नौ मिनिट में नौ महीने

कवि दादू प्रजापति का वास्तविक नाम सुरेश प्रजापति है। सुरेश भले ही बच्चों का बाप है लेकिन यह हमारे परिवार का ही ‘बच्चा’ है। इसका बचपन हमारे परिवार में ही बीता। इसके पिताजी मिस्त्री सा’ब उर्फ श्री भँवरलालजी प्रजापति पर लिखी मेरी यह ब्लॉग पोस्ट पढ़ कर आप मेरी कही, आधी-अधूरी बात, पूरी तरह समझ जाएँगे। 

दादा से जुड़ा यह संस्मरण मेरी जिन्दगी का हिस्सा बना रहेगा। अवसर था मेरी किताब ‘तरकश के तीर’ के विमोचन का। दिन था 16 अक्टूबर 2016, रविवार, शरद पूर्णिमा का। मेरे गुरु श्रीयुत गणेशजी जैन की सलाह पर यह समारोह ग्राम आँतरी माताजी के स्कूल परिसर में आयोजित किया गया था। यह आयोजन, दादा के मुख्य आतिथ्य में, मेरी जन्म वर्ष गाँठ 10 सितम्बर 2016 को होना था। लेकिन उस दिन दादा उपलब्ध नहीं थे। दादा की सुविधानुसार 16 अक्टूबर की तारीख तय हुई थी। दादा के आने से मेरा उत्साह कुलाँचें मार रहा था। लेकिन धुकधुकी भी लगी हुई थी - ‘ऐसे आयोजनों का मुझे न तो अनुभव न जानकारी। कहीं, कोई चूक न हो जाए।’ 

पुस्तक विमोचन के चित्र में बाँये से - डॉ. पूरन सहगल, दादा, मारुतिधाम आश्रम (गुड़भेली) की सीता बहिनजी, सम्पादक तथा ख्यात भजन गायक श्री रतनलालजी प्रजापति (भीलवाड़ा), श्री नरेन्द्र व्यास और श्री प्रमोद रामावत (नीमच)।

दादा ने पहले ही कह दिया था कि उनके पास समय कम है। उनकी कोई पूर्वनिर्धारित व्यस्तता रही होगी। हम लोग कम से कम समय में बहुत कुछ कर लेना चाहते थे। लगभग बारह बरसों से मेरे साथ चित्रकारी का काम कर रहा भाई मुकेश सुतार तो वहाँ था ही, जाने-माने, नामचीन बाँसुरी वादक श्री विक्रम कनेरिया भी आमन्त्रित थे। दोनों कलाकारों की इच्छा तो थी ही, हम सब भी चाहते थे कि पुस्तक विमोचन से पहले इन दोनों की कलाओं का प्रदर्शन दादा के सामने हो। लेकिन दादा से मिली, वक्त की कमी की चेतावनी की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे। 

अचानक ही मुझे एक आइडिया सूझा। कनेरियाजी और मुकेश की मौजूदगी में मैंने गणेश सर से कहा कि क्यों न ऐसा किया जाए कनेरियाजी, दादा के लिखे, फिल्म रेशमा और शेरा के कालजयी गीत ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ को बाँसुरी पर प्रस्तुत करें और इस प्रस्तुति के दौरान ही मुकेश, दादा का चित्र मौके पर ही बनाए और हाथों-हाथ दादा को भेंट करें? मेरा आइडिया सबको जँच गया। मुकेश के लिए यह आइडिया किसी चुनौती से कम नहीं था। 

हमने यही किया। साथी वादकों की संगत में कनेरियाजी ने गीत की मोहक तान छेड़ी और मुकेश की कूची चलने लगी। समारोह में मौजूद लोग मन्त्र मुग्ध हो टकटकी लगाए देख रहे थे। लेकिन हमारी साँसें बन्द हो गई थीं - बाँसुरी और ब्रश की जुगलबन्दी कामयाब होगी या नहीं?

