चल तू मेरी कलम


 



श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह
‘ललकार’ का चौदहवाँ गीत





दादा का यह गीत संग्रह ‘ललकार’, ‘सुबोध पाकेट बुक्स’ से पाकेट-बुक स्वरूप में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं हो पाई। इसीलिए इसके प्रकाशन का वर्ष मालूम नहीं हो पाया। इस संग्रह में कुल 28 गीत संग्रहित हैं। इनमें से ‘अमर जवाहर’ शीर्षक गीत के पन्ने उपलब्ध नहीं हैं। शेष 27 में से 18 गीत, दादा के अन्य संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ में संग्रहित हैं। चूँकि, ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है इसलिए दोहराव से बचने के लिए ये 18 गीत यहाँ देने के स्थान पर इनकी लिंक उपलब्ध कराई जा रही है। वांछित गीत की लिंक पर क्लिक कर, वांछित गीत पढ़ा जा सकता है।    
  
 

चल तू मेरी कलम
 
नजर जहाँ तक भी जाती है, दिखता नहीं प्रकाश है
धरती से अम्बर तक लगता, मानव का रनिवास है

बढ़ता ही जाता है रौरव, अँधियारे के ज्वार का
निचुड़ा-निचुड़ा लगता है सत, किरणों की मनुहार का

थके-थके से पाँव भटकते, गलियाँ सब बेहोश हैं
ऐसे में इस महादेश की, सिर्फ कलम को होश है

चल तू मेरी कलम कि तुझको, अपना फर्ज निभाना है
कोई जगे या नहीं जगे पर तुझको सुबह उगाना है
चल तू मेरी कलम.....

बुझे-बुझे लगते हैं सूरज, जलती हुई जवानी में
चाँद फिसल कर जा डूबे हैं, बस दर्पण के पानी में
तारे टुक-टुक देख रहे हैं बस्ती को हैरानी में
भूल गये हैं सब मंजिल को, अपनी खींचातानी में
(तो) चल तू मेरी कलम कि तुझको दीपक नये जलाना है
सूरज को उदयाचल लाकर युग का नमक चुकाना है
चल तू मेरी कलम...

तूफानों ने बोल रखा है, धावा अभी किनारों पर
चन्द लहरियाँ नाच रहीं हैं, कुछ निर्लज्ज इशारों पर
माझी ने मुँह मोड़ लिया है, असमय ही मझधारों पर
जयचन्दों की आँख लगी है, नैया पर, पतवारों पर
चल तू मेरी कलम कि तुझको तूफाँ से टकराना है
इस नैया को सही सलामत घाटों तक पहुँचाना है
चल तू मेरी कलम.....

ऐटम के बाजार लगे हैं पाँखुरिया थर्राती हैं
कोयल, मोर, पपीहे सबकी, भावाजें भर्राती हैं
श्वेत-कपोती कातर स्वर में, हाय-हाय चिल्लाती है
मानवता असहाय भटकती, और पछाड़ें खाती है
चल तू मेरी कलम कि तुझको मेघ मल्हारें गाना है
पहले सावन बरसाना है, फिर फागन बरसाना है
चल तू मेरी कलम.....

सारे घर में आग लगी है, कोई नहीं बुझाते है
सब ही पूले डाल रहे हैं, और अधिक भड़काते हैं
चतुर सयाने आँख मूँद कर, इधर-उधर कतराते हैं
कोई खुद के हाथ सेंक कर, नित त्यौहार मनाते हैं
चल तू मेरी कलम कि तुझको सारी आग बुझाना है
जन-जन जब तक जुट नहीं जाये, तब तक शोर मचाना है
चल तू मेरी कलम.....

पंख-पँखेरू फिर से चहकें, अमिया फिर से बौराये
ताल-तलैया फिर से महके, बगिया फिर से गदराये
पनघट पर फिर गागर झलके, पायल फिर से पगलाये
माँदल पर फिर महुआ ढलके, फिर से फागुन इतराये
चल तू मेरी कलम कि तुझको, ऐसा रंग जमाना है
स्वयं विधाता पगला जाये, ऐसा चित्र बनाना है
चल तू मेरी कलम.....
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इस संग्रह के, अन्यत्र प्रकाशित गीतों की लिंक - 

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गीतों का यह संग्रह
दादा श्री बालकवि बैरागी के छोटे बहू-बेटे
नीरजा बैरागी और गोर्की बैरागी
ने उपलब्ध कराया।

 

मेरे नगर क्षमा कर देना


 
श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘ओ अमलतास’ की चौथी कविता 

यह संग्रह श्री दुष्यन्त कुमार को
समर्पित किया गया है।

   
   

   मेरे नगर क्षमा कर देना

मातृगर्भ से मरघट तक के, इस कोलाहल भरे सफर में
मुझसे जो भी भूल हुई हो, मेरे नगर क्षमा कर देना
तेरे सरवर, तेरे पोखर, तेरे नाले, तेरी सरिता
मेरी कंकरिया खाकर भी, देते रहे हमेशा कविता
तेरी चन्दन सी माटी को, मैंने अपने पैरों रौंदा
फिर भी तूने हर उमर में, सौंपा मुझको नया घरौंदा
दाई से अँगनाई तक के
हर अपमानित पुण्य प्रहर में 
मुझसे जो भी भूल हुई हो, मेरे नगर क्षमा कर देना
मातृगर्भ से मरघट तक के

000

मंजरियों को मसला मैंने, लूटी मैंने हर अमराई
हर कोंपल को ऐसा नोचा, धोखा खा गई हर चतुराई
तितली की तनतोड़ प्यास के, मैंने झूठे सरगम गाये
भँवरों के दिल जला-जला कर, कलियों को कंगन पहनाए
ये आरोप सभी झूठे हैं,
फिर भी इस नादान उमर में
मुझसे जो भी भूल हुई हो, मेरे नगर क्षमा कर देना
मातृगर्भ से मरघट तक के

000

प्यार दिया हर एक दिशा ने, खुला मुझे हर द्वार मिला है
बाँहों का बौराया आँगन, मुझको लाखों बार मिला है
मनुहारों के मान महल में, चुम्बन की शैया पर सोया
वैसे तो क्या तेरे बल पर, सपनों में भी कभी न रोया
लेकिन फिर भी भूले भटके
आँसू की अनजान लहर में
मुझसे जो भी भूल हुई हो, मेरे नगर क्षमा कर देना
मातृगर्भ से मरघट तक के

