भगीरथों की प्रतीक्षा में पुरखे

इन दिनों देश में पुरखों लेकर जमकर मारा-मारी मची हुई है। एक के पुरखों पर दूसरा झपट्टे मार रहा हैदूसरा उन्हें बचाने की कोशिशें कर रहा है। दुनिया दोनों की हकीकत जानती है। तमाशा देख-देख हँस रही है।

मुझे वीरेन्द्र सिंहजी भदौरिया  याद आ गए। बात 1997-98 की है। तब, आज के वाणिज्यिक कर विभाग को विक्रय कर विभाग याने सेल्स टैक्स डिपार्टमेण्ट कहा जाता था। सेवानिवृत्ति के बाद भदौरियाजी अभी ग्वालियर में बसे हुए हैं। तब वे इन्दौर में पदस्थ थे। उनके घर जाना हुआ। मैं घर में घुसा, भदौरियाजी ने दरवाजा बन्द किया। अचानक ही मेरी नजर बन्द दरवाजे पर (अन्दर की ओर) लगे एक ‘चिपकू’ (‘स्टीकर’ का यह हिन्दी नाम कैसा लगा आपको?) लगा हुआ था। उस पर लिखा हुआ फौरन नहीं पढ़ पर पाया। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि सुभाषितों वाले ऐसे ‘चिपकू’ तो दरवाजों पर, बाहर की ओर, लोगों को दिखाने/पढ़ाने  के लिए लगाए जाते हैं। भला, बन्द दरवाजे के पीछे ‘चिपकू’ लगाने का क्या मतलब? 

भदौरियाजी मुझे बैठने के लिए आग्रह कर रहे थे लेकिन मैं अनसुनी कर ‘चिपकू’ की ओर बढ़ गया। ‘चिपकू’ पर, अंग्रेजी में लगभग चार पंक्तियों की इबारत थी। उसका हिन्दी भावानुवाद कुछ इस तरह था - ‘यह तो अच्छी बात है कि हम अपने पुरखों पर गर्व करें। लेकिन उससे अधिक अच्छी बात यह होगी कि पुरखे हम पर गर्व करें।’ इबारत का सन्देश मुझे बहुत भाया। तब से लेकर मैं इसका उपयोग करता चला आ रहा हूँ। जब मैं बीमा ग्राहकों के लिए अपने केलेण्डर छपवाता था तब एक बार, एक पन्ने पर यह वाक्य भी छपवाया था। इबारत पढ़कर, बन्द दरवाजे के पास खड़े-खड़े ही मैंने भदौरियाजी से पूछा - ‘इतनी अच्छी बात आपने दरवाजे के पीछे क्यों लगाई? बाहर लगाते तो सब लोग पढ़ते!’ भदौरियाजी बहुत धीमा बोलते हैं। उसी धीमी आवाज में जवाब दिया - ‘यह लोगों को पढ़वाने के लिए नहीं है। यह तो खुद के पढ़ने के लिए है और लगातार पढ़ते रहने के लिए है ताकि अनजाने में भी ध्यान से न उतरे।’ 

’चिपकू’ की वह इबारत तो कभी भूला नहीं। हाँ, पुरखों की लूट-खसोट और उन्हें बचाने की झूमा-झटकी देखते हुए भदौरियाजी का जवाब बेतरह याद आ रहा है।

ऐतिहासिक उपलब्धियों वाली जैसी समृद्ध विरासत काँग्रेस को मिली, वह अनुपम, अप्रतिम, अन्यों के लिए ईर्ष्याकारक ही है। इसके विरासतदाताओं की संख्या अब भी अनगिनत ही है। लेकिन नायक याद रह जाते हैं, योद्धा विस्मृत तो जाते हैं। काँग्रेस में भी ऐसा ही हुआ लेकिन इसमें भी हुआ यह कि नायकों में भी प्रमुख नायक याद रखे गए और अन्य नायक या तो भुला दिए गए या नेपथ्य में धकेल दिए गए। एक बात और हुई। जिस काँग्रेस के नाम पर नायकों और योद्धाओं ने लड़ाई लड़ी, वह काँग्रेस कोई राजनीतिक दल नहीं, मूलतः जनआन्दोलन थी। यह संयोग ही रहा कि आजादी की लड़ाई के इन नायकों ने काँग्रेस को राजनीतिक दल का स्वरूप दिया। दलगत राजनीति की हानियों को भविष्यदृष्टा गाँधी फौरन ही भाँप गए थे। इसीलिए, आजादी के बाद गाँधी ने काँग्रेस को विसर्जित करने की सलाह दी थी। 

