मेरी मूर्खता पर हँसिए

इसी 25 जुलाई शुक्रवार की बात है । ‘उपग्रह’ के कार्यकारी सम्पादक श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ (हम सबके ‘भैया साहब’) सवेरे-सवेरे, लगभग छः-सवा छः बजे हृदयाघात के शिकार हो गए । उन्हें, डाक्टर सुभेदार साहब के ‘आशीर्वाद नर्सिंग होम’ ले जाया गया । यह नर्सिंग होम रतलाम और आसपास के लोगों के लिए अस्पताल से आगे बढ़कर आस्था केन्द्र बन गया है ।

सुभेदार दम्पति (डाक्टर जयन्त सुभेदार और डाक्टर पूर्णिमा सुभेदार) के जितने ‘अन्ध-भक्त’ इस अंचल में मिलेंगे वह अन्य डाक्टरों के लिए ईष्र्या का विषय हो न हो, जिज्ञासा का विषय जरूर हो सकता है । चिकित्सा क्षेत्र के लगभग तमाम पक्षों की अद्यतन जानकारी रखना इस दम्पति का व्यसन है । लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि सामाजिकता से दूर हो जाएँ । व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक व्यवहार निभाने में भी यह दम्पति अपने समूचे परिवार सहित पहचाना और सराहा जाता है । ये जितने उत्कृष्ट चिकित्सक हैं, उतने ही उत्कृष्ट ‘मनुष्य’ भी हैं । व्यावसायिकता, पारिवारिकता, सामाजिकता और नियमित-निरन्तर अध्ययन जैसे समस्त कारकों को यह दम्पति कैसे साध लेता है - यह सबके लिए अब तक अबूझ पहेली बना हुआ है । यह मेरा और मेरे परिवार का सौभाग्य ही है कि सुभेदार परिवार की आत्मीयता, पारिवारिकता और संरक्षण की सुरक्षा हमें मिली हुई है ।

पौने सात बजते-बजते भैया साहब सहित हम लोग आशीर्वाद नर्सिंग होम पहुँच चुके थे । डाक्टर साहब से पहले ही बात हो गई थी, सो वे तो हमसे पहले ही, पहियेदार कुर्सी सहित दरवाजे पर मरीज की प्रतीक्षा कर रहे थे । गहन चिकित्सा कक्ष में तैयारी पूरी थी । डाक्टर साहब और स्टाफ ने भैया साहब को कब्जे में लिया और उपचार शुरु हो गया । हम लोगों के लिए अब ‘रुको, देखो और प्रतीक्षा करो’ के सिवाय और कोई काम नहीं था । लेकिन मरीज के साथ आने वाले हम लोग केवल यही काम नहीं कर सकते थे । सो हम सब अपनी-अपनी डाक्टरी लगाते हुए बतियाने लगे ।

सवा सात बजते-बजे, नर्सिंग होम के रिसेप्शन का फोन घनघनाने लगा । वहाँ कोई मौजूद नहीं था । मैं, सुभेदार परिवार से प्राप्त स्नेहादर-भाव को अपना अधिकार मानता हूँ । घनघना रहे टेलीफोन ने इस अधिकार-भाव वाले सिक्के के दूसरे पहलू, कर्तव्य-बोध को जगा दिया और मैं ने अपनी सीमाओं का (और शिष्टाचार तथा शालीनता का भी) अतिक्रमण करते हुए टेलीफोन अटेण्ड करना शुरु कर दिया । डाक्टर साहब से इलाज कराने वाले अपना नम्बर लगवाने के लिए टेलीफोन कर रहे थे । मैं ने सबके नाम लिखना शुरु कर दिया लेकिन साथ ही साथ यह भी कहता रहा कि वे नौ बजे के आसपास अपने नम्बर की पुष्टि जरूर कर लें क्यों कि मैं खुद एक मरीज लेकर आया हूँ और अस्पताल के स्टाफ की अनुपस्थिति में नाम लिख रहा हूँ । यह सब करते हुए मुझे बहुत अच्छा लग रहा था । डाक्टर साहब की परोक्ष सहायता कर पाने का अवसर पा कर मैं पुलकित, प्रसन्न और आह्लादित था ।

आठ बजे के आसपास रिसेप्शनिस्ट आई तो मरीजों की सूची देखकर हैरत में पड़ गई । उसने अकबकाई नजरों से मुझे देखा । मैं ने सुभेदार साहब से अपनी पारिवारिकता का हवाला तनिक दम्भ से देते हुए ऐसे जताया मानो मैं ने उसकी नौकरी बचा ली है । लेकिन उसकी परेशानी कम होने के बजाय घबराहट में बदलती लगी । मुझे ताज्जुब हुआ कि सवेरे-सवेरे तो उसे ताजगी और स्फूर्ति के चरम पर होना चाहिए था और वह थी कि कुम्हलाई जा रही थी ! तभी मुझे मालूम हुआ कि वहां, ‘सर’ और ‘मैडम’ के मरीजों की सूची अलग-अलग बनाई जाती है जबकि मैं ने दोनों के मरीजों के नाम एक ही सूची में लिख दिए थे । मुझे लगा कि रिसेप्शनिस्ट को मेरी इस गड़बड़ी से घबराहट हुई होगी ।