000

गली-गली में गाया मैंने, जो भी गाया सुर में गाया
सुनने मुझको वातायन में, हर गवाक्ष का यौवन आया
लाखों ललचाये अधरों ने मांगे मुझसे गीत रसीले
अपलक मुझको रहे देखते, चरण-चरण पर नैन नशीले
निष्कलंक था हर कटाक्ष पर
काजल के कमनीय जहर में
मुझसे जो भी भूल हुई हो, मेरे नगर क्षमा कर देना
मातृगर्भ से मरघट तक के

000

हर सूरज को अर्ध्य दिया है, हर चन्दा को नमन किया है
हर तारे को फिर मिलने का, मैंने मन से वचन दिया है
आशीषों का आँचल माँगा मैंने, पूज्य पिता-माता से
तेरा आँगन फिर माँगा है, मैंने अपने निर्माता से
नष्ट नीड़ सा स्पष्ट रहा हूँ
फिर भी तेरी छिपी नजर में
मुझसे कोई भूल हुई हो, मेरे नगर क्षमा कर देना
मातृगर्भ से मरघट तक के
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संग्रह के ब्यौरे
ओ अमलतास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - किशोर समिति, सागर।
प्रथम संस्करण 1981
आवरण - दीपक परसाई/पंचायती राज मुद्रणालय, उज्जैन
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - दस रुपये
मुद्रण - कोठारी प्रिण्टर्स, उज्जैन।
मुख्य विक्रेता - अनीता प्रकाशन, उज्जैन
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मत इतनी वासन्ती रोलो

 
 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की सत्ताईसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



मत इतनी वासन्ती रोलो

थोड़ा सा संयम भी रखो
केसर धीरे-धीरे घोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो

गदरी-गदरी हो गई बगिया
रूपम् हुई अरूपम् अँगिया
सतरँग चूनर नवरँग हो गई
फिर भी दिखी न पचरँग पगिया

मेरा रोम-रोम रंग डाला
अपना मन भी तनिक भिंजोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो


ये कैसी पिचकारी मारी
ऊमर हो गई भारी-भारी
लाख जनम कर दिए गुलाबी
क्या मरजी है और तुम्हारी

कब ये सारा ऋण उतारेगा
इतनी भी नमती मत तोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो


ये कोयल ये भ्रमर निगोड़े 
आ जाते हैं दोड़े-दौड़े
ना जाने क्या-क्या गाते हैं
सुधि के नीरज सभी झिंझोड़े

मुझसे तो सब बिखर गए हैं
अब ये मोती तुम्हीं पिरोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।























 


पेड़ की प्रार्थना




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की इकतीसवीं कविता 




पेड़ की प्रार्थना

अपने तुच्छ सुखों के कारण
मत लो मेरी जान,
मत काटो, मत चीरो मुझको
मुझमें भी हैं प्राण।

            - 1 -

आठों पहर खड़ा रहता हूँ
लेकर अपनी काया
मेरी पत्ती-पत्ती देती
तुमको शीतल छाया
तब भी चला रहे हो आरी
कैसे हो इनसान ?
मत काटो, मत चीरो मुझको
मुझमें भी हैं प्राण।
अपने तुच्छ सुखों के कारण
मत लो मेरी जान।

            - 2 -

मुझे काटकर बनवा लोगे
कुरसी-मेज-तिपाई
या पलंग या खटिया-पटिया
कुछ चीजें सुखदायी
अपनी बैठक सजा-धजाकर
बढ़वा लोगे शान
(पर) मत काटो, मत चीरो मुझको
मुझमें भी हैं प्राण।
अपने तुच्छ सुखों के कारण
मत लो मेरी जान।

            - 3 -

समय-समय पर फल देता हूँ
देता सुन्दर फूल
जड़ से लेकर फुनगी तक हूँ
औषधि के अनुकूल
किसी तरह भी तुच्छ नहीं है
मेरा भी अवदान
मत काटो, मत चीरो मुझको
मुझमें भी हैं प्राण।
अपने तुच्छ सुखों के कारण
मत लो मेरी जान।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















सच कहता हूँ/जब तक अपनी खोई धरती

 
 



श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह
‘ललकार’ का तेरहवाँ गीत





दादा का यह गीत संग्रह ‘ललकार’, ‘सुबोध पाकेट बुक्स’ से पाकेट-बुक स्वरूप में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं हो पाई। इसीलिए इसके प्रकाशन का वर्ष मालूम नहीं हो पाया। इस संग्रह में कुल 28 गीत संग्रहित हैं। इनमें से ‘अमर जवाहर’ शीर्षक गीत के पन्ने उपलब्ध नहीं हैं। शेष 27 में से 18 गीत, दादा के अन्य संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ में संग्रहित हैं। चूँकि, ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है इसलिए दोहराव से बचने के लिए ये 18 गीत यहाँ देने के स्थान पर इनकी लिंक उपलब्ध कराई जा रही है। वांछित गीत की लिंक पर क्लिक कर, वांछित गीत पढ़ा जा सकता है।  
  

सच कहता हूँ/जब तक अपनी खोई धरती

भारत का भूगोल तड़पता, तड़प रहा इतिहास है
तिनका-तिनका तड़प रहा है, तड़प रही हर साँस है

सिसक रही है सरहद सारी, माँ के छाले बहते हैं
ढूँढ रहा हूँ किन गलियों में अर्जुन के सुत रहते हैं

गली-गली औ’ चौराहों पर, फिर आवाज लगाता हूँ
मन का गायक रोता है, पर मजबूरी में गाता हूँ ।

जब तक अपनी खोई धरती, वापस नहीं मिलाओगे 
सच कहता हूँ तब तक मुझसे, गीत नहीं सुन पाओगे

माँ का आँचल तार-तार है और मनायें हम जलसे
रक्तपान के बदले चुप-चुप, पीते हैं मधु के कलशे
नस-नस ऐंठ रही जननी, की हम उलझे हैं पायल में
घायल माँ को भूल गये हैं, मेंहदी, महावर, काजल में
टूट रहा है दम जननी का, महानाश की ज्वाला में
रण-बाला को वरने वाले बैठे हैं मधुशाला में
जब तक कजरारी अलकों से पलकें नहीं चुराओगे
सच कहता हूँ तब तक मझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

यूँ थक कर शस्त्रों को तुमने, धरती पर क्यूँ टाँगे हैं
मत भूलो जननी ने तुमसे, रिपु के मस्तक माँगे हैं
आज नई पीढ़ी की ज्वाला, बुझी-बुझी क्यों लगती है
चबा जाय जो सूर्य पिण्ड को, कहाँ गई वो शक्ति है
दो मुट्ठी बारूद उड़ा कर, जिसने फागुन जला दिया
उस पापी को इतना जल्दी, तुमने कैसे भुला दिया
जब तक अपना उजड़ा फागुन वापस नहीं खिलाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

