्य में देखते रहे ।

मैं जे. सी. लाड साहब को शकल से बिलकुल ही नहीं जानता । उनके बारे में सुना है कि वे रतलाम महाविद्यालय के ऐसे प्राध्यापक थे जो ‘असाधारण रूप से साधारण’ थे । अपने विषय के आधिकारिक ज्ञाता होने का दम्भ उन्हें छू भी नहीं पाया था । अपने छात्रों को अधिकाधिक देने की ललक के अधीन जो जतन वे किया करते थे वह सब अब बड़े अचरज के साथ, अविश्वसनीय किस्सों की मानिन्द सुना जाता है । उनके पढ़ाए छात्र उनका जिक्र करते हुए भाव विभोर हो जाते हैं और सूने आसमान में देखते हुए, मानो अनन्त शून्य में अपने ‘सर’ को साक्षात् देख रहे हों, बताते हैं कि जब वे पढ़ाते थे तब ही वे प्रोफेसर होते थे । वर्ना अपने पहनावे और व्यवहार से उन्होंने कभी भी खुद को प्रोफेसर नहीं जताया-बताया । वे कर्मणा प्रोफेसर और आचरण में श्रेष्ठ मनुष्य बने रहे । उनकी हमपेशा अनेक ‘अध जल गगरियाँ’ जब अकारण छलक-छलक कर खुद को हास्यास्पद बनाती रहती थीं तब लाड साहब अपने ज्ञान सागर की अतल गहराइयों से उठती विद्वत्ता की लहरों को किनारों तक आने की अनुमति नहीं देते थे । लाड साहब के बारे में सुन-सुन कर, उन्हें देखने की, उनसे मिलने की इच्छा जब-तब मन में उठती रहती रही । लेकिन जैसा कि हम सबके साथ होता है, इच्छा इतनी बलवती कभी नहीं हो पाई कि उनसे मिलने के लिए घर से निकल पड़ें । इस बीच, ‘बिना विचारे’ की मेरी कुछ टिप्पणियों पर उनके पत्र मिले । वे पत्र मेरे लिए किसी अभिनन्दन पत्र से कम नहीं रहे । अभी-अभी, ‘पाँखी की छुट्टियाँ’ पर लिखे पत्र से उन्होंने जिस तरह से मेरी पीठ थपथपाई है, वह मेरे जीवन का उल्लेखनीय और अविस्मरणीय प्रसंग है । वे बड़े तो हैं ही लेकिन उनका बड़प्पन यह है कि उन्होंने अत्यन्त कृपापूर्वक मुझे अपने ‘पत्र-मित्र परिवार’ में शरीक किया । इस सबके बावजूद मैं यह कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि मैं उन्हें जानता हूँ । लेकिन अब उन्हें जानने की जिज्ञासा, इस ‘मनी आर्डर काण्ड’ से उछालें मारने लगी है ।

मनी आर्डर के साथ मिले पत्र में लाड साहब ने सूचित किया कि अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे करने के साथ ही उन्होंने कुछ संकल्प लिए हैं उनमें से एक है - किसी से कोई सामग्री, भेंट, उपहार निःशुल्क नहीं लेना । इसी संकल्प के पालन में उन्होंने ‘उपग्रह’ का वार्षिक शुल्क भेजते हुए लिखा - ‘अब आप मुझे सशुल्क सदस्य/पाठक की सूची में शामिल करने की कृपा करें । अन्यथा नहीं लें और मेरे संकल्प निर्वाह में सहयोग करें ।’

आयु के ऐसे मुकाम पर आहार-संयम और वानप्रस्थ आचरण के संकल्प लेते हुए अनेक लोगों को हम सबने अब तक कई बार देखा-सुना होगा और कहना न होगा कि ऐसे संकल्पों की प्रत्येक सार्वजनिक घोषणा का उपहास भी किया होगा क्यों कि ऐसी आयु में ऐसे संकल्प स्वेच्छा से कम और विवशता में अधिक लिए जाते हैं । जब कुछ खा-पी ही नहीं सकते, कुछ कर ही नहीं सकते तो ऐसे संकल्प व्यक्ति को उपहास का ही पात्र बनाते हैं । लेकिन डाड साहब का यह संकल्प मुझे तनिक अनूठा और अचरज भरा ही नहीं, असुविधाजनक भी लगा है । उम्र के 75वें वर्ष में व्यक्ति शरीर से ही नहीं, जेब से भी अशक्त (साफ-साफ कहूँ तो ‘आश्रित’) हो जाता है । पढ़ना-लिखना आज सर्वाधिक मँहगे व्यसनों में शरीक हो गया है । साहित्यिक पत्रिकाओं की प्रसार संख्या कम होने से उनकी कीमतें स्वतः ही अधिक होती हैं । फिर, कागज इन दिनों सबसे मँहगी चीजों में शरीक हो गया है सो लिखने-पढ़ने वालों को भी आटे-दाल का भाव मालूम होने लगा है । ऐसे में लाड साहब का यह संकल्प उनके अपरिमित आत्म-बल का ही परिचय देता है । इस संकल्प से लाड साहब के दैनन्दिन अर्थ-प्रबन्धन पर कितना-क्या असर पड़ेगा यह जानने से अधिक महत्वपूर्ण यह जानना होगा कि ऐसा संकल्प वे कैसे ले पाए ! हम, मध्यमवर्गीय भारतीय, मुफतखोरी के लिए खूब अच्छी तरह जाने जाते हैं । और बात यदि अखबारों-पत्रिकाओं की हो तो ऐसी खरीदारी को तो हर कोई फालतू और मूर्खतापूर्ण ही मानता है । रेल-बस यात्राओं के दौरान ऐसे असंख्य सहयात्री मिलते हैं जो यात्रा के दौरान पचास रूपयों के गुटके खा लेते हैं लेकिन दो-तीन रूपयों के अखबार के लिए पड़ौसी यात्री की दया पर निर्भर रहते हैं । ऐसे में लाड साहब का ‘मुफतखोरी से मुक्ति’ का यह संकल्प (वह भी आयु के इस मुकाम पर !) उन्हें ‘सच्चा पुरुषार्थी’ के सिवाय और क्या साबित करता है ?

2 comments:

  1. जे. सी. लाड साहब को मेरा नमन नमस्कार

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  2. लाड साहब जैसा संकल्प कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है। लाड साहब के संकल्प को प्रणाम।

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