इस दीपावली, मैं एक विचित्र किन्तु रोचक दुर्घटना का शिकार होता रहा - पूरे दिन भर । कल मेरी पूछ-परख नाम मात्र को ही हुई, मानो मजबूरी में या फिर औपचारिकतावश करनी पड़ रही हो । इसके विपरीत, मेरी पत्नी कल अतिरिक्त रूप से व्यस्त रही । इतनी व्यस्त कि अस्तव्यस्त हो गई । यह सब मेरे नाम के कारण हुआ ।
जूते खोलने के श्रम से बचने के लिए जो मिलनेवाले, मेरे दरवाजे में भी नहीं घुसते थे वे, झुक-झुक कर, अपने जूतों के फीते खोलने का दुरुह श्रम कर मेरे ड्राइंग रूम को पार कर, ठेठ रसोई तक में जाकर मेरी पत्नी का अभिवादन कर रहे थे, चरण स्पर्श कर रहे थे, आशीर्वाद/शुभ-कामनाएँ लेने को टूटे जा रहे थे ।
मैं हैरान था । मेरे खाते में ‘कैसे हैं ?’ या फिर ‘हेप्पी दीवाली’ जैसे शब्द-युग्म आ रहे थे । मैं विस्मित, क्षुब्ध और चकित था । समझ नहीं पा रहा था कि त्यौहार वाले दिन मेरे ही घर में मेरी अनदेखी क्यों की जा रही है ?
अपने ही घर में अपनी ही उपेक्षा (वह भी ‘घर की लुगाई’ के मुकाबले) भला कोई कब तक सहन कर सकता है ? सो, जब धैर्य ने साथ छोड़ दिया तो एक मित्र से पूछ ही लिया - ‘भैया ! आज अपनी भाभी की इतनी पूछ-परख क्यों ? मैं दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा हूं ?’ मित्र ने मुझे ऐसे घूरा मानो ऐसा ‘निरा-मूर्ख’ जीवन में पहली बार देख रहा हो । मुझ पर तरस खाते हुए जवाब दिया - ‘मिथ्या दम्भ ने आपकी अकल को ढँक लिया है इसीलिए छोटी सी बात भी इतने बड़े भेजे में नहीं आ रही है । अरे भाई ! दीपावली के दिन तो 'विष्णु' की नहीं, ‘विष्णु-भार्या’ की पूछ-परख होती, । आपका क्या है, बीमा एजेण्ट हो । कभी भी, कहीं भी, रास्ते चलते मिल जाते हो । आज ‘विष्णु’ का नहीं, ‘विष्णु प्रिया’ का दिन है । तीन सौ चैंसठ दिन आपको नमन करते हैं, एक दिन तो ‘विष्णु-पत्नी’ को नमस्कार कर लेने दो ।’
सुनकर पहले तो मैं अचकचाया । बात हजम नहीं हुई। ‘आहत-अहम्’ का मामला था । सो, मैं ने उन्हें मालवा की एक लोक-कथा सुनाई ।
श्रीलक्ष्मीनाराण मन्दिर में विग्रह स्वरूप में विराजित भगवान विष्णु दीपावली की सवेरे से ही अपने भक्तों के आचरण को सस्मित देखे जा रहे थे । रोज उनकी कृपा की याचना करने वाले भक्त आज कुछ माँगे बिना ही, केवल प्रणाम कर लौट रहे थे । मनुष्य के मन की राई-रत्ती खबर रखने वाले भगवान विष्णु ने, दर्शनार्थ आए भक्तों के एक समूह को रोक कर पूछ ही लिया - ‘आज आप लोग मुझसे कुछ नहीं माँग रहे, अपने निवास को अपनाने का आग्रह नहीं कर रहे ?’ तनिक साहस सँजो कर एक भक्त ने उत्तर दिया - ‘भगवन् ! आज आप क्षीर सागर में ही विश्राम करें । आज हमें आपकी अर्ध्दांगिनी चाहिए । उन्हें भेज दीजिएगा ।’ अन्तर्यामी सहास्य बोले - ‘‘भेज तो दूँगा लेकिन एक बात याद रखना । मेरी यह ‘सदा-सौवना भार्या’ यदि अमावस्या की अँधेरी-काली रात में दुनिया भर के दरवाजों में झाँक-झाँक कर देखती है तो इसका कारण यह नहीं है कि मैं बूढ़ा हो गया हूं । यह पूर्ण पतिव्रता और स्वामीनिष्ठ है । यदि तू इसे ‘स्वामी भाव’ से अपने यहाँ रखना चाहता है तो अपना भ्रम दूर कर लेना । यह मेरे पास नहीं रहती तो तेरे पास क्या रहेगी ? ध्यान से विचार कर, सोच ! यह ‘स्वामी’ की खोज में दर-दर नहीं भटकती । यह पुत्रविहीना, पुत्र की तलाश में घर-घर भटकती है । तू ‘पुत्र-भाव’ से इसकी कामना करेगा तो यह आजीवन तुझ पर कृपा वर्षा करती रहेगी । तू भले की ‘कुपुत्र’ बन जाए, यह कभी भी ‘कुमाता’ नहीं बनेगी ।’
यह लोक-कथा सुन, मेरी पत्नी की ओर लपक रहे मेरे मित्र ‘हें ! हें !’ करते मेरे पास बैठ कर दीपावली की मिठाई के साथ न्याय करने लगे ।
मेरा आहत अहम् तुष्ट हो चुका था ।
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चलिए तुष्टिकरण हो लिया...हें हें तो हम भी कर रहे हैं..मिठाई का क्या जुगाड़ है??
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन लिखा है.
khub likha sir jee, narayan narayan
ReplyDeleteबधाई. आपने अपना ब्लॉग रोल सजा लिया - त्वरित गति से!
ReplyDeleteबड़े भाई और भाभी को दीपावली पर प्रणाम। बच्चों को आशीष!
ReplyDeleteबहुत अच्छी कथा है। मैं अनेक दिनों से ब्लाग रोल सजाना चाहता हूं। रवि भाई और आप से प्रेऱणा मिली है, यह करता हूँ।
bahut acchhi post hai.aabhaar
ReplyDeleteमुबारक हो दीपावली ।
ReplyDeleteपोस्ट के नीचे जो हिदायत आपने दी है लाल अक्षरों से । वो भी बहुत दिलचस्प है ।
रविजी,
ReplyDeleteअपने कठिन परिश्रम का श्रेय दूसरों को देने की उदारता कोई आपसे सीखे ।
मेरा ब्लाग सजाने के मूल में तो आप ही हैं (मेरी अगली पोस्ट देखिएगा) और श्रेय दे रहे हैं मुझे, प्रशंसा कर रहे हैं मेरी ।
मौं आपके सामने नतमस्त हूं । ईश्वर मुझे, आपका यह गुण्ा प्रदान करे ।