बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ?


कोई बाँसठ/पैंसठ घण्टे पहले, 18 अक्टूबर की सवेरे कोई साढ़े नौ/दस बजे के आसपास ‘यह सब’ हुआ था। किन्तु मैं अब तक ‘इससे’ उबर नहीं पा रहा हूँ। लगता है, जो कुछ हो चुका है वह अभी भी मेरी आँखों के सामने हुआ जा रहा है, लगातार, बार-बार।


अनूठा दीपावली मिलन शीर्षक वाली पोस्ट लिखते समय भी यह सब मेरी आँखों के सामने हो रहा था। तब लगा था, यह ताजा-ताजा बात है जो श्मशान वैराग्य की तरह थोड़ी ही देर में अन्तर्ध्‍यान हो जाएगी। लेकिन अब तक तो यह मेरा वहम ही साबित हो रहा है।


दीपावली मिलन के लिए जब राजस्व कॉलोनी और पत्रकार कॉलोनी के लगभग तमाम पुरुष मेरी गली में प्रवेश कर रहे थे, उसी समय, उनके साथ ही साथ एक महिला, एक पुरुष और दो बच्चों का भिखारी परिवार भी आ पहुँचा था। पोस्ट की आठवीं क्लिप की शुरुआत में ही आपको, अपने बाँये कन्धे पर थैला टाँगे, नीले ब्लाउज और गहरे लाल रंग के छापों वाली साड़ी पहने एक महिला नजर आई होगी। पूरी बाँहों वाली, नीली शर्ट पहने एक व्यक्ति उसके पास खड़ा नजर आता है। उसके हाथ में प्लास्टिक की सफेद थैली है। दोनों कुछ देर खड़े रहते हैं। फिर वह औरत चल देती है और एक मकान के सामने कुछ देर रुक कर किसी से बात करती है, आगे बढ़ती है। नीली शर्ट वाला व्यक्ति उससे थोड़ा पीछे रह जाता है। उसी समय एक बच्चा पीछे से दौड़ता हुआ आकर अपने हाथ का कटोरा उसे थमा देता है। उसके पीछे, लाल रंग की फ्राक पहने एक बच्ची दिखाई देती है जिसके हाथ में प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान दिखाई देता है। यही पह परिवार है।


दीपावली मिलन के लिए आए लोगों में से आधे लोग भी नहीं निकले थे कि ये चारों सदस्य अलग-अलग टेबलों के सामने आ कर खड़े हो गए और मिठाई माँगने लगे। उन्होंने इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं की कि अभी आधे लोगों का आना बाकी है। लोगों का रेला अपने अन्तिम छोर पर आकर जब ‘विरल’ हो गया तो इन चारों की आवाजें उभर कर मुहल्ले में सुनाई देने लगीं। जिस बच्चे ने अपने हाथ का कटोरा महिला को दिया था, वह बच्चा मेरी पत्नी के सामने खड़ा था। मैं नहीं जानता कि मेरी पत्नी उसकी अनदेखी करने की कोशिश कर रही थी या सब लोगों के निकल जाने की प्रतीक्षा। किन्तु वह उस लड़के के होने को निरस्त कर रही थी। लड़के ने इस बात को ताड़ा या नहीं किन्तु वह अपने होने को बराबर जता रहा था। मैं कभी उस लड़के को देख रहा था, कभी अपनी पत्नी को। लड़का माँग जरूर रहा था किन्तु उसके स्वरों में याचना बिलकुल नहीं थी। और उसकी आँखें? बाप रे! उसकी आँखों में अधिकार भाव नजर आ रहा था। मानो कहना चाह रहा हो कि टेबल पर रखी मिठाई वास्तव में है तो उसकी किन्तु उस पर अधिकार मेरी पत्नी ने जमा रखा है। वह मिठाई की माँग कुछ इस तरह दोहरा रहा था मानो अपने संस्कारवश ही वह माँग रहा है और यदि उसकी और अनदेखी/अनसुनी की गई तो वह अधिकारपूर्वक सारी मिठाई अपने कटोरे में डाल लेगा। उसकी माँग कुछ ऐसी थी कि तुम दे दो तो अच्छा है वर्ना मैं खुद ले लूँगा। उसकी आँखों में ऐसी विचित्र ‘ताब’ थी जिस शब्दों में उकेर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं हो रहा है और न ही उसे भूल पाना।


