यह तो हमारी ही दर्पण छवि है

लोक सभा में कल जो हुआ, जो दिखा उससे हतप्रभ, क्षुब्ध और शर्मिन्दा होने का पाखण्ड करने की हिम्मत मुझमें बिलकुल ही नहीं है । जो भी हुआ और दिखा वह सब पहले से होता चला आ रहा था, सबको पता था । अन्तर यही पड़ा कि वह सब खुलकर सामने आ गया । जो भी हुआ उसमें नया और अनूठा क्या है ? लोकतन्त्र अपने आप नहीं चलता और न ही इसका कोई अन्तिम मुकाम है । यह ऐसी अनवरत यात्रा है जिस में मोड़ आते रहते हैं । कल जिस मोड़ पर हमें हमारा लोकतन्त्र दिखाई दिया, वहाँ वह अपने आप नहीं पहुँचा । इसे इस मुकाम पर हम ही लाए हैं ।

हम एक पाखण्ड-प्रिय, आत्म-मुग्ध और प्रदर्शनप्रिय समाज हैं । इसीलिए हमारे ‘होने’ के मुकाबले हमारा ‘दिखना’ ही महत्वपूर्ण और अन्तिम कसौटी बन गया है । हम लोकतन्त्र में शरीक नहीं होना चाहते लेकिन लोकतन्त्र के पटरी से उतरने पर स्यापा करने और शोकान्तिकाएँ पढ़ने को उतावले रहते हैं । जिस ‘लोकतन्त्र’ में ‘लोक’ ही भागीदार बनने से इंकार कर दे तो फिर वहाँ केवल ‘तन्त्र’ बचा रहता है और ‘तन्त्र’ की अपनी न तो कोई भावनाएँ होती हैं, न मस्तिष्‍क और न ही सम्वेदनाएँ । हम राजनीति को ‘गन्दी नाली’ और राजनेता को ‘देश का अभिशाप’ मानते हैं लेकिन इस गन्दी नाली के सड़ांध मारते पानी का आचमन करने से परहेज नहीं करते, नेताओं को माला पहनाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते और नेताओं के हाथों सम्मानित होने के अवसर यदि न मिलें तो खुद ऐसे अवसर आयोजित कर लेते हैं । हम चाहते हैं कि हमें लोकतन्त्र के लिए क्षणांश भी कुछ नहीं करना पड़े, बाकी सब लोग इसके लिए अपने प्राण न्यौछावर करें और हमें लोकतन्त्र के सारे मीठे, स्वास्थवर्धक फल खाने को मिलते रहें । हम वह समाज है जो कुछ भी खोना नहीं चाहता लेकिन सब पाना चाहता है । नतीजे में हम, सब-कुछ खो जाने के मुकाम पर आ खड़े हुए हैं । हम निकृष्ट कच्चे माल से उत्कृष्ट उत्पाद की कामना करते हैं और उत्पादन प्रक्रिया में शामिल होने से परहेज करते हैं ।

जब तक राजा थे तब तक ‘यथा राजा, तथा प्रजा’ वाली उक्ति उचित थी । आज राजा नहीं हैं । आज जो भी हैं वे ‘निर्वाचित जन प्रतिनिधि’ हैं । सबके सब हमारे द्वारा चुन कर भेजे गए । कोई भी अपनी मर्जी से विधायी सदनों में नहीं पहुँचा है । जाहिर है कि स्थिति ‘जैसे हम, वैसे हमारे प्रतिनिधि’ (या कि ‘यथा प्रजा, तथा राजा’) वाली उक्ति ही आज का सच है ।

हम सब भले ही ‘राष्ट्र’ की दुहाई देते हों लेकिन कटु-सत्य यह है कि ‘राष्ट्र’ हमारी प्राथमिकता सूची में अन्तिम स्थान पर है । (पता नहीं, वहाँ भी है या नहीं ।) हम अपनी मान्यता, अपनी धारणा को न केवल पूर्ण सत्‍य और अन्तिम मानते हैं अपितु चाहते हैं कि बाकी सब भी उसे जस का तस स्वीकार कर लें । हमें अपनी राजनीतिक अवधारणा में कोई खोट और कमी नजर नहीं आती और सामने वाली की राजनीतिक धारणा में कोई अच्छाई नजर नहीं आती । जब हम खुद को सम्पूर्ण निर्दोष (अन्तिम रूप से ‘पूर्ण’) मान लेते हैं तो किसी परिष्कार की सम्भावनाएँ तत्क्षण ही समाप्त हो जाती हैं ।

हर कोई सामने वाले में सुधार देखना चाहता है जबकि सुधार या कि परिष्कार की शुरुआत केवल खुद से होती है । हम अनाचार करते रहने की सुविधा स्थायी रूप से प्राप्त किए हुए रहना चाहते हैं और चाहते हैं कि दूसरा सदाचरण करे । यह कहीं भी, कभी भी सम्भव नहीं है । इसीलिए, लोक सभा में कल जो कुछ भी हुआ, वह हमारा ही किया-कराया था । वहाँ मौजूद तमाम लोग हमारी ही दर्पण छवि थे । हम अपनी सूरत सुधारना नहीं चाहते और सुन्दर, निष्कलंक दर्पण छवि की उम्मीद करते हैं ।

यह ठीक समय है कि हम राजनीति को और राजनेताओं को कोसना बन्द कर खुद राजनीति में भागीदारी करें । इसके लिए किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल होना बिलकुल ही जरूरी नहीं है । जो देश के लिए गलत है, उसे गलत कहने की शुरुआत करें - फिर भले ही वह हमारी मानसिकता को अनुकूल पार्टी द्वारा ही क्यों न की जा रही हो ।

खुद से आँखें चुराते-चुराते हम हमारे लोकतन्त्र को जिस मोड़ पर ले आए हैं, उसे स्थायी मुकाम बनाने से बचाने का एक ही रास्ता है - हम लोकतन्त्र में भागीदारी करें और योगेश्वर कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में बताए गए ‘साक्षी-भाव’ से करें ।कुछ पाने के लिए कुछ खोने की शुरुआत करें । यदि ऐसा न कर सकें तो देश की दुर्दशा पर दुखी होने का पाखण्ड तो न करें ।

3 comments:

  1. आपने बिल्कुल ठीक कहा है.. हम सब कुछ देखते हुए भी आँखे बंद होने का ढोंग करते रहते है.. लेकिन इस तरह से देश उन्नति की और नही जा सकता

    कुश वैष्णव
    जयपुर

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  2. विलकुल सही कह रहे हे,हमी हे इन्हे सिर पर बिठाने वाले,जब यह गलत करते हे तो हम क्यो नही बोलते, क्यो नही बिरोध करते, जब यह अपने वादे पुरे नही करते तो हम क्यो नही बोलते, पीठ पीछे चिल्लाते हे, समाने आने पर इन्ही की पुजा भी करते हे माई बाप भी इन्हे बना लेते हे, धन्यवाद इस सच के लिये

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  3. सही है कमजोरी जनता की है।

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