गाँधी ने ‘काँग्रेस में भारत’ नहीं, ‘भारत में काँग्रेस’ देखी थी। इसीलिए जब देश के पहले मन्त्रि मण्डल की सदस्य सूची उनके सामने गई तो उन्हें सूची अधूरी लगी और डॉक्टर अम्बेडकर का नाम खुद लिखा दिया था। नेहरू को ताज्जुब हुआ था। उन्होंने कहा था - ‘बापू! आम्बेडकर तो काँग्रेस के और आपके मुखर विरोधी हैं!’ तब गाँधी ने हँसते-हँसते प्रतिप्रश्न किया था - ‘तुम भारत का मन्त्रि मण्डल बना रहे हो या काँग्रेस का?’ यह थी गाँधी की काँग्रेस। काँग्रेसी यदि गाँधी का यह प्रतिप्रश्न याद रखते तो वे आज की अपनी दुर्दशा से बच जाते। 

आजादी के बाद काँग्रेसियों ने अपने पुरखों के पुण्यों का लाभ दोनों हाथों से उठाया लेकिन उनके सन्देश, उनकी भावनाएँ, उनकी कामनाएँ (निश्चय ही जानबूझकर) भूल गए। लेकिन पुरखों की पुण्याई आखिर कब तक असर करती? सत्ता सुन्दरी की बाँहों में लिपटे, मदमस्त काँग्रेसियों ने पुरखों की पूँजी में बढ़ोतरी की कोई कोशिश नहीं की। वे पितरों को भूल गए, केवल सत्ता याद रही। आज उनके हाथ रीते हैं और कूल्हे कुरसियों के लिए मचल रहे हैं। लगता है, उन्हें तो श्राद्ध-पक्ष में भी पितर याद नहीं आए। अतृप्त पितर यदि अपने वंशजों को कोस रहे हों और नाराजी जता रहे हों तो क्या आश्चर्य! आज के काँग्रेसी ऐसे वंशज हैं जिनके पुरखे दुनिया में सराहे जाते हैं लेकिन अपने ही घर में उपेक्षित हैं। 

दूसरी ओर संघ परिवार की दशा इससे अधिक विचित्र है। संघियों के पुरखे परम प्रसन्न हैं। वे अपने वंशजों पर निश्चय ही गर्व कर रहे होंगे। संघियों ने अपने पुरखों की आकांक्षाएँ, मनोकामनाएँ पूरी करने की कोशिशें निरन्तर कीं और आज इस मुकाम पर हैं। किन्तु संघ परिवार का दुर्भाग्य यह कि इनका एक भी पुरखा ऐसा नहीं जो वर्तमान भारत की वैश्विक छवि के अनुरूप, अनुकूल हो। भारत की आजादी में इनमें से किसी का भी, व्यक्तिगत रूप से या सांगठानिक रूप से रंच मात्र भी योगदान नहीं। इसके विपरीत इन सबका इतिहास अंग्रेजों के समर्थन का है। भगतसिंह, चन्द्रशेखर जैसे जिन क्रान्तिारियों के नाम पर संघ परिवार देश में भावोद्वेलन करता रहता है, उन क्रान्तिकारियों को भी संघी नायकों ने, अंग्रेजों का विरोध छोड़कर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में लग जाने की सलाह दी। जिन सावरकर को ‘वीर’ कहते हैं, जिन्हें भारत रत्न देने को अपना अगला कार्यक्रम बताते हैं उन्हीं सावरकर ने, देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने के बजाय अपने प्राण बचाने के लिए छह-छह बार माफी माँगते हुए वादा किया कि यदि उन्हें जीवित रहने दिया गया तो वे आजीवन अंग्रेजों के प्रति वफादार रहेंगे। अंग्रेज सरकार ने उनकी माफियाँ न केवल मंजूर कीं बल्कि वफादारी के लिए पुरुस्कृत करते हुए उन्हें पेंशन भी दी। संघ परिवार का संकट यह है कि उनके पास एक भी ऐसा पुरखा नहीं है जिसका नाम वे छाती ठोक कर, गर्वपूर्वक देश-दुनिया के सामने जा सकें। दुनिया भी जानती है कि इनके पुरखे भारत की आजादी के दीवानों के विरुद्ध अंग्रेजों के मददगार थे। इसे संघ परिवार की विडम्बना कहिए या संकट कि ये ऐसे वंशज हैं जिनके पुरखे तो इन पर गर्व कर रहे होंगे लेकिन दुनिया के सामने अपने पुरखों पर गर्व करना इनके लिए सम्भव नहीं हो रहा। इसीलिए इन्हें काँग्रेसियों के पुरखे हड़पने पड़ रहे हैं।