अचानक ही मुझे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोण्टेक सिंह अहलूवालिया के श्रीमुख से टपकी, सात प्रतिशत विकास दर की घोषणा याद आने लगी। याद आने लगा कि देश की आबादी के अन्तिम तीस करोड़ लोगों की सम्पत्ति के बराबर की सम्पत्ति पर देश के पाँच औद्योगिक घरानों का कब्जा है। राज्य सरकारों को दी गई, राहुल गाँधी की सलाह याद अपने लगी कि नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकारों को लोगों से बात करनी चाहिए। अचानक ही मुझे लगा कि राहुल बात तो ठीक कह रहे हैं किन्तु इसका पूर्वार्ध्‍द जानबूझ, योजनाबद्ध रूप से छुपा रहे हैं। लोगों से बात करने से क्या होगा युवराज? मुद्दा तो यह है कि जब लोग कुछ कहें तो पहली ही बार में उनकी बात सुनी भी जाए और उस पर कार्रवाई भी की जाए। किन्तु लोग बोलते रहते हैं और सरकारें तथा सरकारी अमला अनसुनी करता रहता है। तब ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत हकीकत में बदलती है और लोग खुद अपना न्याय करना शुरु कर देते हैं। संत्रस्त, क्षुब्ध लोगों की इस प्रतिक्रिया पर नक्सलवाद का लेबल चस्पा कर दिया जाता है और प्रतिक्रिया को मूल क्रिया की तरह पेश किया जाने लगता है।


मेरी पत्नी से मिठाई माँगता वह लड़का मुझे यही सब याद दिला रहा था। पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि वह मिठाई नहीं माँग रहा। वह मेरी पत्नी के सामने विकल्प चयन प्रस्तुत कर रहा है - तुम ही तय कर लो कि तुम मिठाई दोगी या मैं ले लूँ? या फिर नक्सलवादी बन जाऊँ?


इस समय इक्कीस अक्टूबर की सुबह के साढे तीन बजने वाले हैं जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ। किन्तु अपने कम्प्यूटर के पर्दे पर मुझे मेरी इस पोस्ट के अक्षर नहीं, हाथ में कटोरा लिए उस लड़के की चीरती आँखें नजर आ रही हैं और की-बोर्ड की खटखट नहीं, उसकी आवाज सुनाई दे रही है - ‘बोलो! नक्सलवादी बन जाऊँ?’
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6 comments:

  1. लोगों से बात करने से क्या होगा युवराज? मुद्दा तो यह है कि जब लोग कुछ कहें तो पहली ही बार में उनकी बात सुनी भी जाए और उस पर कार्रवाई भी की जाए। किन्तु लोग बोलते रहते हैं और सरकारें तथा सरकारी अमला अनसुनी करता रहता है। तब ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत हकीकत में बदलती है और लोग खुद अपना न्याय करना शुरु कर देते हैं। संत्रस्त, क्षुब्ध लोगों की इस प्रतिक्रिया पर नक्सलवाद का लेबल चस्पा कर दिया जाता है और प्रतिक्रिया को मूल क्रिया की तरह पेश किया जाने लगता है।

    अब इस के बाद कहने को क्या शेष है?

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  2. भिखारियों से मेरे एक दोस्त को अजीब वितृष्णा है. कोई भी भिखारी उसके सामने आता है तो वो उससे उसकी सामर्थ्य अनुसार काम बताता है. सबसे साधारण काम वो बताता है कि बस यहाँ सामने झाड़ू लगा दो. पांच मिनट का काम है. एक दो नहीं, पूरे दस रुपए दूंगा.

    यकीन मानिए, आज तक ऐसे भिखारी से उसका सामना नहीं पड़ा जिसने दस रुपए के लिए झाड़ू लगा दिया हो...

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  3. विष्णु भाई ,
    मुझे पता है कि ये भाव हम पाठकों में नहीं आ सकते। मैंने पहली और आखिरी विडियो क्लिपों में इस परिवार पर गौर किया था, लेकिन उल्लेख नहीं किया ।
    आपने लिख कर जायज प्रेम प्रकोप ही प्रकट किया है ।

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  4. आपसे सहमत हूँ. मेरा राज्य झारखण्ड दशकों से नक्सल वाद का दंश झेल रहा है, अगर युवाओं को जीवन यापन का कोई भी साधन सरकार उपलब्ध करा सकती यह आक्रोश होता न ही कुव्यवस्था.

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  5. सम्मानीय विष्णु जी
    सही हैं की हक मागने से नहीं मिलता उसके लिए लड़ना पड़ता हैंकमजोर को मोका नहीं मिलता उससे मोका हड़प लिया जाता हैं
    नरेन्द्र जोशी

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  6. हम आपसे सहमत हैं.

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