मैं: रामलीला की सती सुलोचना

नवरात्रि मुख्यतः देवी आराधना का पर्व है। व्यक्तिगत स्तर पर और सामाजिक स्तर पर घट स्थापना हो जाती है। मुहल्ला स्तर से लेकर महानगर स्तर तक, गरबों के सतरंगी पाण्डाल तन जाते हैं। सुबह देवी आराधना से दिन शुरु होता है। दिन भर अपना काम, शाम को देवी पूजा और रात में गरबा। चौबीस घण्टों में सामान्यतः दस-बारह घण्टे व्यस्त रहनेवाला समाज सोलह-सोलह, अठारह-अठारह घण्टे व्यस्त हो जाता है। 

लेकिन यह पर्व केवल देवी आराधना और गरबा रास तक ही सीमित नहीं रहता। आश्विन/क्वाँर प्रतिपदा से एक सिलसिला और शुरु हो जाता है - रामलीलाओं का सिलसिला। देश के बाकी हिस्सों का तो पता नहीं किन्तु समूचा उत्तर भारत रामलीला के जरिए राम कथा में भी डूब जाता है। इसका समापन दशहरे को होता है। शाम को रावण-मेघनाद के पुतलों का दहन और रात को रामलीला के मंच पर रावण-वध। दिल्ली से देहात तक लोग अपनी-अपनी हैसियत और श्रद्धा के अनुसार रामलीलाएँ आयोजित करते हैं। 

मेरे गाँव मनासा में रामलीला का सिलसिला, शरणार्थी बन कर आए पंजाबी समाज ने शुरु किया। ‘प्रेम प्रचारणी रामलीला मण्डली’ के नाम से इस समाज ने रामलीला का शुरुआत की। कहते हैं कि दूरदर्शन पर ‘रामायण’ प्रस्तुत करनेवाले रामानन्द सागर भी मूलतः इसी मण्डली से जुड़े हुए थे। 

खुद को ‘हिन्दू पंजाबी’ कहनेवाले इस समाज ने मनासा में रामलीला की शुरुआत किस वर्ष से की यह तो मुझे ठीक-ठीक याद नहीं किन्तु सन् 1958-60 में चतुर्भुज बैरागी, चन्दनमल सालवी, मैं और कुछ अन्य लड़के इस रामलीला से जुड़े और कुछ बरसों तक जुड़े रहे। उस समय हमारी उम्र बारह बरस की रही होगी। बाद में, पंजाबी समाज की देखादेखी, मनासा के लोगों ने ‘अपनी’ रामलीला मण्डली (मुझे इस मण्डली का नाम ‘आदर्श रामलीला मण्डली’ याद आ रहा है) शुरु की। तब हम लोग इस मण्डली से जुड़ गए। 
प्रेम प्रचारणी मण्डली से हमें जोड़ने के लिए पंजाबी समाज के बड़े लोगों ने हम बच्चों से सम्पर्क किया था। हम सब राजी-राजी, बड़ी खुशी और उत्साह से शामिल हुए थे। हममें से किसी ने अपने घरवालों से पूछने की जरूरत नहीं समझी और न ही हमारे घरवालों ने कोई आपत्ति की।

हम सब लड़कों को स्त्री वेश ही धारण करना पड़ता था। तब तो अनुभव नहीं हुआ लेकिन बाद के बरसों में अनुभव हुआ कि स्त्री वेश धारण करने में पंजाबी समाज के बच्चे शायद तनिक हिचकते थे। उन्हीं की कमी पूरी करने के लिए हम बच्चों से सम्पर्क किया गया था। हमें कभी भी किसी पात्र की भूमिका नहीं दी जाती थी। हम लोग पर्दा उठते ही की जानेवाली गणेश वन्दना और उसके ठीक बाद होनेवाले दो-तीन नृत्य गीतों में नाचते-ठुमके लगाते। गणेश वन्दना की पहली पंक्ति मैं अब तक नहीं भूला हूँ - ‘हे! प्रथमे शिव नन्दन का सुमिरन हम करें, करें सब रे।’ इसके बाद एक नृत्य-गीत प्रति दिन होता था जिसमें, पनघट पर कुछ स्त्रियाँ पानी भरने के लिए जुटी हुई होती थीं और समूह की नायिका अपनी सहेलियों से उसका घड़ा माथे पर रखवाने में मदद माँगती थी। इस घड़े के बहाने नायिका अपने भाई, पिता आदि का उल्लेख करती थी। वह एक-एक सहेली से अनुरोध करती। जवाब में प्रत्येक सहेली ‘मैं ना!’ कह कर इंकार करती। गीत का मुखड़ा था - ‘सैंयों नी! जरा घड़ा उठा दे। कुछ तो हलका भार करा दे।’ जवाब मे सहेली कहती - ‘मैं ना!’ जवाब सुन कर नायिका घड़े का महत्व बताती - यह घड़ा मेरा भाई रतलाम से लाया था। ‘ये घड़ा मेरा बीर ले आया, ले आया रतलामूँ......’ (तब मनासा के लिहाज से रतलाम बहुत बड़ा शहर हुआ करता था। तब मुझे नहीं मालूम था कि मैं कभी रतलाम में ही बैठकर यह सब लिखूँगा।) इसके बाद एक-दो नृत्य गीत और होते और हमारा काम पूरा हो जाता।

इन दस दिनों में हम सब रामलीला के नशे में डूबे रहते। सामान्यतः रात आठ बजे से रामलीला शुरु होती। हम लोग सात बजते-बजते नेपथ्य में पहुँच जाते। मेक-अप के नाम पर ‘मुर्दा सिंघी’ का लेप भरपूर मात्रा में मुँह पर लगाते। यह पत्थर जैसा पदार्थ होता था जिसे घिस कर लेप बनाया जाता। हम सब जल्दी से जल्दी तैयार होने की कोशिश करते। पंजाबी समाज के ही जानकार लोग कलाकारों के मेकअप की जिम्मेदारी लिए हुए थे। मुझे मुर्दा सिंघी कभी अच्छी नहीं लगी। उसे लगाने के बाद चमड़ी खिंचती सी लगती। उसे छुड़ाने में काफी मेहनत लगती। अगले दिन भी चमड़ी पर भारीपन लगता। लेकिन इससे हमारा ‘नशा’ रंचमात्र भी कम नहीं होता था और शाम सात बजते-बजते हम लोग उत्साह से लबालब मुकाम पर पहुँच जाते।

पंजाबी समाज इस रामलीला को अत्यधिक भक्ति-भाव से आयोजित करता था। लम्बी-चौड़ी दीवार के आकार के तीन-चार, भारी-भरकम पर्दे होते थे जिन पर विभिन्न दृष्य चित्रित होते। ये चित्र दृष्यों की पार्श्वभूमि का काम करते थे। इन पर्दों को लम्बी-भारी बाँस-बल्लियों के सहारे ऊपर-नीचे किया जाता था। प्रत्येक पर्दे की रस्सी खींचने के लिए अलग-अलग आदमी होता था। जब मंच पर एक दृष्य चल रहा होता था तब उसकी पार्श्वभूमि बने पर्दे के पीछे अगले दृष्य की तैयारी चल रही होती। गणेश वन्दना के लिए जब पहला पर्दा उठने को होता तो समूचा वातावरण रोमांच और तनाव से भर जाता। गणेश वन्दना में अधिकाधिक कलाकार शामिल होते। सिटी बजती और पर्दा उठते ही, अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार मेकअप किए कलाकार और हम जैसे ‘फिलर’ कलाकार अपनी पूरी शक्ति और मुक्त-कण्ठ से जब ‘हे! प्रथमे शिव नन्दन का.........’ शुरु करते तो मानो किसी जादुई दुनिया की रचना शुरु हो जाती थी। 

जब तक ‘आदर्श रामलीला मण्डली’ शुरु नहीं हुई तब तक हम बच्चा लोग, घाघरे-लुगड़े और पोलके पहन कर प्रेम प्रचारणी मण्डली के मंच पर खूब नाचते-ठुमके लगाते रहे। पंजाबी समाज की रामलीला में कलाकारों की भरमार नहीं थी। जबकि ‘आदर्श’ में मानो आधा मनासा कलाकार बन जाना चाहता था। हमसे अधिक आयु के लोग बढ़-चढ़कर भूमिकाएँ लेने लगे थे। ‘कलाकारों’ की अधिकता के चलते हमारे लिए अवसर कम होने लगे थे। लेकिन स्त्री पात्रों में किसी की रुचि नहीं होती थी। मुझे जैसे अन्ध-उत्साहियों  के लिए यह स्थिति ‘सुअवसर’ होती थी। इसी के चलते मैंने लगातार दो बरसों तक सती सुलोचना की भूमिका निभाई। जैसे-जैसे हम लोग हायर सेकेण्डरी कक्षाओं की ओर बढ़ने लगे, रामलीला से हमारी दूरी भी बढ़ने लगी। हायर सेकेण्डरी पास करने के बाद तो मनासा छूट गया और छूट गया रामलीला का साथ।

पता नहीं क्यों आज अचानक ही अपना रामलीला समय याद आ गया। इसके साथ ही याद आ गए, रामलीला से जुड़े दो-चार रोचक-मनोरंजक किस्से। 

लोक मंच से जुड़े ये किस्से जब मुझे, इस समय (सुबह सवा तीन बजे) अकेले में ही गुदगुदा रहे हैं तो आपको भी निश्चय ही गुदगुदाएँगे।

कोशिश करता हूँ, ये किस्से आप तक पहुँच ही जाएँ।
-----


.....एक बार फोन कर देना

बतरसियों और अड्डेबाजों के लिए बीमा एजेण्ट होना सर्वाधिक अनुकूल धन्धा है। लोगों से मिलने, बतियाने शौक भी पूरा होता है और दो जून की रोटी भी मिल जाती है। जाहिर है, बीमा एजेण्ट के सम्पर्क क्षेत्र में ‘भाँति-भाँति के लोग’ स्वाभाविक रूप से होते ही हैं। ये ‘भाँति-भाँति के लोग’ एजेण्ट को केवल आर्थिक रूप से ही समृद्ध नहीं करते, जीवन के अकल्पित आयामों से भी परिचित कराते हैं। ये ‘भाँति-भाँति के लोग’ कभी गुदगुदाते हैं, कभी चिढ़ाते है, कभी क्षुब्ध करते हैं तो कभी उलझन में डाल देते हैं
आज सुबह हुआ एक फोन-संवाद बिना किसी टिप्पणी, बिना किसी निष्कर्ष के, जस का तस प्रस्तुत है -

‘हलो अंकल!’

‘हलो।’

‘अंकल! वो आप हफ्ता भर पहले पापा की प्रीमीयम का चेक ले गए थे।’

‘हाँ। ले गया था। क्या हुआ?’

‘हुआ तो कुछ नहीं अंकल। बस! वो, चेक खाते में तो डेबिट हो गया लेकिन रसीद अब तक नहीं आई।’ 

‘रसीद नहीं आई? ऐसा कैसे हो सकता है? रसीद तो मैंने उसी रात को भिजवा दी थी। लिफाफे में। तुम्हारे पापा के नाम का लिफाफा था।’

‘लिफाफा? हाँ! हाँ!! एक सफेद लिफाफा आया तो था पापा के नाम का। उसमें रसीद थी?’

