कल गुरु-पूर्णिमा है । सारे देश में यह पर्व पूरे कर्मकाण्ड से मनाया जाएगा । गुरु-पूजा के नाम जो न हो जाए वह कम । यूँ तो परामर्श दिया गया है कि किसी को गुरु बनाने से पहले उसके बारे में भरपूर छानबीन कर ली जानी चाहिए । लेकिन इस काम के लिए इतनी फुरसत किसी के पास नहीं है । सब भेड़ियाधसान में लगे हुए हैं । हर कोई किसी न किसी के कहने से या मौजूदा गुरुओं की आक्रामक मार्केटिंग से प्रभावित होकर गुरु बना रहा है और श्रद्धान्ध होकर गुरु-पूजा किए जा रहा है । ऐसे में स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का प्रस्तुत लेख न केवल गुरु की तलाश में लगे लोगों को रास्ता दिखाता है बल्कि हमारे आसपास पसरे हुए गुरुओं की वास्तविकता भी बड़ी ही सहजता और सूक्ष्मता से सामने लाता है ।
यह लेख मैं ने, इन्दौर से प्राकशित हो रही त्रैमासिक पत्रिका ‘यथार्थ आरोग्य’ के ‘वट पूर्णिमा-2008’ अंक से लिया है । यह लेख पढ़ने के बाद स्वामी रामसुखदासजी महाराज के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा होगी ही । वे तो अब अब नहीं रहे किन्तु उनकी वसीयत मुझे पढ़ने में आई है जो उनके बारे में सब कुछ कह देती है । वह वसीयत यथा सम्भव, कल प्रस्तुत करुँगा ।
फिलहाल तो यह विचारोत्ततेजक लेख पढ़िए -
गुरु तत्व होता है, शरीर नहीं
स्वामी रासुखदासजी
गुरु बनाने से कल्याण नहीं होता प्रत्युत् गुरु की बात मानने से कल्याण होता है क्यों कि ‘ गुरु शब्द होता है, शरीर नहीं ।
’जो तू चेला देह को, देह खेह की खान ।
जो तू चेला सबद को, सबद ब्रह्म कर मान ।।
गुरु शरीर नहीं होता और शरीर गुरु नहीं होता । न मत्र्यबुद्धयासूयेत । इसलिए गुरु कभी मरता नहीं । अगर गुरु मर जाए तो चेले का कल्याण कैसे होगा ? शरीर को तो अधम कहा गया है -
छिति जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम सरीरा ।।
अगर किसी का हाड़-मांसमय शरीर गुरु होता है तो वह अधम होता है, कालनेमि होता है । इसलिए गुरु में शरीर - बुद्धि करना और शरीर में गुरु-बुद्धि करना अपराध है ।
सन्त एकनाथजी के चरित्र में यह बात बहुत विशेषता से मिलती है । शास्त्र की प्रक्रिया के अनुसार पहले तीर्थयात्रा की जाती है, फिर उपासना की जाती है और फिर ज्ञान होता है । परन्तु एकनाथजी के जीवन में उलटा क्रम मिलता है । पहले ज्ञान हुआ, फिर उन्होंने उपासना की और फिर गुरुजी ने तीर्थयात्रा की आज्ञा दी ।
जब वे तीर्थयात्रा में थे, तब उनके गाँव पैठण का एक ब्राह्मण उनके गुरुजी के पास देवगढ़ पहुँचा और बोला कि महाराज ! आपके यहाँ जो एकनाथ था, उनके दादा-दादी बहुत बूढ़े हो गए हैं और एकनाथ को याद कर-कर रोते रहते हैं । सुनकर गुरुजी को आश्चर्य हुआ कि एकनाथ मेरे पास इतने वर्ष रहा, पर उसने अपने दादा-दादी के विषय में कभी कहा ही नहीं ! उन्होंने एक पत्र उस ब्राह्मण को दिया और कहा कि वह (एकनाथ) तीर्थयात्रा करते हुए जब पैठण आएगा, तब उसे मेरा यह पत्र दे देना । मैं ने कहा है इसलिए वह पैठण जरूर आएगा ।
