गए दो दिनों से मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा हूँ । एक अपराध-बोध से मुक्ति मिल गई है मुझे । तनिक अलंकारिक भाषा का उपयोग करुँ और शब्दाडम्बर रचूँ तो कह सकता हूँ-दशहरे से एक दिन पहले, नवमी की दोपहर ही मैंने रावण मार दिया ।
वस्तुतः परसों दोपहर मैं ने केबल कनेक्शन से मुक्ति पा ली । पहले डेड़ सौ और गए कोई एक साल भर से एक सौ अस्सी रुपये प्रति माह मुझे केबल कनेक्शन के लिए भुगतान करना पड़ता था । यह भुगतान करते हुए, केबल संचालक के कारिन्दे से हर बार मेरा झगड़ा होता था । मुझे इस भगुतान की रसीद आज तक नहीं मिली । मुझे क्या, मेरे मोहल्ले में किसी को नहीं मिली । यही स्थिति कस्बे के तमाम केबल कनेक्शनधारियों की होगी क्यों कि बीमे के कारण मेरा उठना-बैठना लगभग पूरे कस्बे में होता है और मैं ने पाया है कि भुगतान तो प्रत्येक कनेक्शनधारी करता है लेकिन पावती एक को भी नहीं मिलती ।
कनेक्शन के किराए की रकम पर मेरा कोई विवाद कभी नहीं रहा । रसीद न मिलना ही विवाद का एकमात्र कारण रहा । मुझे अच्छी तरह पता है कि प्रत्येक कनेक्शन के किराए की रकम पर राज्य सरकार को टैक्स मिलता है । मेरे कस्बे की आबादी कोई तीन-सवा तीन लाख है और कनेक्शनधारियों की संख्या किसी भी हालत में 25 हजार से कम नहीं होगी । लेकिन सरकारी रेकार्ड में मुश्िकल से दो-ढाई हजार कनेक्शन चल रहे हैं । इन दो-ढाई हजार को भी रसीद नहीं मिलती है । केबल संचालक, सरकार को जो आँकड़ा दे देता है (या उसका दिया गया जो आँकड़ा सरकारी अमला स्वीकार कर लेता है) उसकी रसीदों का सत्यापन कोई नहीं करता । ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए कि मामला बड़े आर्थिक घपले का है, किसी अतिरिक्त अकल या समझ की जरूरत नहीं होती । यह घपला कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता । जिला आबकारी अधिकारी से लेकर केबल संचालक के कारिन्दे तक की पूरी श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी इसमें बराबर की भागीदार है । मुझे वेदना इसी बात की होती थी कि मैं भी ऐसी ही एक कड़ी हूँ ।
इस वेदना से मुक्ति पाने के लिए मैं ने केबल संचालक, स्थानीय चैनल संचालकों, आबकारी निरीक्षक, आबकारी अधिकारी, जिला कलेक्टर-याने, यथासम्भव प्रत्येक पायदान पर गुहार लगाई लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई । मुझ जैसे ही कुछ मित्रों से कहा तो उन्होंने मुझसे सहमति तो जमाई लेकिन साथ चलने कोई नहीं आया । प्रत्येक ने कहा - ‘मुद्दा वाजिब है, आप लगे रहो ।’ मैं अपने आप को बड़ा ‘तीस मार खाँ’ मानता हूँ लेकिन स्वीकार करता हूँ कि इस मामले मैं ने घुटने टेक दिए । एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह से लड़ा जा सकता है लेकिन व्यवस्था से लड़ पाना अत्यधिक दुसाध्य, लगभग प्राणलेवा है ।
मुझे यही त्रास और अपराध-बोध था कि मैं अकारण की ‘कर चोरी’ में भागीदार हूँ । लेकिन इससे भी बड़ा त्रास यह तथ्य था कि मेरी यह भागीदारी एक ऐसे उपक्रम (केबल कनेक्शन) के लिए है जिसके बिना भी जीवन आसानी से जीया जा सकता है । एक सर्वथा अनावश्यक सुविधा के लिए मैं इस ‘चोट्टेपने’ में भागीदारी करता रहा । ‘इंसानी फितरत‘ के तहत मैं अपने आप से यही कह कर तसल्ली कर लेता हूँ कि इस ‘चोट्टेपने’ में पूरा देश भागीदार है ।