‘खोल कर नहीं देखा? उसमें रसीद ही थी। अभी देखो।’

‘अभी तो नहीं देख सकता। लिफाफा, पता नहीं, कहाँ रख दिया है।’

‘तो तलाश करो। खोल कर देखो। रसीद उसी में है।’

‘ठीक है अंकल। देखता हूँ।’

‘हाँ। देखो और मुझे बताना।’

‘जी अंकल। थैंक्यू।’

कोई बीस मिनिट बाद ‘उसका’ फोन आया -

‘रसीद मिल गई अंकल। लिफाफे में ही थी। थैंक्यू।’

‘ठीक है। पापा को मेरे नमस्कार कहना।’

‘जी अंकल। श्योर। लेकिन एक रिक्वेस्ट है अंकल।’

‘बोलो।’

‘वो अंकल! आगे से आप जब भी लिफाफे में रसीद भेजो तो एक बार फोन कर देना कि लिफाफे में रसीद भेजी है।’

‘..........!!!’
-----

फोटू भईजी का और पुकार मिट्टी की

क्या हुआ था, यह तो जानता हूँ लेकिन नहीं जानता कि क्यों हुआ था। 23 जुलाई की रात को यह हुआ था। इतने दिन बीत चुके हैं, अब तक नहीं जानता। 

मैं बनवारी लाल सारडा को नहीं जानता। रोमन ने हिन्दी के अनगिनत शब्दों के रूप विकृत कर दिए। रोमन लिपि में लिखे उनके नाम के कारण ही तय नहीं कर पा रहा कि बनवारी सारडा हिन्दी में खुद को क्या लिखते हैं - सारदा? या सारडा? या सारड़ा? वे फेस बुक पर मेरी मित्र सूची में हैं। उनसे मिला नहीं। फेस बुक पर उपलब्ध उनके परिचय के मुताबिक वे रतलाम स्थित इप्का लेबोरेटरीज मेें वितरण विभाग में सहायक महाप्रबन्धक हैं। लेकिन उनसे आमना-सामना अब तक नहीं हुआ। उन्हीं की वजह से यह सब हुआ और यह सब होने के बाद अनुमान लगा पा रहा हूँ कि वे खुद को सारड़ा ही लिखते होंगे।

यह 23 जुलाई की शाम सात-आठ बजे की बात होगी। फेस बुक को उलटते-पलटते अचानक इस चित्र पर नजर पड़ी। 



नजर पड़ी तो ठिठकीं और ठहर गईं। है। चित्र शायद घुड़-चढ़ी के मौके का है। एक दम दाहिने कोने पर एक दूल्हा, बीच में सफेद कुर्ते पर कत्थई रंग का नेहरू जेकेट पहने, माथे पर गुलाबी रंग की पगड़ी धारे, चश्मा लगाए प्रसन्न-वदन बुजुर्ग खड़े हैं। इन्हीं ने मेरी नजर पर कब्जा कर लिया - ‘अरे! ये तो भईजी हैं!’ मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। और फिर वही हुआ जो मैं अब तक नहीं समझ पाया हूँ - अपने लेप टॉप के सामने बैठे-बैठे मुझे धार-धार रुलाई आ गई। मैं विगलित भी था और चकित भी - ‘यह क्यों हो रहा है? अभी तो पक्का भी नहीं ये मेरे भईजी ही हैं! मैं क्यों रोए जा रहा हूँ?’ बुध्दि सन्देही कर रही थी और विवेक संयमित होने की सलाह दे रहा था। लेकिन इन दोनों को परे सरका कर मन बेकाबू हुए जा रहा था।

मैंने टिप्पणी कर पूछा -‘इस चित्र में बीच में, पगड़ीवाले क्या स्व. रूपचन्द्रजी सारड़ा हैं?’ जवाब बनवारी सारड़ा की ओर से आना था लेकिन आया बृजमोहन समदानी की ओर से - ‘ बिलकुल सही, रूपचंदजी सरड़ा ही हैं।’ यह पढ़ना था कि मेरी रुलाई और बढ़ गई - न तो  लेप टॉप के पर्दे पर अक्षर दीखें, न ही की-बोर्ड पर अंगुलियाँ चलें। सब कुछ गड्डमड्ड होने लगा। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि मेरी यह दशा क्यों हो रही है।

तनिक संयत होकर मैंने बनवारी सारड़ा से पूछा - ‘रूपचंदजी सारड़ा से आपका क्या सम्बन्ध है? उनका एक बेटा विश्वम्भर मेरा कक्षापाठी था।’ इस बार भी जवाब बृजमोहन समदानी ने ही दिया - ‘जी, बनवारी सारड़ा, रूपचंदजी सारड़ा के पौत्र हैं।’ (याने बनवारी से काका-भतीजे का रिश्ता जोड़ा जा सकता है।) आगे मेरी जिज्ञासा शान्त करते हुए बृजमोहन ने बताया कि बनवारी, विश्वम्भर का नहीं, विश्वम्भर के बड़े भाई, मदन दादा का बेटा है। थोड़ी ही देर बाद बनवारी का सन्देश मिला - ‘पोता हूँ सर! रतलाम में ही हूँ।’ जवाब में मैंने अपना मोबाइल नम्बर दिया और कहा कि मुझे काम कुछ नहीं है लेकिन यदि सम्पर्क करेंगे तो खुशी होगी। दूसरे दिन बनवारी का फोन आया। हम लोगों ने एक-दूसरे के पते जाने। मिलने की कोशिश करने के आग्रह के साथ ही यह सिलसिला एक मुकाम पर पहुँचा। 

लेकिन अब तक हैरान हूँ - ‘मैं रोया क्यों?’ मैंने खुद को खूब टटोला। बार-बार टटोला - कोई तो कारण मिले मेरे रोने का। कोशिश करने के बाद भी मैं एक कमजोर सूत्र भी नहीं पा सका जिसने मुझे भईजी से भावुकता के स्तर पर जोड़ा हो। फिर यह रोना क्यों? नितान्त एकान्त में, अपने घर में बैठे-बैठे, ऐसे आदमी की मात्र एक छवि देखकर जिससे मेरा, भावना के स्तर पर जुड़ाव मैंने, अपनी चेतनता में कभी अनुभव ही नहीं किया? यही सब सोचते-सोचते भईजी की कुछ छवियाँ उभरने लगीं।

मालवी में पिता के लिए प्रयुक्त सम्बोधनों में ‘भईजी’ भी एक है। दादा उन्हें ‘भईजी’ ही सम्बोधित करते थे। उन्हीं की देखा-देखी मैं भी उन्हें भईजी ही कहता था। भईजी मनासा के अग्रणी श्रेष्ठि पुरुष थे। उनके अनुभव और उनकी परिपक्वता उन्हें सबसे अलग और महत्वपूर्ण बनाए हुए थी। गम्भीर विषयों पर उनकी राय जानने के लिए उन्हें विशेष रूप से बुलाया जाता था। वे बहुत कम बोलते थे लेकिन जब भी बोलते थे तो बाकी सब लोग चुप हो जाते थे। वे बहुत धीमी, मीठी आवाज में, सधे स्वरों में, सुस्पष्ट रूप से अपनी बात कहते। स्वर तनिक मन्द जरूर होता था लेकिन होता था खनकदार। उनके वक्तव्य की खूबी यह होती थी कि उनकी सलाह भी सामनेवाले के पास निर्देश/आदेश की तरह पहुँचती थी। मनासा के सदर बाजार में उनकी बहुत बड़ी दुकान थी। लेकिन मुझे याद नहीं आता कि मैंने उन्हें कभी दुकान पर बैठे, व्यापार करते देखा हो। मैंने उन्हें सदैव कस्बे में यत्र-तत्र ही देखा। वे जब सड़क पर निकलते तो लोग यन्त्रवत आदर भाव से उन्हें करबद्ध, नतनयन, नतमस्तक हो नमस्कार करते। मैंने उन्हें, बाजार में या सड़क पर कभी भी किनारे चलते हुए नहीं देख। वे सदैव सड़क के बीच ही चलते। यूँ तो वे सीधी नजर ही चलते लेकिन कभी-कभी, दोनों हाथ, पीछे, कमर पर बाँधे, विचारमग्न मुद्रा में चलते नजर आते। 

भईजी  की एक और विशेषता उन्हें सबसे अलग किए हुए थी। आदमी के दाहिने हाथ का अंगूठा देखकर उसकी प्रकृति समझने की अद्भुत प्रतिभा के धनी थे भईजी। इसीलिए वे ‘सर्वप्रिय’ से कहीं आगे निकलकर ‘सर्वजीत’ की स्थिति में थे। जो एक बार उनसे मिल लिया वह आजीवन उनका कायल को गया। परस्पर बैरी लोग भी भईजी के सम्पर्क क्षेत्र में समानता से मौजूद मिलते थे। उस समय तहसीलदार कस्बे का सबसे बड़ा अघिकारी होता था। भईजी के जीते-जी शायद ही कोई तहसीलदार ऐसा रहा हो जिसने सलाह लेने के लिए भईजी की सेवाएँ न ली हों।

भईजी से व्यक्तिगत रूप से मेरा सम्पर्क बहुत ही कम रहा। उनका बेटा विश्वम्भर मेरा कक्षा पाठी था। हम सबसे तनिक अधिक लम्बा था। वह कबड्डी का बहुत अच्छा खिलाड़ी था। उसकी लम्बाई कबड्डी में उसका हथियार बन जाया करती थी। विश्वम्भर की मौजूदगी टीम की जीत का भरोसा होती थी। शत्रु के पाले से अपने पाले में लौटते-लौटते विश्वम्भर, मध्य रेखा पर पहुँच कर अचानक, अपनी दाहिनी टाँग पर लट्टू की तरह घूम कर अपनी बाँयी टाँग पीछे की ओर फेंकता तो मानो उसकी टाँग की लम्बाई ड्योड़ी हो जाती थी और बेखबर शत्रु के एक-दो  खिलाड़ियों के गाल छू लेती थी। खेल प्रतियोगिताओं में तब कबड्डी के नियम बनने शुरु ही हुए थे। शत्रु के पाले में प्रवेश करते समय खिलाड़ी, ‘हुल कबड्डी-कबड्डी’ कहा करते थे। विश्वम्भर ‘हेल कबड्डी-कबड्डी’ कहकर प्रवेश करता था। नियमों के मुताबिक जब ‘हुल/हेल’ कहना फाउल करार दे दिया गया तो अपनी आदत बदलने में विश्वम्भर को महीनों लगे थे। विश्वम्भर का कक्षापाठी होने के बाद भी मुझे विश्वम्भर के घर जाने का काम नहीं पड़ा। लिहाजा, भईजी से मेरी मुलाकातें घर से बाहर ही हुईं। वे जब भी मिलते, कभी मेरे कन्धे पर तो कभी पीठ पर हाथ रखकर अत्यन्त प्रेमल मुद्रा और शहतूती मिठास भरे स्वरों में पूछताछ करते। 

बनवारी की वाल पर लगे फोटू में भईजी की मौजूदगी ने मुझे मानो एक पूरा काल खण्ड सौंप दिया। लेकिन तब भी सवाल बना रहा - ’मुझे रोना क्यों आया?’ 

अब, जबकि भावावेग थमा हुआ है, मन संयमित है, मुझे लग रहा है, मिट्टी इसी तरह, अचानक ही पुकारती होगी। इतनी अचानक कि आदमी बेसुध, चेतनाशून्य हो अपनी मूल प्रकृति में, शिशु दशा में पहुँच जाए। तब शब्द अर्थविहीन हो केवल ध्वनियाँ रह जाते हैं। माँ की छाती से चिपके शिशु तक पहुँचती निःशब्द, नीरव ऊष्मा को व्याख्यायित करना सुरसती के लिए भी असम्भवप्रायः हो जाता है। फुनगियों, फूलों की हरीतिमा बनाए रखने के लिए जड़ों को मिट्टी से पानी की गुहार लगाते किसने सुना?

