गाँधी विचार पर पुनर्विचार: एक दृष्टिकोण

रोटरी अन्तरराष्ट्रीय के पूर्व मण्डलाध्यक्ष श्री आलोक बिल्लोरे का यह लेख मुझे श्री रमेश चोपड़ा (बदनावर, जिला धार, मध्यप्रदेश) ने ई-मेल से भेजा है। पढ़ें और विचार करें।

गाँधीजी के विचार, ‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो’ पर हम पुनर्विचार कर सकते है ?

भगवान ने ये तीन गुण ( सुनना, देखना और बोलना) दे कर मनुष्य को श्रृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी बना दिया। पशु भी सुनते हैं और देखते व चिल्ला सकते हैं पर बोल नहीं सकते । चिल्लाने और बोलने में अन्तर होता है, इसीलिए तो कहते हैं कि चिल्लाओ मत, बोलो...और वह भी तोल- मोल कर। किन्तु हम चर्चा कर रहे हैं, देखने और सुनने की क्रिया पर।


देखना और सुनना एक प्राकृतिक क्रिया है, जिस पर देखने और सुनने वाले का कोई वश नहीं होता। व्यक्ति वही सुनता या देखता है जो बोला या किया जा रहा हो।


गाँधी जी का यह विचार कि ‘बुरा मत बोलो’, निश्चित रूप से न केवल पालन करने योग्य है बल्कि, सम्भव भी है। परन्तु बुरा मत देखो या बुरा मत सुनो! कैसे सम्भव है ? जो हो रहा है, जब तक उसे देख या सुन नहीं लिया जाता, उसके अच्छे या बुरे होने का निर्णय कैसे किया जा सकेगा ? इसलिए बुरा जब भी कहा या किया जाए, उसे सुनना या देखना न केवल मजबूरी है बल्कि आवश्यक भी।


कुछ बुरा हो रहा है, एक ऐसी घटना जो चल रही है, बार बार हो रही है, ऐसे में क्या गाँधीजी के बन्दर की तरह अपनी आँखें बन्द कर सकते हैं? कोई बुरा बोल रहा है, क्या गाँधीजी के बन्दर की तरह अपने कान बन्द कर सकते हैं? इस तरह का बर्ताव तो बहुत ही अनुचित और कर्तव्य से मुँह मोड़ना कहा जायेगा।


समाज में सुधार लाने के लिए बुरी बातों को सुनना और बुरे होते को देखना नितान्त आवश्यक है। जब तक हम उसको आमने-सामने की लड़ाई नहीं बनायेंगे, सुधार कैसे सम्भव है? आँख या कान बन्द कर लेने से काम नहीं चलेगा। यह तो वही बात हुई कि तूफान आया और हम समझें कि सर नीचे कर लेने से वो निकल जाएगा और सब ठीक हो जाएगा? उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति किसी को अपशब्द कह रहा हो, या आपके लिए ही गलत भाषा का उपयोग कर रहा हो, तो क्या आप अपने कान बन्द कर लेंगे? या सोचिये कि कोई व्यक्ति किसी के साथ अभद्र व्यवहार कर रहा हो, या किसी महिला या कमजोर व्यक्ति के साथ अन्याय कर रहा हो, तो क्या आप गाँधीजी के बन्दर की तरह आँखें बन्द कर लेंगे? क्या यह बुद्धिमत्ता या वीरता होगी?


मुझे खुद से शिकायत है कि यह बात मेरी समझ में इतने वर्षो बाद क्यों आई? गाँधी जी ने यह बात कही, इस पर देश में अभी तक प्रतिक्रिया क्यों नहीं आई? हमने क्यों अपने बच्चों को विद्यालयों में यह पाठ पढाया? हमने कैसे इतनी अर्थहीन बात को, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, सहर्ष मान लिया और अपनी आगे वाली पीढ़ी को भी यही सिखाया? हमने क्यों इसका पुरजोर विरोध नहीं किया ?