रिसेप्शनिस्ट ने अपना काम सम्हाल लिया था और मैं एक बार फिर फुरसत में हो गया था । लेकिन इस बार मैं ‘दाम्भिक प्रसन्नता’ से ओतप्रोत था - चलो, सवेरे-सवेरे मैं ने कुछ तो अच्छा काम किया ।

उधर भैया साहब का इलाज चल रहा था । सब कुछ नियन्त्रण में था और वे बेहतर हो रहे थे । भैया साहब का पूरा कुटुम्ब और उनका जनसम्पर्क-जनित हितचिन्तक समुदाय का बड़ा भाग वहाँ जुट चुका था । हम सब मिल कर वहाँ अच्छी-खासी, असुविधाजनक भीड़ बन चुके थे । कोई पौने नौ बजे मैं वहाँ से चला आया ।

अपना, बीमे का कामकाज निपटा कर, दोपहर बाद फिर पहुँचा । नर्सिंग होम में मेला लगा हुआ था । भैया साहब के हालचाल जाने, डाक्टर साहब के बारे में पूछा । मालूम हुआ कि दो-ढाई बजे तक तो उन्होंने मरीज देखे फिर उठ गए । अब उनके निष्णात् सहयोगी डाक्टर समीर व्यास मरीजों से जूझ रहे हैं । मालूम पड़ा कि डाक्टर साहब आज झुँझला रहे थे । लगभग साढ़े चार बजे जब समीर भाई निपटे तब टोकन इण्डिकेटर बता रहा था कि आज दिन भर में 58 मरीज देखे गए हैं ।

भैया साहब की बीमारी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए जब हम लोग चेम्बर में घुसे तो समीर भाई बोले - ‘बैरागीजी ! आज आपने फँसा दिया । सवेरे नौ बजे से जो सिर झुकाया है तो अब साढ़े चार बजे उठा पाए हैं ।’ मैं समझ नहीं पाया । मरीज देखना तो उनका रोज का काम है, भला मैं ने उन्हें कैसे फँसा दिया ? मुझे मूढ़मति की तरह सवालिया नजरों से अपनी तरफ देखते हुए डाक्टर समीर ने बताया कि डाक्टर साहब गई रात कोई ढाई-तीन बजे तक व्यस्त थे । उन्होंने रात को ही सन्देश दे दिया था कि आज मरीज नहीं देखे जाएँगे । सो, वे निश्चन्त होकर बिस्तर में थे और इसीलिए डाक्टर समीर भी अतिरिक्त अनौपचारिकता से अस्पताल पहुँचे थे । लेकिन यहाँ आते ही घबराई रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि मरीजों के नाम लिखे जा चुके हैं और लिखे गए नामों में से सबके सब प्रायः रतलाम के आसपास के गाँवों से हैं । समीर भाई ने चिढ़कर पूछा कि डाक्टर साहब के आदेश की अवहेलना क्यों की गई ? रिसेप्शनिस्ट ने बमाया कि आईसीयू में सवेरे-सवेरे भर्ती हुए मरीज के एक अटेण्डेण्ट ने अपनी मर्जी से नाम लिख लिए । समीर भाई ने तलाश की । रिसेप्शनिस्ट बेचारी मेरा नाम तो जानती नहीं थी । लेकिन समीर भाई को जैसे ही भैया साहब के भर्ती होने की जानकरी मिली, वे फौरन समझ गए कि मरीज का यह अशिष्ट अटेण्डेण्ट और कोई नहीं, मैं था । एक तो मेरा लिहाज और दूसरे, मरीजों का नाम लिख लिया जाना - वे मरीज देखने के सिवाय और कुछ भी करने की स्थिति में नहीं थे । उन्होंने फौरन डाक्टर सुभेदार साहब को खबर भिजवाई । वे भन्ना गए । भन्नाते नहीं तो क्या करते ?

