शुक्रवार, 30 मई की शाम से मैं विकल, व्यथित और क्षुब्ध हूँ । खुद को साक्षी भाव से देखने का मेरा प्रत्येक प्रयास मुझे मेरी ही नजरों में लज्जित कर रहा है और मुझे धिक्कार रहा है ।
इन दिनों घर में अकेला हूँ । गर्मी की छुट्टियों के कारण पत्नी मायके गई हुई है । बड़ा बेटा नौकरी के प्रयोजन से मुम्बई, बहू अपने मायके और छोटा बेटा पढ़ाई के निमित्त इन्दौर है । भोजन बनाना सीखा नहीं सो नगर की विभिन्न होटलों में पगफेरा बना हुआ है ।
शुक्रवार, 30 मई की शाम एक मित्र से मिलने रेल्वे स्टेशन गया था । वे उज्जैन से सूरत जा रहे थे । उन्हें विदा कर लौटने लगा तब तक रात के आठ बजने ही वाले थे । भूख भी लग आई थी । सो, रेल्वे स्टेशन पर ही, आईआरसीटीसी के नाम पर चलने वाली, ठेकेदार की केण्टीन में भोजन करने का विचार आया ।
ठेके की ऐसी व्यवस्थाओं को अंजाम देने वाले लोग, यन्त्रवत व्यवहार करते हैं । मनुष्यता की सहज ऊष्मा वहाँ गैरहाजिर ही रहती है । सो, भोजन का मूल्य चुका कर पहले टोकन लिया । कर्मचारी ने निर्विकार भाव से, ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ में थाली लगाई । थाली में रखी रोटियाँ देख कर मन असहज हो गया । एक भी रोटी बिना जली हुई नहीं थी । कौर तोड़ने के लिए रोटी थामी तो असहजता, झुंझलाहट में बदलने लगी । रोटियाँ नाम मात्र को भी गर्म नहीं थी । निस्सन्देह वे ‘फ्रीज्ड’ नहीं थी लेकिन ‘रूम टेम्परेचर’ से भी कम तापमान पर थीं । मैं ने तनिक गरम रोटियों का आग्रह किया तो तैनात ‘रोबोट’ ने मेरी ओर देखे बिना कहा - ‘रोटियाँ तो यही हैं ।’ मैं ‘बे-चारा’ दशा में था । मैं ने कौर तोड़ कर दाल के साथ पहला निवाला लिया तो दाल खट्टी लगी । या तो बास गई थी या फिर बासने ही वाली थी । लेकिन कहा कुछ भी नहीं । कहने का कोई मतलब ही नजर नहीं आ रहा था । थाली में रखी सब्जी की दो कटोरियाँ तसल्ली और भरोसा दे रही थीं ।
निवाले को चम्मच की शकल देकर पहली कटोरी की सब्जी ली । लेकिन मुँह में रखते ही मानो आग लग गई । देखने में जो सब्जी आलू की लग रही थी वह वास्तव में मिर्ची की थी । इतनी तेज कि दूसरा निवाला लेने की हिम्मत ही नहीं हुई । दूसरी कटोरी में भजिया कढ़ी थी । अब उसी का आसरा रह गया था । लेकिन उसने भी साथ नहीं दिया । उसमें नमक इतना ज्यादा था मानो, सब्जी के पूरे घान का नमक मेरी कटोरी में मिला दिया गया था ।
कोई बीस-बाईस लोगों की बैठक क्षमता वाली उस केण्टीन में उस समय कुल दो लोग थे - मैं और ठेकेदार का एक कर्मचारी । थाली सामने आए कोई चार-पाँच मिनिट हो चुके थे, भूख जोर से लगी हुई थी लेकिन मैं दूसरा निवाला नहीं ले पा रहा था । केण्टीन में फुटकर रूप से दूसरी ऐसी कोई सामग्री भी नहीं थी जिसके साथ रोटी खाई जा सके ।