वहाँ जुझारे जूझ रहे हैं, हम आपस में लड़ते हैं
पतझर को न्यौता देते हैं, अपने आप उजड़ते हैं
अब भी होती हैं हड़तालें, अब भी नारे लगते हैं
गाली देने वाले हमको, अब भी प्यारे लगते हैं
चुपके-चुपके प्रजातन्त्र का सौदा कोई करता है
और मगर के आँसू रो कर झूठी आहें भरता है
जब तक ऐसे जयचन्दों की, खाल नहीं खिंचवाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

महाकेतु को पुनः उठा कर, जननी का जयनाद करो
तूर्यनाद से अम्बर भर दो, बैरी को बरबाद करो
जिसने नोंचा पंचशील को, उसके टुकड़े कर दो तुम
जिसने छेड़ा है हिमगिरि को, संगीनों पर धर दो तुम
राजघाट को धोख दे कर, जिसने बैर बसाया है
उससे बदला लेगा वो ही, जो भारत का जाया है
जब तक लोहू देकर, माँ का दूध नहीं उजलाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझ से, गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

अपनी गरिमा याद करो तुम रण मेलों में चलना है
फिर इतिहास नया लिखना है, फिर भूगोल बदलना है
रक्तस्नान करवा कर माँ को, फिर से उसे सिंगारेंगे
अरिमुण्डों की भेंट चढ़ा कर, कुछ तो कर्ज उतारेंगे
युग चारण की हुकारों को, अब कैसे बिसराओगे
मुझको नींद नहीं आती तो, तुम कैसे सो जाओगे
जब तक तुम भूगोल बदल कर, माँ को नहीं दिखाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे, गीत नहीं सन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

मैं भी गाऊँ कमल-कमलिनी, चन्दा और सितारों को
मैं भी गाऊँ मरघट, पनघट, डोली और कहारों को
जी करता है मैं भी गाऊँ, बौरी-बौरी अमराई
साजन गाऊँ, सजनी गाऊँ, बाँसुरिया और शहनाई
लेकिन माँ के घाव देख कर, ओठ नहीं हिल पाते हैं
उमड़-उमड़ आता है लावा, अंगारे ढल जाते हैं
जब तक मेरे अंगारों की, आग नहीं पी जाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती
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इस संग्रह के, अन्यत्र प्रकाशित गीतों की लिंक - 

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गीतों का यह संग्रह
दादा श्री बालकवि बैरागी के छोटे बहू-बेटे
नीरजा बैरागी और गोर्की बैरागी
ने उपलब्ध कराया। 

एक गीत गाकर तो देखो


 


श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘ओ अमलतास’ की तीसरी कविता 

यह संग्रह श्री दुष्यन्त कुमार को
समर्पित किया गया है।




एक गीत गा कर तो देखो

बेशक सुर-सरगम न मिला हो।
कितना ही बेसुरा गला हो
तो भी जीवन में कम से कम
एक गीत गा कर तो देखो

000

हर महफिल के दो ही रुख हैं, या तो ताली या फिर गाली
इसी सोच में भाई तुमने, यह कैसी सूरत कर डाली?
गाली देने वाले तुमको, जब भी देंगे, गाली देंगे
ऐसी-वैसी कभी न देंगे, बिलकुल नई-निराली देंगे
वे अपना संस्कार न छोड़ें, तुम क्यों छोड़ रहे हो गाना?
सातों सुर खुद सध जायेंगे, महफिल में आकर तो देखो
एक एक गीत गाकर तो देखो

000

क्या मौसम है, क्या महफिल है, क्या रौनक है, क्या रंगत है
जुही चमेली की सेजों पर, तितली, भँवरों की संगत है
नजर जहाँ तक भी जाती है, सब कुछ गदराया लगता है
खुशबू ही खुशबू है देखो, मादकता ही मादकता है
पूरी सदी सुगन्ध हुई है, अब किसकी सौगन्ध तुम्हें दूँ
ऐसी मस्ती के आलम में, एक गजब ढा कर तो देखो
एक गीत गाकर तो देखो

000

पाल सको तो लय को पालो, क्या कुण्ठाएँ पाल रहे हो!
टाल सको तो चुप्पी टालो, क्या गीतों को टाल रहे हो!
खुद का कोई गीत न हो तो, क्यों मन को छोटा करते हो
मेरे पास बहुत रखे हैं, यूँ क्या रो-रो कर मरते हो!
नदिया, नाले, सागर, सरिता, थाल सजाये न्यौत रहे हैं
और नहीं तो पंछी का ही, कुछ झूठा खाकर तो देखो
एक गीत गाकर तो देखो

000

ये मत सोचो कोई आकर, ओठों पर रख देगा सरगम
ये मत सोचो कोई आकर, पोंछेगा आँखों की शबनम
हमदर्दों के इन्तजार में, दर्द, दर्द बस दर्द मिलेगा
सच कहता हूँ जीवन का रथ, दो अंगुल भी नहीं चलेगा
कोलाहल के सर पर चढ़कर, हाँक भरो, कुछ हल्ला बोलो
साँसत की इस शोक सभा में, कुछ राहत पाकर तो देखो
एक गीत गाकर तो देखो

000

तुम बस गूँगे ही मर जाओ, इसीलिये वे शोर करेंगे 
जब तक साजिश सफल न होगी, शोर बड़ा पुरजोर करेंगे
अर्थी पर चढ़ कर के कल तुम, दोषी मत कहना मन्त्रों को 
अब भी यदि खामोश रहे तो स्वीकृति दोगे षड़यत्रों को
मुझ पर यदि विश्वास न हो तो, तिलभर मुझे मलाल नहीं है
उनकी गली के प्रथम मोड़ तक, तुम खुद ही जाकर तो देखो
एक गीत गाकर तो देखो
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संग्रह के ब्यौरे
ओ अमलतास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - किशोर समिति, सागर।
प्रथम संस्करण 1981
आवरण - दीपक परसाई/पंचायती राज मुद्रणालय, उज्जैन
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - दस रुपये
मुद्रण - कोठारी प्रिण्टर्स, उज्जैन।
मुख्य विक्रेता - अनीता प्रकाशन, उज्जैन
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यह किसने रास रचाया

 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की छब्बीसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



यह किसने रास रचाया

बिखर गया यह किसका कुंकुम
किसने मधु छलकाया
यह किसने रास रचाया

बहका-बहका वन लगता है
महका-महका मन लगता है
उमग उठे आँखों के डोरे
तरसा-तरसा तन लगता है
   
सुधियों की अमिया बौराई
हर सपना पगलाया
यह किसने रास रचाया


मलय पवन पाती क्या लाया
किसने किसको कहाँ बुलाया
क्यों पलाश ने पाँख पसारी
मधुकर को किसने ललचाया