आइये! हम हिम्मत करें , आगे बढें और स्वीकार करें कि ये विचार उपयुक्त नहीं हैं। आइये! हम अपने बच्चों को बताएँ कि यदि कहीं बुरा हो रहा है तो उसे अवश्य देखें, उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करें, उसका विरोध करें, उसकी पुनरावृत्ति न हो ऐसा प्रयास करें। यदि कहीं पर बुरी बात कही जा रही है तो उसे बहुत गौर से सुनें, उस पर मंथन करे, उसमें क्या बुराई है और उसे कैसे सुधारा जा सकता है इस पर विचार करें।


गाँधीजी के प्रति पूरी निष्ठा और सम्मान के साथ ही यह सब कहा गया है। उनके द्वारा किये गए अत्यन्त असाधारण और सामयिक कार्यों के प्रति असहमति प्रकट करने का कोई आशय नहीं है। किन्तु अब समय आ गया है जब यह विचार होना चाहिए कि अहिंसा की क्या परिभाषा हो, क्षमा करने के क्या मापदण्ड हों, अधिकारों की लड़ाई एक निर्बल व्यक्ति को कैसे लड़नी चाहिए?


आज आतंकवाद की विकराल समस्या देशों के बीच लड़ाइयों का सबब बन चुकी है। जिस कायरता और धर्म की आड़ लेकर, धर्मावलम्बियों को अँधेरे में रख कर, मर्यादाओं की सभी सीमाओं को तोड़ कर जो कुछ किया जा रहा है, वह पाशविक ही तो कहलायेगा? कैसे आँख और कान बन्द कर लें?


हो सकता है कि जब आजादी की लड़ाई लड़ी गई उस समय हम इतने कमजोर, असहाय, दबे, कुचले थे कि अहिंसा और क्षमा का रास्ता ही सबसे आसान और सफल होने का श्रेष्ठतम मार्ग कहलाया या सिर्फ मजबूरी ही रही होगी। अनुमान लगाइए कि हम ताकतवर होते, सक्षम होते, सुसंगठित होते, पराक्रमी होते, तो क्या सिर्फ शान्ति, धैर्य, क्षमा, अहिंसा की बात उन निर्दयी, क्रूर, स्वार्थी, चरित्रहीन अंग्रेजो के समक्ष करते जिन्होंने बर्बरता और अन्याय बरतने में कोई कसर नहीं रखी?


किसी भी समस्या का वही समाधान सही मान लिया जाता है, जो हमें सफलता दिलाता है, क्योंकि सफलता ही मापदण्ड और मार्ग को निश्चित कर देती है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समस्या और समाधान दोनों ही परिस्थितियों के दास हैं। एक समस्या किसी दूसरी परिस्थिति में समस्या ही नहीं रह जाती। समाधान भी परिस्थितियों के अनुसार बदल जाते हैं। उसी तरह अच्छाइयाँ , बुराइयाँ, सिद्धान्त और यदि गलत ना हो तो ये कहा जा सकता है कि धर्म, मान्यताएँ, विश्वास, आधार, श्रध्दा ,भावनाएँ भी समय के साथ बदलती जाती हैं।


अब समय आ गया है कि गाँधीजी के इन विचारों पर पुनर्विचार किया जाए। क्यों नहीं नारा दिया जाये कि बुरा अवश्य देखो, बुरा अवश्य सुनो, उससे आँख नहीं चुराना है बल्कि ध्यान से सुन कर और गौर से देख कर उस बुरे के विरुद्ध सक्रिय होना है, क्योंकि क्रिया में ही जीवन है और जड़ता मृत्यु का पर्यायवाची। आँख और कान बन्द करना जड़ता ही प्रदर्शित करता है। अगर धृतराष्ट्र अपने ज्ञान चक्षु और कान खुले रखते तो महाभारत की नौबत ही नहीं आती।
पद पर आसीन कोई व्यक्ति यदि अधर्मी, लोभी, कामी , अहंकारी, निकृष्ट, अमर्यादित, अक्रियाशील, अन्यायी व अभद्र हो तो उसके द्वारा किये गए गलत कृत्यों को सुन-देख कर उस पर प्रतिकिया करना नितान्त आवश्यक हो जाता है। आँख और कान कैसे बन्द रखे जा सकते है? परम आवश्यक हो जाता है कि उसे उसका स्थान दिखाया जाए। सबका कर्तव्‍य हो जाता है कि ऐसे चरित्र के व्यक्ति को अधिकार की आसन्दी से दूर ही रखा जावे।