अब मुझे लग रहा है, भईजी की छवि के जरिए मेरी जड़ों ने अपनी मिट्टी से जो पानी लिया, वही पानी मेरी आँखों तक पहुँचा और बह निकला। 

मिट्टी पुकारती है तो आदमी को अपने साथ बहा लेती है।
-----

इतनी देर, देर नहीं होती याने माथों की बाट जोहती काँगसियाँ

रतलाम के भुट्टा बाजार में बहुत सम्हल कर चलना पड़ता है। वहाँ दो तरफा बचाव करना पड़ता है - खुद किसी से न टकराएँ और कोई दूसरा आपसे न टकराए। लेकिन लाख सावधानी बरतने के बाद भी टक्कर हो जाए तो भी घबराने की बात नहीं। सामनेवाला मुस्कुराते हुए ‘कोई बात नहीं सेठ! चलता है।’ कहते हुए आपको और खुद को झंझट-मुक्त कर देता/लेता है। 

मैं इसी भुट्टा बाजार से निकल रहा था। बहुत डरते-डरते, फूँक-फूँक कर, लगभग ‘मुर्दाना धीमेपन’ (डेड स्लो) से स्कूटर चलाते हुए। ऐसे सँकरे बाजार से निकलते समय मैं ताँगे का घोड़ा हो जाता हूँ - दोनों आँखों को अदृष्य कनटोपों से ढकते हुए। केवल सामने देखना, इधर-उधर बिलकुल नहीं देखना। ज्ञान पुस्तक भण्डार, मेरे अन्नदाता अशोक भाई की दुकान है। उन्हें नमस्कार करने के लिए नजर घुमाई तो ‘वह’ भी नजर आ गई। अशोक भाई की दुकान से दस-बीस कदम पहलेे, सड़क किनारे बैठी ‘वह’ माथा झुकाए अपना काम किए जा रही थी। अपना काम याने कंघियाँ बनाना। उसे यह काम करते देख कर मेरे हाथों ने यन्त्रवत स्कूटर का ब्रेक दबा दिया। अब मैं उसके सामने खड़ा था। वह लकड़ी की कंघियाँ बना रही थी। लेकिन उसके उत्पाद को ‘कंघियाँ’ कहना आभिजात्य व्यवहार हो जाएगा और उसकी मेहनत अपनी सार्थकता और पहचान ही खो देगी। उसके देसीपन की हत्या हो जाएगी। 



वह वस्तुतः ‘काँगसियाँ’ बना रही थी। ऐसी कंघियों को मालवा में ‘काँगसी’ ही कहा जाता है। ये काँगसियाँ’ भैंसों के सींगों और लकड़ी से बनती हैं। प्रत्येक काँगसी अलग-अलग बनाई जाती है। साँचे में नहीं ढलती। कोई भी दो काँगसियाँ कभी भी एक जैसी नहीं होती। इस लिहाज से प्रत्येक काँगसी ‘नायाब’ होती है। इनका आकार और बनावट ऐसी होती है कि मुट्ठी में आसानी से पकड़ी जा सकें। इनके दोनों हिस्सों में, बाल सँवारने के लिए ‘दाँते’ बनाए जाते हैं - एक ओर बारीक, सघन दाँते, दूसरी ओर मोटे, तनिक छितरे हुए दाँते। पकड़वाला, बीच का हिस्सा सीधा रहता है जबकि दोनों छोरों के चारों सिरे, बाहर की ओर तिरछे निकलते हुए। बाहर निकले हुए ये सिरे, मुट्ठी की पकड़ को आसान भी बनाते हैं और फिसल कर छूट जाने की आशंकाएँ भी न्यूनतम हो जाती हैं।

उसका काम मुझे, एक झटके में मनासा की पुरबिया गली में खींच ले गया।

मनासा। मेरा पैतृक गाँव। पुरबिया गली में तीन-चार परिवार यही काम करते थे - ‘काँगसियाँ’ बनाने का। वे परिवार भैंसों के सींगों की काँगसियाँ बनाते थे। भैंसों के सींगों को खड़े दो भागों में चीरते। फिर गरम करके उनकी गोलाई दूर कर, उन्हें सीधा-सपाट करते, और इस तरह काटते कि एक सींग में अधिकाधिक काँगसियाँ बन सकें। रास्ते से काफी उँचाई पर बने अपने मकानों के ढालिये में ये परिवार दिन-भर इसी में काम में लगे रहते थे। परिवारों का एक भी सदस्य, आदमी हो या औरत खाली हाथ या फुरसत में नजर नहीं आता था। कोई सींग चीर रहा है, कोई छोटी सी भट्टी गरम कर रहा है, कोई सींगों को गरम करने के लिए थप्पी जमा रहा है, कोई सींग तपा रहा तो दूसरा उसके पास, तपाये हुए सींग को दबा कर सीधा करने के लिए लकड़ी का भारी गट्टा लिए  खड़ा है। एक, सीधे किए सींग के टुकड़े बना रहा है तो दूसरा उन्हें छोटी टोकनी में जमा रहा है। तीसरा उस टुकड़े की एक ओर मोटे दाँते बना रहा है तो दूसरा, टुकड़े की दूसरी ओर बारीक दाँते बना रहा है। मोटे दाँतों के लिए लम्बी, बड़े आरों वाली करवत (आरी), बारीक दाँतों के लिए बारीक आरों वाली, छोटी सी करवत। दाँते बारीक बनाने हों या मोटे, सम्पूर्ण तन्मयता माँगता था - पहला दाँता बनाया, उसे बाँये हाथ के अंगूठे से दबाया और उससे सटता हुआ दूसरा दाँता बनाया। ऐसा करते समय बाँये हाथ के अंगूठे को करवत की चपेट में आने से बचाने के लिए उस अंगूठे पर चमड़े का खोल चढ़ा लिया जाता था। 

दोनों भागों के दाँते बनाने के बाद बारीक और मोटे दाँतों को विभाजित करनेवाले मध्य भाग पर, यथा सम्भव, कभी सीधी तो कभी सर्पिल लकीरों की सजावट की जाती। तैयार काँगसियों को बिक्री के लिए आकर्षक बनाने के लिए इन पर ‘तेल का हाथ’ फेरा जाता जिससे काँगसियाँ चमकदार हो जाती थीं। इन काँगसियों को टोकरी में, करीने से गोलाई में सजाकर, धूल से बचाने के लिए कपड़े से ढक कर रखा जाता था। टोकरियों में सजी ऐसी काँगसियों को, गाँव-गाँव, गली-गली फेरी लगाकर बेचती महिलाएँ मैंने देखी हैं। लेकिन नहीं जानता कि वे महिलाएँ इन्हीं परिवारों की होती थीं या दूसरी महिलाएँ इनसे खरीद कर ले जाती थीं। लेकिन गाँवों में इन ‘सेल्स वीमेन’ की प्रतीक्षा की जाती थी। दाँतों की लम्बाई, सघनता और तीखेपन से काँगसियों की गुणवत्ता आँकी जाती थी और दाम तय होता था।

उस समय, गाँव की महिलाएँ न तो नित्य स्नान कर पाती थीं न ही रोज बाल सँवार पाती थीं। स्नान करना और बाल सँवारना भी छोटे-मोटे  त्यौहार हो जाता था। काँगसी के बड़े दाँतों से बाल सँवारे जाते और छोटे दाँतों का उपयोग मुख्यतः जुँएँ-लीखें निकालने में किया जाता। इन कामों में जो काँगसी पास हो जाती, उसकी ‘सेल्स वुमन’ को अगली बार अधिक ग्राहकी मिलती। 

लेकिन अन्य अनेक हस्त शिल्प कला आधारित कुटीर उद्योगों की तरह यह कुटीर उद्योग भी खत्म हो गया। मेरे मनासा की अब पुरबिया गली में अब ये काँगसियाँ नहीं बनतीं। 

एक पल में पूरा एक जमाना मेरी आँखों से गुजर गया। अशोक भाई को नमस्कार करना भूल, मै ‘उसके’ ऐन सामने खड़ा हो गया। हाथ का काम रोक कर उसने झटके से सर उठाया। मेरी ओर देखा और भँवें उचका कर, आँखों से बोली - ‘क्या चाहिए?’ मैंने जवाब दिया - ‘कुछ नहीं चाहिए। तुमसे बात करनी है।’ उसे अच्छा नहीं लगा। उसे ग्राहकी की दरकार थी लेकिन मैं उसका ‘टेम’ खराब करने आ पहुँचा था। करवत (आरी) चलाता  हाथ रुक गया। बोली - ‘क्या बात करनी है?’ 

क्‍या चाहिए
'क्‍या चाहिए?'

इसके जवाब में हमारी बात कुछ इस तरह से हुई -

‘कितनी उमर है?’

‘पचहत्‍तर बरस।

‘इतनी उमर में काम क्यों करना पड़ रहा है?’

‘हाथ-पाँव चलते रहने से हारी-बीमारी दूर रहती है।’

‘बेटा-बहू देख-भाल नहीं करते?’

‘तो कौन करता है? तुम?’

मैं अचकचा गया। पत्थरमार बोलने में ये तो मुझसे भी सवाई है! अगला सवाल पूछने की हिम्मत हवा हो गई। फिर भी पूछा - ‘कच्चा माल कहाँ से लाती हो?’

‘तुम भी यह धन्धा शुरु कर दो। मालूम हो जाएगा।’
(याने वह अपना ‘ट्र्रे्डड सीक्रेट’ नहीं बताना चाहती। कहीं डर तो नहीं गई कि मैं सचमुच में उसकी ‘कम्पीटीशन’ में न आ जाऊँ? लेकिन अपनी टुच्ची सोच पर खुद ही झेंप आ गई।)

‘नाम क्या है?’ 

‘धापू।’

सुनकर मेरा रोम-रोम बह निकला। मेरी माँ का नाम भी धापू है। यह अभी 75 की है और मेरी माँ का देहावसान 72 वर्ष की आयु में हुआ। मैं असंयत हो गया। आँखें बहने लगीं। गला रुँध गया। मेरी दशा देख हैरत से बोली - ‘क्या हुआ?’ जवाब देने में मुझे थोड़ी देर लगी - ‘कुछ नहीं। मेरी माँ का नाम भी धापू है।’ सुन कर वह खुश हो गई। पता नहीं क्यों। केवल जवाब देने के लिए बोली - ‘अच्छा है।’

मैं उससे ‘इस जमाने में भी वह क्यों काँगसियाँ बना रही है?’ ‘दिन भर मेें कितनी बना लेती है?’ ’कितनी बिक जाती हैं?’ जैसी सरसरी बातें जानना चाहता था। लेकिन उसका नाम मालूम होते ही मेरी सारी जिज्ञासाएँ पवन-परियाँ हो गईं। मेरे पास बात करने के लिए कुछ भी नहीं रह गया। लेकिन मेरे पाँव सड़क में गड़े हुए थे। हिलने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। मैं कुछ देर और उसे देखते रहना, उससे बातें करना चाहने लगा था। बात करने के लिए मेरे पास कोई विषय नहीं था। लेकिन निश्चय ही ईश्वर मेरी मदद कर रहा था। मेरे मुँह से निकला - 

‘कितने में दी एक काँगसी?’ 

