रोटरी अन्तरराष्ट्रीय के पूर्व मण्डलाध्यक्ष श्री आलोक बिल्लोरे का यह लेख मुझे श्री रमेश चोपड़ा (बदनावर, जिला धार, मध्यप्रदेश) ने ई-मेल से भेजा है। पढ़ें और विचार करें।
गाँधीजी के विचार, ‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो’ पर हम पुनर्विचार कर सकते है ?
भगवान ने ये तीन गुण ( सुनना, देखना और बोलना) दे कर मनुष्य को श्रृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी बना दिया। पशु भी सुनते हैं और देखते व चिल्ला सकते हैं पर बोल नहीं सकते । चिल्लाने और बोलने में अन्तर होता है, इसीलिए तो कहते हैं कि चिल्लाओ मत, बोलो...और वह भी तोल- मोल कर। किन्तु हम चर्चा कर रहे हैं, देखने और सुनने की क्रिया पर।
देखना और सुनना एक प्राकृतिक क्रिया है, जिस पर देखने और सुनने वाले का कोई वश नहीं होता। व्यक्ति वही सुनता या देखता है जो बोला या किया जा रहा हो।
गाँधी जी का यह विचार कि ‘बुरा मत बोलो’, निश्चित रूप से न केवल पालन करने योग्य है बल्कि, सम्भव भी है। परन्तु बुरा मत देखो या बुरा मत सुनो! कैसे सम्भव है ? जो हो रहा है, जब तक उसे देख या सुन नहीं लिया जाता, उसके अच्छे या बुरे होने का निर्णय कैसे किया जा सकेगा ? इसलिए बुरा जब भी कहा या किया जाए, उसे सुनना या देखना न केवल मजबूरी है बल्कि आवश्यक भी।
कुछ बुरा हो रहा है, एक ऐसी घटना जो चल रही है, बार बार हो रही है, ऐसे में क्या गाँधीजी के बन्दर की तरह अपनी आँखें बन्द कर सकते हैं? कोई बुरा बोल रहा है, क्या गाँधीजी के बन्दर की तरह अपने कान बन्द कर सकते हैं? इस तरह का बर्ताव तो बहुत ही अनुचित और कर्तव्य से मुँह मोड़ना कहा जायेगा।
समाज में सुधार लाने के लिए बुरी बातों को सुनना और बुरे होते को देखना नितान्त आवश्यक है। जब तक हम उसको आमने-सामने की लड़ाई नहीं बनायेंगे, सुधार कैसे सम्भव है? आँख या कान बन्द कर लेने से काम नहीं चलेगा। यह तो वही बात हुई कि तूफान आया और हम समझें कि सर नीचे कर लेने से वो निकल जाएगा और सब ठीक हो जाएगा? उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी को अपशब्द कह रहा हो, या आपके लिए ही गलत भाषा का उपयोग कर रहा हो, तो क्या आप अपने कान बन्द कर लेंगे? या सोचिये कि कोई व्यक्ति किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर रहा हो, या किसी महिला या कमजोर व्यक्ति के साथ अन्याय कर रहा हो, तो क्या आप गाँधीजी के बन्दर की तरह आँखें बन्द कर लेंगे? क्या यह बुद्धिमत्ता या वीरता होगी?
मुझे खुद से शिकायत है कि यह बात मेरी समझ में इतने वर्षो बाद क्यों आई? गाँधी जी ने यह बात कही, इस पर देश में अभी तक प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई? हमने क्यों अपने बच्चों को विद्यालयों में यह पाठ पढाया? हमने कैसे इतनी अर्थहीन बात को, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, सहर्ष मान लिया और अपनी आगे वाली पीढ़ी को भी यही सिखाया? हमने क्यों इसका पुरजोर विरोध नहीं किया ?
आइये! हम हिम्मत करें , आगे बढें और स्वीकार करें कि ये विचार उपयुक्त नहीं हैं। आइये! हम अपने बच्चों को बताएँ कि यदि कहीं बुरा हो रहा है तो उसे अवश्य देखें, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें, उसका विरोध करें, उसकी पुनरावृत्ति न हो ऐसा प्रयास करें। यदि कहीं पर बुरी बात कही जा रही है तो उसे बहुत गौर से सुनें, उस पर मंथन करे, उसमें क्या बुराई है और उसे कैसे सुधारा जा सकता है इस पर विचार करें।
गाँधीजी के प्रति पूरी निष्ठा और सम्मान के साथ ही यह सब कहा गया है। उनके द्वारा किये गए अत्यन्त असाधारण और सामयिक कार्यों के प्रति असहमति प्रकट करने का कोई आशय नहीं है। किन्तु अब समय आ गया है जब यह विचार होना चाहिए कि अहिंसा की क्या परिभाषा हो, क्षमा करने के क्या मापदण्ड हों, अधिकारों की लड़ाई एक निर्बल व्यक्ति को कैसे लड़नी चाहिए?