रंग सुरंग रँगे सब किसने
कौन चितेरा आया
यह किसने रास रचाया


वसुधा के सिंगार सुहावन
पुण्य सरिस हर कोंपल पावन
गीत, अगीत सभी सुर लय से
कण-कण एक मुदित वृन्दावन

एकाकार हुए लगते हैं
ब्रह्म, जीव और माया
यह किसने रास रचाया
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।























 


उनका पोस्टर




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की तीसवीं कविता


 


उनका पोस्टर

मेरे शहीदों!
आज तक मैंने
किसी से नहीं कहा
कि
तुम्हारी शहादत के
बाद भी
तुम्हारे नाम पर
मैंने कितना कुछ सहा।
यूँ तो मेरा सिर
हमेशा नीचा है
तुम्हारे सामने
लेकिन बीसवीं सदी का
सबसे बड़ा अपराधी
(वह भी तुम्हारा)
बना दिया है
मुझे राम ने।

मैं खुद को
तुम्हारा निर्लज्ज अपराधी
घोषित करता हूँ
माँगता हूँ तुमसे
कठोर सजा
कि,
तुम जब गाड़कर
आकाश पर मेरी ध्वजा
वापस नहीं लौटे
तब,
उन्होंने मेरी दीवार पर
अपना पोस्टर
बड़े दर्प से चिपकाया
और मुझे चेताया--
‘देखो!
यह पोस्टर हम
लेई या गोंद से नहीं
शहीदों के खून से
चिपका रहे हैं
ससम्मान रखवाली करना
इस पोस्टर की
हम दूसरी दीवार की
तलाश में जा रहे हैं।’
अब,
दीवार मेरी
पोस्टर उनका
और खून तुम्हारा।
मातम मेरे घर
और उनके घर
बेशर्म खुशियों का फव्वारा।

मैं चीखना चाहता था
पर चीख नहीं पाया
इस कायर भीड़ से
अलग दिख नहीं पाया।
मेरे शहीदों!
मेरी दीवार पर
उनके पोस्टर के पीछे लगा
तुम्हारा खून पपड़ा रहा है
और यह पपड़ाता लहू
मुझे न जाने
कौन-कौन से पाठ
पढ़ा रहा है?
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















घड़ी बड़ी नाजुक है






श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह
‘ललकार’ का बारहवाँ गीत







दादा का यह गीत संग्रह ‘ललकार’, ‘सुबोध पाकेट बुक्स’ से पाकेट-बुक स्वरूप में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं हो पाई। इसीलिए इसके प्रकाशन का वर्ष मालूम नहीं हो पाया। इस संग्रह में कुल 28 गीत संग्रहित हैं। इनमें से ‘अमर जवाहर’ शीर्षक गीत के पन्ने उपलब्ध नहीं हैं। शेष 27 में से 18 गीत, दादा के अन्य संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ में संग्रहित हैं। चूँकि, ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है इसलिए दोहराव से बचने के लिए ये 18 गीत यहाँ देने के स्थान पर इनकी लिंक उपलब्ध कराई जा रही है। वांछित गीत की लिंक पर क्लिक कर, वांछित गीत पढ़ा जा सकता है।  
  

घड़ी बड़ी नाजुक है

मत समझो हो गया अँधेरा
नहीं उजेला होने का
घड़ी बड़ी नाजुक है साथी
समय नहीं है रोने का

दो क्षण को कँप लिया तिरंगा, देखो फिर फहराता है
आँसू पोंछ लिये माता ने, माता आखिर माता है
हलधर ने फिर हल जोता है, बादल फिर से गाता है
ऐसे में ये रोना-धोना, बुरा शकुन कहलाता है
फिर से पूछ रही है धनिया
महुरत अपने गौने का
मत समझो हो गया अँधेरा, नहीं उजेला होने का
घड़ी बड़ी नाजुक है.....

कल चटका वो आज खिलेगा, खिला उसे मुरझाना है
महासृजन का अटल नियम यह, क्या तुमको समझाना है
किसको यहाँ सदा रहना है, किसका यहाँ ठिकाना है
मुट्ठी भर साँसों की गठरी, मरघट तक पहुँचाना है
आत्मसात कर आत्मज्योति को
छोड़ो मोह खिलौने का
मत समझो हो गया अँधेरा, नहीं उजेला होने का
घड़ी बडी नाजुक है
.....

कितना काम पड़ा है घर में, तुम हो रोये जाते हो
नाहक मुँह को ढाँप रहे हो, नाहक रोये जाते हो
नई मसें फूटी हैं इनका, गौरव क्यों बिसराते हो
इन्हें पसीने के बदले तुम, आँसू से नहलाते हो
(अरे) कभी तो ख्याल करो तुम, नई मूँछ के कोने का
मत समझो हो गया अँधेरा, नहीं उजेला होने का
घडी बड़ी नाजुक है
.....

चलो मशीनें बुला रही हैं, वो खलिहान बुलाता है
नदियों का न्यौता आया है, धान खड़ा मुसकाता है
धरती देती है आवाजें, परवत शीश उठाता है
नई कली को बिना तुम्हारे, पल भर नहीं सुहाता है
उपलब्धि की बात करो कुछ
समय नहीं है खोने का
मत समझो हो गया अँधेरा, नहीं उजेला होने का
घड़ी बड़ी नाजुक है
.....

इससे ज्यादा और बुरी क्या, हम पर होने वाली है
मावस लीप चुकी है घर को, कल पड़वा उजियाली है
अब जो हिम्मत हार गये तुम, थामी नहीं कुदाली है
तो फिर समझो बिगड़ी किस्मत नहीं सँवरने वाली है
श्रम से काया पारस करलो
फिर सब कुछ है सोने का
मत समझो हो गया अँधेरा, नहीं उजेला होने का
घड़ी बड़ी नाजुक है
.....
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गीतों का यह संग्रह
दादा श्री बालकवि बैरागी के छोटे बहू-बेटे
नीरजा बैरागी और गोर्की बैरागी
ने उपलब्ध कराया।

 

अँधियारे से क्या डरते हो


 


श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘ओ अमलतास’ की दूसरी कविता 

यह संग्रह श्री दुष्यन्त कुमार को
समर्पित किया गया है।




अँधियारे से क्या डरते हो

अँधियारे से क्या डरते हो
अँधियारे से क्या डरते हो
क्या ऐसी बातें करते हो
आँख मसल कर देखो मीता!
पास तुम्हारे भोर खड़ी है