लेकिन हमारी खुशी का पारावार नहीं रहा जब हमने देखा कि इस जुगलबन्दी ने हमारे विचार को साकार कर दिया। कनेरियाजी ने नौ मिनिट में गीत पूरा किया और गीत पूरा होते-होते मुकेश ने फायनल स्ट्रोक मार दिया। जुगलबन्दी सम पर आकर ठहर गई। हमारे लिए तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। पूरा पाण्डाल तालियों से गूँज उठा।

 बाँसुरी की धुन पर दादा का चित्र  बनाते हुए मुकेश सुतार

हमारी साँस में साँस आई। हमने दादा की ओर देखा। देखा और हक्के-बक्के रह गए। यह क्या? दादा की आँखों से आँसू बहे जा रहे हैं! पाण्डाल में सन्नाटा छा गया। किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। दादा ने खुद को सम्हाला। पानी पीया। सहज हुए और मुकेश को अपने पास बुलवाया। उसे आशीर्वाद दिया और भरे गले से बोले - ‘मुकेश! मुझे जनम देने के लिए मेरी माँ को नौ महीने लगे लेकिन तुमने तो मेरा चित्र नौ मिनिट में ही बना दिया! खूब खुश रहो।’ कहते-कहते दादा के आँसू फिर बह चले। दादा का यह कहना था कि पाण्डाल एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

मुकेश सुतार को बधाई देते हुए दादा

लेकिन दादा ने चौंकाया। उन्होंने मेरी किताब का विमोचन तो किया ही, मेरी किताब की पहली प्रति खुद ही खरीदी - पूरे पाँच सौ रुपयों में। उसके बाद दादा ने आशीर्वचन से हम सबको समृद्ध किया। कार्यक्रम समाप्त हुआ और वे अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम निपटाने चले गए।

कवि दादू प्रजापति की पुस्तक ‘तरकश के तीर’ की पहली प्रति का मूल्य देते हुए दादा

हम सब बहुत खुश थे। हमारी हर इच्छा पूरी हुई थी और दादा खूब खुश होकर लौटे थे।

हमारी ओर से तो कार्यक्रम समाप्त हो चुका था। लेकिन हमें नहीं पता था कि दादा की ओर से समापन नहीं हुआ था। कुछ दिनों बाद दादा का सन्देश आया - ‘कनेरियाजी और मुकेश को मेरे पास भेजो। मुझे बात करनी है।’ ताबड़तोड़ दोनों को दादा के पास भेजा। दोनों ने सोचा था, दादा एक बार फिर शाबाशी देना चाहते हैं। उन्हें नहीं पता था कि एक सरप्राइज उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। दोनों पहुँचते उससे पहले दादा ने पूरनजी सहगल को बुलवा रखा था। कनेरियाजी और मुकेश पहुँचे तो दादा ने सहगल सर के हाथों कनेरियाजी को 11,000/- रुपयों का तथा मुकेश को 2,500/- रुपयों का चेक दिलवाया। दोनों के पहुँचने से पहले ही दादा ने चेक तैयार कर रखे थे। दोनों को तो इसकी कल्पना भी नहीं थी। यह तो दादा के आशीर्वाद का टॉप-अप था! खुशी के मारे दोनों की दशा देखने जैसी हो गई थी।

दादा की मौजूदगी में, दादा के घर पर, मुकेश को चेक देते हुए डॉ. पूरन सहगल, बीच में जेकेट और काला चश्मा पहने कनेरियाजी।

आज दादा हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी ऐसी यादें उन्हें हमेशा हमारे साथ बनाए हुए हैं। 
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कवि दादू प्रजापति,
122, रामनगर कॉलोनी,
मनासा-458110
(जिला-नीमच)(म. प्र.)
मोबाइल - 96694 34092 

हास-परिहास हो, उपहास नहीं

दादा श्री बालकवि बैरागी की पहली बरसी (13 मई 2019) पर कुछ लेख पढ़ने को मिले। वे सारे लेख ‘नियमित लेखकों’ के थे। अचानक ही मुझे फेस बुक पर भाई बृज मोहन समदानी का यह लेख पढ़ने को मिला। भाई बृज मोहन समदानी अनियतकालीन लेखक, तीखे, दो-टूक, निरपेक्षी टिप्पणीकार और संवाद-विश्वासी हैं। मनासा में वे अपनी पीढ़ी के सम्भवतः ऐसे इकलौते व्यक्ति रहे जो दादा से निस्संकोच, सहज सम्वाद कर लेते थे। दादा के व्‍यक्तित्‍व के कुछ अनछुए पहलू उजागर करनेवाले इस लेख को इससे अधिक टिप्पणी की दरकार नहीं।

