आनन्द के साथ हौसला भी मिला


अचेतन में भी यह बात नहीं थी कि जा तो रहा हूँ गीत-संगीत का आनन्द लेने, तनाव-मुक्त होने लेकिन हौसला लेकर भी लौटूँगा। किन्तु एक सौ घण्टों से भी अधिक हो गए हैं, मैं अब तक उसी सब में डूबा हुआ हूँ - आनन्द, तनाव-मुक्ति और हौसले में सराबोर।

इन्दौर प्रवास के दौरान, रविवार तेरह जनवरी को, अपनी उत्तमार्द्ध वीणाजी, मेरे आत्मीय रवि शर्मा, उसकी उत्तमार्द्ध, हमारी प्रिय पुष्पा भाभी के साथ, एक पारिवारिक आयोजन से लौट रहा था कि, चलते-चलते नरेश ने पूछा - ‘क्या प्रोग्राम है दादा?’ मैंने कहा - ‘कल रतलाम के लिए निकलना है।’ सुनकर नरेश ठिठक गया। मेरी बाँह पकड़कर, मुझे भी रोकते हुए बोला - ‘‘तो फिर आज शाम साढ़े छः बजे रवीन्द्र नाट्य गृह पहुँचिए। विदाउट फेल। आपकी लाइकिंग का कार्यक्रम है। आप तो मान लो कि कार्यक्रम आपके लिए ही है और आज आप उसी के लिए रुक रहे हो। हेमन्त कुमार के गीतों को, चैन्नई का एक आर्टिस्ट पेश कर रहा है। मैं उसे सुन चुका हूँ। मेरा दावा है कि आप आँखें बन्द कर सुनेंगे तो आपको मानना पड़ेगा कि आप हेमन्त दा’ को ही सुन रहे हैं। आपको आना ही है। आप आ रहे हो।’’ मैंने पहले वीणाजी की ओर और पल भर बाद रवि की ओर देखा। नरेश बोला - ‘सोचो और इधर-उधर मत देखो। रवि भी आएगा।’ मैं तनिक असहज हुआ। बोला - ‘वहाँ तो पास की व्यवस्था होगी। हमारे पास तो पास नहीं हैं।’ नरेश ने अधिकारभरी लापरवाही से कहा - ‘आप उसकी बिलकुल परवाह मत करो। पास की कोई व्यवस्था नहीं है। आप बिन्दास होकर आओ। पहले नाश्ता करो। वहाँ का नाश्ता जोरदार होता है, और बेधड़क हॉल में घुस जाओ। कोई पूछे तो मेरा नाम बता देना।’

मनोनुकूल कार्यक्रम के लिए नरेश का आदेशित-निमन्त्रण और रवि के संसाधन। हमें करना ही क्या था? बस! निर्धारित समय पर तैयार होकर, रवि की प्रतीक्षा ही तो करनी थी? यही किया और यही हुआ। छः बजते-बजते रवि और पुष्पा भाभी पहुँचे। हमें कार में बैठाया और पन्द्रह-बीस मिनिटों में ही हम लोग रवीन्द्र नाट्य गृह के परिसर में थे - नरेश के आदेशित समय से, कम से कम दस मिनिट पहले ही। 

सब कुछ बिलकुल वैसा ही था जैसा नरेश ने बताया था। नाश्ता तैयार था। नाश्ता क्या था, पूरा भोजन था -  छोले-भटूरे, गुलाब जामुन, साबूदाने की खिचड़ी और कॉफी। नाश्ता करने के बाद हमें नरेश की सुध आई। वह तो नजर नहीं आया किन्तु उसकी उत्तमार्द्ध, हम सबकी प्रिय पूर्णिमा भाभी सामने आ गईं। बोलीं - ‘आपके लिए कुर्सियाँ सुरक्षत करके आ रही हूँ।’ नरेश की पूछा तो उन्होंने प्रति-प्रश्न किया - ‘आपके साथ नहीं थे?’ याने, नरेश आ चुका था और कहीं न कहीं घिरा हुआ था। नरेश आया। हम सब को हाँक कर हॉल में ले गया। हमारी कुर्सियों पर बैठाया। 

लगभग सवा सात बजे, सूत्रधार संजय पटेल की आवाज गूँजी। मालूम हुआ कि गायक कलाकार का नाम सुरोजित गुहा है। वे हैं तो बंगाली किन्तु रहते चैन्नई में हैं। इन्दौर में यह उनकी दूसरी प्रस्तुति है। भोपाल की सुश्री सुहासिनी जोशी और महू की सुश्री शिफा मन्सूरी उनका साथ देंगी। वाद्य-वृन्द (आर्केस्ट्रा) भोपाल का है।