000

शबनम के शीतल पानी में, सारी-सारी रात नहाई
केश नहीं बाँधे हैं अब तक, चूनरिया भी नहीं सुखाई
आँखों में सपने आँजे हैं, इसने लेकर नाम तुम्हारा
कितनों ने राहें रोकी पर, इसने मुड़कर नहीं निहारा
सिफ तुम्हारे लिये लगाई सूरज की बिदिया माथे पर
बाँहों में वरमाला लेकर बिलकुल नई-निकोर खड़ी है
पास तुम्हारे भोर खड़ी है

000

अन्धे अम्बर की गठरी में, नहीं टटोलो तुम उजियारा
जब भी ढूँढोगे, पाओगे उसके घर में बस अँधियारा
शायद तुमने नाम सुना हो पूरब एक दिशा होती है
ज्योति कलश अपने माथे पर केवल वही सती ढोती है
जलता सूरज लिये गर्भ में, आज बही सतवन्ती प्राची
चाहे तुम मानो, मत मानो, लेकिन चारों ओर खड़ी है
पास तुम्हारे भोर खड़ी है

000

अगर डरे तुम अँधियारे से, तब तो डरते ही जाओगे
अगर मरण को नमन किया तो, प्रतिपल मरते ही जाओगे
जीवन का मतलब है ज्वाला, ज्वाला का मतलब है जलना
जलने का मतलब है अपना, पन्थ स्वयं आलोकित करना
एक बार यदि टूट गया तो, व्रत का अर्थ बदल जाता है
ज्वाल-व्रता युग की गायत्री, जलती हुई हिलोर खड़ी है
पास तुम्हारे भोर खड़ी है

000

आँखों की पुतली में बन्दी, रहता है आकाश बिचारा
ऐसा बन्दी भला करेगा, कैसे क्या उपकार तुम्हारा?
आँखों का संचालन मन से, मन का संचालन चिन्तन से
चिन्तन का संचालन तुमको, करना है खुद के जीवन से
आदर्शों की परिभाषाएँ, बड़ी विभाजित हैं, निर्मम हैं
जीवन की उजली आशाएँ, कितनी भाव विभोर खड़ी हैं
पास तुम्हारे भोर खड़ी है

000

नहीं आँख के अन्धे हो तुम, नहीं गाँठ के पूरे हो तुम
माना मैंने, मानव हो सो, थोड़े बहुत अधूरे हो तुम
किन्तु पूर्ण की परछाई भी, बिना उजाले कहाँ मिलेगी
और उजाले की गति गंगा, नहीं यहाँ या वहाँ मिलेगी
ओ मानव के मानस पुत्रों! वापस लो वक्तव्य तुम्हारा
आज्ञा देती हुई जिन्दगी, कोमल किन्तु कठोर खड़ी है
पास तुम्हारे भोर खड़ी है
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संग्रह के ब्यौरे
ओ अमलतास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - किशोर समिति, सागर।
प्रथम संस्करण 1981
आवरण - दीपक परसाई/पंचायती राज मुद्रणालय, उज्जैन
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - दस रुपये
मुद्रण - कोठारी प्रिण्टर्स, उज्जैन।
मुख्य विक्रेता - अनीता प्रकाशन, उज्जैन
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दिन वासन्ती

 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की पचीसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



दिन वासन्ती

दिन वासन्ती, रात वसन्ती
युग का पुण्य प्रभात वसन्ती

                -1-

पनघट-पनघट रस की बातें
ऋतुराजा की चढ़ी बारातें
दिशा-दिशा से बरस रही हैं
रँग-रस की बरसात वसन्ती
दिन वासन्ती रात वसन्ती
युग का पुण्य प्रभात वसन्ती

                 -2-

बगिया लीपे किरण किशोरी
हाँ, हाँ उस सूरज की छोरी
ऋतु-कुँवरी सरवर में उतरी
लेने को जलजात वसन्ती
दिन वासन्ती रात वसन्ती
युग का पुण्य प्रभात वसन्ती

                -3-

भँवरे गाएँ, कोयल बोले
कोंपल ने सब घूँघट खोले
बगिया-बगिया होने लग गए
यौचन के उत्पात वसन्ती
दिन वासन्ती रात वसन्ती
युग का पुण्य प्रभात वसन्ती
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।























 


तब भी




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की उनतीसवीं कविता 




तब भी

अधमरी उमंगें
अधमरा उल्लास
न कहीं वसन्त
न कहीं मधुमास।
मीलों तक पता नहीं
टेसू पर फूलों का
बीत गया सारा फागुन
पर ताला नहीं खुला
कामदेव के स्कूलों का।
आम बौराया नहीं
कोयल ने पंचम लगाया नहीं
रसीली तितली की तलाश में
एक भी भँवरा आया नहीं।
कुँवारे ही मर गए
अलसी और सरसों के फूल
सबकुछ अटपटा
सबकुछ ऊलजलूल।
डफ, चंग और माँदल पर
घनघोर उदासी
अलगोजे की तान तक
ले रही है उबासी।
तब भी वे मान रहे हैं
इसे वसन्त
शायद यही है अनन्त-का-अन्त।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली



















देश बन गया है जोड़मा-जोड़मी, छाये हुए हैं वहाँ केे पटेल बा’

यह मई 1970 की बात है। मध्य प्रदेश विधान सभा के गरोठ विधान सभा क्षेत्र का उप चुनाव था। इस विधान सभा क्षेत्र में गरोठ और भानपुरा तहसीलें शरीक हैं। दादा श्री बालकवि बैरागी तब मध्य प्रदेश सरकार में सूचना-प्रकाशन राज्य मन्त्री थे। दा’ साहब (स्वर्गीय) श्री माणक भाई अग्रवाल काँग्रेस के उम्मीदवार और दादा काँग्रेस की ओर से चुनाव-प्रभारी थे। तब आज की भाजपा, भारतीय जनसंघ थी और दीपक उसका चुनाव चिह्न। दीपक को मालवी बोली में ‘दीवो’ कहा जाता है।

यह वह जमाना था जब गाँव के लगभग सारे लोग, गाँव के पटेल बताए उम्मीदवार को वोट दे दिया करते थे। भानपुरा-गरोठ वाली सड़क पर जोड़मा-जोड़मी नाम का एक गाँव है। है तो एक ही बसाहट किन्तु दो हिस्सों में। एक हिस्सा सड़क की एक तरफ और दूसरा हिस्सा सड़क की दूसरी तरफ। एक हिस्सा जोड़मा और दूसरा जोड़मी। यह गाँव ‘जनसंघी गाँव’ माना जाता था। तब ऐसे ‘पक्के’ (आज की शब्दावली में ‘अन्ध समर्थक’) गाँवों में सेंध लगाना असम्भव प्रायः ही माना जाता था। इसलिए, ऐसे गाँवोे में दूसरी पार्टी औपचारिक से अधिक मेहनत नहीं करती थी। 