  
हास-परिहास हो, उपहास नहीं
बृज मोहन समदानी
  'बातचीत' की 10 अप्रेल 2018 की गोष्‍ठी  में बोलते हुए दादा।  यह उनकी अन्तिम गोष्‍ठी थी। 
मेरे बड़े भाई साहब आदरणीय गोविन्दजी समदानी (जो मुम्बइवासी हैं जहाँ उन्हें सर्वोच्च न्यायालय और महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के हलकों में ‘जीएस मनासावाला’ के रूप में पहचाना जाता है) के बाल सखा एवं हमेशा उनको स्मरण करने वाले, मनासा की पहचान, विनोदप्रिय, ठहाके लगा कर हँसने वाले, फक्कड़पन से जिन्दगी का आनन्द लेने वाले, आदरणीय दादा बालकविजी बैरागी को देह त्यागे एक बरस हो गया। 

दादा को अपनी इच्छानुरूप ‘अकस्मात मृत्यु’ मिली। अवसान के कुछ दिनों पहले ही उन्होंने नगेन्द्रश्री वीथिका, समदानीजी की बाड़ी में उनकी ही प्रेरणा से चल रहे आयोजन ‘बातचीत’ में कहा था - ‘ईश्वर से कुछ भी मत माँगो। उसने सब व्यवस्था की हुई है।’ फिर बोले थे - ‘मैं घनश्याम दासजी बिड़ला की इस बात से प्रभावित हुआ हूँ और ईश्वर से यही कहता हूँ कि मेरी चिन्ता तो तुझे है। मैं औेर कुछ नही माँगता। बस! माँगता हूँ तो अकस्मात मृत्यु।’ 
और क्या यह संयोग नहीं था कि दादा एक उद्घाटन समारोह से आये, घर पर सोये और सोये ही रह गए। अकस्मात मृत्यु! 

मुझ पर दादा का असीम प्रेम था। मेरे कई सुझावों को उन्होंने दिल्ली दरबार तक पहुँचाया था, कुछ क्रियान्वित भी हुए। ‘केश सबसीडी स्कीम’ इनमें प्रमुख है। 15-16  वर्ष पूर्व मेरे इस सुझाव को दिल्ली दरबार में पहुँचा कर सीधे हिताधिकारी के बैंक खाते में पैसे डालने की इस योजना के क्रियान्वित होने पर उन्होंने मुझे पत्र भी लिखा था। मेरे लिए धरोहर बन चुका यह पत्र यहाँ दृष्टव्य है।



पिछले कुछ सालों मे दादा ने मुझे कई बार कहा कि बाड़ी (हमारे पैतृक परिसर) में 10-20 जने बैठो और बिना किसी विषय के चर्चा करो। दादा का बचपन गोविन्द भाई साहब के साथ बाड़ी में ही बीता था। इससे दादा की यादें भी जुड़ी थी और कुछ दादा की रुचि भी संवाद कायम रखने की थी।

दादा ने एक संस्था बनाने हेतु दो नाम सुझाये - रंगबाड़ी और बातचीत। सबकी राय से ‘बातचीत’ नाम तय हुआ। दादा समय के पाबन्द थे। वे ठीक समय पर आ जाते। करीब 3 -4 घण्टे बातों का दौर चलता। दादा के कहे अनुसार संस्था में कोई छोटा-बड़ा नहीं था। कोई पदाधिकारी भी नहीं। सभी बराबरी के सदस्य। आश्चर्य तो तब हुआ जब हमने दादा की कुर्सी पर गादी रखी तो दादा ने पहले गादी हटाई फिर बैठे।

‘बातचीत’ में दादा सहित सर्वश्री विजय बैरागी, नरेन्द्र व्यास ‘चंचल’, सुरेश शर्मा, कैलाश पाटीदार ‘कबीर’, भाई संजय समदानी, अर्जुन पंजाबी, अनिल मलहरा, जगदीश छाबड़ा, बसन्त लिमये, कैलाश सोनी, अस्तु आचार्य और स्वयं मैं भागीदार रहते।




चित्र में बॉंये से बृज मोहन समदानी, दादा और मेरे प्रिय मित्र गोपाल आचार्य की बिटिया अस्तु आचार्य।  गोपाल  की निश्छलता भरे कुछ संस्मरण   आप   यहाँयहाँ और  यहाँ पढ़ सकते हैं।

यह अपनी तरह का अनूठा, अनौपचारिक ऐसा आयोजन होता था जिसमें कोई पूर्व निश्चित विषय नही होता। राजनीति पर चर्चा नहीं करने का अघोषित निर्णय सर्वसम्मति से ले लिया गया था। दादा अलग-अलग विषय रखते। दूसरे भागीदार भी रखते थे। सहज चर्चा में दादा बहुत गम्भीर बातें बोलते थे। बकौल दादा, किसी के संघर्ष को छोटा मत समझो क्योंकि संघर्ष का अनुभव भोगने वाले की  सहनशीलता, संघर्षशीलता पर भी निर्भर करता है।