पुरखों को लेकर काँगेसियों और संघियों का संकट सचमुच में रोचक है। काँग्रेसियों के पुरखे अपने वंशजों से शायद ही सुखी, सन्तुष्ट, प्रसन्न हों। अपने पुरखों के साथ काँग्रेसियों ने जो व्यवहार किया वह उनकी शर्मिन्दगी और दुर्दशा का कारण बना हुआ है। उन्होंने पुरखों की पुण्याई भोगी। खुद कुछ नहीं किया। संघ परिवार ने अपने पुरखों की सार-सम्हाल तो खूब की लेकिन वे जानते हैं कि उनके पुरखे  पुण्यवान नहीं। इसलिए वे काँग्रेसियों के पुण्यवान पुरखों को हड़पने में लगे हैं।

एक कुटुम्ब के पुरखे पुण्यवान हैं तो उनके वंशज निकम्मे हैं। वे अपने पुरखों पर गर्व करते हैं लेकिन उनके पुरखे अपने वंशजों पर गर्व नहीं कर पा रहे। दूसरे कुटुम्ब के पुरखे खुश हैं। अपने वंशजों पर गर्व कर रहे होंगे। लेकिन उनके वंशज जानते हैं कि उनके पुरखे पुण्यवान नहीं हैं। इसलिए उन पर गर्व नहीं कर पा रहे।

आपको नहीं लगता कि दोनों परिवारों के पुरखे अपने उद्धार के लिए अपने-अपने भगीरथ की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
-----


अभी-अभी, आधी रात को मालूम हुआ कि ‘सुबह सवेरे’, 
भोपाल ने इसे गुरुवार 07 नवम्बर 2019 को छापा



यह काम कर सकते हैं राहुल गॉंधी


लगा था कि हरयाणा और महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों के बाद राहुल गाँधी समाचारों-समीक्षाओं के केन्द्र में आ जाएँगे। शुरुआती दो-तीन दिनों तक ऐसा हुआ भी लेकिन दोनों राज्यों में सरकारें बनाने को लेकर हुई उठापटक ने राहुल गाँधी को नेपथ्य में धकेल दिया। लेकिन भारतीय राजनीति पर पोलेण्ड की वह कहावत शब्दशः लागू होती है जिसमें कहा गया है कि मेंढक जब भी पैदा होता है, सात औंस वजन का ही होता है। आदमी आज भले ही विस्मृति के अँधेरे गोदाम में फेंक दिया जाए। लेकिन यदि वह सशरीर जीवित है तो कभी भी सम्पूर्ण प्रभावशीलता से मंच पर केन्द्रीय भूमिका में नजर आ सकता है। 

राहुल गाँधी के प्रशंसक बड़ी संख्या में मिल जाएँगे किन्तु उन पर राजनीतिक भरोसा करनेवालों की संख्या उसके मुकाबले बहुत छोटी होगी। वे ऐसे राजनेता हैं जिसमें लोग (काँग्रेस से बाहर के भी) केन्द्रीय सत्ता के शीर्ष-पुरुष होने की सम्भावना देखते हैं। लेकिन खुद राहुल गाँधी इसके लिए तैयार नजर नहीं आते। चूँकि ईश्वर ने यह व्यवस्था नहीं की कि हम किसी के मन की बात जान सकें (अच्छा ही किया वर्ना हम, चौबीसों घण्टे एक-दूसरे को तमाचे मारते ही नजर आते) इसलिए हम सब अपने-अपने अनुमान ही लगा सकते हैं। ये अनुमान भी हम अपनी पसन्द, अपनी सुविधा और अपनी मनोदशा के अनुसार ही लगाते हैं। इस तरह अनुमान लगाते समय मोटे तौर पर हम खुद को सामनेवाले की जगह पर रखकर सोचते हैं। मैं भी कुछ इसी तरह कुछ अनुमान लगा रहा हूँ।