यह भानपुरा के काँग्रेस चुनाव कार्यालय की बात है। रात का समय था। दादा उस समय वहीं थे। दादा की एक पहचान उनकी वाक्पटुता और वाक्चातुर्य भी रही है। जोड़मा-जोड़मी का एक काँग्रेसी कार्यकर्ता आया और दादा से कहा कि उसका गाँव है तो पक्का जनसंघी लेकिन दादा यदि वहाँ के पटेल को समझा दें तो पूरा गाँव, ‘पलट’ सकता है। दादा ने कुछ ऐसा कहा - ‘अरे! यहाँ अपना और काम ही क्या है? चलो!’ और उस कार्यकर्ता को साथ लेकर दादा फौरन जोड़मा-जोड़मी के लिए चल दिए।

रात लगभग दस-सवा दस बजे दादा वहाँ पहुँचे। पटेल बा’ सो गए थे। उन्हें उठाया। उनके आँगन में बैठक जमी। जीप की आवाज ने पूरे गाँव को जगा दिया। आधे से ज्यादा गाँव पटेल बा’ के आँगन में जुट गया।

दादा ने सीधी बात शुरु की - ‘देखो पटेल बा’! मैं भी जानता हूँ और सब जानते हैं कि आप जनसंघ को वोट देते हो और दिलाते हो। मैं तो जनम से ही माँगनेवाला बैरागी हूँ। आज तुमसे काँग्रेस के लिए वोट माँगने आया हूँ। दो तो ठीक। नहीं दो तो भी कोई घाटा नहीं। लेकिन वो क्या बात है कि तुम न तो खुद काँग्रेस को वोट देते हो और न ही गाँव को देने देते हो?’

पटेल बा’ दादा को जानते भी थे और मानते भी थे। उन्होंने टालने की कोशिश की। लेकिन दादा मानो अड़ गए - ‘मत दो वोट! लेकिन बताओ तो सही कि क्यों नहीं? बोलो तो मालूम पड़े और मालूम पड़े तो सूझ पड़े कि पटेल बा’ को कोप भवन से बाहर कैसे निकालें!’

और बात शुरु हुई। पटेल बा’ अपनी बात कहें और दादा तुर्की-ब-तुर्की तार्किक जवाब दें। दादा यदि सरस्वती-कृपा और प्रत्युत्पन्नमतित्व से लैस तो पटेल बा’ के पास व्यावहारिकता और दीर्घ लोकानुभव के शुद्ध देसी घी से रची-पगी परिपक्वता। दो बोल रहे थे और गाँव सुन रहा था - ‘ये ले मेरा सवाल!’ ‘ये ले मेरा जवाब!’ ‘एक ने कही, दूजे ने ना मानी। दोनों कहे - मैं ज्ञानी! मैं ज्ञानी।’ मालवा के प्रख्यात लोक-नाट्य माच ‘तुर्रा-कलंगी’ में दो दल होते हैं। लेकिन उस रात जोड़मा-जोड़मी में दो लोगों में ‘तुर्रा-कलंगी’ खेला जा रहा था। 

कोई डेड़ घण्टे की ‘बातचीत’ में अन्ततः पटेल बा’ चुप हो गए। उस अँधेरी, आधी रात में दादा के चेहरे पर ‘गाँव के पलटने’ की आशा जगमगा उठी। लगभग चहकते हुए बोले - ‘तो पटेल बा’! अब तो काँग्रेस को वोट दोगे और दिलाओगे?’

पटेल बा’ कुछ इस तरह बोले मानो जबरन बुलवाया जा रहा हो। आवाज में न तो दम न जोश। बुझे, मरे मन से, नीची नजर किए बोले - ‘देखो बेरागीजी! आपकी एक-एक बात हवा होरा आनी खरी। आपकी एक-एक वात म्हारे गरे उतरीगी। पण बेरागीजी! बोट तो दीवा नेईऽज दाँगा। अबे अणी वात को कई जवाब के काँ दाँगा? तो बस, योई, के दीवो तो दीवो हे।’ (देखो बैरागीजी! आपकी एक-एक बात सवा सोलह आना सही। आपकी एक-एक बात मेरे गले उतर गई। लेकिन बैरागीजी! वोट तो दीपक को ही देंगे। अब इस बात का क्या जवाब कि क्यों देंगे? तो बस, यही, कि दीपक तो दीपक है।)

पटेल बा’ का जवाब सुनकर दादा बस, बेहोश ही नहीं हुए। शब्दों का कुशल खिलाड़ी, सरस्वती-पुत्र, कवि सम्मेलन के मंचों को लूटनेवाला अखिल भारतीय स्तर का कवि अवाक्, हतप्रभ, हक्का-बक्का, मेले में लुटे-पिटे, खाली हाथ आदमी जैसी दशा में था। उन्हें सम्पट-सूझ ही नहीं पड़ी कि उन्होंने क्या सुना! वे मानो संज्ञा शून्य, अचेत हो गए हों। सहज होने में, खुद में लौटने में उन्हें सामान्य से तनिक अधिक समय लगा। सामान्य हुए तो अपने स्वाभावानुसार ठठाकर हँसे और बोले - “पटेल बा’ की जय हो। आज आपने समझाया कि ‘अन्धोें के आगे रोना और आँखों का ओज खोना’ किसे कहते हैं।” कह कर, कोहनियों तक हाथ जोड़ कर उठते हुए नमस्कार किया और जीप में बैठते हुए बोले - ‘देखो पटेल बा’! हमें तो कोई फरक नहीं पड़ना। यहाँ से हमें पहले भी वोट नहीं मिलते थे। अब भी नहीं मिलेंगे। लेकिन गाँठ बाँध लो! जीतेगी तो काँग्रेस ही। और, जिस दीपक के तुम दीवाने बने बैठे हो ना! वह उजाला नहीं, अमावस उगलता है। खुद तो अँधेरे में डूबोगे ही, अपने पूरे गाँव को भी डुबाओगे। खूब मजे से डूबो और डुबाओ। लेकिन अँधेरे में जी नहीं पाओगे। तब, उजाले की जरूरत पड़े तो आवाज लगाना। आज माँगने आया था। तुम खाली हाथ लौटा रहे हो। लेकिन तब मैं, तुम्हारी आवाज खाली नहीं जाने दूँगा। मैं तो सूरज का वंशज हूँ। दौड़ कर आऊँगा और उजाले की गठरियाँ के ढेर तुम्हारे दरवाजे लगा दूँगा। जै रामजी की।’

