सुख-दुःख की बातें तो हम, सावधानी और सजगता बरतते हुए एक-दूसरे को पहुँचाते हैं लेकिन अच्छी बातें और अच्छेपन की बातें अपने आप तक रख लेते हैं। ऐसा हम किसी स्वार्थ या लालच के वशीभूत नहीं, सहज होकर करते हैं । इसका सम्भवत: एक मात्र कारण यही हो सकता है कि हम सब यह मानकर चलते हैं कि तमाम अच्छी बातें सबको मालूम होंगी ही । जाहिर है कि हम सब चेतन-अचेतन से, मूलत: अच्छे हैं, और अच्छे बने रहना चाहते हैं । लेकिन मजेदार बात यह है कि इस `विराट-व्यापक अच्छे पन' के मुकाबले चर्चा हमेशा ही खराब बातों की होती है । हो भी क्यों नहीं ? खीर की कड़ाही में पड़ा कचरा ही तो आँखों में चुभता है और इसीलिए खीर का जिक्र कम और कचरे का ज्यादा होता है । इतना ज्यादा कि कचरा न केवल प्रमुख हो जाता है बल्कि लगने लगता है कि कचरा ही सर्वव्यापी, सर्वप्रभावी हो गया है । तब, कचरे का भय इतना और इस कदर जकड़ लेता है कि अच्छाइयों पर और अच्छाइयों के होने पर से ही भरोसा उठने लगता है । इसलिए और इसीलिए, अच्छाइयों का और अच्छेपन का जिक्र करना, निरन्तर करते रहना न केवल जरूरी बल्कि हम सबकी जिम्मेदारी भी हो जाता है ।
इन तमाम बातों का अहसास मुझे श्री विजय नागर ने कराया । कोई बाईस बरस पहले वे रतलाम आए थे और चार साल रहकर चले गए । स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर में सेवारत थे । अपने काम के प्रति जितने सजग-सतर्क, समर्पित, निष्ठावान उतने ही निष्णात् भी । अत्यधिक अन्तर्मुखी प्रकृति के । शायद इसीलिए वे नहीं बोलते थे, उनका काम बोलता था । उनके अन्तरंग में प्रवेश न हो तब तक तो `छुई-मुई' अनुभव होते रहे लेकिन उनकी दुनिया में प्रवेश होने पर मालूम पड़ा कि वहाँ तो यारी-दोस्ती का, शरबती चश्मा मौजूद है । चाहो तो किनारे बैठकर भर-चुल्लू पीते रहो और चाहो तो उतर कर डुबकियाँ लगा लो । उनकी ओर से कोई रोक-टोक नहीं । कंजूसी होगी तो अपनी ओर से ही । ऐसे `प्रेम सागर' नागर साहब इन दिनों मुझे `अच्छी चीजों' से मालामाल कर रहे हैं । शेर-ओ-शायरी के शौकीन नागर साहब खूब पढ़ते हैं और अपने पढ़े हुए में से चुने हुए शेर अपने मित्रों को लिख भेजते हैं । मेरा सौभाग्य कि उन्होंने मुझे भी ऐसे लोगों में शरीक कर रखा है । उनके भेजे कुछ शेर पढ़िए-
दहशत का माहौल है सारी बस्ती में
क्या कोई अखबार निकलने वाला है
धूप के डर से कब तक घर में बैठोगे
सूरज तो हर रोज निकलने वाला है
जिससे दब जाए कराहें घर की
कुछ न कुछ शोर मचाए रखिए
जाग जाएगा तो हक माँगेगा
सोये इन्साँ को सुलाये रखिए
अना बेची, वफा की लौ बुझा दी
उसे धुन कामयाबी की लगी है
सब्र का घूँट पी लिया तो क्या
`कम है' कहना हमें भी आता है
हैं मरासिम जो रोक लेते हैं
साफ कहना हमें भी आता है
मैं एक दिन बेखयाली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ, मुँह की कड़वाहट नहीं जाती
मियाँ मैं शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुंझलाहट नहीं जाती
लोग बनवा रहे हैं शीश महल
पत्थरों की जरा कमी है
अभी मारो-मारो का शोर उठता है
भीड़ में कोई आदमी है अभी
उम्मीद नहीं, गले - गले तक यकीन है कि ये शेर पढ़ते-पढ़ते आप बार-बार उछल पड़े होंगे और अपने न चाहने पर भी आप `वाह! वाह!' कर उठे होंगे । मुनव्वर राना, राहत इन्दौरी, दीक्षित दनकौरी तथा अन्य अनाम शायरों के इन शेरों में क्या नहीं है ? वर्तमान की विसंगतियाँ, आदमी की अन्धी महत्वाकांक्षा, प्रतिरोध का प्रेरक आग्रह, अपने होने का अहसास, आदमी की खुद्दारी याने कि वह हर बात जो हमें हमारे आसपास जरूरी लगती है, इन शेरों में मौजूद है ।
लेकिन बातें शेरों की नहीं, अपने पढ़े हुए शेर दूसरों को लिख भेजने की मानसिकता की है । बुरी बात की चर्चा करने का कोई मौका हम नहीं छोड़ते और अच्छी बातों का जिक्र करना जरूरी नहीं समझते । ऐसे मन:स्थिति और माहौल में नागर साहब मुझे `सुगन्ध के दुर्व्यसनी' लगते हैं जो अपनी जमात में बढ़ोतरी करने की कोशिशें निहायत ही निजी तौर पर करने में लगे हुए हैं ।
अच्छी बातें फैलाने का सीधा मतलब और सीधा असर होता है- बुरी या खराब बातों का दबना या खारिज होना । यह बात समझ में आते ही मुझे नागर साहब की इस वृत्ति का महत्व अनुभव हुआ । इसमें मुझे हमारे वर्तमान के संकट का हल नजर आता है ।
दुष्ट-दुर्जन निरन्तर सम्पर्कित और सक्रिय रहते हैं जबकि सज्जन अपनी-अपनी सज्जनता के हिमालयी शिखर पर अकेले बैठे रहते हैं- न तो किसी से सम्पर्क करते हैं न ही किसी से कोई बात ही करते हैं । जिसे गरज होगी, खुद चलकर हमारे पास आएगा । ऐसे में `सुगन्ध के दुर्व्यसनी' नागर साहब अनायास ही एक रास्ता दिखाते हैं, उम्मीद बँधाते हैं ।
ईश्वर करे हम सब `सुगन्ध के दुर्व्यसनी' बन जाएँ।
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