हाँ! मेरी थैली में अफीम है।

सच का रास्ता अपनानेवाले वकील सा’ब की आपबीती से गुजरते हुए मुझे अनायास ही मिस्त्री सा’ब याद आने लगे और पूरे समय तक याद आते रहे।
मिस्त्री साब का नाम भँवरलाल प्रजापति था लेकिन उन्हें अपवाद स्वरूप ही ‘प्रजापति’ सम्बोधित किया गया होगा। सदैव मिस्त्री, भँवरलाल मिस्त्री या मिस्त्री साब ही सम्बोधित किए गए। औसत मध्यवर्गीय संघर्षशील आदमी। मैंने उन्हें किराये के मकान में ही रहते देखा। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि लोग उन्हें ध्यान से देखें। लेकिन वे सबसे अलग थे। मुख्य काम मकान बनाना किन्तु शब्दशः हरफनमौला। उन्हें हर काम आता था। या कहिए कि कोई काम ऐसा नहीं जो उन्हें न आता हो। हर काम कर लेते और जब करते तो लगता, इसीमें मास्टर हैं। पूरे मनोयोग, पूरी तल्लीनता और अपनी सम्पूर्णता से करते। चुनौतियाँ उन्हें ललचाती थीं। कोई नई बात देखते तो ‘भेदिया नजर’ से। नजरों ही नजर में उसका एक्स-रे कर लेते। कोई  पूछता - ‘मिस्त्री साब! ये कर सकोगे?’ वे उत्साह और उत्फुल्लता से कहते - ‘क्यों नहीं कर सकते? अपन नहीं कर सकते तो फिर कौन करेगा?’ और पहली ही बार में उसे इस तरह कर लेते मानो जन्म-जन्मान्तर से वही काम करते चले आ रहे हों। 
मस्तमौला और खुशदिल ये दो शब्द मैंने उन्हीं से साकार होते देखे। अभावों को वे कबीर के फक्कड़पन से जीते थे। उन्हें जिन्दगी से कभी शिकायत करते नहीं देखा। गरीबी, अभाव और साधनहीनता ने उन्हें कभी खिजाया नहीं और समृद्धि ने कभी ललचाया नहीं। बात और हाथ के सच्चे, साफ-सुथरे। उन्हें झूठ बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वे जिन्दगी के पल-पल को भरपूर आनन्द से जीते। मुझे इस क्षण भी लग रहा है कि उनकी मस्ती और मौज से कुबेर भी उनसे ईर्ष्या करते रहे होंगे। वे हमारे मुहल्ले की समाजिकता के प्राण और हरियाली थे। मुहल्ले के उत्सव मिस्त्री साब की भागीदारी से ही पूर्णता और सार्थकता पाते थे। वे उत्सवों की रंगीनी होते थे। किसी न्यौते-बुलावे की प्रतीक्षा नहीं करते। होली के दिनों में, लगभग पूरे पखवाड़े खेले जानेवाले ‘वाना’ में हर दिन नई धज, नए स्वांग में नजर आते। खुद ‘वाना’ नहीं खेलते किन्तु उनके बिना ‘वाना’ शुरु ही नहीं होता। उनके बाँये हाथ का पंजा, जन्म से ही, मणीबन्ध से लगभग नब्बे डिग्री से अन्दर की ओर मुड़ा हुआ था। किन्तु यह आंशिक अपंगता उन पर अंशतः भी हावी नहीं हो पाई। 
उतनी पत्नी पर मैं लट्टू था। नाटे कद की, गोरी-चिट्टी। उनका गोलमटोल, मुस्कुराता चेहरा मैं इस क्षण भी देख रहा हूँ। उनकी मुस्कान मेरी नजरों से अभी भी ओझल नहीं हो रही। ऐसी सहज, निश्च्छल, मोहक मुस्कान उनके बाद मुझे आज तक किसी के चेहरे पर नजर नहीं आई। मेरा बस चलता तो मैं उनकी इस ‘भुवन मोहिनी मुस्कान’ को   माचिस की किसी खाली डिबिया में उसी तरह सहेज कर रख लेता जिस तरह उन दिनों हम जुगनुओं को बन्द कर रख लेते थे। मुझे लगता, वे मुझे देखकर ही मुस्कुरा रही हैं। इसी मुस्कान के कारण उनके चेहरे से मेरी नजर हटती ही नहीं थी। मैं टकटकी लगाए उन्हें देखता। वे जैसे ही मेरी ओर देखतीं, मैं झेंप कर नजरें नीची कर लेता। वे खिलखिला कर हँस देतीं। 