उसने अविश्वास से मुझे देखा। बोली -

‘तुमने तो कहा था कि तुम्हें तो बस बात करनी थी!’  

‘हाँ। करनी तो बात ही थी। पर बात करते-करते सोचा एक काँगसी ले ही लूँ।’

वह खुश हो गई। बगल में रखी टोकरी की ओर इशारा कर बोली -

‘छाँट लो।’

‘तुम ही दे दो। अपनी पसन्द से। जो तुम्हें अच्छी लगे।’

‘देखो! मुझे समझ में आ गया है कि तुम जबरदस्ती काँगसी खरीद रहे हो। कौन वापरेगा?’

‘तुम्हारी लाड़ी।’ 
(मालवा में बहू को लाड़ी कहते हैं। मुझे नहीं पता कि यह जवाब मेरे मुँह से कैसे निकला।)

मेरा जवाब सुन कर उसकी आँखों में चमक आ गई। झुर्रियों का खिंचाव मानो तनिक कम हो गया। उसके चूड़े का लाल रंग गहरा गया। आवाज का कड़कपन उड़न-छू हो गया। तनिक लाड़ से बोली -

‘लाड़ी! किसकी लाड़ी? तुम्हारे छोरे की लाड़ी या तुम्हारी लुगाई?’

‘घर में धणी-लुगाई हम दो ही हैं। दोनों छोरे बाहर नौकरी कर रहे हैं। इसलिए मेरी लुगाई याने तुम्हारी लाड़ी इसे वापरेगी।’

इस बार वह खुद को नियन्त्रण में नहीं रख पाई। पानीदार नारीयल की तरह फूट गई और मानो उससे आचमन कर लिया हो। मीठे स्वर में बोली -

‘मेरी लाड़ी? नहीं बाबूजी! अपनी लाड़ी ही अपनी लाड़ी होती है। बाकी सब तो मुँह देखी बातें हैं। लेकिन आज तुम्हारी बातों ने जी ठण्डा कर दिया। सबको पच्चीस रुपयों में देती हूँ। तुमसे बीस ले लूँगी। लेकिन बीस से कम बिलकुल नहीं लूँगी। भाव-ताव मत करना। जमे तो लो। नहीं जमे तो मत लो।’

मेरे जमने, न जमने का तो कोई सवाल ही नहीं था। उसे बीस रुपये दिए। उसने टोकरी की काँगसियाँ टटोलीं। छाँट कर एक मुझे थमा दी। उससे बात करने का बहाना तलाशते हुए मैंने कहा - 

‘ढंग-ढांग की तो दी है ना? घर में डाँट तो नहीं खानी पड़ेगी?’

इस बार तनिक अधिक खुल कर हँसती हुई बोली -

‘तुम्हारी लाड़ी होगी तो डाँट देगी। मेरी लाड़ी होगी तो नहीं डाँटेगी।’ 

आधे-अधूरे किन्तु मुदित मन मैंने अपना स्कूटर बढ़ाया। अशोक भाई की दुकान के आगे रुका। उनसे नमस्कार किया। जवाब में सवाल आया - ‘आपने काँगसी खरीदी? भाव-ताव तो नहीं किया।?’ मैंने बताया कि मुँह-माँगी रकम चुकाई। तसल्ली की साँस लेते हुए अशोक भाई ने कहा - ‘भगवान ने आपको अक्कल दे दी जो आपने भाव-ताव नहीं किया। करते तो आपका मुँह लबूर (नोंच) देती। हमारे बाजार की बड़ी कड़क काकी है।’ फिर पूछा - ‘लेकिन जब आपने भाव-ताव नहीं किया तो इतनी देर तक क्या बातें करते रहे?’

इस बार फिर मेरे मुँह से बिना सोचे-विचारे जवाब निकला - ‘जब माँ से बात हो और बात अपने गाँव की गली में खड़े होकर हो तो इतनी देर, देर नहीं होती अशोक भाई!’ अशोक भाई के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मैं उन्हें उलझन में छोड़ कर चला आया।

आते समय आँखों के सामने धापू की शकल नाच रही थी और मन में जिज्ञासा - देश के कितने गाँवों-कस्बों में, कितनी काँगसियाँ, अपनी सार्थकता हासिल करने के लिए माथों की बाट जोह रही होंगी?

(यह पोस्ट निश्चय ही बहुत बड़ी लगेगी। लेकिन मुझे तनिक भी बड़ी नहीं लग रही। 
-----


काँगसियाँ बनने से पहले लकड़ी के टुकड़े

टोकरी में बिक्री के लिए तैयार काँगसियाँ


धापू की बनाई काँगसी



धर्म-शास्त्रधारी, ज्ञान सागर, विद्यावाहक का महाप्रयाण

सत्यमित्रानन्दजी नहीं रहे। 

सुबह-सुबह यही खबर सबसे पहले मिली। खबर मिलते ही मेरी यादों की पोटली खुल गई। बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछ यादें हैं मेरी पोटली में। खट्टी-मीठी भी और कड़वी-कसैली भी।

यह सत्तर के दशक के शुरुआती बरस थे। मेरा कस्बा मनासा मानो ‘सत्यमित्रानन्दमय’ हो गया था। उनका आना भी त्यौहार होता था और जाना भी। लोग उमड़-घुमड़ कर उनकी अगवानी करते। उन्हें खूब सुनते और जब विदाई का दिन आता तो बिना किसी दुःख, क्लेश के, भरपूर आशावाद के साथ विदा करते - यह सोचते हुए कि जाएँगे नहीं तो फिर आएँगे कैसे? गोया उनकी विदाई हकीकतन उनकी अगली अगवानी की भूमिका होती थी। तब मनासा की आबादी कोई बारह-पन्द्रह हजार रही होगी। मुहावरों की भाषा में कहूँ तो मनासा के घर-घर में सत्यमित्रानन्दजी का चित्र लगा हुआ था जिस पर प्रतिदिन ताजा फूलों की माला चढ़ी नजर आती थी। वे घर-घर में पूजे जाते थे। मनासा के सैंकड़ों लोग उनके कण्ठी-बद्ध शिष्य थे जिनमें मेरे दादा-भाभी भी शरीक थे।

सत्यमित्रानन्दजी को देखना ही अपने आप में रोमांचक और उत्तेजक होता था। भरपूर कद-काठी, गोरा रंग, भव्य भाल, उन्नत ललाट, तीखी नाक, चमकती-लुभाती आँखें और इन सबको परास्त करती उनकी भुवन मोहिनी मुस्कान। हर किसी को लगता, स्वामीजी उसे ही देख कर मुस्कुरा रहे हैं। भगवा वेश में, हाथ में दण्ड धारण किए वे चलते तो पूरा मनासा उनके साथ चल रहा होता। लोग उनके चरण स्पर्श करना चाहते लेकिन उनका सस्मित प्रसन्न-वदन देखकर मानो मन्त्र-बिद्ध हो, पाँव छूना भूल, जड़वत खड़े रह जाते। सत्यमित्रानन्दजी का सम्मोहन पूरे कस्बे पर तारी रहता था। उनके प्रवचन सुनने के लिए लोग अपने हाथ के काम छोड़ कर चले आते थे। सत्यमित्रानन्दजी थे ही ऐसे। 

यह चित्र मनासा से श्री बृज मोहन समदानी के सौजन्य से मिला है। चित्र 18 फरवरी 2019 का है। श्री अशोक गुलाटी के घर पर लिए गए इस चित्र में बाँए से खड़े हुए कैलाश सोनी, प्रसन्न राघव शास्त्री, कुर्सी पर बैठे सत्यमित्रानन्दजी और खड़े हुए बृज मोहन समदानी। प्रसन्न राघव मेरा कक्षापाठी है। मैंने बरसों बाद प्रसन्न राघव की शकल देखी - इस चित्र के माध्यम से।

मैं उन दिनों हायर सेकेण्डरी का विद्यार्थी था। एक दिन हमें सूचित किया गया - ‘कल सत्यमित्रानन्दजी अपने स्कूल में आएँगे और विद्यार्थियों को सम्बोधित करेंगे।’ खबर सुनने के बाद सारे पीरीयड बिना किसी घोषणा के स्वतः ही निरस्त हो गए। पूरे स्कूल में मानो त्यौहार का उल्लास छा गया। 

अगला दिन बड़ी देर से आया।

हम सब बच्चे समय से बहुत पहले स्कूल पहुँच गए थे। उन दिनों ताम-झाम वाले सजीले मंच तो होते नहीं थे। ऐसी सभाओं के लिए तख्तों का चलन था। मझौले आकार का एक तख्ता सादगी से सजाया गया था। उस पर रेशमी शाल से ढकी एक कुर्सी लगी थी। सामने माइक। तख्ते के एक ओर अध्यापकों के लिए कुर्सियाँ लगी थीं और सामने बिछी दरी पर, स्कूल के हम तमाम छात्र बैठे थे। स्वामीजी के आगमन की प्रतीक्षा में हम सबके दिल बेतरह धड़क रहे थे। उस दिन हमें चुप रहने के लिए किसी भी अध्यापक को नहीं कहना पड़ा। हम सब मानो आवेशित (चार्ज्ड) हो, चुपचाप बैठे थे।

तय समय पर स्वामीजी आए तो हम सबकी साँसें रुक गईं। पलकों ने झपकने से इंकार कर दिया। स्वामीजी को ‘ज्यादा से ज्यादा’ देख लेने की कोशिश में हम सब घुटनों के बल उठंगे हो आए थे। हम सब उन्हें नख-शिख देख लेना चाहते थे ताकि बाद में शेखी बघार सकें - ‘मैंने स्वामीजी को सबसे ज्यादा देखा।’

हमारे प्रचार्य एस. डी. वैद्य साहब ने स्वामीजी का स्वागत किया। अपनी भावनाएँ प्रकट कीं और उद्बोधन के लिए स्वामीजी को आमन्त्रित किया। प्रभु स्मरण और गुरु नमन से स्वामीजी ने अपनी बात शुरु की। कहा कि वे तीस मिनिट बोलेंगे। उनकी बात सुनकर हमने उनके हाथों पर नजरें घुमाईं - घड़ी देखने के लिए। स्वामीजी ने घड़ी नहीं पहनी थी। हमें लगा, स्वामीजी खूब देर तक बोलेंगे। तीस मिनिट वाली बात उन्होंने केवल कहने के लिए कही होगी। 

स्वामीजी ने अपना उद्बोधन शुरु किया। उन्होंने किस विषय पर, क्या कहा, यह मुझे अब कुछ भी याद नहीं। केवल एक श्लोक याद रहा जिसमें उन्होंने ‘विद्यार्थी’ के लक्षण गिनवाए थे -

काक चेष्टा, बको ध्यानम्, श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थीनाम पंच लक्षणा।।

यह श्लोक मैंने पहली बार सुना था। मुझे, तब से लेकर अब तक, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब तक, ताज्जुब है कि मुझे यह श्लोक कैसे याद रह गया। या तो स्वामीजी ने अपनी सम्पूर्णता से कहा होगा या फिर मैंने अपनी सम्पूर्णता से सुना होगा।