समीर भाई ने उन्‍हें कुछ भी नहीं बताया । रोज के समय पर डाक्टर सुभेदार साहब को चेम्बर में आना पड़ा । लेकिन आधा दिन बैठकर चले गए । तब भी वे भन्नाए हुए ही थे । रिसेप्शनिस्ट डर के मारे उनके सामने आने से बराबर बचती रही । लेकिन सुभेदार साहब से बात कब तक छुपती ? जल्दी ही उन्हें मालूम हो गया कि यह ‘सदाशयतापूर्ण मूर्खता’ मेरी थी । उन्होंने माथा ठोक लिया । प्रकटतः क्या कहा, यह तो पता नहीं लेकिन मैं अनुमान लगा रहा हूँ के उन्होंने ‘ये विष्णु भाई साहब भी कमाल करते हैं’ जैसा ही कुछ कह कर अपने आप को समझाया होगा ।

पूरा किस्सा सुना कर डाक्टर समीर ठठा कर हँस रहे थे, मेरे साथ बैठे सुशील भाई छाजेड़ और कामरेड आर. पी. सक्सेना मेरी दशा देखकर तय नहीं कर पा रहे थे कि डाक्टर समीर की हँसी में साथ दें या मेरी मिजाजपुर्सी करें । मैं खुद उलझन में था - मैं ने यह क्या कर दिया ? ऐसा तो मैं ने नहीं सोचा था । मैं ने समीर भाई से क्षमा याचना की तो वे असहज हो उठे । बोले - ‘क्षमा मत माँगिए । आपने भला करने की नीयत से ही यह सब किया । 'सर' को और मुझे भले ही थोड़ी असुविधा हुई लेकिन जिन मरीजों को देखा है, उनकी दुआएँ तो आपको मिलेंगी ।’ उम्र में बड़ा मैं था लेकिन बड़प्पन दिखा रहे थे, उम्र में मुझसे काफी छोटे डाक्टर समीर । मैं शर्मिन्दा होने की सीमा तक संकुचित हो गया । मुझसे न तो बोलते बन रहा था और न ही चुप रहते । शब्द गले में अटक रहे थे । अब मुझे सूझ पड़ रहा था कि सवेरे रिसेप्शनिस्ट क्यों कुम्हलाने लगी थी । मैं ने उससे भी माफी माँगी । उसने कहा तो कुछ भी नहीं लेकिन मुस्कुराहट को होठों में सायास कैद करते हुए उसने जिस तरह से मुझे देखा उससे लगा कि वह कह रही थी -आपसे भर पाई । आज मैं तो बच गई लेकिन आगे से ऐसा कहीं भी, किसी के साथ मत करना ।

रात को डाक्टर सुभेदार साहब से मुलाकात हुई तो मैं ने उनसे माफी माँगी । वे खूब हँसे । बोले -‘जो हो गया, उसकी बात क्या करना ?’

रविवार, 27 जुलाई को भैया साहब को नर्सिंग होम से डिस्चार्ज कर सीधे इन्दौर भेज दिया गया । कल, सोमवार 28 जुलाई को उनकी एंजियोप्लास्टी हो गई है । खतरा टल गया है । ईश्वर की कृपा से हमें उनकी छत्र-छाया पूर्वानुसार मिलती रहेगी । मित्र मण्डल को उनकी तबीयत की सूचना देने का काम मेरे जिम्मे है । कल से मैं जिस-जिस को सूचना दे रहा हूँ वह मुझे धन्यवाद देकर फोन बन्द करने से पहले पूछ रहा है - ‘सुभेदार साहब को दिखाने के लिए अपाइण्टमेण्ट लेना है । नाम लिखोगे ?’

सब मेरे मजे ले रहे हैं । मुझे झेंप आ रही है । लेकिन मैं अपने आप को समझा रहा हूँ - ईश्वर की कृपा है कि मुझसे किसी का बुरा नहीं हुआ ।

5 comments:

  1. जो बात डाक्टर सुभेदार ने की वही मैं भी कह रहा हू... आपको उन मरीजो से आशीर्वाद मिलेगा और मिलता रहेगा.... हसी तो नही आई वरन आपके वक्तितत्व का एक पक्ष और जानने को मिला कि आप सदाशय भावः से बहुत कुछ कर जाते हैं

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  2. "लेकिन जिन मरीजों को देखा है, उनकी दुआएँ तो आपको मिलेंगी.
    आपकी इस मूर्खता पर मुझे गर्व है बैरागी जी. भगवान करे आप हमेशा एसे ही अबोध बने रहें.

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  3. श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ को स्वास्थ्य लाभ के लिए शुभ कामनाएं.
    आपे बहुत ही अच्छा कार्य किया. मुझे तो हँसी नहीं आ रही बल्कि खुशी हो रही है.

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  4. ji ko kaam jine saje
    aur kare to dinga baaje

    mujhe yaad aa gayi ye panktiyan

    rajesh ghotikar
    http://rajeshghotikar.blogspot.com

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  5. ईश्वर करे आप ऐसे ही बने रहें और आपसे कभी किसी का बुरा न हो.

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