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं, यह जाने दीजिए। मुझे तो यह घटना इन दिनों बेतरह याद आ रही थी सो परोस दी। आपको जो समझना हो समझ लें। बस! यह मत समझिएगा कि पूरा देश जोड़मा-जोड़मी बना हुआ है और गली-गली, घर-घर में बैठे पटेल बा’ बिना किसी बात के अपनीवाली पर अड़े हुए, पूरे गाँव को अँधेरे से ढँकने की जुगत में भिड़े हुए हैं।

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आज धरा बेहाल है

 



श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह
ललकार’ का नौवाँ गीत







दादा का यह गीत संग्रह ‘ललकार’, ‘सुबोध पाकेट बुक्स’ से पाकेट-बुक स्वरूप में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं हो पाई। इसीलिए इसके प्रकाशन का वर्ष मालूम नहीं हो पाया। इस संग्रह में कुल 28 गीत संग्रहित हैं। इनमें से ‘अमर जवाहर’ शीर्षक गीत के पन्ने उपलब्ध नहीं हैं। शेष 27 में से 18 गीत, दादा के अन्य संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ में संग्रहित हैं। चूँकि, ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है इसलिए दोहराव से बचने के लिए ये 18 गीत यहाँ देने के स्थान पर इनकी लिंक उपलब्ध कराई जा रही है। वांछित गीत की लिंक पर क्लिक कर, वांछित गीत पढ़ा जा सकता है।    


आज धरा बेहाल है

ओ चन्दा के किरण-किशोरों! ओ! री किरण-किशोरियों,
कह देना अपने बाबुल से, आज धरा बेहाल है

माली बदल गये बगिया के, सहमी-सहमी गन्ध है
कलियों की मृदु मुस्कानों पर, आज नया प्रतिबन्ध है
कोयलिया गुमसुम बठी है, रोती हार सिंगार है
अपशकुनों में होड़ लगी है, भँवरे सब लाचार हैं
प्यासी चकवी तड़प रही है संगीनों की नोंक पर
ऐटम का रनिवास रक्त से बेहद मालामाल है
कह देना अपने बाबुल से आज.....

पूनम को भी समझा देना, धरती पर अब आये ना
चाँदनियाँ की धवला साड़ी, पहन-पहन इतराये ना
सम्भवतः बारूद बँधेगी, इन धवला परिधानों में
षड़यन्त्रों के समाचार हैं, मानव की मुसकानों में
आँखों में है रक्त पिपासा, गीत अमन के ओठों पर
मौसम का मन ऐसा बिगड़ा, मिलती नही मिसाल है
कह देना अपने बाबुल से आज.....

महानाश का ज्वार उठा है, होश नहीं है होश को
हर मूर्छित गाली देता है, पास पड़े बेहोश को
तिनके तोड़ रही है भावी, झुका भूत का भाल है
वर्तमान के वक्षस्थल पर, विषधर अति विकराल है
ऐसे में कुछ लेखनियाँ ही, बातें करतीं होश की
टाले उनके तेवर ने ही, अब तक के भूचाल हैं
कह देना अपने बाबुल से आज.....

अपनी डोली नहीं उतारो, करो नहीं मन माना तुम
जिस दिन मेरा सरगम बदले, उस दिन वापस आना तुम
मेरे मन को मत उलभझाओ, अपने रूप जवानी पर
मेरी स्याही को मत लूटो, इस चाँदी के पानी पर
मेरा बोझा नहीं बँटेगा, इन रेशम की बाहों से
मनु पुत्रों की साँस-साँस में लिपटे लाख सवाल हैं
कह देना अपने बाबुल से.....
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इस संग्रह के, अन्यत्र प्रकाशित गीतों की लिंक - 

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गीतों का यह संग्रह
दादा श्री बालकवि बैरागी के छोटे बहू-बेटे
नीरजा बैरागी और गोर्की बैरागी
ने उपलब्ध कराया।

 

व्रत गीत




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘ओ अमलतास’ की पहली कविता

भूमिका, समर्पण, संग्रह के ब्यौरे और अनुक्रमणिका भी 






समर्पण

स्वर्गीय दुष्यन्त भाई को,
जो यदि जीवित होते तो
इन कविताओं को फेंक देते।
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भूमिका

कवि बैरागी तो परम वैष्णव हैं श्रौर काव्य-साधना तथा जीवन के शृंगार की कला वैष्णव ही जानता है। भावलोक का मोहक रूप राधा-मोहन की सत्ता से अभिभूत होकर ही तो कवित्व की साधना की जाती है। यह साधना आदमी को बूढ़ा नहीं होने देती। सत्रसत्ता की रूपसी जब सौन्दर्य-लिप्सु कवि को, मेरा संकेत भावना सौन्दर्य से है, जब अपने आलिंगन पाश में कसने को तैयार हो जाय तब कवि हो या मनीषी, तपस्वी हो या साधक विश्वामित्र जैसी दुविधाजनक स्थिति अवश्य हो जाती होगी।

किन्तु लगता है बालकवि इस मामले में अधिक सजग हैं। साहित्य या राजनीति के उथलेपन को वह समझता है। साहित्यकार की नैतिकता, मौलिकता उसने अभी खोई नहीं है। सुविधाभोगी दरबारी चिन्तन को ललकारने की उसमें क्षमता है।

‘ओ अमलतास!’ काव्य-पुतिका में 23 छोटी-छोटी कविताएँ या लघु गीत हैं जिनमें लगभग 10 रचनाएँ उर्दू शैली की गजलें हैं। स्वर्गीय दुष्यन्त को यह पुस्तिका समर्पित की गई है, झिझक के साथ यह ईमानदारी उल्लेखनीय है।

चिन्तामणी उपाध्याय
उज्जैन
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‘ओ अमलतास’ की पहली कविता 
व्रत गीत

कौन यहाँ गाता है मन से
कौन यहाँ जुड़ता जीवन से
तुमने कहा शुरु हो जाओ
अवसर को अब भुनवाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000

रोज रात को धोखा देता, रोज सुबह धोखा खाता हूँ
इसलिए कुछ लिखे बिना ही, हिन्दी का कवि कहलाता हूँ
आखिर मेरा क्या कर लेंगे, तुलसी, सूर, कबीरा, मीरा
रहकर तो देखें मेरे संग, पल भर में खा लेंगे हीरा
क्या होती है यह मौलिकता?
शाश्वत मूल्यों की नैतिकता?
आत्महनन ही श्रेष्ठ काव्य है, स्वयं सिद्ध कर दिखलाऊँगा
गाता है कुछ भी गाऊँगा