दादा का कहना था कि आज रिश्ते औपचारिक हो गये हैं। हास्य का अभाव हो गया है। बातचीत में हास-परिहास हो, उपहास नहीं। एक गोष्ठी में दादा ने कहा था कि सशर्त विवाह कभी सफल नही हो सकते। जैसे शिवजी के धनुष को तोड़ने की शर्त पर हुए सीता के विवाह में सीता का क्या हुआ? धरती में समाना पड़ा। और ठीक भी तो है। दहेज की शर्त, शहर में रहने की शर्त, परिवार से अलग रहने की शर्त, व्यापार या नौकरी की शर्त पर आज जो विवाह होते हैं उनमें कितने सम्बन्ध आपसी क्लेश में उलझ जाते हैं।

दादा ने शिक्षा और विद्या पर भी चर्चा की। प्राचीन काल के गुरु विद्यार्थियों के समग्र विकास की, नैतिक एवं चारित्रिक शिक्षा की भी सोचते थे। दादा के अनुसार उनके जमाने मंे नामजोशीजी (रामपुरावाले) एक आदर्श गुरु थे। आज के विद्यार्थी आदर्श गुरु का नाम नहीं बता सकते। 

दादा की उपस्थिति और उनके चिन्तन-मनन-वक्तव्य का असर यह होता था कि किसी की उठने की इच्छा ही नहीं होती थी। आखिकार दादा ही सभा विसर्जन की घोषणा करते - ‘अब बहुत हो गया।’ 

‘बातचीत’ की गोष्ठियों का आरम्भ और समापन चाय से होता था। दादा काली, फीकी, बिना दूध वाली चाय पीते थे। 10 अप्रेल 2018 वाली उनकी गोष्ठी अन्तिम थी। शुरुआती चाय का मौका आया तो दादा बोले ‘तुम सब मीठी दूध वाली चाय पियो। मेरे लिए तो गरम पानी ही मँगवा दो। मैं अपनी चाय की थैली (टी बेग) साथ लाया हूँ।’ समापनवाली चाय के वक्त हमने मान लिया कि दादा अपना टी बेग लेकर आए ही हैं। हमने गरम पानी का कप उनके सामने बढ़ा दिया। दादा बोले ‘थैली एक ही लाया था।’ अब क्या किया जाय? हम कुछ सोचते उससे पहले ही दादा बोले ‘इस गरम पानी में ही चाय की पत्ती डाल दो।’ चाय की पत्ती डाल दी गई और हम लोग छन्नी तलाशने लगे तो दादा बोले ‘छानने के चक्कर में मत पड़ो।’ और उन्होंने, पेंदे में बैठी चाय-पत्ती से बचते हुए, ऊपर-ऊपर से चाय पी ली। गजब की सहजता!

10 अप्रेल 2018 वाली इसी गोष्ठी में मैंने दादा से कहा था - ‘उम्र के इस पड़ाव पर भी आपकी स्मरण शक्ति अद्भुत और धैर्य गजब का है। आप स्थितप्रज्ञता को जी रहे हैं।’ दादा कुछ नहीं बोले थे। बस! मुस्करा दिए थे।

दो साल पहले ही दिगम्बर जैन मुनिद्वय प्रणम्य सागरजी महाराज एवं शीतल सागरजी महाराज के साथ नगेन्द्रश्री वीथिका में दादा भी पधारे थे और जैनत्व की चर्चा की थी। दादा ने मुनिश्री जिज्ञासा प्रकट की थी कि महावीर ने मान, मोह, माया,सब त्याग दिए लेकिन एक मन्द मुस्कान यानी स्मित हमेशा उनके चेहरे पर रही। वो नही त्यागी। यानी महावीर हमेशा सस्मित रहे।

तब प्रणम्यसागर जी महाराज ने बहुत सुन्दर दार्शनिक विवेचना की थी कि जब महावीर ने माया-मोह सब छोड़ दिये एवं ध्यान लगाया तो उन्हें संसार की नश्वरता दिखी। तब उन्होंने नेत्रों को थोड़ा सा खोला तो यह देखकर उन्हें हल्की सी हँसी आई कि दुनियावी लोग इसी नश्वरता को अमरता समझ रहे हैं। इसी कारण महावीर सदैव सस्मित रहे। दादा को मुनिवर का यह दार्शनिक विवेचन बहुत पसन्द आया था।

आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ जी से दादा काफी प्रभावित थे। उनसे कई बार मुलाकातें भी की थीं। ओशो भी दादा की कवितायें पढ़ते थे। कुमार विश्वास भी दादा के नाम का उल्लेख करते हुए दादा की कविताएँ उद्धृत करते हैं। 

आदरणीय गोविन्द भाई साहब एवं दादा  सहपाठी भी रहे और रामपुरा होस्टल के कमरे के सहरहवासी भी। दादा अन्तरंग और सार्वजनिक रूप से दोनों के सम्बन्धों के बारे में बताते ही रहते थे। गोविन्द भाई साहब के पचहत्तर वर्ष पूर्ण करलेने के अवसर पर उन्होंने एक विस्तृत लेख भी लिखा था। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय एक कविता में उन्होंने गोविन्द भाई साहब के कारण ही, टाटा-बिड़ला के साथ समदानी शब्द भी जोड़ा था।

बहुत कुछ लिखने को है। मेरा सौभाग्य है कि दादा का मुझे भरपूर  स्नेह एवं वात्सल्य मिला। अपने अन्तिम बरसों में दादा असामान्य रूप से अतिरिक्त, अत्यधिक सहज हो  गए थे। मैं शायद कुछ ज्यादा भी पा सकता था उनसे। नहीं पा सका। चूक मेरी ही रही।

दादा को श्रद्धा सुमन सहित प्रणाम।





बृज मोहन समदानी, 
मनासा-458110  (जिला-नीमच, म. प्र.)
मोबाइल नम्बर - 90397 12962

भीख का कटोरा और ‘नेट लॉस’



आज दादा की पहली बरसी है। पूरा एक बरस निकल गया उनके बिना। लेकिन कोई दिन ऐसा नहीं निकला जब वे चित्त से निकले हों। उनकी मौजूदगी हर दिन, हर पल अनुभव होती रही। वे मेरे मानस पिता थे। मुझमें यदि कुछ अच्छा, सन्तोषजनक आ पाया तो उनके ही कारण। वे दूर रहकर भी मुझ पर नजर रखते थे। मेरे बारे में कुछ अच्छा सुनने को मिलता तो फोन पर सराहते थे। कुछ अनुचित सुनने को मिलता तो सीधे मुझे कुछ नहीं कहते, खबर भिजवाते थे - ‘बब्बू से कहना, उसके इस काम से मुझे अच्छा नहीं लगा। पीड़ा हुई। यह उसे शोभा नहीं देता।’ मैं कहता - ‘सराहना तो सीधे करते हैं और खिन्नता औरों के जरिए जताते हैं! ऐसा क्यों दादा?’ वे कहते - ‘इसलिए कि तू जान सके कि तेरे इस गैरवाजिब की जानकारी मुझसे पहले औरोें को है। इसलिए कि तू इस कारण अतिरिक्त फिकर कर सके और खुद को सुधार सके।’

दादा को याद करने का कोई बहाना जरूरी नहीं। उनके रहते हुए भी और उनके न रहने के बाद भी। उन्हें भूला ही नहीं जा सकता। जाग रहा होऊँ तब भी और सो रहा होऊँ तब भी। वे मुझे कभी अकेला नहीं रहने देते। 

इन दिनों चुनाव चल रहे हैं। हमारे चुनाव बरस-दर-बरस मँहगे होते जा रहे हैं। संसद में करोड़ोंपतियों की संख्या हर बरस बढ़ती जा रही है। राजनीति आज पूर्णकालिक पारिवारिक धन्धा हो गया है। यह सब देख-देख मुझे उनकी वह बात याद आती है जो उन्होंने 1969 में, सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री बनने के ‘लगभग’ फौरन बाद कही थी। ‘लगभग’ इसलिए कि राज्य मन्त्री बनने के फौरन बाद ही वे  व्यस्त हो गए थे। मेरा भोपाल जाना बहुत-बहुत कम होता था। जब भी जाता, वे सदैव व्यस्त मिलते। लेकिन एक बार, एक पूरा दिन उन्हें खाली मिल गया। उस दिन उन्होंने खूब बातें की थीं। 

राज्य मन्त्री बनने पर उन्हें पूरे देश से बधाई सन्देश मिले थे। सचमुच में ‘बोरे भर-भर कर।’ अपनी आदत के मुताबिक उन्होंने उस प्रत्येक पत्र का जवाब दिया था जिस पर भेजनेवाले का पता था। वह धन्यवाद-पत्र कविता की शकल में था। उसकी पंक्तियाँ थीं - 