मुझे गुस्सा आने लगा था लेकिन उससे पहले और उससे कहीं अधिक भूख जोर मार रही थी । पेट माँग रहा था और जबान कबूल नहीं कर पा रही थी । सोचा, किसी दूसरी होटल में भोजन कर लिया जाए ।
लेकिन यह विचार अकेला नहीं आया । इसके साथ विचारों का झंझावात और मेरे अतीत की पूरी चित्र श्रृंखला भी चली आई ।
हमारा परिवार, भीख की रोटियों पर पला परिवार है । मेरे पिताजी दोनों पैरों और दाहीने हाथ से पूर्णतः और बाँये हाथ से अंशतः जन्मना विकलांग थे । मेरी माँ, चुनिन्दा घरों से रोटियाँ माँग कर लाती थी । ये घर माहेश्वरियों और (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) जैनों के थे । तब मैं बहुत छोटा था लेकिन यह भली प्रकार याद है कि कभी-कभी मैं भी माँ के साथ जाया करता था । तयशुदा घर के दरवाजे पर पहुँच कर माँ आवाज लगाती - ‘रामजी की जय ।’ प्रत्युत्तर में गृहस्वामिनी रोटी लेकर आती । मेरी माँ अपने हाथ का बर्तन सामने करती और रोटी उसमें, हलकी सी ‘झप्प’ की आवाज करती हुई गिरती । रोटी गरम-गरम होती और महत्वपूर्ण बात यह होती कि गृहस्वामिनी की आँखों में न तो कोई दया भाव होता और ही दान करने का । अलग-अलग घर की अलग-अलग रोटी । कभी-कभी कोई गृहस्वामिनी रोटी के साथ सब्जी या कोई मिठाई या मौसम का पकवान रख देती थी ।
सारे घरों का चक्कर लगा कर माँ लौटती तो घर को भोजन मिलता । कभी सब्जी होती तो प्रायः ही नहीं होती । मेरा स्मृति कोष बहुत अधिक सम्पन्न नहीं लेकिन माँ, बड़ी बहन (जीजी) और दादा के मुँह से, माँ की इस भिक्षावृत्ति के असंख्य प्रसंग सुने और असंख्य बार सुने । जीजी भी रोटियाँ माँगने जाती - कभी माँ के साथ तो कभी अकेली । दादा ने भी खूब रोटियाँ माँगीं ।
भिक्षावृत्ति का यह क्रम हमारे परिवार में बरसों तक चला । छठवीं-सातवीं कक्षा तक मैं ने भी घर-घर जाकर, ‘रामजी की जय’ की आवाज लगा कर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगा । दादा को यह वृत्ति कभी पसन्द नहीं आई । लेकिन अपाहिज पिता और विवश माँ की कोई सहायता कर पाना उनके लिए तब सम्भव नहीं हो पा रहा था । वे जैसे ही इस स्थिति में आए, उन्होंने लगभग विद्राह कर, माँ के हाथ से भीख का बर्तन और मेरे हाथ से लोटा छुड़वाया । मेरे पिताजी ने इस निर्णय को कभी स्वीकार नहीं किया । उनकी राय में यह तो हम बैरागी साधुओं का पवित्र कर्तव्य था जिसका त्याग कर हम ईश्वर के अपराधी बन रहे थे । लेकिन दादा के तर्कों के आगे पिताजी की एक न चली ।
जिस पहले दिन मेरी माँ रोटी माँगने नहीं गई उस दिन मेरी माँ खूब रोई । लेकिन यह रोना खुशी का था । दादा ने माँ को भिखारी से गृहस्थन का सम्मान और दर्जा जो दिला दिया था । यह दादा ही थे जिन्होंने हमारे पूरे परिवार की दशा सुधारी और सँवारी ।