आज आतंकवाद की विकराल समस्या देशों के बीच लड़ाइयों का सबब बन चुकी है। जिस कायरता और धर्म की आड़ लेकर, धर्मावलम्बियों को अँधेरे में रख कर, मर्यादाओं की सभी सीमाओं को तोड़ कर जो कुछ किया जा रहा है, वह पाशविक ही तो कहलायेगा? कैसे आँख और कान बन्द कर लें?
हो सकता है कि जब आजादी की लड़ाई लड़ी गई उस समय हम इतने कमजोर, असहाय, दबे, कुचले थे कि अहिंसा और क्षमा का रास्ता ही सबसे आसान और सफल होने का श्रेष्ठतम मार्ग कहलाया या सिर्फ मजबूरी ही रही होगी। अनुमान लगाइए कि हम ताकतवर होते, सक्षम होते, सुसंगठित होते, पराक्रमी होते, तो क्या सिर्फ शान्ति, धैर्य, क्षमा, अहिंसा की बात उन निर्दयी, क्रूर, स्वार्थी, चरित्रहीन अंग्रेजो के समक्ष करते जिन्होंने बर्बरता और अन्याय बरतने में कोई कसर नहीं रखी?
किसी भी समस्या का वही समाधान सही मान लिया जाता है, जो हमें सफलता दिलाता है, क्योंकि सफलता ही मापदण्ड और मार्ग को निश्चित कर देती है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समस्या और समाधान दोनों ही परिस्थितियों के दास हैं। एक समस्या किसी दूसरी परिस्थिति में समस्या ही नहीं रह जाती। समाधान भी परिस्थितियों के अनुसार बदल जाते हैं। उसी तरह अच्छाइयाँ , बुराइयाँ, सिद्धान्त और यदि गलत ना हो तो ये कहा जा सकता है कि धर्म, मान्यताएँ, विश्वास, आधार, श्रध्दा ,भावनाएँ भी समय के साथ बदलती जाती हैं।
अब समय आ गया है कि गाँधीजी के इन विचारों पर पुनर्विचार किया जाए। क्यों नहीं नारा दिया जाये कि बुरा अवश्य देखो, बुरा अवश्य सुनो, उससे आँख नहीं चुराना है बल्कि ध्यान से सुन कर और गौर से देख कर उस बुरे के विरुद्ध सक्रिय होना है, क्योंकि क्रिया में ही जीवन है और जड़ता मृत्यु का पर्यायवाची। आँख और कान बन्द करना जड़ता ही प्रदर्शित करता है। अगर धृतराष्ट्र अपने ज्ञान चक्षु और कान खुले रखते तो महाभारत की नौबत ही नहीं आती।
पद पर आसीन कोई व्यक्ति यदि अधर्मी, लोभी, कामी , अहंकारी, निकृष्ट, अमर्यादित, अक्रियाशील, अन्यायी व अभद्र हो तो उसके द्वारा किये गए गलत कृत्यों को सुन-देख कर उस पर प्रतिकिया करना नितान्त आवश्यक हो जाता है। आँख और कान कैसे बन्द रखे जा सकते है? परम आवश्यक हो जाता है कि उसे उसका स्थान दिखाया जाए। सबका कर्तव्य हो जाता है कि ऐसे चरित्र के व्यक्ति को अधिकार की आसन्दी से दूर ही रखा जावे।
परिवर्तन निरन्तर प्रक्रिया है। कान खोल कर सुनना और बहुत गौर से देखना नितान्त आवश्यक है। अब हमारा नारा हो - बुराई को मिटाने के लिए बुरा अवश्य देखो, बुरा अवश्य सुनो और उस पर तुरन्त प्रतिक्रिया करो। प्रयास करो कि दोहरे चरित्र के व्यक्तियों को उनके पद के कारण जो सम्मान मिल रहा है उसे उस लायक बनाने में हम उसको मार्गदर्शन दें, सज्जनतावश गलत कार्यो के विरोध में प्रतिक्रिया ना करना भी एक अपराध है।
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