एक और आशीष मुझे दें माँगी या अनमाँगी।
राजनीति के राज-रोग से मरे नहीं बैरागी।।

हम दोनों, शाहजहानाबाद स्थित सरकारी बंगले ‘पुतली घर’ के लॉन में बैठे थे। मैंने दादा से पूछा था - ‘दादा! आप तो प्रबल इच्छा शक्ति के धनी हैं। आपको यह डर क्यों?’ खुद में खोये-खोये उन्होंने जवाब दिया था - ‘डर नहीं। राजनीति में कभी-कभी वह भी करना पड़ जाता है जिसके लिए अपना मन गवाही नहीं देता। यहाँ पग-पग पर फिसलन है। ऐसे हर मौके पर मेरा मन मुझे टोकता रहे, इसके लिए मुझे सबकी  शुभ-कामनाएँ चाहिए। मेरी पूँजी तो मेरी प्राणदायिनी कलम है। तेने केवल दो पंक्तियाँ ही कही। दो पंक्तियाँ और हैं।’ मुझे वे पंक्तियाँ याद आ गईं -

मात शारदा रहे दाहिने, रमा नहीं हो वामा।
आज दाँव पर लगा हुआ है, एक विनम्र सुदामा।।

दादा बोले - ‘यह सुदामापन ही मुझे जिन्दा बनाए रखता है, ताकत देता रहता है। जिन लोगों ने मुझे यहाँ भेजा है, उनसे मैंने मदद माँगी है  िकवे मुझे सुदामा बने रहने में मेरी मदद करें। मेरी चिन्ता करें।’

बात मेरी समझ से बाहर होने लगी थी। मैंने कहा - ‘मैं उलझन में पड़ता जा रहा हूँ।’ सुनकर दादा ने भेदती नजरों से मुझे देखा और बोले - ‘मेरी-तेरी मानसिक निकटता पूरा परिवार जानता है। अब जो मैं तुझे कहने जा रहा हूँ, बहुत ध्यान से सुनना। मुन्ना-गोर्की (मेरे दोनों भतीजे) अभी बहुत छोटे हैं। बच्चे हैं। बई और दा’जी (माँ-पिताजी) घर तक ही सिमटे हैं और रहेंगे। एक तू ही है जो इधर-उधर घूमता नजर आएगा। (उस समय मेरी अवस्था बाईस बरस थी) तेरे पास अभी कोई काम-धन्धा भी नहीं है। मुझ तक पहुँचने का तू आसान जरिया है। इसलिए तुझसे कह रहा हूँ। एक-एक शब्द ध्यान से सुनना और गाँठ बाँध लेना।’

दादा की बात सुनकर मैं, जो तनिक पसर कर बैठा था, सीधा हो गया, खिसक कर उनकी ओर झुक गया। उस दिन दादा ने जो कहा, वह अब भी मेरे जीवन का पाथेय बना हुआ है। मैं निश्चय ही बड़भागी हूँ जो मुझे यह अमूल्य जीवन निधि मिली। दादा ने कहा - “ये जो मुझे मिनिस्ट्री मिली है ना, यह जितनी अचानक मिली है उससे अधिक अचानक कभी भी चली जाएगी। यह टेम्परेरी है। क्षण भंगुर। इसलिए, इस टेम्परेरी चीज पर कभी इतराना, घमण्ड मत करना। मुझसे काम करवाने के लिए तेरे पास बड़े-बड़े, आकर्षक ऑफर आएँगे। जब भी तेरे पास लालच भरा ऐसा कोई प्रस्ताव आए तब याद कर लेना - अपन ने भीख के कटोरे से जिन्दगी शुरु की है। जब तक कटोरा हाथ में न आ जाए, तब तक अपना कोई ‘नेट लॉस’ नहीं है। बस! इतने में सब समझ ले।”

दादा का उस दिन का कहा, इस पल तक जस का तस मेरी पोटली में बँधा हुआ है। दादा के इस जीवन सूत्र ने जो हौसला, अभावों, प्रतिकूलताओं से से जूझने का जो जीवट दिया, विचलित कर देनेवाले पलों में संयमित रहने का जो सम्बल दिया वह सब अवर्णनीय है। 