परिवर्तन निरन्तर प्रक्रिया है। कान खोल कर सुनना और बहुत गौर से देखना नितान्त आवश्यक है। अब हमारा नारा हो - बुराई को मिटाने के लिए बुरा अवश्य देखो, बुरा अवश्य सुनो और उस पर तुरन्त प्रतिक्रिया करो। प्रयास करो कि दोहरे चरित्र के व्यक्तियों को उनके पद के कारण जो सम्मान मिल रहा है उसे उस लायक बनाने में हम उसको मार्गदर्शन दें, सज्जनतावश गलत कार्यो के विरोध में प्रतिक्रिया ना करना भी एक अपराध है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001।

मैं अकेला तो नहीं?


जीवन में सब कुछ प्रिय और मनोनुकूल नहीं होता। आपका नियन्त्रण केवल आप पर ही होता है, अन्य पर नहीं। ऐसे में, आप कितने ही ‘समय-पालनकर्ता’ हों, दूसरे भी वैसे ही हों, यह अपेक्षा और आग्रह ही कर सकते हैं। इससे अधिक कुछ भी नहीं। किन्तु अपेक्षा तो दुःखों का मूल है! इसी कारण मैं कुछ दुःखी हूँ। जिन पर मेरा नियन्त्रण नहीं, वे मेरे मनोनुकूल व्यवहार करें, यह अपेक्षा की और दुःखी हुआ।
कुछ दिनों से मैं तीन मिस्त्रियों (मेकेनिकों) से दुःखी हूँ। मेरी व्यथा-कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ और उम्मीद कर रहा हूँ ऐसा केवल मेरे साथ नहीं हो रहा होगा।


सबसे पहले साबका पड़ा ईश्वर से। चौधरी ब्रदर्सवाले चौधरी बन्धुओं के सौजन्य से ईश्वर से सम्पर्क हुआ। बहुत ही मीठे और विनम्र व्यवहारवाला ईश्वर, सिंचाई की और घरेलू मोटरों का उत्कृष्ट मेकेनिक है। शुरु-शुरु में तो बब्बू सेठ (श्रीराजेन्द्र चौधरी) के माध्यम से ईश्वर की सेवाएँ लेता रहा। किन्तु गए कुछ समय से मैं सीधे ही उससे सम्पर्क कर रहा हूँ। ईश्वर की खूबी यह है कि वह दी गई तारीख और समय पर कभी नहीं आता। बड़ी खूबी यह कि काम से इंकार भी नहीं करता। जब मैं चिढ़ कर उसे बुरा-भला कहता हूँ और कहता हूँ कि अब मत आना तो वह उसी शाम को प्रकट हो जाता है। आकर मेरी पत्नी से पूछताछ कर काम शुरु कर देता है और मुझे देखकर हँसने लगता है। उसकी हँसी मेरे गुस्से को अधिक टिकने नहीं देती। उसकी विनम्रता मुझ जैसे कुटिल आदमी को भी साध लेती है और मैं उसके सामने परास्त हो जाता हूँ। कहता हूँ - ‘अब तुझे नहीं बुलाऊँगा।’ वह मुँह फेरकर, हँसते हुए कहता है - ‘तो बताओ जरा, किसे बुलाओगे।’ और मैं कुनमुनाते हुए उसके पास से हट जाता हूँ। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सम्विदा शिक्षक की जिस नौकरी के लिए लोग हाथ-पाँव मारते हैं, सिफारिशें करवाते हैं, वह लगी-लगाई नौकरी छोड़कर ईश्वर ने खुद का रोजगार विकसित कर लिया है। अपने व्यवसाय पर गर्व करते हुए वह कहता है कि वह चाहे तो एक सम्विदा शिक्षक को नौकरी पर रख सकता है।