स्वामीजी को सुनना तो अनूठा अनुभव होता ही था लेकिन उन्हें बोलते हुए देखना अद्भुत अनुभव होता था। खनकती आवाज, सधा हुआ स्वर, सुस्पष्ट उच्चारण, संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा, मोतियों जैसी खनकती शब्दावली और मुक्ताहार जैसा वाक्य विन्यास। तिस पर, बोलने की गति ऐसी मानो वल्गा-मुक्त कुरंग अन्तरिक्ष में कुलाँचें भर रहा हो। वैसा धाराप्रवाह, विरल, अविराम वक्तव्य उसके बाद मैंने आज नहीं देखा-सुना। लगता था, साँस लेने की विवशता न हो तो स्वामीजी की आवाज रुके ही नहीं। स्वामीजी मानो स्वामीजी न रह कर ‘जबान के जादूगर’ हो गए थे जिसने वातावरण को सम्मोहन से ढक दिया हो। श्रोता भी निहाल और दर्शक भी निहाल।

इसी धाराप्रवहता में स्वामीजी ने अपना उद्बोधन समाप्त करने की सूचना देकर अपने प्रिय भजन ‘अब सौंप दिया इस जीवन का भार तुम्हारे हाथों में’ में सबको समवेत होने का आग्रह किया तो सबकी तन्द्रा टूटी। सबसे पहले हमारे प्राचार्य वैद्य साहब ने अपनी घड़ी देखी। उन्होंने अपनी घड़ी देखी और हम सबने उनकी चकित मुख-मुद्रा देखी। वैद्य साहब ने अपना बाँया हाथ उठाकर अपनी घड़ी के डायल का काच ठोक कर सबका ध्यानाकर्षित किया - सचमुच में तीसवें मिनिट में स्वामीजी ने अपना उद्बोधन पूरा कर दिया था। सब चकित थे।

इस उद्बोधन के बाद स्वामीजी के कुछ और प्रवचन सुनने के मौके मिले। उनका प्रत्येक श्रोता हर बार समृद्ध होकर ही लौटता था।

तब से लेकर अब मैं अपनी धारणाओं पर कायम हूँ कि, सत्यमित्रानन्दजी धर्म-शास्त्रधारी, ज्ञान सागर, विद्यावाहक थे। वे चुम्बकीय वक्ता और वशीकरण के सिद्धहस्त शिल्पी थे। समय पर उनका प्रभावी नियन्त्रण था। वे अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी थे। मनासा के अपने प्रायः प्रत्येक अनुयायी को नाम और शकल से जानते-पहचानते थे और पहले नाम से ही सम्बोधित करते थे। 

पता नहीं, सत्यमित्रानन्दजी के अवसान की खबर का असर मनासा के लोगों पर क्या हुआ होगा। क्योंकि दलगत राजनीति की चपेट में आकर सत्यमित्रानन्दजी ने अपने अनेक शिष्य, अनुयायी खो दिए। स्थिति यह हुई कि उनके चित्र गटरों में नजर आए। ऐसे अमिट लोकोपवाद के विजित हुए कि उन्हें भानपुरा शंकरचार्य पीठ से विदा लेनी पड़ी। यह मर्मान्तक पीड़ादायक प्रसंग फिर कभी। लेकिन फिर भी मुझे पक्का विश्वास है कि मनासा के सौ-पचास लोगों ने आज अपना काम बन्द रखा होगा।

और स्वामीजी? हरिद्वार में लोग भले ही उन्हें समाधी दे रहे होंगे लेकिन स्वामीजी देवलोक में अब तक अपने प्रवचन शुरु कर चुके होंगे और श्रोताओं से, अपने प्रिय भजन ‘अब सौंप दिया सब भार तुम्हारे चरणों में’  में समवेत होेने का आह्वान कर रहे होंगे।
-----  

प्रभु की पटखनी


यह प्रभु है। पूरा नाम प्रभुलाल सिलोद। सब्जियों का व्यापारी है। रतलाम के नीम चौक में बैठता है। राधा स्वामी सम्प्रदाय का अनुयायी है। जब भी इन्दौर में राधा स्वामी सत्संग होता है, अपनी दुकान बन्द कर इन्दौर जाता है। मेरा अन्नदाता रहा है। अन्नदाता याने मेरा बीमा ग्राहक। अब इसका बेटा धर्मेन्द्र मेरा अन्नदाता बना हुआ है। मेरे घर से इसकी दुकान तक पहुँचने के लिए मुझे दो सब्जी बाजार पार करने पड़ते हैं। लेकिन इस प्रभु का प्रताप यह है कि दोनों बाजार पार करते हुए, सब्जी की किसी दुकान पर नजर नहीं पड़ती। मैं इससे मोल-भाव नहीं करता। सब्जियों का झोला थमाते हुए जितनी रकम बताता है, आँख मूँद कर चुका देता हूँ।

मँहगे भाव का पेट्रोल जला कर, दो सब्जी बाजार पार कर, इस प्रभु से सब्जी खरीदने की शुरुआत तो इसी वजह से हुई थी कि यह मेरा ग्राहक है। जो मुझे ग्राहकी दे, मैं भी उसे ग्राहकी दूँ - यही भावना रही। किन्तु मेरी इस भावना को इसने जल्दी ही परास्त कर दिया। एक दिन इसने मुझे गिलकी देने से इंकार  दिया। बोला - ‘आज गिलकी नहीं है।’ मैं प्रभु की शकल देखने लगा। टोकरी में रखी गिलकियाँ मुझे नजर आ रही थीं और प्रभु इंकार कर रहा था। गिलकी की टोकरी दिखाते हुए मैंने कहा - ‘ये रखी तो हैं!’ अपना काम करते हुए, मेरी ओर देखे बिना ही प्रभु ने जवाब दिया - ‘हाँ। रखी हैं। लेकिन अच्छी नहीं है। आपको नहीं दूँगा।’ सुनकर मुझे विश्वास नहीं हुआ लेकिन अच्छा लगा - ‘मुझे अपना खास मानता है। मेरा ध्यान रखता है। मेरी चिन्ता करता है।’ उस दिन से मैं इस प्रभु का भगत हो गया। उस दिन के बाद से मैं ध्यान रखने लगा कि प्रभु से सब्जी तब ही लूँ जब कोई और ग्राहक मौजूद न हो ताकि मुझ ‘खासम-खास’ की चिन्ता करते हुए यह किसी धर्म-संकट में न पड़े। 

लेकिन आज प्रभु ने ‘खासम-खास’ का मेरा यह मुगालता दूर कर दिया। आज इसकी दुकान पर पहुँचा तो कोई और ग्राहक नहीं था। मैंने तसल्ली और बेफिक्री से अपनी ‘पानड़ी’ (सूची) प्रभु को सौंप दी। प्रभु सब्जियाँ निकालने लगा। मैं खड़ा-खड़ा उसे देखता, प्रतीक्षा करता रहा। तभी पीछे से आवाज आई - ‘चँवला फली है?’ प्रभु ने ‘आवाज’ की ओर देखा और जवाब दिया - ‘है तो सही लेकिन आज की नहीं, कल की है।’ ‘आवाज’ ने पूछा - ‘कल की है! कोई बात नहीं। लेकिन अच्छी तो है?’ प्रभु ने अविलम्ब जवाब दिया - ‘न तो बहुत अच्छी, न बहुत खराब। मीडियम है।’ अगला सवाल आया - ‘घर-धराणी (गृहस्वामिनी) नाराज जो नहीं होगी?’ प्रभु के हाथ थम गए। ‘आवाज’ की ओर देखता हुआ बोला - ‘मैं मेरी चँवला फली के बारे में कह सकता हूँ। आपकी घर-धराणी की आप जानो। आप दोनों के बीच में मुझे मत डालो। मैंने चँवला फली के बारे में बता दिया कि आज की नहीं, कल की है और मीडिमय क्वालिटी की है।’ ‘आवाज’ भी शायद इसका, मेरी ही तरह कोई दिल-लगा ग्राहक था। बोला - ‘चल! तू तेरा काम कर। मेरी मैं निपटूँगा। दे दे आधा किलो।’ प्रभु ने मेरा का रोका। ‘आवाज’ को चँवला फली दी और पैसे लेकर विदा किया।

अब फिर मैं अकेला ग्राहक था। मैं अपने ‘खासम-खास’ होने के एकाधिकार के ध्वस्त होने से छोटे-मोटे सदमे में आ गया था। मैंने पूछा - ‘सबको इसी तरह सब्जी बेचते हो?’ बच्चों के से भोलेपन से प्रभु ने जवाब दिया - ‘हाँ। तो? और क्या करूँ? सब्जी जैसी है, वैसी है। इसमें क्या छुपाना?’ मैं अचकचा गया था। सहम कर पूछा - ‘ग्राहक चला जाए तो?’ उसी भाव और मुख-मुद्रा में प्रभु बोला - ‘देखो बाबूजी! ग्राहक तो भगवान होता है। भगवान से क्या झूठ बोलना? मैं कुछ भी कह दूँ, सब्जी सामने नजर आ रही है। और फिर बाबूजी! जब ग्राहक मेरा बताया मोल चुका रहा है तो मेरी जवाबदारी है कि उसे मोल के मुताबिक माल दूँ। मुझे मेरी तकदीर का मिलेगा। लेकिन ग्राहक को तो सन्तोष होगा कि मैंने उसे ठगा नहीं।’

प्रभु ने मुझे अवाक् कर दिया था। मैं जड़-मति की तरह उसे देख रहा था। मैं तो समझ रहा था कि एक-अकेला मैं ही उसका खासम-खास हूँ। लेकिन हकीकत तो यह थी उसके लिए तो उसका हर ग्राहक खासम-खास था। मैं उसके अनगिनत खासम-खासों में से एक खासम-खास हूँ। जब सारे के सारे खासम-खास हों तो कोई एक खुद को खासम-खास कैसे समझ सकता है? 

प्रभु ने एक झटके में मुझे खासम-खास की आसन्दी से सामान्य के पटिये पर ला पटका था। लेकिन सच कहूँ,  इस पटखनी में बड़ा आनन्द आया। 

यह प्रभु तो वास्तव में प्रभु ही है - सबको एक नजर से देखनेवाला।
-----

युगबोध का पागल आदमी

यह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? पागल ही है।


पूरा नाम ओम प्रकाश मिश्रा है। रतलाम का ही रहनेवाला है। हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्रिंसिपल पद से रिटायर हुआ है। कस्बे की दो पीढ़ियों को पढ़ाया है इसने। रतलाम की शायद ही कोई गली ऐसी हो जहाँ इसे जाननेवाले, इसे नमस्कार करनेवाले मौजूद न हों। अन्तरंग हलकों में ‘ओपी’ से सम्बोधित किया जाता है तो कहीं ‘मिश्राजी’ और ‘मिश्रा सर’ से पुकारा जाता है। चार बेटियाँ हैं, चारों के हाथ पीले कर दिए हैं। चारों  अपनी-अपनी गृहस्थी में रमी हुई हैं। माथे पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। तबीयत भी टनटनाट जैसी ही है। चुस्ती-फुर्ती किसी खिलाड़ी जैसी बनी हुई है। महीने की पहली तारीख को अच्छी-भली पेंशन बैंक खाते में जमा हो जाती है। जरूरतें सब पूरी हो रही हैं। सब कुछ भला-चंगा, ठीक-ठाक चल रहा है लेकिन ये आदमी है कि इसे चैन नहीं पड़ती।

यूँ तो याददाश्त बहुत अच्छी है इस आदमी की लेकिन यह याद नहीं कि उम्र के किस मुकाम पर नाटकों से दोस्ती कर ली। सन् 1977 में एक नाट्य संस्था बनाई। नाम रखा युगबोध। कस्बे के नौजवानों को जोड़ा। खूब नाटक किए और करवाए। कस्बे के, आज के कई नामी-गिरामी लोगों के कोटों के बटन होलों में ‘युगबोध’ का गुलाब आज भी टँगा हुआ है। वे आज भी खुद को गर्व से युगबोध का कलाकार कहते फूले नहीं समाते। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वे सब अपने काम-धन्धों में लग गए। किसी ने पलट कर युगबोध की ओर नहीं देखा। यह आदमी अकेला रह गया।

लेकिन यह आदमी न तो निराश हुआ और न ही थका। उम्मीद तो जरूर की लेकिन अपेक्षा किसी से नहीं की। यह ‘अपेक्षाविहीनता’ ही इस आदमी की ताकत बनी, बनी रही और बनी हुई है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के ‘एकला चालो रे’ का ध्वजवाहक बना यह आदमी आज अकेला ही युगबोध को जीवित बनाए हुए है।

युगबोध का यह पागल आदमी सन् 2009 से अनवरत ‘बाल नाट्य शिविर’ लगाए जा रहा है। हुआ यह कि मध्य प्रदेश की ‘अलाउद्दीन खाँ नाट्य अकादमी’ ने 2009 में युगबोध को, पाँच से पन्द्रह वर्ष के बच्चों के लिए एक बाल नाट्य शिविर लगाने का प्रस्ताव दिया। प्रस्ताव में आर्थिक सहयोग का भरोसा भी था। लेकिन वह सहयोग लेने के लिए जिन रास्तों से यात्रा करनी होती है, ‘ओपी’ या तो उन रास्तों से अनजान थे या उन रास्तों पर चल नहीं पाए। सो, अकादमी का आर्थिक सहयोग कागजों से बाहर नहीं आ पाया। लेकिन इस पागल आदमी ने शिविर न तो स्थगित किया न ही निरस्त। निराश होने के बजाय अधिक उत्साह से वह शिविर तो पूरा किया ही, उसके बाद से शिविर को नियमित कर दिया। वह दिन और आज का दिन। बाल नाट्य शिविर का यह ग्यारहवाँ बरस है। ‘ओपी’ नाम का यह पागल आदमी हर वर्ष मई महीने में मैदान में उतर आता है और बच्चों में रम जाता है। किसी से मदद माँगता नहीं। कोई मदद कर दे तो धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाता है। 

मैं पूछता हूँ - ‘यह क्या खब्त है? किसी डॉक्टर ने कहा है यह सब करने को? क्यों अपना वक्त, अपना रोकड़ा खरचते हैं? क्यों इतनी मेहनत करते हैं?’ सुनकर ओपी बारीक सी हँसी हँस देते हैं। कहते हैं - ‘यार विष्णुजी! इस मिट्टी ने मुझे क्या नहीं दिया? मुझे तो बनाया ही इस मिट्टी ने! मेरी हर चाहत, हर हरसत इसने पूरी की। मेरी भी तो कुछ जिम्मेदारी है! क्या लेता ही लेता रहूँ? देने का मेरा कोई फर्ज नहीं बनता? वही फर्ज निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। और वैसे भी, मुझे कोई व्यसन तो है नहीं! मुझे बस, नाटक आता है। यही मेरा व्यसन है। वही कर रहा हूँ।’ मैं कहता हूँ - ‘आप तो गुरु परम्परा वाले शिक्षक हैं। आप बच्चों को निःशुल्क पढ़ा सकते हैं। उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार कर सकते हैं। उसमें आपका पैसा भी खर्च नहीं होगा, मेहनत भी कम लगेगी और घर ही घर में रहते हुए वह सब कर लेंगे।’ ओपी के पास सवाल से पहले जवाब तैयार था - ‘आज की शिक्षा वैसी शिक्षा नहीं रही जैसी आप कह रहे हैं। अब तो शिक्षा बच्चों को रुपये कमानेवाली मशीनें बना रही है। अपने आसपास देखिए, नफरत और प्रतियोगिता के नाम पर शत्रुताभरी प्रतिद्वन्द्विता के सिवाय और कुछ नजर आता है आपको? मनुष्यता खतरे में पड़ गई है। ऐसे में कुल जमा तीन चीजें हैं जो हमें बचा सकती हैं - साहित्य, ललित कलाएँ और खेल। ये तीनों ही सारे भेद-विभेद मिटा कर आदमी को आदमी से जोड़ती हैं। प्रेम, भाईचारा और एकता की जड़ें हैं ये तीनों। ये बच्चे तो मिट्टी के लोंदे हैं। इन्हें जैसा बनाओ, बन जाएँगे। इस समय इनमें प्रेम, भाईचारा, मनुष्यता, नैतिकता जैसे भाव-बीज डाल देंगे तो उनकी फसल लहलहा जाएगी। ये बच्चे बड़े पेकेजवाले प्रोफेशनल बनें न बनें, बेहतर इंसान जरूर बनेंगे। आज हमें इंसानों की जरूरत है। मैं उसी इंसानियत की सेवा का अपना फर्ज पूरा करने की कोशिश कर रहा हूँ।’ मैं निरुत्तर हो जाता हूँ। 
‘हम अंग्रेजों के जमाने के मास्टर हैं।’ बच्चों को सीखाते समय ‘ओपी’ कभी-कभी छड़ी जरूर उठा लेते हैं लेकिन हवा में ही लहराते रहते हैं।



अब तक के दस बरसों में डेड़ सौ से भी अधिक बच्चों को नाटक से जोड़ चुके ‘ओपी’ इस बरस भी अपनी फर्ज अदायगी कर रहे हैं। अपने उसी चिरपरिचित अन्दाज में। शिविर शुरु होने से पहले एक सामान्य विज्ञप्ति जारी कर देते हैं और भूल जाते हैं। अपने अच्छे-खासे परिचय क्षेत्र में खबर कर देते हैं। पन्द्रह-बीस बच्चे हर बरस जुट जाते हैं। आशीष दशोत्तर नियमित रूप से बच्चों के लिए हर बरस दो नाटक लिखता है। नाटक सामाजिक सन्देश लिए होते हैं। आशीष की कलम को मैं हर बरस सलाम करता हूँ। हर बार लगता है, ये नाटक गए बरस के नाटकों से बेहतर हैं। ओपी इन नाटकों पर खूब मेहनत करते हैं। डाँट-फटकार, पुचकार, सख्ती, नरमी सब साथ-साथ चलते हैं। शिविर का समापन दोनों नाटकों की प्रस्तुतियों से होता है। इन शिविरों की वजह से आशीष की कलम ने बच्चों के लिए अब तक लगभग बीस नाटक तैयार कर दिए हैं - एक से एक उम्दा। आशीष को तो पता ही नहीं होगा कि, बाल साहित्य के अकाल वाले इस समय में उसने कितना बड़ा काम कर दिया है। 

आशीष दशोत्तर
अन्तर्मुखी और लक्ष्य केन्द्रित ‘ओपी’ को अपने शिविर से मतलब रहता है। प्रचार-प्रसार की कोई लालसा नहीं। हम दो-चार लोग अखबारवालों से ‘भाई-दादा’ करके, हाथा-जोड़ी करते हैं, शिविर का महत्व बताते हैं तो वे भी उदारतापूर्वक कृपा प्रसाद बरसा देते हैं। स्थानीय टीवी चैनलों की रुचि बिलकुल नहीं होती।

ऐसे उदासीन समय और समाज में ओम प्रकाश मिश्रा नाम का यह आदमी, अकेला ही पठार पर अलाव जलाने की, रेगिस्तान में पौधे रोपने जुगत में लगा हुआ है।

यह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? पागल ही है।

लेकिन याद रखें - यह दुनिया पागलों ने ही बदली है।)
-----



नौ मिनिट में नौ महीने

कवि दादू प्रजापति का वास्तविक नाम सुरेश प्रजापति है। सुरेश भले ही बच्चों का बाप है लेकिन यह हमारे परिवार का ही ‘बच्चा’ है। इसका बचपन हमारे परिवार में ही बीता। इसके पिताजी मिस्त्री सा’ब उर्फ श्री भँवरलालजी प्रजापति पर लिखी मेरी यह ब्लॉग पोस्ट पढ़ कर आप मेरी कही, आधी-अधूरी बात, पूरी तरह समझ जाएँगे। 

दादा से जुड़ा यह संस्मरण मेरी जिन्दगी का हिस्सा बना रहेगा। अवसर था मेरी किताब ‘तरकश के तीर’ के विमोचन का। दिन था 16 अक्टूबर 2016, रविवार, शरद पूर्णिमा का। मेरे गुरु श्रीयुत गणेशजी जैन की सलाह पर यह समारोह ग्राम आँतरी माताजी के स्कूल परिसर में आयोजित किया गया था। यह आयोजन, दादा के मुख्य आतिथ्य में, मेरी जन्म वर्ष गाँठ 10 सितम्बर 2016 को होना था। लेकिन उस दिन दादा उपलब्ध नहीं थे। दादा की सुविधानुसार 16 अक्टूबर की तारीख तय हुई थी। दादा के आने से मेरा उत्साह कुलाँचें मार रहा था। लेकिन धुकधुकी भी लगी हुई थी - ‘ऐसे आयोजनों का मुझे न तो अनुभव न जानकारी। कहीं, कोई चूक न हो जाए।’ 

पुस्तक विमोचन के चित्र में बाँये से - डॉ. पूरन सहगल, दादा, मारुतिधाम आश्रम (गुड़भेली) की सीता बहिनजी, सम्पादक तथा ख्यात भजन गायक श्री रतनलालजी प्रजापति (भीलवाड़ा), श्री नरेन्द्र व्यास और श्री प्रमोद रामावत (नीमच)।

दादा ने पहले ही कह दिया था कि उनके पास समय कम है। उनकी कोई पूर्वनिर्धारित व्यस्तता रही होगी। हम लोग कम से कम समय में बहुत कुछ कर लेना चाहते थे। लगभग बारह बरसों से मेरे साथ चित्रकारी का काम कर रहा भाई मुकेश सुतार तो वहाँ था ही, जाने-माने, नामचीन बाँसुरी वादक श्री विक्रम कनेरिया भी आमन्त्रित थे। दोनों कलाकारों की इच्छा तो थी ही, हम सब भी चाहते थे कि पुस्तक विमोचन से पहले इन दोनों की कलाओं का प्रदर्शन दादा के सामने हो। लेकिन दादा से मिली, वक्त की कमी की चेतावनी की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे। 

अचानक ही मुझे एक आइडिया सूझा। कनेरियाजी और मुकेश की मौजूदगी में मैंने गणेश सर से कहा कि क्यों न ऐसा किया जाए कनेरियाजी, दादा के लिखे, फिल्म रेशमा और शेरा के कालजयी गीत ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ को बाँसुरी पर प्रस्तुत करें और इस प्रस्तुति के दौरान ही मुकेश, दादा का चित्र मौके पर ही बनाए और हाथों-हाथ दादा को भेंट करें? मेरा आइडिया सबको जँच गया। मुकेश के लिए यह आइडिया किसी चुनौती से कम नहीं था। 

हमने यही किया। साथी वादकों की संगत में कनेरियाजी ने गीत की मोहक तान छेड़ी और मुकेश की कूची चलने लगी। समारोह में मौजूद लोग मन्त्र मुग्ध हो टकटकी लगाए देख रहे थे। लेकिन हमारी साँसें बन्द हो गई थीं - बाँसुरी और ब्रश की जुगलबन्दी कामयाब होगी या नहीं?

लेकिन हमारी खुशी का पारावार नहीं रहा जब हमने देखा कि इस जुगलबन्दी ने हमारे विचार को साकार कर दिया। कनेरियाजी ने नौ मिनिट में गीत पूरा किया और गीत पूरा होते-होते मुकेश ने फायनल स्ट्रोक मार दिया। जुगलबन्दी सम पर आकर ठहर गई। हमारे लिए तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। पूरा पाण्डाल तालियों से गूँज उठा।

 बाँसुरी की धुन पर दादा का चित्र  बनाते हुए मुकेश सुतार

हमारी साँस में साँस आई। हमने दादा की ओर देखा। देखा और हक्के-बक्के रह गए। यह क्या? दादा की आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं! पाण्डाल में सन्नाटा छा गया। किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। दादा ने खुद को सम्हाला। पानी पीया। सहज हुए और मुकेश को अपने पास बुलवाया। उसे आशीर्वाद दिया और भरे गले से बोले - ‘मुकेश! मुझे जनम देने के लिए मेरी माँ को नौ महीने लगे लेकिन तुमने तो मेरा चित्र नौ मिनिट में ही बना दिया! खूब खुश रहो।’ कहते-कहते दादा के आँसू फिर बह चले। दादा का यह कहना था कि पाण्डाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

मुकेश सुतार को बधाई देते हुए दादा

लेकिन दादा ने चौंकाया। उन्होंने मेरी किताब का विमोचन तो किया ही, मेरी किताब की पहली प्रति खुद ही खरीदी - पूरे पाँच सौ रुपयों में। उसके बाद दादा ने आशीर्वचन से हम सबको समृद्ध किया। कार्यक्रम समाप्त हुआ और वे अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम निपटाने चले गए।

कवि दादू प्रजापति की पुस्तक ‘तरकश के तीर’ की पहली प्रति का मूल्य देते हुए दादा

हम सब बहुत खुश थे। हमारी हर इच्छा पूरी हुई थी और दादा खूब खुश होकर लौटे थे।

हमारी ओर से तो कार्यक्रम समाप्त हो चुका था। लेकिन हमें नहीं पता था कि दादा की ओर से समापन नहीं हुआ था। कुछ दिनों बाद दादा का सन्देश आया - ‘कनेरियाजी और मुकेश को मेरे पास भेजो। मुझे बात करनी है।’ ताबड़तोड़ दोनों को दादा के पास भेजा। दोनों ने सोचा था, दादा एक बार फिर शाबाशी देना चाहते हैं। उन्हें नहीं पता था कि एक सरप्राइज उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। दोनों पहुँचते उससे पहले दादा ने पूरनजी सहगल को बुलवा रखा था। कनेरियाजी और मुकेश पहुँचे तो दादा ने सहगल सर के हाथों कनेरियाजी को 11,000/- रुपयों का तथा मुकेश को 2,500/- रुपयों का चेक दिलवाया। दोनों के पहुँचने से पहले ही दादा ने चेक तैयार कर रखे थे। दोनों को तो इसकी कल्पना भी नहीं थी। यह तो दादा के आशीर्वाद का टॉप-अप था! खुशी के मारे दोनों की दशा देखने जैसी हो गई थी।

दादा की मौजूदगी में, दादा के घर पर, मुकेश को चेक देते हुए डॉ. पूरन सहगल, बीच में जेकेट और काला चश्मा पहने कनेरियाजी।

आज दादा हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी ऐसी यादें उन्हें हमेशा हमारे साथ बनाए हुए हैं। 
-----  




कवि दादू प्रजापति,
122, रामनगर कॉलोनी,
मनासा-458110
(जिला-नीमच)(म. प्र.)
मोबाइल - 96694 34092 

हास-परिहास हो, उपहास नहीं

दादा श्री बालकवि बैरागी की पहली बरसी (13 मई 2019) पर कुछ लेख पढ़ने को मिले। वे सारे लेख ‘नियमित लेखकों’ के थे। अचानक ही मुझे फेस बुक पर भाई बृज मोहन समदानी का यह लेख पढ़ने को मिला। भाई बृज मोहन समदानी अनियतकालीन लेखक, तीखे, दो-टूक, निरपेक्षी टिप्पणीकार और संवाद-विश्वासी हैं। मनासा में वे अपनी पीढ़ी के सम्भवतः ऐसे इकलौते व्यक्ति रहे जो दादा से निस्संकोच, सहज सम्वाद कर लेते थे। दादा के व्‍यक्तित्‍व के कुछ अनछुए पहलू उजागर करनेवाले इस लेख को इससे अधिक टिप्पणी की दरकार नहीं।

  
हास-परिहास हो, उपहास नहीं
बृज मोहन समदानी
  'बातचीत' की 10 अप्रेल 2018 की गोष्‍ठी  में बोलते हुए दादा।  यह उनकी अन्तिम गोष्‍ठी थी। 
मेरे बड़े भाई साहब आदरणीय गोविन्दजी समदानी (जो मुम्बइवासी हैं जहाँ उन्हें सर्वोच्च न्यायालय और महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के हलकों में ‘जीएस मनासावाला’ के रूप में पहचाना जाता है) के बाल सखा एवं हमेशा उनको स्मरण करने वाले, मनासा की पहचान, विनोदप्रिय, ठहाके लगा कर हँसने वाले, फक्कड़पन से जिन्दगी का आनन्द लेने वाले, आदरणीय दादा बालकविजी बैरागी को देह त्यागे एक बरस हो गया। 

दादा को अपनी इच्छानुरूप ‘अकस्मात मृत्यु’ मिली। अवसान के कुछ दिनों पहले ही उन्होंने नगेन्द्रश्री वीथिका, समदानीजी की बाड़ी में उनकी ही प्रेरणा से चल रहे आयोजन ‘बातचीत’ में कहा था - ‘ईश्वर से कुछ भी मत माँगो। उसने सब व्यवस्था की हुई है।’ फिर बोले थे - ‘मैं घनश्याम दासजी बिड़ला की इस बात से प्रभावित हुआ हूँ और ईश्वर से यही कहता हूँ कि मेरी चिन्ता तो तुझे है। मैं औेर कुछ नही माँगता। बस! माँगता हूँ तो अकस्मात मृत्यु।’ 
और क्या यह संयोग नहीं था कि दादा एक उद्घाटन समारोह से आये, घर पर सोये और सोये ही रह गए। अकस्मात मृत्यु! 

मुझ पर दादा का असीम प्रेम था। मेरे कई सुझावों को उन्होंने दिल्ली दरबार तक पहुँचाया था, कुछ क्रियान्वित भी हुए। ‘केश सबसीडी स्कीम’ इनमें प्रमुख है। 15-16  वर्ष पूर्व मेरे इस सुझाव को दिल्ली दरबार में पहुँचा कर सीधे हिताधिकारी के बैंक खाते में पैसे डालने की इस योजना के क्रियान्वित होने पर उन्होंने मुझे पत्र भी लिखा था। मेरे लिए धरोहर बन चुका यह पत्र यहाँ दृष्टव्य है।



पिछले कुछ सालों मे दादा ने मुझे कई बार कहा कि बाड़ी (हमारे पैतृक परिसर) में 10-20 जने बैठो और बिना किसी विषय के चर्चा करो। दादा का बचपन गोविन्द भाई साहब के साथ बाड़ी में ही बीता था। इससे दादा की यादें भी जुड़ी थी और कुछ दादा की रुचि भी संवाद कायम रखने की थी।

दादा ने एक संस्था बनाने हेतु दो नाम सुझाये - रंगबाड़ी और बातचीत। सबकी राय से ‘बातचीत’ नाम तय हुआ। दादा समय के पाबन्द थे। वे ठीक समय पर आ जाते। करीब 3 -4 घण्टे बातों का दौर चलता। दादा के कहे अनुसार संस्था में कोई छोटा-बड़ा नहीं था। कोई पदाधिकारी भी नहीं। सभी बराबरी के सदस्य। आश्चर्य तो तब हुआ जब हमने दादा की कुर्सी पर गादी रखी तो दादा ने पहले गादी हटाई फिर बैठे।

‘बातचीत’ में दादा सहित सर्वश्री विजय बैरागी, नरेन्द्र व्यास ‘चंचल’, सुरेश शर्मा, कैलाश पाटीदार ‘कबीर’, भाई संजय समदानी, अर्जुन पंजाबी, अनिल मलहरा, जगदीश छाबड़ा, बसन्त लिमये, कैलाश सोनी, अस्तु आचार्य और स्वयं मैं भागीदार रहते।




चित्र में बॉंये से बृज मोहन समदानी, दादा और मेरे प्रिय मित्र गोपाल आचार्य की बिटिया अस्तु आचार्य।  गोपाल  की निश्छलता भरे कुछ संस्मरण   आप   यहाँयहाँ और  यहाँ पढ़ सकते हैं।

यह अपनी तरह का अनूठा, अनौपचारिक ऐसा आयोजन होता था जिसमें कोई पूर्व निश्चित विषय नही होता। राजनीति पर चर्चा नहीं करने का अघोषित निर्णय सर्वसम्मति से ले लिया गया था। दादा अलग-अलग विषय रखते। दूसरे भागीदार भी रखते थे। सहज चर्चा में दादा बहुत गम्भीर बातें बोलते थे। बकौल दादा, किसी के संघर्ष को छोटा मत समझो क्योंकि संघर्ष का अनुभव भोगने वाले की  सहनशीलता, संघर्षशीलता पर भी निर्भर करता है।

दादा का कहना था कि आज रिश्ते औपचारिक हो गये हैं। हास्य का अभाव हो गया है। बातचीत में हास-परिहास हो, उपहास नहीं। एक गोष्ठी में दादा ने कहा था कि सशर्त विवाह कभी सफल नही हो सकते। जैसे शिवजी के धनुष को तोड़ने की शर्त पर हुए सीता के विवाह में सीता का क्या हुआ? धरती में समाना पड़ा। और ठीक भी तो है। दहेज की शर्त, शहर में रहने की शर्त, परिवार से अलग रहने की शर्त, व्यापार या नौकरी की शर्त पर आज जो विवाह होते हैं उनमें कितने सम्बन्ध आपसी क्लेश में उलझ जाते हैं।

दादा ने शिक्षा और विद्या पर भी चर्चा की। प्राचीन काल के गुरु विद्यार्थियों के समग्र विकास की, नैतिक एवं चारित्रिक शिक्षा की भी सोचते थे। दादा के अनुसार उनके जमाने मंे नामजोशीजी (रामपुरावाले) एक आदर्श गुरु थे। आज के विद्यार्थी आदर्श गुरु का नाम नहीं बता सकते। 

दादा की उपस्थिति और उनके चिन्तन-मनन-वक्तव्य का असर यह होता था कि किसी की उठने की इच्छा ही नहीं होती थी। आखिकार दादा ही सभा विसर्जन की घोषणा करते - ‘अब बहुत हो गया।’ 

‘बातचीत’ की गोष्ठियों का आरम्भ और समापन चाय से होता था। दादा काली, फीकी, बिना दूध वाली चाय पीते थे। 10 अप्रेल 2018 वाली उनकी गोष्ठी अन्तिम थी। शुरुआती चाय का मौका आया तो दादा बोले ‘तुम सब मीठी दूध वाली चाय पियो। मेरे लिए तो गरम पानी ही मँगवा दो। मैं अपनी चाय की थैली (टी बेग) साथ लाया हूँ।’ समापनवाली चाय के वक्त हमने मान लिया कि दादा अपना टी बेग लेकर आए ही हैं। हमने गरम पानी का कप उनके सामने बढ़ा दिया। दादा बोले ‘थैली एक ही लाया था।’ अब क्या किया जाय? हम कुछ सोचते उससे पहले ही दादा बोले ‘इस गरम पानी में ही चाय की पत्ती डाल दो।’ चाय की पत्ती डाल दी गई और हम लोग छन्नी तलाशने लगे तो दादा बोले ‘छानने के चक्कर में मत पड़ो।’ और उन्होंने, पेंदे में बैठी चाय-पत्ती से बचते हुए, ऊपर-ऊपर से चाय पी ली। गजब की सहजता!