जैसी दादा ने कल्पना की थी, उनके मन्त्री काल में मेरे पास खूब ‘ऑफर’ आए। ऐसे-ऐसे कि ‘दलीद्दर’ धुल जाते। लेकिन तब भीख का कटोरा बेइज्जत हो जाता। लेकिन मुझे सन्तोष है कि दादा की सीख ने मुझे उस कटोरे की इज्जत बरकरार रखने की ताकत दी।

ऐसी ताकत जिसके पास हो वह न तो गरीब होता है न ही कमजोर। मैं वही हूँ। मेरे दादा की वजह से।
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(यहॉं दिया चित्र 12 अप्रेल 2018 का है। उस दिन हम हमारी भानजी प्रतिभा-विनोद की बिटिया के विवाह प्रसंग पर मन्दसौर में इकट्ठे हुए थे। चित्र मैंने ही लिया था।)

ऐसे ही बदतमीज बने रहिए


चित्र में मैं जिनके साथ बैठा दिखाई दे रहा हूँ वे हैं श्री दिनेश चन्द्रजी जोशी। मेरे दिनेश दादा। रतलाम के चिन्तकों, विचारकों, प्रबुद्धों में अग्रणी। सेवा निवृत्त अध्यापक हैं। कुशल, दीघानुभवी आयुर्वेद चिकित्सा-परामर्शदाता। हिन्दी के ख्यात, अमर कवि प्रदीप के सगे भानजे। उनसे जुड़े किस्सों की खान हैं दिनेश दादा। वैसे, दिनेश दादा से जुड़े अनगिनत रोचक-बौद्धिक किस्से भी रतलाम की गलियों में बिखरे पड़े हैं।

आज अचानक ही दिनेश दादा एलआईसी दफ्तर में नजर आए तो चौंक पड़ा। उनके आने से नहीं, उनके दुबलेपन और बमुश्किल सुनी जा सकनेवाली उनकी अत्यन्त धीमी आवाज से। जिनकी आवाज तीन गलियाँ पार कर लेती थीं उन्हीं की बात सुनने के लिए आज मुझे उनके मुँह से अपने कान लगाने पड़ रहे थे। एलआईसी दफ्तर आने का उनका प्रयोजन पूछा। भोजनावकाश शुरु हो गया था। दिनेश दादा को कम से कम आधा घण्टा प्रतीक्षा करनी ही थी। सो, बातें शुरु हो गईं।

साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न दिनेश दादा रतलाम में पूर्णेश्वर मन्दिर के पास, चक्कीवाली गली में रहते हैं। उनका निवास, कुछ बरसों पहले तक उनकी पसन्द के लोगों का अड्डा बना रहता था। दादा अपनी ओर से किसी न किसी जयन्ती, पुण्य तिथि, साहित्यिक प्रसंग पर लोगों को बुला लिया करते थे। ऐसे प्रत्येक अवसर पर दो-ढाई घण्टे की जोरदार अड्डेबाली हो जाया करती थी। हमस ब शाम को, सुस्त-सुस्त उनके यहाँ पहुँचते और ठहाके लगाते हुए, ताजादम लौटते थे। ऐसा ही एक किस्सा आज उन्हें देखते ही याद आ गया। कुछ और एजेण्ट भी बैठे थे। किस्सा मैंने याद दिलाया। मैंने ही सुनाया भी। दिनेश दादा ने मेरे सुनाए किस्से की पुष्टि की। 
वह किस्सा मैं कभी नहीं भूल सकता। भूलना चाहूँगा भी नहीं। उस शाम दिनेश दादा ने, बीमा एजेण्ट के रूप में मुझे जो प्रमाण-पत्र दिया, उसके सामने बड़ा से बड़ा प्रमाण-पत्र भी टटपूँजिया लगेगा। पूरा किस्सा जान लेंगे तो आप भी मुझसे सहमत हो जाएँगे कि वैसे प्रमाण-पत्र के लिए हर बीमा एजेण्ट तरस जाएगा।