रेल्वे केण्टीन में, मेरे सामने रखी थाली की रोटियाँ और दाल-सब्जियों की कटोरियाँ मुझे नजर नहीं आ रही थीं । मुझे रोटियाँ माँगती मेरी माँ नजर आ रही थी, मुट्ठी भर आटे के लिए अपने हाथ में थामा, पीतल का बड़ा लोटा आगे करता हुआ मैं अपने आप को देख रहा था । ‘रामजी की जय’ वाली, मेरी माँ की और मेरी आवाजें कानों में इस जोर से गूंज रही थीं मानो मेरे कान फट जाएँगे और उनसे लहू रिसना शुरू हो जाएगा । इस सबके साथ ही साथ, दादा के दिए संस्कार हिमालय बन कर सामने खड़े हो गए थे । दादा ने दो बातें हमें सिखाईं । पहली - थाली में जो भी सामने आए, उसे बिना किसी शिकायत के, पूरे सम्मान और प्रेम सहित स्वीकार करो । दूसरी - थाली में कभी भी जूठन मत छोड़ो ।
सुनसान रेल्वे केण्टीन में मैं जड़वत बैठा था । न बैठते बन रहा था और न ही रूका जा रहा था । मुझे बार-बार लग रहा था मेरी स्वर्गवासी माँ, दादा और राजस्थान के दूर-दराज छोटे से गाँव में रह रही मेरी जीजी, सबके सब मुझे घेर कर खड़े हैं और जिज्ञासा भाव से मेरे निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
मेरी भूख मर गई थी, तेज मिर्ची और खूब सारे नमक का स्वाद जबान से उड़ चुका था, रोटियों का ठण्डापन अपने मायने खो चुका था । सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था । अचानक ही मुँह फिर खारा हो गया - मैं रो रहा था और आँसू बहे जा रहे थे ।
अन्ततः मैं भोजन किए बिना उठ आया । मैं देख पा रहा था कि मेरी माँ, दादा और बड़ी बहन मुझे अविश्वास भाव से घूरे जा रहे हैं । वे मुझसे न तो कुछ पूछ रहे हैं और न ही कुछ कह रहे हैं । बस, मुझे घूरे जा रहे हैं । भिक्षावृत्ति पर पला-बढ़ा और अन्न को सदैव सम्मान देने के लिए संस्कारित कोई उनका अपना, थाली में जूठन छोड़ कर जा रहा है - केवल इसलिए कि रोटियाँ ठण्डी/जली हुई हैं, दाल बासी है, एक सब्जी में मिर्ची बहुत तेज है और दूसरी में नमक बहुत ज्यादा । मैं केण्टीन से बाहर निकलूँ उससे पहले ही वे मेरी ओर पीठ फेर कर धीरे-धीरे चले गए ।
मैं सीधा घर आया । भोजन कर पाना मेरे लिए मुमकिन ही नहीं रह गया था । भूख मर चुकी थी और शायद उससे पहले मेरी आत्मा । मैं संस्कारच्युत हो चुका था । मैं ने भिखारी की अस्मिता को लांछित और अपमानित कर दिया था । कोई भिखारी भला जूठन कैसे छोड् सकता है १
तब से मैं विकल, व्यथित और क्षुब्ध हूँ । खुद को साक्षी भाव से देखने का मेरा प्रत्येक प्रयास मुझे मेरी ही नजरों में लज्जित कर रहा है और मुझे धिक्कार रहा है ।
जिस देश के 80 प्रतिशत लोग 20 रूपये रोज पर जीवन यापन कर रहे हैं, जिस समाज में, सामूहिक भोज की झूठी पत्तलों के ढेर पर बच्चे टूट पड़ रहे हों, उस देश और समाज में कोई ‘भिखारी’ जूठन छोड़ने का विलासिता भला कैसे कर सकता है ?