000

सुविधाभोगी नट-मर्कट को, जब से तुमने कवि माना है
मैंने तब ही सोच लिया था, मुझको जीवन भर गाना है
गाँव-गाँव गाता फिरता हूँ, सिर पर शिला उठाये भारी
पापी पेट! तुम्हारी जय हो, जठरानल! तेरी बलिहारी
तुमको मनोरंजन करना है.
मुझको एक गढ़ा भरना है
जब-जब मुझे महान् कहागे, तब-तब करतब दिखलाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000


अभिनव को अभिनय में बदला, पीड़ा को वेश्या कर डाला
आँसू को आवारा करके, कविता को पेशा कर डाला
शब्द-ब्रह्म का शव बेचूँगा, प्रतिदिन अर्थवती मण्डी में
तिल फर्क नहीं पाओगे, रण्डी और इस पाखण्डी में
कंचन वाला कोढ़ी लाओ
मुझको बस कंचन दिखलाओ हो
जिसके संग न कीड़े सोयें, उसके संग भी सो जाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000

चिन्तन सारा दरबारी है, लेखन सारा अखबारी है
कुम्भीपाक नरक में जी लूँ, इतनी मेरी तैयारी है
लाख लानतें मारे दर्पण, बड़ा सख्त है मेरा पानी
मैंने सुख को साध लिया है, किसकी परवा, क्या हैरानी?
दोनों ही तट खुद तोडूँगा
सारे अमृत घट फोडूँगा
विष वैतरणी का विषधर हूँ, विष से बाहर मर जाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

000

लेखन की रेखा से रीती, बेशक मुझको मिली हथेली
किन्तु कलम के पाँवों बँध गई, वजनी एक रेशमी थैली
इतना वजन पाँव में बाँधे, कोई कैसे चल पायेगा?
तिल भर कलम नहीं चल पाई, बन्दा तो कवि कहलायेगा
न्यौता दो मुझको बुलवाओ
कवि कहकर माला पहिनाओ
अगर तमाशा है ताली का खूब, तालियाँ पिटवाऊँगा
गाना है कुछ भी गाऊँगा

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अनुक्रम

01 व्रत गीत
02 अँधियारे से क्या डरते हो
03 एक गीत गाकर तो देखो
04 मेरे नगर क्षमा कर देना
05 आज तो करुणा करो
06 क्यों तुमने यह बिरवा सींचा
07 फूल तुम्हारे, पात तुम्हारे
08 सेनापति के नाम
09 यौवन के उत्पात बसन्ती
10 आलिंगन के बाहर भी प्रिय!
11 ओ अमलतास!
12 ओ किरनों कंचन बरसाओ
13 लहद से मैयत मेरी
14 मुरझा गये कमल
15 बड़ा मजा है
16 इन्कलाब है
17 चुप रहो
18 पूछिये मत
19 त्यौहार की सुबह
20 मन्दिर जिसे समझ रहे हैं
21 आप बस गुमनाम
22 फिर भी गा रहा हूँ
23 चाँद से
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संग्रह के ब्यौरे

ओ अमलतास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - किशोर समिति, सागर।
प्रथम संस्करण 1981
आवरण - दीपक परसाई/पंचायती राज मुद्रणालय, उज्जैन
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - दस रुपये
मुद्रण - कोठारी प्रिण्टर्स, उज्जैन।
मुख्य विक्रेता - अनीता प्रकाशन, उज्जैन
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ये फागुन और याद तुम्हारी

 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की चौबीसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



ये फागुन और याद तुम्हारी

अँखियाँ हुईं घटा की सखियाँ
पीड़ा की पनिहारी
ये फागुन और याद तुम्हारी

000

शरद धुला अम्बर का आँगन
धरती के कण-कण पर फागन
हर मधुकर के अधर उजागर
हर कलिका की साध सुहागन

मेरी साधें अपराधिन-सी
देखें अलख अटारी
ये फागुन और याद तुम्हारी

000

मादकता किसने बिखराई
बहक गई सारी अमराई
चीर दिया दिल हर टेसू का
नहीं समाती है अरुणाई

वेणु सुनाई पड़ती है पर
पूजे किसे पुजारी
ये फागुन और याद तुम्हारी

000

सारी दुनिया देती ताने
तुम भी आज बने अनजाने
किसके आगे दुखड़ा रोऊँ
मेरी बस मेरा मन जाने

खूब दिया रे देने वाले
तेरी भी बलिहारी
ये फागुन और याद तुम्हारी
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

 




















पराजय-पत्र




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की अट्ठाईसवीं कविता




पराजय-पत्र

अपराजिता ही नहीं
अपरा हो तुम
अद्भुत! अपूर्व!!
शील और सहनशीलता
का प्रतिमान
तुम्हें भी नहीं है
जिसका अनुमान।

शील और सहनशीलता
के नाम पर
सदा होती रही है
तुम्हारी परीक्षा।
क्या-क्या नहीं सहा तुमने?
कब-कब नहीं सहा तुमने
मुझे?
माँ बहिन पत्नी और प्रतिमा
हर रूप में, हर रिश्ते में
भार रहा मैं ही तुम पर।

तुम्हारे ‘समर्पण’ का
सदैव किया है दुरुपयोग मैंने।
यह ‘मैं’
यहाँ पुरुषवाची ‘मै’ है।
इसी ने तुम्हें भरमाया
भटकाया और भीरु बनाया
इसी ने तुम्हें रिश्तों के
कमल-वन में उलझाया।

माँ के सामने मैं मचला
बहिन के सामने में
सीधा नहीं चला
पत्नी के पतिव्रत पर
तिल भर नहीं पिघला
और बना-बनाकर
देवी रूपों में
तुम्हारी प्रतिमाएँ
चढ़ाता रहा फूल
लगाता रहा अगरबत्तियाँ
करता रहा प्रार्थनाएँ
माँगता रहा मनौतियाँ।
और तुम?
सहती रहीं हर क्षण
मेरे सारे पाखण्ड।

विजेता के रूप में
जब-जब भी आया
तुम्हारे सामने
तुम मुसकराती रहीं
कभी लोरी तो कभी
लावण्य गाती रहीं ।
और इशारों-ही-इशारों में
चुपचाप मुझे समझाती रहीं कि,
पुत्र से लेकर पति और पुरुष तक के
मेरे हर रूप को तुम
खूब पहचानती हो
तब भी तुम मुझे अपना
न जाने क्या-क्या मानती हो।

और तब बालू की नींव पर
खड़ा मेरा दुर्दम्य दर्प
परास्त होकर
हस्ताक्षर करता है
अपने पराजय-पत्र पर
जिसपर लिखा है
अपराजिता ही नहीं
अपरा हो तुम
शील और सहनशीलता
का प्रतिमान
तुम्हें भी नहीं है
जिसका अनुमान।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
          205-बी, चावड़ी बाजार, 
          दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली