ये व्यापारी और वे व्यापारी

राम मन्दिर के पीछे, जवाहर नगर में लगने वाली सब्जी मण्डी के समस्त सब्जी विक्रेताओं ने, पहली जुलाई से पोलीथीन की थैलियों में सब्जी देना बन्द कर दिया । अब जिसे भी सब्जी लेना हो, अपनी थैली लेकर आए । यह उनका सामूहिक निर्णय है और जो भी सब्जी विक्रेता इस निर्णय का उल्लंघन करेगा उस पर पाँच सौ रुपये दण्ड किए जाएँगे । दण्ड की यह राशि गौ शाला में दी जाएगी । इनमें से किसी की दुकान पक्की नहीं है । सड़क किनारे, सबके ठीये तय हैं । प्रतिदिन सवेरे आकर अपने ठीये पर, बाँस-छप्पर से अपनी दुकान सजाते हैं और शाम को अपना डेरा-तम्बू समेट कर साथ ले जाते हैं । दुकानदार की धार्मिक आस्था जताने वाला कोई चित्र किसी भी दुकान पर नजर नहीं आता । बोली से भी अनुमान लगाना कठिन है कि इनमें से कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान । बस, सब एक जैसे सब्जी विके्रता हैं - रोज दुकान सजाने वाले और रोज कुआ खोद कर रोज पानी पीने वाले । यह निर्णय इन्होंने अचानक क्यों लिया - यह जानने के लिए मैं इनमें से कुछ से मिला । सबने एक जैसी बातें तो नहीं बताईं लेकिन एक बात सबने बताई - ‘बाबूजी ! पन्नी से गायें और जनावर मरते हैं ।’ लेकिन यह बात तो बरसों से जग जाहिर है ! नई बात क्या है ?

क्या पर्याप्तता के अभाव और धर्माचरण या ईश्‍वर के प्रति आस्थावान होने में कोई सम्बन्ध है ? शायद हाँ । मेरा शहर रतलाम तीन चीजों के लिए पहचाना जाता है - सोना, (बेसन से बनी, नकमीन) सेव और साड़ी । तीनों चीजों की जितनी बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, दुकानदार भी उतने ही बड़े हैं - अधिकांश भव्य भवनों और शो-रूम जैसी दशा में । इनमें से साड़ी और सेव की दुकानों में पन्नी (पोलीथीन) का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है । प्रायः प्रत्येक दुकान पर, मालिक की धार्मिक आस्थाओं वाले और सम्बन्धित देवी-देवताओं और गुरुओं के, फूल मालाओं से सजे, धूप-दीप से पूजित, सुगन्धित चित्र बिना प्रयास ही दिखाई दे जाते हैं । सबके सब न केवल धार्मिक हैं बल्कि जीव-दया, करुणा, अहिंसा के प्रति अपनी प्रतिबध्दता जताते-बताते रहते हैं । अपने-अपने धर्म की शोभा यात्राओं, समागमों में सबसे आगे रहने को प्रयत्नरत रहते हैं और इनके धर्मोपदेशक भी इन्हें न केवल अग्रिम पंक्ति में बैठाते हैं अपितु अपने प्रवचनों में इनमें से किसी न किसी का नामोल्लेख भी यथासम्भव करते हैं ।

कोई साल-डेढ़ साल पहले मैं ने इनमें से कुछ लोगों से सम्पर्क कर पोलीथीन का उपयोग बन्‍द करने का आग्रह किया था । पोलीथीन से हो रही पर्यावरण और पशु हानि से सब न केवल भली भाँति परिचित थे अपितु इसके उपयोग को प्रतिबन्धित करने की अनिवार्यता से भी सहमत थे । लेकिन इसका उपयोग छोड़ने को एक भी तैयार नहीं था । अलग-अलग दुकान पर, सबने एक बात समान रूप से कही - ‘ग्राहकी पर असर पड़ता है । लोग सामान लेने से ही इंकार कर देते हैं ।’ कुछ ने ‘हम कहाँ देते हैं ? ग्राहक माँगता है तो देना पड़ता है’ जैसा लचर तर्क दिया । मजे की बात यह है कि ऐसे तमाम व्यापारी अपने माल की क्वालिटी पर गर्व करते हैं और उसकी दुहाई भी देते हैं लेकिन पोलीथीन के सामने उनकी क्वालिटी ‘टें’ बोल जाती है ।

जिनसे मैं ने बात की थी उन सबका टर्नओवर यदि करोड़ों में नहीं तो बीस-पचास लाख से कम का नहीं है । किसी कारणवश सप्‍ताह-पन्द्रह दिन दुकान बन्द रखनी पड़ जाए तो केवल मुनाफे में कमी होगी, बाकी कोई दिक्कत नहीं होगी ।

मेरे सवाल का जवाब शायद इन्हीं बातों में कहीं छुपा हुआ है । जिसके पास कल की व्यवस्था नहीं है वह ईश्‍वर के होने में विश्‍वास कर उसे पुकारता है और उससे डरता है । जिसके पास पर्याप्त से अधिक है उसके लिए ईश्‍वर और धर्म शायद जगत दिखावे के लिए अनिवार्य तत्व हैं - आचरण के नहीं । ऐसी ही बातों से निष्‍कर्ष निकलते हैं - ‘धार्मिक होने की अपेक्षा धार्मिक दिखना ज्यादा जरूरी है ।’

वास्तविक धार्मिक कौन है - इस फतवेबाजी में मैं नहीं पड़ूँगा ।

(यह पोस्‍ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, साप्‍ताहिक उपग्रह के 10 जुलाई 2008 के अंक में, 'बिना विचारे' शीर्षक स्‍तम्‍भ में भी प्रकाशित हुई है ।)

1 comment:

  1. लोगों ने कपड़े के थेले रखना बंद कर दिया। पहले हर घर में कम से कम चार पाँच होते थे। फिर से रखना शुरू कर दें तो पोलीथीन की बीमारी से निजात मिले। और उस का क्या, जो शादियों में डिस्पोजेबल गिलास उपयोग करते हैं?

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