10 अप्रेल 2018 वाली इसी गोष्ठी में मैंने दादा से कहा था - ‘उम्र के इस पड़ाव पर भी आपकी स्मरण शक्ति अद्भुत और धैर्य गजब का है। आप स्थितप्रज्ञता को जी रहे हैं।’ दादा कुछ नहीं बोले थे। बस! मुस्करा दिए थे।

दो साल पहले ही दिगम्बर जैन मुनिद्वय प्रणम्य सागरजी महाराज एवं शीतल सागरजी महाराज के साथ नगेन्द्रश्री वीथिका में दादा भी पधारे थे और जैनत्व की चर्चा की थी। दादा ने मुनिश्री जिज्ञासा प्रकट की थी कि महावीर ने मान, मोह, माया,सब त्याग दिए लेकिन एक मन्द मुस्कान यानी स्मित हमेशा उनके चेहरे पर रही। वो नही त्यागी। यानी महावीर हमेशा सस्मित रहे।

तब प्रणम्यसागर जी महाराज ने बहुत सुन्दर दार्शनिक विवेचना की थी कि जब महावीर ने माया-मोह सब छोड़ दिये एवं ध्यान लगाया तो उन्हें संसार की नश्वरता दिखी। तब उन्होंने नेत्रों को थोड़ा सा खोला तो यह देखकर उन्हें हल्की सी हँसी आई कि दुनियावी लोग इसी नश्वरता को अमरता समझ रहे हैं। इसी कारण महावीर सदैव सस्मित रहे। दादा को मुनिवर का यह दार्शनिक विवेचन बहुत पसन्द आया था।

आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ जी से दादा काफी प्रभावित थे। उनसे कई बार मुलाकातें भी की थीं। ओशो भी दादा की कवितायें पढ़ते थे। कुमार विश्वास भी दादा के नाम का उल्लेख करते हुए दादा की कविताएँ उद्धृत करते हैं। 

आदरणीय गोविन्द भाई साहब एवं दादा  सहपाठी भी रहे और रामपुरा होस्टल के कमरे के सहरहवासी भी। दादा अन्तरंग और सार्वजनिक रूप से दोनों के सम्बन्धों के बारे में बताते ही रहते थे। गोविन्द भाई साहब के पचहत्तर वर्ष पूर्ण करलेने के अवसर पर उन्होंने एक विस्तृत लेख भी लिखा था। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय एक कविता में उन्होंने गोविन्द भाई साहब के कारण ही, टाटा-बिड़ला के साथ समदानी शब्द भी जोड़ा था।

बहुत कुछ लिखने को है। मेरा सौभाग्य है कि दादा का मुझे भरपूर  स्नेह एवं वात्सल्य मिला। अपने अन्तिम बरसों में दादा असामान्य रूप से अतिरिक्त, अत्यधिक सहज हो  गए थे। मैं शायद कुछ ज्यादा भी पा सकता था उनसे। नहीं पा सका। चूक मेरी ही रही।

दादा को श्रद्धा सुमन सहित प्रणाम।





बृज मोहन समदानी, 
मनासा-458110  (जिला-नीमच, म. प्र.)
मोबाइल नम्बर - 90397 12962

भीख का कटोरा और ‘नेट लॉस’



आज दादा की पहली बरसी है। पूरा एक बरस निकल गया उनके बिना। लेकिन कोई दिन ऐसा नहीं निकला जब वे चित्त से निकले हों। उनकी मौजूदगी हर दिन, हर पल अनुभव होती रही। वे मेरे मानस पिता थे। मुझमें यदि कुछ अच्छा, सन्तोषजनक आ पाया तो उनके ही कारण। वे दूर रहकर भी मुझ पर नजर रखते थे। मेरे बारे में कुछ अच्छा सुनने को मिलता तो फोन पर सराहते थे। कुछ अनुचित सुनने को मिलता तो सीधे मुझे कुछ नहीं कहते, खबर भिजवाते थे - ‘बब्बू से कहना, उसके इस काम से मुझे अच्छा नहीं लगा। पीड़ा हुई। यह उसे शोभा नहीं देता।’ मैं कहता - ‘सराहना तो सीधे करते हैं और खिन्नता औरों के जरिए जताते हैं! ऐसा क्यों दादा?’ वे कहते - ‘इसलिए कि तू जान सके कि तेरे इस गैरवाजिब की जानकारी मुझसे पहले औरोें को है। इसलिए कि तू इस कारण अतिरिक्त फिकर कर सके और खुद को सुधार सके।’

दादा को याद करने का कोई बहाना जरूरी नहीं। उनके रहते हुए भी और उनके न रहने के बाद भी। उन्हें भूला ही नहीं जा सकता। जाग रहा होऊँ तब भी और सो रहा होऊँ तब भी। वे मुझे कभी अकेला नहीं रहने देते। 

इन दिनों चुनाव चल रहे हैं। हमारे चुनाव बरस-दर-बरस मँहगे होते जा रहे हैं। संसद में करोड़ोंपतियों की संख्या हर बरस बढ़ती जा रही है। राजनीति आज पूर्णकालिक पारिवारिक धन्धा हो गया है। यह सब देख-देख मुझे उनकी वह बात याद आती है जो उन्होंने 1969 में, सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री बनने के ‘लगभग’ फौरन बाद कही थी। ‘लगभग’ इसलिए कि राज्य मन्त्री बनने के फौरन बाद ही वे  व्यस्त हो गए थे। मेरा भोपाल जाना बहुत-बहुत कम होता था। जब भी जाता, वे सदैव व्यस्त मिलते। लेकिन एक बार, एक पूरा दिन उन्हें खाली मिल गया। उस दिन उन्होंने खूब बातें की थीं। 

राज्य मन्त्री बनने पर उन्हें पूरे देश से बधाई सन्देश मिले थे। सचमुच में ‘बोरे भर-भर कर।’ अपनी आदत के मुताबिक उन्होंने उस प्रत्येक पत्र का जवाब दिया था जिस पर भेजनेवाले का पता था। वह धन्यवाद-पत्र कविता की शकल में था। उसकी पंक्तियाँ थीं - 

एक और आशीष मुझे दें माँगी या अनमाँगी।
राजनीति के राज-रोग से मरे नहीं बैरागी।।

हम दोनों, शाहजहानाबाद स्थित सरकारी बंगले ‘पुतली घर’ के लॉन में बैठे थे। मैंने दादा से पूछा था - ‘दादा! आप तो प्रबल इच्छा शक्ति के धनी हैं। आपको यह डर क्यों?’ खुद में खोये-खोये उन्होंने जवाब दिया था - ‘डर नहीं। राजनीति में कभी-कभी वह भी करना पड़ जाता है जिसके लिए अपना मन गवाही नहीं देता। यहाँ पग-पग पर फिसलन है। ऐसे हर मौके पर मेरा मन मुझे टोकता रहे, इसके लिए मुझे सबकी  शुभ-कामनाएँ चाहिए। मेरी पूँजी तो मेरी प्राणदायिनी कलम है। तेने केवल दो पंक्तियाँ ही कही। दो पंक्तियाँ और हैं।’ मुझे वे पंक्तियाँ याद आ गईं -

मात शारदा रहे दाहिने, रमा नहीं हो वामा।
आज दाँव पर लगा हुआ है, एक विनम्र सुदामा।।

दादा बोले - ‘यह सुदामापन ही मुझे जिन्दा बनाए रखता है, ताकत देता रहता है। जिन लोगों ने मुझे यहाँ भेजा है, उनसे मैंने मदद माँगी है  िकवे मुझे सुदामा बने रहने में मेरी मदद करें। मेरी चिन्ता करें।’

बात मेरी समझ से बाहर होने लगी थी। मैंने कहा - ‘मैं उलझन में पड़ता जा रहा हूँ।’ सुनकर दादा ने भेदती नजरों से मुझे देखा और बोले - ‘मेरी-तेरी मानसिक निकटता पूरा परिवार जानता है। अब जो मैं तुझे कहने जा रहा हूँ, बहुत ध्यान से सुनना। मुन्ना-गोर्की (मेरे दोनों भतीजे) अभी बहुत छोटे हैं। बच्चे हैं। बई और दा’जी (माँ-पिताजी) घर तक ही सिमटे हैं और रहेंगे। एक तू ही है जो इधर-उधर घूमता नजर आएगा। (उस समय मेरी अवस्था बाईस बरस थी) तेरे पास अभी कोई काम-धन्धा भी नहीं है। मुझ तक पहुँचने का तू आसान जरिया है। इसलिए तुझसे कह रहा हूँ। एक-एक शब्द ध्यान से सुनना और गाँठ बाँध लेना।’

दादा की बात सुनकर मैं, जो तनिक पसर कर बैठा था, सीधा हो गया, खिसक कर उनकी ओर झुक गया। उस दिन दादा ने जो कहा, वह अब भी मेरे जीवन का पाथेय बना हुआ है। मैं निश्चय ही बड़भागी हूँ जो मुझे यह अमूल्य जीवन निधि मिली। दादा ने कहा - “ये जो मुझे मिनिस्ट्री मिली है ना, यह जितनी अचानक मिली है उससे अधिक अचानक कभी भी चली जाएगी। यह टेम्परेरी है। क्षण भंगुर। इसलिए, इस टेम्परेरी चीज पर कभी इतराना, घमण्ड मत करना। मुझसे काम करवाने के लिए तेरे पास बड़े-बड़े, आकर्षक ऑफर आएँगे। जब भी तेरे पास लालच भरा ऐसा कोई प्रस्ताव आए तब याद कर लेना - अपन ने भीख के कटोरे से जिन्दगी शुरु की है। जब तक कटोरा हाथ में न आ जाए, तब तक अपना कोई ‘नेट लॉस’ नहीं है। बस! इतने में सब समझ ले।”

दादा का उस दिन का कहा, इस पल तक जस का तस मेरी पोटली में बँधा हुआ है। दादा के इस जीवन सूत्र ने जो हौसला, अभावों, प्रतिकूलताओं से से जूझने का जो जीवट दिया, विचलित कर देनेवाले पलों में संयमित रहने का जो सम्बल दिया वह सब अवर्णनीय है। 

जैसी दादा ने कल्पना की थी, उनके मन्त्री काल में मेरे पास खूब ‘ऑफर’ आए। ऐसे-ऐसे कि ‘दलीद्दर’ धुल जाते। लेकिन तब भीख का कटोरा बेइज्जत हो जाता। लेकिन मुझे सन्तोष है कि दादा की सीख ने मुझे उस कटोरे की इज्जत बरकरार रखने की ताकत दी।

ऐसी ताकत जिसके पास हो वह न तो गरीब होता है न ही कमजोर। मैं वही हूँ। मेरे दादा की वजह से।
-----

(यहॉं दिया चित्र 12 अप्रेल 2018 का है। उस दिन हम हमारी भानजी प्रतिभा-विनोद की बिटिया के विवाह प्रसंग पर मन्दसौर में इकट्ठे हुए थे। चित्र मैंने ही लिया था।)