पत्र लेकर ब्राह्मण चला गया । घूमते-घूमते जब एकनाथजी पैठण पहुँचे तो वे दादा-दादी से मिलने गाँव में नहीं गए, प्रत्युत् गाँव के बाहर ही ठहर गए । उस ब्राह्मण ने जब एकनाथजी को देखा तो उनको पहचान लिया और उनके दादाजी का हाथ पकड़कर उनको एकनाथजी के पास ले चला । संयोग से एकनाथजी रास्ते में ही मिल गए । दादाजी ने स्नेहपूर्वक एकनाथजी को गले से लगाया और गुरुजी का पत्र निकाल कर कहा कि यह तुम्हारे गुरुजी का पत्र है । यह सुनते ही एकनाथजी गदगद हो गए । उन्होंने कपड़ा बिछा कर, उसके ऊपर पत्र रखा, उसकी परिक्रमा करके दण्डवत् प्रणाम किया, फिर उसको पढ़ा । उसमें लिखा था कि एकनाथ ! तुम वहीं रहना । एकनाथजी वहीं बैठ गए । फिर उम्र भर वहाँ से कहीं गए ही नहीं । वहीं मकान बन गया । सत्संग शुरु हो गया । दादा-दादी उनके पास आकर रहे ।
एकनाथजी फिर कभी गुरुजी से मिलने भी नहीं गए । विचार करें, गुरु शरीर हुआ कि वचन हुआ ? जब गुरुजी का शरीर शान्त हो गया तो वे बोले कि गुरु मरे और चेला रोए तो दोनों को क्या ज्ञान मिला ? तात्पर्य है कि गुरु मरता नहीं और चेला रोता नहीं ।
एकनाथजी के चरित्र में जैसी गुरु-भक्ति देखने में आती है, वैसी और किसी सन्त के चरित्र में देखने में नहीं आती । श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध पर उन्होंने मराठी में जो टीका लिखी, उसके प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में उन्होंने विस्तार से गुरु की स्तुति की है । ऐसे परम् गुरु-भक्त एकनाथजी ने गुरु से बढ़कर उनके वचन (आज्ञा) को महत्व दिया ।भगवान् से लाभ उठाने की पाँच बाते हैं - नाम-जप, ध्यान, सेवा आज्ञापालन और संग । परन्तु सन्त-महात्माओं से लाभ उठाने में तीन ही बातें उपयुक्त हैं - सेवा, आज्ञा पालन और संग । इसलिए गुरु का नाम-जप और ध्यान न करके उनकी आज्ञा का पालन कर, उनके सिद्धान्त के अनुसार अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तविक गुरु-पूजा और गुरु-सेवा है । कारण कि सन्त महात्माओं को शरीर से बढ़कर सिद्धान्त प्यारा होता है । वे प्राण छोड़ देते हैं पर सिद्धान्त नहीं ।
गुरु शरीर नहीं प्रत्युत् तत्व होता है । अतः सच्चे गुरु अपना पूजन-ध्यान नहीं करवाते हैं । सच्चे सन्त अपनी आज्ञा का पालन भी नहीं करवाते प्रत्युत् यही कहते हैं कि गीता, रामायण आदि ग्रन्थों की आज्ञा का पालन करो । जो गुरु अपना फोटो देते हैं, उसको गले में धारण करवाते हैं, उसकी पूजा और ध्यान करवाते हैं - वे धोखा देने वाले होते हैं । कहाँ तो भगवान् का चिन्मय शरीर और कहाँ हाड़-मांस का जड़, अपवित्र शरीर ! जहाँ भगवान् की पूजा होनी चाहिए वहाँ हाड़-मांस के पुतले की पूजा होना बड़ा भरी दोष है । जैसे राजा से वैर करने वाला, उसके विरूद्ध चलने वाला राजद्रोही होता है, ऐसे ही अपनी पूजा करवानेवाला, भगवद्द्रोही होता है ।
गीता प्रेस के संस्थापक, संचालक और संरक्षक सेठश्री जयदयालजी गोयन्दका से एक सज्जन ने कहा कि हम आपकी फोटो लेना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि पहले अपनी जूती लाकर मेरे सिर पर बाँध दो, पीछे फोटो ले लो ! अपनी पूजा कराना मैं (अपने को) जूता मारने की तरह समझता हूँ ।
एक बार सेठजी ने एक सन्त से पूछा कि आप पुस्तकों में अपना चित्र दिया करते हैं, अपने नाम, चित्र आदि का प्रचार करते हैं तो इससे आपका भला होता है या शिष्यों का भला होता है अथवा संसार का भला होता है ? किसका भला होता है ? इस प्रश्न का उत्तर उन सन्त से देते नहीं बना ।
जनोपयोगी आलेख। आभार!
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