मुझे लगता है, राहुल महत्वाकांक्षी नहीं हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति अवसरों की प्रतीक्षा नहीं करता। वह या मुश्किलों में अवसर खोज लेता है या अवसर झपट लेता है। अपने प्रतिद्वन्द्वी के अवसर हड़पने में न तो देर करता है न ही लोक-लिहाज पालता है। सत्ता की राजनीति में तो इसे ही कौशल माना जाता है। राहुल गाँधी को तो खूब अवसर मिले, बार-बार मिले, लगातार मिले, तश्तरी में रखे गए गुलाबजामुनों की तरह मिले। लेकिन राहुल गाँधी ने अत्यन्त निस्पृहता (इसे ‘अनिच्छा’ कहना अधिक समीचीन लग रहा है मुझे) से अपनी भूमिका निभाई।

आगे मुझे लगता है, राहुल गाँधी में या तो समुचित आत्म विश्वास की कमी है या फिर वे जोखिम लेने में हिचकिचाते हैं। ‘नो रिस्क, नो गेन्स। मोअर रिस्क, मोअर गेन्स’ वाली अंग्रेजी कहावत राजनीति पर ही नहीं, जिन्दगी की हर साँस पर लागू होती है। लगता है, राहुल को सब कुछ रेडीमेड चाहिए। एक राजनेता के रूप में उन्होंने ऐसा कोई उद्वेलन, आन्दोलन नहीं किया जो जन-मन को मथ सके। मैं इसी बात को यूँ कहना चाहूँगा कि उन्हें मिले अवसरों को अनुकूल राजनीति परिणामों में बदलने का कौशल अब भी उनमें विकसित नहीं हो पाया है।

और आगे मुझे लगता है, राहुल गाँधी खुद को लेकर अस्पष्ट या कि हिचकिचाहट से ग्रस्त हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे सादगी, शुचिता से परिपूर्ण लोक-राजनीति करें या सत्ता की राजनीति। मनमोहनसिहं ने उन्हें मन्त्री पद प्रस्तुत किया था किन्तु उन्होंने मना कर दिया। इसके विपरीत, उन्हें जब-जब प्रधान मन्त्री के रूप में उल्लेखित किया तब-तब उन्होंने कभी प्रभावी प्रतिवाद नहीं किया। 

अगली बात मेरा अनुमान नहीं, सुनिश्चित धारणा है। सत्ता की राजनीति करनेवाले नेता में जो लोक रंजक वाक्पटुता, आक्रामकता-चतुराई (जिसे अंग्रेजी में ‘कनिंगनेस’ कहते हैं), अपनी बात से (बेशर्मी से) पलट जाने जैसे ‘गुणों’ का जो न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य होता है, वह राहुल गाँधी में नहीं है। उनकी यह विशेषता, उनकी सबसे बड़ा बाधा है। वे ‘भद्र-लोक’ बनकर साफसुथरी राजनीति करना चाहते हैं जो हमारे गले नहीं उतरती। हम वह विचित्र और पाखण्डी समाज हैं जो राजनीति में ईमानदार और भले लोगों की अनुपस्थिति की मुक्त-कण्ठ आलोचना करते हैं और भले-ईमानदार उम्मीदवार को कभी वोट नहीं देते। जब भला-ईमानदार आदमी वोट माँगने आता है तो हम उसके प्रति दया और सहानुभूति जताते हुए, उसके मुँह पर ही कहते हैं - ‘अरे! आप तो भले आदमी हैं। आप हमारे काम कैसे करवाएँगे?’ (यह बात मैंने अनुमान से नहीं लिखी है। इन्दौर के सुपरिचित साहित्यकार सदाशिव कौतुक एक बार निगम पार्षद का चुनाव लड़े थे। तब उन्हें अपने मतदाताओं से यह बात कई बार सुननी पड़ी थी। कौतुकजी को ‘भला आदमी’ का प्रमाण-पत्र देनेवाले मतदाताओं ने कौतुकजी की जमानत जप्त करवा दी थी।)