फिल्म ‘आनन्द मठ’ में लताजी के गाए गीत ‘वन्दे मातरम्’ से सुहासिनीजी ने कार्यक्रम की शुरुआत की और उनके फौरन बाद सुरोजितजी को बुलाया गया। उनके और हमेन्त दा‘ के प्रति उनके समर्पण-निष्ठा के बारे में बताते हुए, संजय पटेल ने ‘गागर में सागर’ भरने का अपना सुपरिचित-प्रख्यात कौशल भी प्रभावी रूप से उजागर किया।

अब तक सब कुछ सामान्य ही था। किन्तु अगले ही क्षण, समूचा रवीन्द्र नाट्य गृह कोई आधी सदी पहले के काल खण्ड में बदल गया। ‘बेकरार करके हमें यूँ न जाइए’ से  सुरोजित दा’ ने शुरुआत क्या की - समूचा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। नरेश का कहा शब्दशः सच था - सौ फी सद। यदि मैंने हेमन्त दा‘ के चित्र नहीं देखे होते तो मैं सुरोजित दा‘ को ही हेमन्त दा‘ मानता। वही, भीगी-भीगी, थरथराती, धीमी, हवाओं पर तैरती आवाज। वे ही साँसें, वे ही अल्प-विराम, वही आरोह-अवरोह, वे ही लहरियाँ। सब कुछ वही का वही। जी हाँ, वहीं का वही। लग रहा था, मानो हेमन्त दा‘ का कायान्तरण हो गया हो। हेमन्त दा‘ के न होने पर भी हेमन्त दा‘ के होने की ऐसी अनुभूति की खुद पर ही अविश्वास होने लगे। बार-बार आँखें मलनी पड़ें। सब कुछ ऐसा कि मैं चाहूँगा कि मेरी बात पर अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वासपूर्वक अविश्वास किया जाए, तसल्ली करने के लिए सामने बैठ कर सुरोजित दा‘ को सुना जाए और तब ही मेरे इस वक्तव्य को सच माना जाए।

कार्यक्रम कोई तीन घण्टे चला। गीत-चयन, संगीत संचालन/संगत, गायन कौशल जैसे प्रत्येक सन्दर्भ और आयाम के हर मायने में यह ‘अविस्मरणीय और उल्लेखनीय’ जैसे विशेषणों को अधिकारी है। सुरोजित दा‘ के प्रत्येक गीत पर कम से कम तीन-तीन बार तालियाँ बजीं। वे जब-जब भी माइक थामे रहे, तब-तब समूचा वातावरण ‘नास्टेल्जिया’ का बन्दी बना रहा। सुरोजित गुहा से हेमन्त दा’ को सुनते हुए हर पल लगता रहा मानो, ज्वालामुखी के लावे से पटे हमारे मौजूदा समय के नीचे, ईथर से तर-ब-तर रुई के फाहों की बारात गुजर रही हो। सुहासिनी और शिफा ने, सुरोजित दा‘ का साथ देते हुए युगल गीतों में तो अपनी धाक जमाई ही, एकल गीतों में भी खूब प्रभावित किया। दोनों ने ‘मणी कांचन’ योग को साकार किया। स्वरों पर सुहासिनी की पकड़ सहज रूप से आकर्षित करती रही। शिफा यद्यपि अपने शुरुआती दौर में लगती हैं किन्तु किसी ‘किशोरी’ के मुँह से हेमन्त दा‘ के काल-खण्ड के गीत सुनना न केवल चौंकाता है अपितु आश्वस्त भी करता है कि हमारी मौजूदा पीढ़ी के ‘संगीत चरित्र’ को लेकर हमने अपनी धारणाएँ बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। मेरे तईं शिफा का सन्देश बिलकुल साफ था - ‘आज के बच्चे वैसे नहीं हैं जैसा कि उनके बारे में सोचा जाता है।’ शिफा में अपार सम्भावनाएँ सहज ही अनुभव होती हैं। मुझे उनकी आवाज, गीता दत्त की आवाज के बहुत पास लगी।

कार्यक्रम के संचालन और संचालक के बारे में कुछ न कहना न केवल कार्यक्रम के  प्रति अपितु खुद के प्रति भी बेईमानी होगी। संजय पटेल अब संचालक मात्र नहीं रह गए हैं। वे ‘कार्यक्रम संचालन का विश्व विद्यालय’ का दर्जा हासिल कर चुके हैं। उनका शब्द चयन, उनकी सहजता, उनका बेलौसपन, ‘स्वभाव’ की तरह अभिनीत की जा रही लापरवाही, चुटीली भाषा, तीसरी शब्द-शक्ति ‘व्यंजना’ का इच्छानुकूल उपयोग, दो प्रस्तुतियों के बीच में सामंजस्य स्थापित करने का अद्भुत कौशल जैसे तत्व उन्हें निश्चय ही ‘कार्यक्रम का नायक’ बनाते हैं किन्तु इन सबको (यानि, खुद को) पीछे धकेलते हुए वे, आयोजन को नायक बनाने में जिस चिन्ता, संयम और विवेक का परिचय देते हैं, वह उन्हें ‘अनुपम’ बनाता है। अन्यथा, मैं ऐसे अनेक कार्यक्रमों का साक्षी रहा हूँ जहाँ से लौटते हुए लोगों को कार्यक्रम के स्थान पर कार्यक्रम संचालक ही याद रह पाया।

