कवि दादू प्रजापति का वास्तविक नाम सुरेश प्रजापति है। सुरेश भले ही बच्चों का बाप है लेकिन यह हमारे परिवार का ही ‘बच्चा’ है। इसका बचपन हमारे परिवार में ही बीता। इसके पिताजी मिस्त्री सा’ब उर्फ श्री भँवरलालजी प्रजापति पर लिखी मेरी यह ब्लॉग पोस्ट पढ़ कर आप मेरी कही, आधी-अधूरी बात, पूरी तरह समझ जाएँगे।
दादा से जुड़ा यह संस्मरण मेरी जिन्दगी का हिस्सा बना रहेगा। अवसर था मेरी किताब ‘तरकश के तीर’ के विमोचन का। दिन था 16 अक्टूबर 2016, रविवार, शरद पूर्णिमा का। मेरे गुरु श्रीयुत गणेशजी जैन की सलाह पर यह समारोह ग्राम आँतरी माताजी के स्कूल परिसर में आयोजित किया गया था। यह आयोजन, दादा के मुख्य आतिथ्य में, मेरी जन्म वर्ष गाँठ 10 सितम्बर 2016 को होना था। लेकिन उस दिन दादा उपलब्ध नहीं थे। दादा की सुविधानुसार 16 अक्टूबर की तारीख तय हुई थी। दादा के आने से मेरा उत्साह कुलाँचें मार रहा था। लेकिन धुकधुकी भी लगी हुई थी - ‘ऐसे आयोजनों का मुझे न तो अनुभव न जानकारी। कहीं, कोई चूक न हो जाए।’
पुस्तक विमोचन के चित्र में बाँये से - डॉ. पूरन सहगल, दादा, मारुतिधाम आश्रम (गुड़भेली) की सीता बहिनजी, सम्पादक तथा ख्यात भजन गायक श्री रतनलालजी प्रजापति (भीलवाड़ा), श्री नरेन्द्र व्यास और श्री प्रमोद रामावत (नीमच)।
दादा ने पहले ही कह दिया था कि उनके पास समय कम है। उनकी कोई पूर्वनिर्धारित व्यस्तता रही होगी। हम लोग कम से कम समय में बहुत कुछ कर लेना चाहते थे। लगभग बारह बरसों से मेरे साथ चित्रकारी का काम कर रहा भाई मुकेश सुतार तो वहाँ था ही, जाने-माने, नामचीन बाँसुरी वादक श्री विक्रम कनेरिया भी आमन्त्रित थे। दोनों कलाकारों की इच्छा तो थी ही, हम सब भी चाहते थे कि पुस्तक विमोचन से पहले इन दोनों की कलाओं का प्रदर्शन दादा के सामने हो। लेकिन दादा से मिली, वक्त की कमी की चेतावनी की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे।
अचानक ही मुझे एक आइडिया सूझा। कनेरियाजी और मुकेश की मौजूदगी में मैंने गणेश सर से कहा कि क्यों न ऐसा किया जाए कनेरियाजी, दादा के लिखे, फिल्म रेशमा और शेरा के कालजयी गीत ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ को बाँसुरी पर प्रस्तुत करें और इस प्रस्तुति के दौरान ही मुकेश, दादा का चित्र मौके पर ही बनाए और हाथों-हाथ दादा को भेंट करें? मेरा आइडिया सबको जँच गया। मुकेश के लिए यह आइडिया किसी चुनौती से कम नहीं था।
हमने यही किया। साथी वादकों की संगत में कनेरियाजी ने गीत की मोहक तान छेड़ी और मुकेश की कूची चलने लगी। समारोह में मौजूद लोग मन्त्र मुग्ध हो टकटकी लगाए देख रहे थे। लेकिन हमारी साँसें बन्द हो गई थीं - बाँसुरी और ब्रश की जुगलबन्दी कामयाब होगी या नहीं?
लेकिन हमारी खुशी का पारावार नहीं रहा जब हमने देखा कि इस जुगलबन्दी ने हमारे विचार को साकार कर दिया। कनेरियाजी ने नौ मिनिट में गीत पूरा किया और गीत पूरा होते-होते मुकेश ने फायनल स्ट्रोक मार दिया। जुगलबन्दी सम पर आकर ठहर गई। हमारे लिए तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। पूरा पाण्डाल तालियों से गूँज उठा।
बाँसुरी की धुन पर दादा का चित्र बनाते हुए मुकेश सुतार
हमारी साँस में साँस आई। हमने दादा की ओर देखा। देखा और हक्के-बक्के रह गए। यह क्या? दादा की आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं! पाण्डाल में सन्नाटा छा गया। किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। दादा ने खुद को सम्हाला। पानी पीया। सहज हुए और मुकेश को अपने पास बुलवाया। उसे आशीर्वाद दिया और भरे गले से बोले - ‘मुकेश! मुझे जनम देने के लिए मेरी माँ को नौ महीने लगे लेकिन तुमने तो मेरा चित्र नौ मिनिट में ही बना दिया! खूब खुश रहो।’ कहते-कहते दादा के आँसू फिर बह चले। दादा का यह कहना था कि पाण्डाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
मुकेश सुतार को बधाई देते हुए दादा
लेकिन दादा ने चौंकाया। उन्होंने मेरी किताब का विमोचन तो किया ही, मेरी किताब की पहली प्रति खुद ही खरीदी - पूरे पाँच सौ रुपयों में। उसके बाद दादा ने आशीर्वचन से हम सबको समृद्ध किया। कार्यक्रम समाप्त हुआ और वे अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम निपटाने चले गए।
कवि दादू प्रजापति की पुस्तक ‘तरकश के तीर’ की पहली प्रति का मूल्य देते हुए दादा
हम सब बहुत खुश थे। हमारी हर इच्छा पूरी हुई थी और दादा खूब खुश होकर लौटे थे।
हमारी ओर से तो कार्यक्रम समाप्त हो चुका था। लेकिन हमें नहीं पता था कि दादा की ओर से समापन नहीं हुआ था। कुछ दिनों बाद दादा का सन्देश आया - ‘कनेरियाजी और मुकेश को मेरे पास भेजो। मुझे बात करनी है।’ ताबड़तोड़ दोनों को दादा के पास भेजा। दोनों ने सोचा था, दादा एक बार फिर शाबाशी देना चाहते हैं। उन्हें नहीं पता था कि एक सरप्राइज उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। दोनों पहुँचते उससे पहले दादा ने पूरनजी सहगल को बुलवा रखा था। कनेरियाजी और मुकेश पहुँचे तो दादा ने सहगल सर के हाथों कनेरियाजी को 11,000/- रुपयों का तथा मुकेश को 2,500/- रुपयों का चेक दिलवाया। दोनों के पहुँचने से पहले ही दादा ने चेक तैयार कर रखे थे। दोनों को तो इसकी कल्पना भी नहीं थी। यह तो दादा के आशीर्वाद का टॉप-अप था! खुशी के मारे दोनों की दशा देखने जैसी हो गई थी।
दादा की मौजूदगी में, दादा के घर पर, मुकेश को चेक देते हुए डॉ. पूरन सहगल, बीच में जेकेट और काला चश्मा पहने कनेरियाजी।
आज दादा हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी ऐसी यादें उन्हें हमेशा हमारे साथ बनाए हुए हैं।
-----
कवि दादू प्रजापति,
122, रामनगर कॉलोनी,
मनासा-458110
(जिला-नीमच)(म. प्र.)
मोबाइल - 96694 34092