मैं खुद से नजरें नहीं मिला पा रहा हूँ ।
आपकी इस पोस्ट ने मेरे भी मन में कई अपराध बोध जगा दिए हैं और इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ | मेरे दादाजी मथुरा के पास कोसी नाम के कसबे में एक दर्जी थे | मेरे पिता जी सबसे बड़ी संतान थे और साथ में छ: अन्य भाई बहन | पिताजी मिट्टी के तेल की कुप्पी और बिजली के खंभे के नीचे बैठ के पढ़ते रहे | ग्यारहवी तक आते आते दादाजी की तबियत अचानक ख़राब हुयी तो पिताजी ने पढ़ाई के साथ साथ सिलाई का काम भी संभाला | जैसे तैसे मेहनत और लगन से अपना जीवन संवारा और अपने ख़ुद के परिवार में भी अच्छे संस्कार दिए |
ReplyDeleteमुझे अपने बचपन की अनेको यादें ताजा हो गयी हैं, मेरा बचपन अभाव में तो नहीं बीता लेकिन सम्पन्नता भी नहीं थी | लेकिन आज इस भाग दौड़ में ठहरकर कुछ सोचने को बाध्य किया है आपकी इस पोस्ट ने, इसके लिए आपको धन्यवाद |
पढ़ते पढ़ते आँखें सजल हो उठीं. सचमुच मार्मिक, कारूणिक आख्यान है.
ReplyDeleteमैं एक सम्पन्न परिवार से हू. दुःख और परेशानिया नही हुई. आज मैं घर से पैसे नही लेता. दिल्ली में नौकरी करता हू, घरवाले कहते हैं की १०००० रुपए में कैसे रहता होगा वो परेशां होते हैं लेकिन मैं नही... लोगो के पास कम परेशानिया हैं. और हम अपने सुख में डूबे हुए हैं. आपका यह पोस्ट बेहद ही मार्मिक पोस्ट हैं. आँखे नम हो गई..
ReplyDeleteअद्भुत प्रवाहमयी पोस्ट. अपने साथ बहा ले गयी.
ReplyDeleteथोड़ा संभलकर कहें तो ये कि परिस्थितियां बदलने पर सोच में थोड़ा बहुत परिवर्तन आ जाना स्वाभाविक है और शायद आवश्यक भी.
रेल्वे की केन्टीन में खाने का स्तर ठीक ठाक ही हुआ करता था, अब तो लगभग सात आठ साल से नहीं खाया है. मगर राजकोट में बस स्टेंड की केन्टीन में एक बार (१९९८ में) खाना खाना पड़ा था. बिल्कुल वैसा ही जैसा आपने पोस्ट में वर्णन किया है. छोड़ना ही पड़ा था.
आँखे भर आई है.
ReplyDeleteकुछ नही कह सकने की स्थिति मे हूँ.
मार्मिक।
ReplyDeleteवाकई आंख भर आई बैरागी जी!
स्तब्द्ध हूँ आपके इस अद्भुत, साहसी एवं अति मार्मिक आलेख को पढ़कर. नमन करता हूँ.
ReplyDeleteस्तब्द्ध हूँ आपके इस अद्भुत, साहसी एवं अति मार्मिक आलेख को पढ़कर. नमन करता हूँ.
ReplyDeleteस्तब्द्ध हूँ आपके इस अद्भुत, साहसी एवं अति मार्मिक आलेख को पढ़कर. नमन करता हूँ.
ReplyDeleteकंठ रुंधा है। बस इतना कह सकता हूँ कि नियमित लिखें और हमें अपनी आत्मा से साक्षात्कार के और भी मौके दें।
ReplyDeleteमुझे याद आ गया कि मेरी माँ, जब भी मैं कभी बीमार पड़ा, आंसू बहा देती थीं पुराने दिन याद कर। जब मैं उनके गर्भ में था तब बड़े कष्ट के दिन थे, वे ससुराल में थीं जहाँ दो जून की रोटी रोज नसीब न होती थी। गर्भावस्था के दौरान कितनी ही बार केवल भात का माढ़ पीकर भी रात बसर की। जब मैं जन्मां तो वे इसलिये ज्यादा खुश थीं कि शिशु स्वस्थ था। संपन्नता के दिन प्रभु मुझे बस ये दिन और किस्से न भुलने दे यही प्रार्थना करता हूं और हाँ अपने पुत्र को मैं यह ज़रूर समझाता रहता हूँ कि अन्न का अपमान कभी न हो पाये।