डिबिया को मालवी में ‘डाबी’ कहते हैं। उनके नाटे कद के कारण मैं उन्हें ‘डाबी भाभी’ कहता था। मैं जब तक मनासा में रहा, इस सम्बोधन पर मेरा एकाधिकार रहा। मेरी गैरहाजरी में किसी ने भले ही उन्हें ‘डाबी भाभी’ कहा हो, मेरे सामने दूसरा कोई उन्हें ‘डाबी भाभी’ नहीं कह सकता था। कह ही नहीं सका। मैंने किसी को कहने ही नहीं दिया। उनके गोरे-चिट्टे भाल पर लगी, बड़ी सुर्ख लाल बिंदिया ऐसे लगती मानो पूनम की रात में सूरज उगा हुआ हो। वे मिस्त्री साब की परछाई बनी रहतीं।
मिस्त्री साब शिक्षित तो नहीं थे  किन्तु अनपढ़ भी नहीं थे। वे दस्तखत कर लेते और कहीं लिखना भूल न जाएँ, इसलिए कभी-कभार चिट्ठी-पत्री कर लेते। एक सुबह, काम पर जाते हुए वे बड़ा लिफाफा लेकर दादा के पास आए। बोले - ‘दादा! जरा देखना तो यह क्या आया है।’ दादा ने देखा, वह हिन्दुस्तान मोटर्स का, चिकने कागजों पर छपा, भारी-भरकम, रंगीन केटलॉग था जिसमें एम्बेसेडर कार के ब्यौरे दिए हुए थे। दादा को कोई हैरत नहीं हुई। दादा ही नहीं, पूरा मुहल्ला मिस्त्री साब के मिजाज से वाकिफ था। दादा ने पूछा - ‘कहीं, किसी को चिट्ठी लिखी थी क्या?’ मिस्त्री साब ने लापरवाही से कहा - ‘हाँ। वो बिड़लाजी को कारड (पोस्ट कार्ड) लिखा था कि कारें बनाना बन्द तो नहीं कर दिया?’ दादा ने कहा - ‘उसी का जवाब भेजा है बिड़लाजी ने। कार का फोटू है। पूछा है कितनी कारें खरीदोगे।’ औजारों का थैला कन्धे पर धरते हुए, बहुत ही जिम्मेदारी से मिस्त्री साब ने निरपेक्ष भाव से जवाब दिया - ‘कार-वार क्या लेनी? क्या करूँगा लेकर? कहाँ जाऊँगा। आप बिड़लाजी को लिख देना, कारें बनाते और बेचते रहें। मेरे भरोसे नहीं रहें।’ और दादा को हँसने का मौका दिए बिना निकल लिए।
इन्हीं मिस्त्री साब ने सच की ताकत का यह किस्सा मुझे सुनाया था जिसकी वजह से वकील साब की आपबीती के दौरान मुझे मिस्त्री साब याद आ गए।
मालवा में अफीम की तस्करी बहुत सामान्य बात है। बड़े तस्कर तो अपना काम करते ही हैं लेकिन फटाफट हजार-पाँच सौ कमा लेने के चक्कर में कई लोग, सौ-पचास किलो मीटर में अफीम पहुँचाने के लिए केरीयर का काम करते रहते हैं। मिस्त्री साब ऐसे लफड़ों में कभी नहीं पड़े। वे लालच में कभी पड़े ही नहीं। लेकिन एक बार, बात-बात में चुनौती ले बैठे। एक केरीयर ने अपने काम की जोखिम का बखान किया तो मिस्त्री साब कह बैठे -  ‘इस तरह अफीम पहुँचाने में क्या है? कोई भी पहुँचा सकता है।’ केरीयर ने कहा - ‘दो तोले की जबान हिलाने में क्या जाता है? कभी जोखिम उठाओ तो मालूम पड़े।’ बात-बात में बात ‘काची की हाँची’ (कच्ची की सच्ची/मजाक से हकीकत) हो गई। मिस्त्री साब ने चुनौती झेल ली। तय हुआ कि मिस्त्री साब सौ ग्राम अफीम, मनासा से बत्तीस-पैंतीस किलो मीटर दूर बघाना (नीमच) पहुँचाएँगे। 
नीमच का नाम सबने सुना ही होगा। अंग्रेजों के समय से यहाँ सेना का बड़ा केन्द्र बना हुआ है। अभी  सीआरपीएफ के प्रशिक्षण केन्द्र सहित कुछ बटालियनों का मुख्यालय है। आज तो नीमच अपने आप में जिला मुख्यालय हो गया है किन्तु तब मन्दसौर जिले का सब डिविजन था। नीमच तीन हिस्सों में बसा हुआ है - नीमच सिटी, नीमच केण्ट और बघाना। बघाना, नीमच रेल्वे स्टेशन के पार है। वहाँ जाने के लिए रेल्वे फाटक पार करना पड़ता है। 