यह कोई  बारह-पन्द्रह बरस पहले की बात होगी। अब याद नहीं कि प्रसंग क्या था। लेकिन था किसी की जयन्ती का ही। हम कोई बीस लोग थे। आयोजन समाप्त हो चुका था। बतरस के साथ अल्पाहार चल रहा था। अचानक ही, बिना किसी सन्दर्भ, प्रसंग के दिनेश दादा ने मुझे सम्बोधित किया - ‘यार बैरागीजी! ये बताओ! आप जैसा बदतमीज आदमी, कामयाब बीमा एजेण्ट कैसे हो गया?’ सवाल उछलते ही गोष्ठी में सनाका और सन्नाटा खिंच गया। कुछ लोग मुझे और कुछ लोग दिनेश दादा को। दो-चार पल बाद वे लोग भी मुझे ही देखने लगे जो दिनेश दादा को देख रहे थे। और मैं? मेरी तो कुछ पूछिए ही मत। ‘अचकचा गया’, ‘सपकपा गया’, ‘सिटपिटा गया’, ‘सम्पट भूल गया’, ‘सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई’ जैसे तमाम पोस्टर मुझ पर चिपक गए थे। सब लोग भी, आशंकित चेहरे लिए हैरत में थे। यह क्या बात हुई? यह क्या हो गया? स्वल्पाहार करते हाथ इस तरह रुक गए जैसे किसी बच्चे ने खेलते हुए सबको ‘स्टेच्यू’ कह दिया हो। सहज होने में मुझे कुछ पल लगे। बात पल्ले पड़ते ही मुझे गुदगुदी होने लगी। खुल कर हँसते हुए मैं अपनी जगह से उठा, दिनेश दादा के पास गया और उनके पाँव छू कर कहा - ‘यह तो आप ही बताओगे कि ऐसा कैसे हो गया लेकिन दादा! आज आपने मुझे निहाल कर दिया। अब मुझे अपने किसी ग्राहक से, किसी संस्था-संगठन से, हमारे मेनेजमेण्ट से, किसी से भी प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं रही।’ 

मेरी बात का पहला असर यह हुआ कि सारे लोग तनावमुक्त हो गए। दूसरा असर दिनेश दादा पर हुआ। वे सस्मित बोले - ‘अरे! कमाल है यार! मैंने आपको बदतमीज कहा और आप मुझे धन्यवाद दे रहे हो! मेरे पाँव छू रहे हो!’ मैंने कहा - ‘हाँ दादा! मैं ऐसा नहीं करता तो जरूर बदतमीज हो जाता।’ अब दिनेश दादा खुल कर हँसे और बोले - ‘याने उतने बेवकूफ भी नहीं हो जितने नजर आते हो। चलो अच्छा हुआ। मेरा सिलेक्शन गलत नहीं है।’

अब सब लोग इतने सहज हो चुके थे कि हँस सकें। सो, वे सब अब हँस रहे थे। स्वल्पाहार का, थमा क्रम फिर शुरु हो गया। मुझे लगा, बात आई-गई हो जाएगी। सो फौरन ही कहा - ‘आपके सवाल का जवाब आपके ही पास है। बता दीजिए कि यह बदतमीज आदमी कामयाब एजेण्ट कैसे बन गया।’ दिनेश दादा ने बिना विचारे (विदाउट थॉट) जवाब दिया - ‘दो कारणों से। पहला - आपकी बोली भले ही कड़वी है, आप भले ही पत्थरमार बोलते हैं लेकिन आपकी नियत खराब नहीं होती। दूसरा - आपकी ग्राहक सेवा, जिसके बारे में मुझे पूरे रतलाम में सुनने को मिलता है। जितनी सराहना आपकी सुनने को मिलती है उतनी और किसी एजेण्ट की नहीं।’

दादा का यह कहना था कि मैं ‘पोमा’ गया। फूल कर कुप्पा हो गया। जिस कुर्सी पर मैं बैठा था, वह छोटी लगने लगी। मेरी यह दशा देख कर दिनेश दादा ने अंगुली से पहले तो मुझे अपने पास आने का इशारा किया और जैसे ही मैं उठा वैसे ही अपनी वह अंगुली अपने पैरों की तरफ कर दी। मैं जमीन में गड़ गया और बाकी सब के ठहाकों से पूरी चक्कीवाली गली गूँज उठी। झेंपते-झेंपते ही मैंने दिनेश दादा के पाँव छुए। दादा ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा - ‘पोमाने के अलावा ऐसे ही बदतमीज बने रहिए।’ इस बार फिर जोरदार ठहाका लगा। हाँ, इस बार इन ठहाकों में मेरा ठहाका भी शामिल था।

दफ्तर का भोजनावकाश समाप्त हो रहा था। मैंने साथी एजेण्ट प्रदीप जादोन से हम दोनों का फोटू लेने का आग्रह किया। दादा का काम निपटा कर उन्हें सीढ़ियों तक छोड़ने गया। उन्होंने मुझे असीसा। मुझे लगा, वे कहेंगे - ‘ऐसे ही बदतमीज बने रहिए।’ लेकिन नहीं कहा।

कह देते तो मैं एक बार फिर निहाल हो जाता।
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