जिस दूसरे मेकेनिक के हत्थे मैं इन दिनों चढ़ा हुआ हूँ उसका नाम शैलू है। इसकी शकल मुझे याद नहीं क्योंकि इससे मैं अब तक एक बार ही मिला हूँ। मेरे ‘अध्यक्षजी’ के माध्यम से मैं शैलू के सम्पर्क में आया हूँ। ‘अध्यक्षजी’ याने नीम चौक वाले, रतलाम में डिश टीवी के मालिक श्रीमहेन्द्र बोथरा। इनसे मैंने लकड़ी का कूलर खरीदा था। उसी में कुछ काम कराना है। शैलू पहले काम कर चुका है। कोई चार महीनों से मैं उसकी मिन्नतें, चिरौरियाँ कर रहा हूँ लेकिन वह है कि सुन ही नहीं रहा। आठ-दस बार तो वह ‘श्योअर शॉट’ आने की तारीखें दे चुका है किन्तु अब तक नहीं आया है। अध्यक्षजी का बेटा सौरभ और खुद अध्यक्षजी एक-एक बार उसे कह चुके हैं। 16 दिसम्बर पक्की हुई थी। मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ कि वह 16 दिसम्बर 2010 से पहले जरूर आ जाए।


तीसरे मेकेनिक के बारे में तो सोच कर ही मेरी आत्मा काँप जाती है। उसकी शकल मैं जिन्दगी भर नहीं भूल सकूँगा। मेरी कुटिलता उसका असली नाम जाहिर करने को उकसाती है किन्तु विवेक रोकता है। सो उसका काल्पनिक नाम इमदाद मान लीजिए। मेरे आत्मीय और बहुत ही तहजीबदार एजेण्ट प्रिय खालिद (पूरा नाम मोहम्मद खालिद कुरैशी) के जरिए इस मेकेनिक से मेरा साबका पड़ा। इसने जो व्यवहार दिया वह कल्पनातीत है। इतना ही कह सकता हूँ कि इससे तो भगवान आप सबको और मेरे दुश्मनों (यदि कोई है तो) को भी बचाए। मेरा फ्रीज ठीक करने के लिए यह आया था। मुझे लग रहा है कि मैंने गए जनम में ईश्वर के प्रति बहुत बड़ा अपराध किया था जो इस जनम में इमदाद से मिलना पड़ा। फ्रीज का कम्प्रेशर बदलने के लिए इसने मुझसे पूरी रकम ली। कम्प्रेशर बदला। एक महीना भी नहीं हुआ कि कम्प्रेशर खराब हो गया। मैं किसे कहता? इमदाद को ही! मैं फोन करूँ और वह या तो फोन उठाए ही नहीं या बन्द कर दे। एक-दो बार उठाया भी तो सीधे मुँह बात नहीं करे। मैंने कहा कि वह कम्प्रेशर का बिल मुझे दे दे ताकि मैं दुकान से उसे बदलवा सकूँ क्योंकि कम्प्रेशर ग्यारण्टी की अवधि में है। इमदाद ने सीनाजोरी से कहा - ‘आपको बिल नहीं मिलेगा।’ मैंने पूछा - ‘क्यों?’ अपनी सम्पूर्ण अशिष्टता से उसने कहा -‘मेरी मर्जी। आपको जो करना हो, कर लो।’ मैं कर ही क्या सकता था? सो, कुछ नहीं किया। सिवाय इसके कि भगवान से प्रार्थना करूँ कि इस मेकेनिक की सेवाएँ लेने का दुर्भाग्य किसी को न मिले। मुझे इस बात का विशेष मलाल है कि इसके कारण बेचारा खालिद जैसा नेक लड़का मुझसे मिलते समय हर बार संकोच में पड़ता है।


