गाँधी का नाम और गाँधी टोपी पर्याप्त नहीं

‘विचार’ का वृत्ति में आना, ‘वैचारिकता’ होता होगा और यही वैचारिकता जब मनुष्य के आचरण में उतर आती है तभी वह आदमी की पहचान होती है। इसीलिए केवल ‘विचार’ या ‘वैचारिकता’ की पर्याप्त नहीं होती। इन दोनों का अन्तरण, आचरण में हुए बिना ये दोनों अमूर्त ही रह जाते हैं। इनकी वास्तविकता का अनुभव या कि इनका परीक्षण एक ही दशा में सम्भव हो पाता है और वह दशा होती है - ‘आचरण।’ आचरण के बिना कोई भी विचार या वैचारिकता खोखले नारे से अधिक नहीं होती।
 
यह अनुभूति मुझे आज सुबह-सुबह, चम्पारण आन्दोलन में गाँधी के व्यवहार को पढ़कर हुई। इसी के समानान्तर मुझे अण्णा जैसे उन तमाम लोगों की विफलताएँ समझ में आई जो गाँधी के नाम की दुहाई देकर और गाँधी प्रतीकों को धरण कर, ताल ठोक कर मैदान में उतरते हैं लेकिन देर तक ठहर नहीं पाते। वे फैशन के एक दौर की तरह, कुछ देर परिदृष्य पर दिखाई देते हैं - केवल अगले दौर के आने तक।
 
चम्पारण में गाँधी का लक्ष्य था - ‘रोगी को नहीं, रोग को मारना।’ रोगी थे - अंग्रेज नीलगर और रोग था - नील की खेती की अनिवार्यतावाला कानून। एक बीघा जमीन में कम से कम तीन कट्ठा जमीन में नील की खेती करने
की अनिवार्यता का कानून अंग्रेजों ने चम्पारण के किसानों पर लाद रखा था। इसका पालन कराने में अंग्रेज लोग मनुष्यता भूल कर पाशविक क्रूरता/नृशंसता बरतते थे। अंग्रेज नीलगरों के बंगलों के बाहर मजबूत बाड़े बने हुए थे जिनमें चम्पारण के किसानों को, पशुओं की तरह कैद रखा जाता था - नील की खेती करने से बचने के लिए वे, कहीं भाग न जाएँ। चम्पारण के त्रस्त किसानों ने गाँधी से  गुहार लगाई। गाँधी ने रोग पहचाना और इसी के निर्मूलन को लक्ष्य बनाया।
 
इस हेतु वे निमत्ति मात्र बने। मुख्य भूमिका चम्पारण के शिक्षित लोगों और किसानों ने ही निभाई। पीड़ित किसानों की संख्या थी लगभग चार हजार। गाँधी ने तय किया - ‘प्रत्येक किसान का आवेदन प्रस्तुत किया जाएगा।’ गाँधी के नेतृत्व में ये सब लोग दिन-रात लिखा-पढ़ी में लगे रहते। संख्या की अधिकता के चलते, लिखा-पढ़ी में चौबीस घण्टे भी कम अनुभव होते थे। लेकिन गाँधी ने यह असम्भवप्रायः काम करवा ही लिया।
अंग्रेज सरकार को अन्ततः बात सुननी पड़ी। नील-कानून की समीक्षा हेतु सात लोगों की समिति बनाई गई। इस समिति में किसानों का एक ही प्रतिनिधि था - गाँधी। शेष 6 प्रतिनिधि या तो अंग्रेज सरकार के थे या अंग्रेज नील व्यापारियों (नीलगरों) के। अंग्रेज-बहुल इस समिति ने नील की खेती करने की अनिवार्यता समाप्त करने की सिफारिश की। चौंकानेवाली और उल्लेखनीय बात थी - यह सिफारिश बहुमत से नहीं, ‘सर्वानुमति’ से की गई थी।
 
हवाओं में एक ही सवाल था - यह कैसे हुआ? जवाब गाँधी ने दिया - ‘मेरा मकसद रोग को मारना था, रोगी को नहीं। रोग था - नील की खेती करने की अनिवार्यता। यदि मैं अंग्रेज नीलगरों के अत्याचारों पर कार्रवाई करने और उन्हें सजा देने की बात करता तो न तो उन्हें सजा मिलती और न ही यह अनिवार्यता खत्म होती।’
 
यही वह बिन्दु है जहाँ से, गाँधी की दुहाइयाँ देनेवाले और गाँधी प्रतीकों को सजावट की तरह इस्तेमाल करनेवाले, अण्णा और उन जैसे तमाम लोगों की विफलताओं की त्रासदियों के कारण साफ नजर आने लगते हैं।
 
इन सबने ‘व्यक्तियों’ को निशाने पर लिया, ‘वृत्ति’ को नहीं। रोग को नहीं, रोगियों को मिटाना चाहा। अण्णा जब गर्वपूर्वक सूचित करते हैं कि उन्होंने इतने-इतने मन्त्रियों की कुर्सियाँ छीन लीं तो लगता है, वे अपनी उपलब्धियाँ नहीं, अपनी हीन महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की मसालेदार, मनोरंजक कथाएँ सुना रहे हैं। ऐसा करते हुए वे भूल जाना चाह रहे होते हैं कि इने-गिन भ्रष्टों को हटा देने के बाद भी भ्रष्टाचार तो जस का तस बना हुआ है। ऐसे में, वे यह भी भूल जाते हैं कि एक व्यक्ति की विफलता, उद्वेलित-आन्दोलित जन-मेदिनी की विफलता में बदल गई है। करोड़ों लोगों की आशाएँ/अपेक्षाएँ, अपने पहले ही चरण में काल-कवलित हो गई हैं।
 