और सबसे आखिर में उस हौसले की बात जो मेरे लिए अकल्पनीय अतिरिक्त प्राप्ति रहा।
संगीत का वर्तमान परिदृष्य मुझे बहुत सुखद नहीं लगता। मेरे बेटों की पीढ़ी का संगीत मुझे तनिक भी नहीं रुचता-सुहाता। उसे मैं या तो शिष्टाचारवश या विवशतावश सहन करता (झेलता) हूँ या फिर, खुद को बचाते हुए उससे दूर हो लेता हूँ। आज के फिल्मी गीत मुझे केवल ‘अपनी शारीरिक शक्ति प्रदर्शन के लिए, पूरी ताकत लगाकर चीखना-चिल्लाना’ लगता है। आज के फिल्मी गीतों में प्रेम का प्रकटीकरण भी धमकी अनुभव होता है। मुझे लगता है, सब कुछ मटियामेट हो गया है और अब भारतीय संगीत का भगवान ही मालिक है। किन्तु इस आयोजन ने मेरी इस निराशा को लगभग पूरी तरह से दूर किया। लगभग आठ सौ श्रोताओं से ठसाठस भरे रवीन्द्र नाट्य गृह में कम से कम आधे  श्रोता नई पीढ़ी के, मेरे बेटों की पीढ़ी के बच्चे थे और वे सबके सब, प्रत्येक प्रस्तुति पर न केवल तालियाँ बजा रहे थे अपितु अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे, गीतों के ‘सहयात्री’ बने हुए थे। अपने बच्चों को इस स्थिति में देखकर मेरी आँखें भर आईं। अपने बच्चों के भरोसे पर मेरी टूटन तो कम हुई ही, अपनी जड़ों की शक्ति की अनुभूति ने मेरा हौसला बँधाया भी और बढ़ाया भी। कायक्रम के कोई पचीस-तीस गीतों ने मेरे मन के उखड़ते वट वृक्ष को मानो थाम लिया। मुझे इतना निराश-हताश होने की, घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। बिलकुल ही नहीं है। अपनी कमजोरी को मैं अपनी जड़ों की कमजोरी मानने की आपराधिक भूल करता रहा। मेरी वास्तविक भूल तो यही है कि मैंने अपनी जड़ों को टटोला-सहलाया नहीं। उनकी तरफ देखा भी नहीं। उन्हें याद करने की भी जरूरत नहीं समझी। 

इस कार्यक्रम ने यही सब मुझे लौटाया। देखने-कहने-सुनने को यह बहुत ही छोटी बात हो सकती है। किन्तु, मुझे एक बार फिर लगा कि छोटी-छोटी बातें सचमुच में उतनी और वैसी छोटी नहीं होतीं जैसी कि हम मान लेते हैं। 

धन्यवाद नरेश। धन्यवाद रवि। तुम दोनों के कारण मैं अपने आप से, अपनी ताकत से परिचित हो सका। 

चित्र में बॉंये से - पूर्णिमा भाभी, नरेश, रवि, पुष्‍पा भाभी और वीणाजी


(पोस्‍ट में चित्र लगाते समय चित्रों के नीचे परिचय लिख पाना मुझे अब तक नहीं आ पाया। इसलिए यहॉं लिख रहा हूँ - ऊपर से नीचे पहले चित्र में सुरोजित गुहा और शिफा, दूसरे चित्र में सुहासिनी और तीसरे चित्र में, गीत प्रस्‍तुतियों के दौरान बैठे हुए, कार्यक्रम संचालक संजय पटेल)

4 comments:

  1. Aankhodekhaa haal--atyant sunder prastuti.

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  2. तीन घंटे का आनन्दमयी अनुभव, वह भी रुचिकर भोजन के साथ। वाह, जीवन को और क्या चाहिये।

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  3. हेमंत दा-सुरोजित गुहा,सुहासिनी,शिफा के इस कार्यक्रम मे मैं विष्णु भाई साहब के साथ ही था,कार्यक्रम के तीन घंटे मे मैं तो दूसरी दुनिया मे ही चला गया था,आलोकिक अनुभव हुआ । सुरोजित दा याने हेमंत दा का पुनर्जन्म । वनबंधु परिषद को धन्यवाद,जिंहोने एसा सुखद आत्मीय कार्यक्रम का आयोजन किया ।

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  4. फेस बुक पर श्री ओम प्रकाश तिवारी की टिप्‍पणी -

    मन को सुख मिला आपके विवेचन से।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.