तो क्या राहुल गाँधी राजनीति में ‘मिसफिट’ हैं? उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए? इसका निर्णायक जवाब तो राहुल गाँधी ही दे सकते हैं किन्तु मुझे लगता है, राहुल गाँधी चाहें तो भी ऐसा नहीं कर सकेंगे। उनकी हालत ‘बाबाजी तो कम्बल छोड़ना चाहते हैं लेकिन कम्बल बाबाजी को नहीं छोड़ रहा’ वाली है। आत्मविश्वासविहीन हो चुके, सत्ता की गुड़भेली के काँग्रेसी चींटे उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे। उनके पास राष्ट्रीय स्तर पर ‘वोट अपील’ वाला कोई चेहरा नहीं है। राहुल गाँधी को काँग्रेस की राजनीति में बनाए रखना उनकी लाचारी है और वहाँ बने रहना राहुल गाँधी की ‘कृतज्ञता भरी विवशता’ है। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों ने यह भी साबित कर दिया है कि राहुल की पसन्द के लोग चुनावी सफलताएँ दिलाने में सर्वथा नाकामयाब रहे। दोनों राज्यों के स्थापित क्षत्रपों ने ही काँग्रेस की वापसी कराई है। जाहिर है, सांगठानिक बदलाव की रणनीति के लिहाज से राहुल गाँधी विफल ही रहे हैं।

तो क्या, राहुल अब काँग्रेस के लिए अनुपयोगी हो गए हैं? मुझे लगता है, ऐसा बिलकुल नहीं है। आज की काँग्रेस वह काँग्रेस है ही नहीं जिसने देश को आजादी दिलाई थी। वह काँग्रेस तो कपूर हो गई। आज तो उसकी छाया मात्र है। ऐसे में, परिदृष्य पर राहुल गाँधी की कार्यशैली, व्यवहार और मिजाज को देखते हुए लगता है, राहुल गाँधी काँग्रेस को फिर से काँग्रेस बना सकते हैं। आज के काँग्रेेसियों को पता ही नहीं है कि काँग्रेस क्या है। उन्हें काँग्रेस का इतिहास ही पता नहीं। वे केवल उस काँग्रेस को जानते और मानते हैं जो कुर्सी दिलाती है। आजादी के आन्दोलन में काँग्रेस की भूमिका, भारत विभाजन में काँग्रेस और गाँधी-नेहरू-सरदार की भूमिका, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, अमर शहीद भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों से काँग्रेस के अन्तर्सम्बन्ध जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषयों पर सामान्य स्तर के काँग्रेसियों की घिग्घी बँध जाती है। धारा 370 को लेकर काँग्रेसियों की दुविधा जगहँसाई कराती है। काँग्रेस और काँग्रेसियों की वर्तमान दशा कुबेर सम्पदा वाले निर्धन वंशजों जैसी है। राहुल गाँधी, काँग्रेसियों को काँग्रेस से मिलवाने का यही आधारभूत काम कर सकते हैं।

काँग्रेस के शुरुआती समय में सेवादल ने लोगों को काँग्रेस से और वस्तुतः राष्ट्रीय एकता से जोड़ने का काम किया था। राहुल गाँधी उसी सेवादल को पुनर्जीवित कर शुरु से शुरुआत कर सकते हैं। प्रबुद्ध लोगों से कांग्रेस पूरी तरह कट चुकी है। उनसे जुड़ना चाहिए। गाँव-गाँव में चौराहों पर छोटी-छोटी गोष्ठियों के जरिए लोगों तक पहुँचने की शुरुआत दूरगामी और स्थायी नतीजे दे सकती है। 

एक बात और। राहुल गाँधी आज भी भारत की आत्मा से दूर ही लगते हैं। वे यायावर की तरह गाँवों में जाएँ, लोगों के बीच रहें और भारत को जानें-समझें। उन्हें दिल्ली और केमरों का मोह छोड़ कर भूखे-नंगे लोगों की पीड़ा अनुभव करनी चाहिए। देश के हालात कमोबेश 1947 से पहलेवाले बनते जा रहे हैं। राहुल गाँधी अपनी उलझन दूर करें, जोखिम लेने की हिम्मत जुटाएँ, निर्लिप्त भाव से लोक-राजनीति करें। यह काँग्रेस की नहीं, देश की जरूरत है। 

देश और काँग्रेस के राजनीतिक इतिहास में राहुल दर्ज हो चुके हैं। इतिहास में उनकी यह मौजूदगी धूमकेतु की तरह उल्लेखित हो या चिंगारी से ज्वाला बनने की तरह, यही देखनेवाली बात होगी।
----- 

भोपाल के दैनिक 'सुबह सवेरे' ने आज इसे छापा