तीन दिन पहले, वासु भाई गुरबानी ने जब मेरी मनोदशा जानी तो उन्होंने कहा - ‘दादा ! आप डीटीएच क्यों नहीं ले लेते ?’ इसके बारे में मैंने सुना और पढ़ा था लेकिन मैं कबूल करता हूँ कि इसकी ठीक-ठीक जानकारी मुझे नहीं थी । जब उन्होंने इसके बारे में विस्तार से बताया तो मेरा अपराध-बोध और गहरा गया - यह सब मैं ने अब तक क्यों नहीं जाना ? वासु भाई खुद डीटीएच उपकरणों का व्यापार करते हैं । तीन दिन पहले, शारदीय महाष्ठमी की शाम उनसे बात हुई और अगले ही दिन, नवमी की दोपहर उन्होंने मेरे निवास की छत पर अपनी छतरी तान दी ।
अब मैं केबल कनेक्शनधारी नहीं हूँ । अकारण ही ‘कर चोरी’ का हिस्सा नहीं हूँ । हालाँकि इसके लिए मुझे एक मुश्त सवा चार हजार रूपये चुकाने पड़े हैं जिसका असर मेरे अगले तीन माह के बजट पर पड़ेगा लेकिन अपराध-बोध की मानसिक यन्त्रणा से मुक्त होने के सुख के मुकाबले वह काफी कम ही होगा ।
हाँ, इससे मुझे एक अतिरिक्त लाभ भी होगा । यूनुस भाई (अरे वही अपने ‘रेडियोवाणी’ वाले) की आवाज भी शायद इस डीटीएच की वजह से सुन सकूँगा । कोई सवा महीने पहले रविजी ने बताया था कि इस सुविधा के कारण वे यूनुस भाई के कार्यक्रम सुनते रहते हैं ।
सो, मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा हूँ - ‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है तुमने मुझे उड़ते हुए’ की तर्ज पर ।
जैसी राहत मुझे मिली है, भगवान करे, सबको मिले ।
मालवा में ‘बासी दशहरा’ मनाने की परम्परा है । सो, मेरी इस ‘मुक्त मनःस्थिति’ और अन्तर्मन से आप सबको विजय पर्व के हार्दिक अभिनन्दन ।
बहुत ही साहसपूर्ण निर्णय है ।
ReplyDeleteखुशी इस बात की है कि आप अब विविध भारती सुन पायेंगे । जिसके लिए आप कई दिनों से प्रयास कर रहे थे । वो भी चौबीसों घंटे ।
यानी संपर्क का एक और सूत्र तैयार हो गया ।
मुक्ति की बधाई। डीटीएच के अनुभव लिखें भाई!
ReplyDeleteआप ने बहुत सुंदर काम किया है। मैं भी करना चाहता हूँ। वैसे भी केबल मेरे काम कम ही आता है शोभा के अधिक। आप डीटीएच के अनुभव लिखें तो और लोग भी साहस करें।
ReplyDelete‘आजकल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है तुमने मुझे उड़ते हुए’
ReplyDeleteआपको बहुत बधाई हो विष्णु जी.
एक व्यक्ति का व्यवस्था से लड़ पाना आसान नहीं है मगर प्रयास करने पर हम अपने जैसे दो-चार अच्छे और जीवट वाले लोगों को तो साथ ला ही सकते हैं.
रावणों से मुक्ति की बधाई।
ReplyDeletebahut achha prayas..aapne hum ko bhi ek roshni dikha di, hum bhi isi samasya se gujar rahe the..
ReplyDeletebahut achha prayas..aapne hum ko bhi ek roshni dikha di, hum bhi isi samasya se gujar rahe the..
ReplyDeleteबहुत बधाई हो जी इस मुक्ति पर..अब खुल कर ब्लॉगिंग करें..विजय पर्व पर आपका भी हार्दिक अभिनन्दन..
ReplyDeleteरावणों को मारने की बधाई
ReplyDeleteप्रेरणा दायक लेख ! बहुत बढ़िया काम किया आपने :-)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख। ये तो हमने भी नहीं सोचा था कि बिना रसीद का कारोबार घपले का धंधा होता है। केबल टीवी से हमारा वास्ता केवल विभिन्न न्यूज चैनलों की हैडलाईन तक सीमित है। कई बार डीटीएच की योजना बनी पर हर बार सिर्फ इस वजह से अटक गई क्योंकि घर मे तीन विभिन्न अभिरुचि वर्ग हैं जो तीन पृथक टीवी सेट पर कार्यक्रम देखते हैं। ऐसे में तीन डिश लगवाने के अलावा कोई चारा नहीं है जो हम नहीं चाहते और व्यावहारिक भी नहीं। बस, यही सोचकर अभी तक हिम्मत नहीं की।
ReplyDeleteमालवी परम्परा हम भी निभाते हुए आपको दशहरा मुबारक कह देते हैं :)
बधाई हो आपने डी .टी . एच. ले लिए | वैसे शायाद आपको ज्यादा सकूँ तब मिलता जब इस 'IDIOT BOX' से ही छुटकारा मिल जाता |
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