मिस्त्री साब ने सुनाया - “टाट की थैली में अपने एक जोड़ कपड़े और कुछ सामान के बीच सौ ग्राम अफीम रखकर मैं मनासा से चला। नीमच उतरा। बस स्टैण्ड से पैदल-पैदल बघाने की ओर चला। रेल्वे फाटक पर पहुँचा तो दिन में तारे नजर आने लगे। फाटक के दोनों ओर एक-एक पुलिस जवान खड़ा था। आने-जानेवालों के सामान की तलाशी ले रहे थे। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। मैं सिपाही के इतने पास पहुँच चुका था कि वापस लौट भी नहीं सकता था। मेरी धुकधुकी बढ़ गई। क्या करूँ, क्या न करूँ? आँखों के आगे काले-पीले आने लगे। लम्बी साँस लेकर मैंने सिपाही के पास ही खड़े-खड़े, जेब से बण्डल निकाल कर बीड़ी सुलगाई। इसी बहाने सोचने का थोड़ा मौका मिलेगा। दो-एक फूँक लगाने के बाद तय किया - आगे बढ़ूँगा और सच बोलूँगा।
“मैंने कदम बढ़ाया ही था कि पुलिसवाला कड़का - ‘ऐ! कहाँ जा रहा है? थैली में क्या है?’ मैंने कहा - ‘बघाना जा रहा हूँ।’ फिर थैली उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला - ‘थैली में अफीम है। देखोगे?’ पुलिसवाले ने मुझे धौल जमाई और बोला - ‘स्साले! पुलिसवाले से मजाक करता है? कहता है, अफीम है। कभी अफीम देखी भी है तेरे बाप ने? अभी अन्दर कर दूँगा स्साले को। चल! भाग!’ मैं भागा तो नहीं लेकिन जल्दी-जल्दी फाटक पार की। मुकाम पर पहुँचा। ‘सामान’ सौंपा और जो बघाना से चला तो मान लो कि घर पहुँच कर ही साँस ली।
“आकर मैंने सामनेवाले के हाथ जोड़ लिए। हाँ भई! हाँ। तेरे काम में बहुत रिस्क है। लेकिन मेरे सच ने तेरी रिस्क की हवा निकाल दी। मैं राजी खुशी घर आ गया। मेरा कहना मान। तू भी ये धन्धा छोड़ दे। मेरी नकल कर, सच बोलने से तू एक-दो बार भले ही बच जाएगा लेकिन सच भी तो सच्चे काम का ही साथ देगा। कभी न कभी पकड़ा जाएगा और तेरे छोरे-छापरे तेरी जमानतें कराते-कराते कंगाल हो जाएँगे।’ उसे मेरी बात जँच गई। बोला - ‘छोड़ तो दूँ लेकिन करूँगा क्या?’ मैंने कहा - ‘करे तो बहुत काम है। कल से मेरे साथ आ जा। साल-दो साल में मिस्त्री बन जाएगा। कपड़े जरूर धूल मिट्टी में सन जाएँगे लेकिन इज्जत की जिन्दगी जीएगा और चैन से सोएगा।’ उसने कहा मान लिया और अफीम से राम-राम कर ली। आज वो मेरे बराबरी से काम कर रहा है।”
अपनी बात खतम करते हुए मिस्त्री साब ने कहा था - ‘बब्बू भई! साँच को आँच नहीं और मेहनत को जाँच नहीं।’
सच कहा था मिस्त्री साब ने। आँच और जाँच जारी तो है लेकिन सच की नहीं, झूठ की।
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5 comments:

  1. शानदार आप बीती का लेखा जोखा
    बेहद खूबसूरत संस्मरण

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  2. भंवर् लाल मिस्त्री जीवंत हो गये .डाबी भाभी का प्रसंग रोचक है . अभावों में भी जीवट वाला जीवन जिया जा सकता है .यह सन्देश सहज मिल गया . साँच को आंच नहीं जैसा विचार भी पाठकों तक बहुत बेहतरीन तरीके से पहुँच है .यह संस्मरण खूब पड़ा जायेगा .पसंद किया जायेगा .बधाई .
    अर्जुन पंजाबी

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-05-2017) को
    "इनकी किस्मत कौन सँवारे" (चर्चा अंक-2635)
    पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. दादा समयाभाव के कारण प्रतिक्रिया नही दे पाया लेकिन आप की किस्सागोई मुझे बहुत भाती है

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  5. कितनी सहज-सरल लेकिन गहरी बात!

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