‘विचार’ जब ‘नारा’ और ‘वैचारिकता’ ‘जुगली का चारा’ बना ली जाए, आचरण जब प्रदर्शन के प्रतीकों बदल लिया जाए और ‘रोग’ को मारने का अभियान ‘रोगी’ को मारने के अभियान में बदल जाए तो वही सब होता है जिसे आज हम सब भुगत रहे हैं।
 
गाँधी, इसलिए प्रासंगिक नहीं, अनिवार्य और अपरिहार्य हैं।

11 comments:

  1. इस लेख को चुनावो के समय होने वाली नामांकन प्रक्रिया में जोड़ा जाये। हर उम्मीदवार को अनिवार्य रूप से ये पाठ याद करवाया जाये। प्रत्येक वर्ष ऑडिट किया जाये की उन्होंने कौन सी 'नील' को समाप्त किया।

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  2. गांधी संवेदना भी आवश्यक है।

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  3. आजकल लोग केवल नाम के रूप मे गांधीजी को इस्तेमाल करते है,वास्तव मे वे गांधीजी के मार्ग पर चलना ही नही चाहते है,और यही असफलता का कारण है ।

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  4. Bhaijee ! Desh me ab 'kaam-wale' nahi, sirf 'Naam-wale' Gandhi bache hai.

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  5. इन सबने ‘व्यक्तियों’ को निशाने पर लिया, ‘वृत्ति’ को नहीं। रोग को नहीं, रोगियों को मिटाना चाहा। अण्णा जब गर्वपूर्वक सूचित करते हैं कि उन्होंने इतने-इतने मन्त्रियों की कुर्सियाँ छीन लीं तो लगता है, वे अपनी उपलब्धियाँ नहीं, अपनी हीन महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की मसालेदार, मनोरंजक कथाएँ सुना रहे हैं। ऐसा करते हुए वे भूल जाना चाह रहे होते हैं कि इने-गिन भ्रष्टों को हटा देने के बाद भी भ्रष्टाचार तो जस का तस बना हुआ है। ऐसे में, वे यह भी भूल जाते हैं कि एक व्यक्ति की विफलता, उद्वेलित-आन्दोलित जन-मेदिनी की विफलता में बदल गई है। करोड़ों लोगों की आशाएँ/अपेक्षाएँ, अपने पहले ही चरण में काल-कवलित हो गई हैं।

    गाँधी, इसलिए प्रासंगिक नहीं, अनिवार्य और अपरिहार्य हैं।

    बैरागी भाई साहब आप याद कीजिये इसीलिए मैंने आपसे अनुरोध किया था कि आप लेखन अर्थात विचारों के आदान प्रदान को सतत रखिये वाह आनंद आ गया

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  6. बैरागी भाई साहब आप याद कीजिये इसीलिए मैंने आपसे अनुरोध किया था कि आप लेखन अर्थात विचारों के आदान प्रदान को सतत रखिये वाह आनंद आ गया

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    1. जी हॉं। आपकी कही बात मुझे भली प्रकार याद है। किन्‍तु क्‍या करूँ, कभी-कभी मुझ पर भी वे सारी बातें, उसी तरह असर करती ही हैं जैसा कि एक सामान्‍य/औसत आदमी पर करती हैं। मैं भी तो एक सामान्‍य/औसत मनुष्‍य ही तो हूँ।

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  7. फेस बुक पर, श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    गॉंध यदि हमारे आचरण में आ जाए तो भारत 'जगत् गुरु' हो जाए।

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    1. Bhaijee ! Gandhi khud chalkar hamaare aacharan me nahi aayega,hame aatmasaat karna hoga.Samasyaa yah hai ki is kaam ki shuruvaat/pahal pahle kaun kare ?

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  8. फेस बुक पर, श्री सुनील ताम्रकार, इन्‍दौर की टिप्‍पणी -

    कितना भला और शीतल विश्लेषण .... अहो सौभाग्य .....
    गाँधी तुम फिर आना मेरे देश!!

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  9. फेस बुक पर श्री ओम वर्मा 100,रामनगर एक्सटेंशन, देवास, मोबा.09302379199) की काव्‍य-टिप्‍पणी -

    गाँधी-कल और आज

    अक्टूबर की दूसरी, माह जनवरी तीस।
    दो दिन गाँधी देवता, बाकी दिन 'शो पीस'।।

    गाँधी दौलत देश की, इक नंबर 'फ्री टोल'।
    इस दौलत पे ना चलें , तोल मोल के बोल।।

    गाँधी इक ऎसी हिना, जिसे लगाना हाथ।
    यानी पाना मुफ्त ही, रंगों की सौगात।।

    कुछ ने गाँधी नाम को, बना रखा है ढाल।
    सत्य जिन्हें त्यागे हुए,गुजर चुके कुछ साल।।

    व्यक्ति नहीं गाँधी महज, है वह एक विचार।
    चाहे हो आलोचना, होगा बस विस्तार।।

    नहीं बनी ऐसी तुला, जो सकती हो तोल।
    सत्य, अहिंसा, खादियाँ, तीनों हैं अनमोल।।

    एक बार यदि पोंछ लो, दीन नेत्र का नीर।
    पाओगे गाँधी वहीं, बसता वहीं कबीर।।

    समझ रहे कुछ आज भी, उन्हें टका कलदार।
    जिसे चला कर वोट का, करते कारोबार।।

    लाठी को अपना लिया, विसरा दिए विचार।
    गाँधी के घर कर रही, हिंसा फिर अधिकार।।


    भवनिष्ठ

    --
    - ओम वर्मा
    100, रामनगर एक्सटेंशन
    देवास
    09302379199

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.