यह सब पढ़ने के बाद अपनी यादों की गठरी खोलिएगा और बताइएगा कि मैं अकेला ही हूँ या आप भी मेरे साथ हैं?
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मोदी की प्रशंसनीय पहल


अब नरेन्द्र मोदी केवल, राज्य द्वारा प्रेरित, प्रोत्साहित ओर संरक्षित सामूहिक नस्लवादी नर संहार के लिए ही नहीं, भारतीय लोकतन्त्र की श्रेष्ठ सेवा के लिए भी याद किए जाएँगे।
मैं उन लोगों में से एक हूँ जो नियमित और निरन्तर यह माँग करते रहे हैं कि मतदाताओं को, सारे उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के लिए मतपत्र/ईवीएम पर ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प उपलब्ध कराया जाना चाहिए और यह प्रावधान करने के बाद मतदान अनिवार्य किया जाना चाहिए।


मेरी सुनिश्चित धारणा रही है कि हमें ‘मताधिकार’ तो है किन्तु ‘चयनाधिकार’ नहीं है। मतदाताओं की इसी विवशता का दुरुपयोग करते हुए राजनीतिक दल, ‘प्रयाशी चयन’ में ईमानदारी, चरित्र, सादगी, शिक्षा, योग्यता, पात्रता जैसे गुणों को दरकिनार कर ‘जीतने की सम्भावनावाले’ व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाते हैं। प्रत्याशियों के चयन के इस पैमाने पर प्रायः ही धन-बली और बाहु-बली ही खरे उतरते हैं। ऐसे लोगों को अधिसंख्य मतदाता स्वीकार करने की मनःस्थिति मे नहीं होते और इसी कारण वे मतदान नहीं करते।


यह ‘दीर्घ प्रतीक्षित प्रावधान’ देश को भ्रष्टाचार सहित अनेक समस्याओं से मुक्ति दिलाएगा और विधायी सदनों में हम ऐसे लोगों को देख सकेंगे जिन्हें वहाँ होना चाहिए।


भारत सरकार को भेजी अपनी 22 सिफारिशों में, भारत निर्वाचन आयोग ने यह प्रावधान भी शामिल किया हुआ था जिसमें से भारत सरकार ने कुल 5 सिफारिशें मानी जिनमें यह प्रावधान स्वीकार करनेवाली सिफारिश शामिल नहीं है। भारत सरकार ने जो चूक की उसे नरेन्‍द्र मोदी ने अपने स्तर पर, अपने प्रदेश में दुरुस्त कर भारत सरकार को रास्ता दिखाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अन्य प्रदेश भी इस ‘मोदी-मार्ग’ पर चलने का साहस जुटाएँगे।
चूँकि इस विधेयक के विस्तृत ब्यौर सामने नहीं आए हैं इसलिए कहना पड़ रहा है कि इस प्रावधान के तहत अस्वीकार किए गए उम्मीदवारों को पुनः उम्मीदवार बनने से रोकने का प्रावधान भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। ऐसा किए बिना मोदी की यह सामयिक, ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण पहल अप्रभावी हो जाएगी।


मुझ जैसे तमाम लोगों की ओर से नरेन्द्र मोदी को बधाइयाँ और अभिनन्दन।
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सड़कछाप आदमी आदमी की बातें


‘जब खुद ही ऐसे प्रपंच करते हैं तो वे झूठ और भ्रष्टाचार का विरोध किस मुँह से करते हैं?’ यह सवाल दाग कर वह चला गया।


यह सत्रह दिसम्बर की बात है। उससे तीन दिन पहले, चौदह दिसम्बर को मेरे कस्बे के नगर निगम के चुनावों के लिए मतदान हुआ था। सत्रह को मतगणना हो रही थी । मैं घर से निकलने को ही था कि वह आ गया-बीमा पाॅलिसियों की जानकारी लेने। बीमा से शुरु होकर बात चुनाव से गुजरते हुए अखबारों पर आ गई।


‘ये ऐसा क्यों करते हैं?’ उसने पूछा।


‘क्या करते हैं?’ मैंने प्रति प्रश्न किया।


उत्तर में उसने जो कुछ कहा वह मेरे लिए नया नहीं था किन्तु रतलाम जैसे मझौले कस्बे का एक औसत आदमी इस दिशा में सोचता है, चिन्ता करता है! यह मेरे लिए नई बात थी।


उसे, चुनावी विज्ञापनों को छापने को लेकर अखबारों के चाल-चलन पर आपत्ति थी। विज्ञापनों को समाचारों की तरह प्रस्तुत करने से वह अप्रसन्न था। ‘यह तो हम पाठकों की जगह पर अतिक्रमण है!’ उसने सरोष कहा। ‘विज्ञापन छापने से उन्हें कौन रोकता है? रोक सकता है भला? यह तो उनका धन्धा है? अपना धन्धा करने से उन्हें कौन रोकता है? अरे! विज्ञापन छापना है तो खूब छापो, धड़ल्ले से छापो लेकिन समाचार बनाकर तो मत छापो।’ उसकी इस समझ पर मुझे हैरत ही हुई। सड़कछाप आदमी को नासमझ मानने की भूल करनेवालों के लिए वह सशक्त उत्तर था। उसका कहना था कि अखबारवाले जब विज्ञापनों को समाचार की तरह छापते हैं तो इसका सबसे पहला मतलब तो यही है कि वे खुद जानते हैं कि वे गलत कर रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो वे उसे विज्ञापन के रूप में ही छापते। यह अनुचित आचरण है। मुनाफा जब सोच-विचार के केन्द्र में आ जाता है तो आदमी उचित-अनुचित नहीं देख पाता। विज्ञापनों को समाचार की तरह छाप कर वे सारे उम्मीदवारों को एक साथ लोकप्रिय और भारी बहुमत से जीतता हुआ बताते हैं। अब भला, सारे उम्मीदवार कैसे जीत सकते हैं? जीतेगा तो कोई एक ही! सबको जीतता हुआ बताना ही पाठकों के साथ बेईमानी है। पाठकों तक जानबूझकर सही बात नहीं पहुँचाई जा रही है।


उसका कहना था कि अखबार जब तक नहीं छपता तभी तक वह अखबार मालिक की मिल्कियत होता है। छपने की प्रक्रिया शुरु होते ही पाठकों की मिल्कियत बन जाता है। पाठकों की मिल्कियत के साथ बलात्कार करना अपने आप में अपराध है।


उसे इस बात पर भी आपत्ति थी कि विज्ञापनों को ‘इम्पेक्ट फीचर’ या ‘प्रायोजित प्रस्तुति’ या फिर ऐसा ही कोई नाम देकर छापते हैं। गोया, बन्दूक को आइस्क्रीम का नाम देकर वे चाहते हैं कि पाठक उसे आइस्क्रीम ही समझ लें। ऐसा करके अखबारवाले शुतुरमुर्ग की तरह रेत में चोंच गड़ा लेते हैं। वे समझते हैं कि पाठक कुछ नहीं समझता। यह उनकी नासमझी है। पाठक तो वह भी समझ लेता है जो अखबार मालिक खुद भी नहीं जानता या छुपाना चाहता है। जिस अखबार मालिक को अपने पाठकों की बुद्धि पर भरोसा नहीं वह सबसे बड़ा निर्बुद्धि है। जब समाचार की तरह छपे विज्ञापन को भी पाठक विज्ञापन समझ लेता है तो फिर वह कोई भी नाम दे दे, पाठक उसकी (अखबार मालिक की) और खबर की असलियत तो पहली ही नजर में जान लेता है। इन्हें समझना चाहिए कि ऐसे प्रपंच रचने से उनकी साख खराब होती है और विश्वसनीयता पर शंका होने लगती है।


‘अब आप ही बताइए! पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहते हैं। खम्भे ऐसे होते हैं? अगर खम्भे ऐसे ही हैं तो चल लिया अपना लोकतन्त्र। भट्टा ही बैठना है ऐसे तो।’ उसका गुस्सा थम नहीं रहा था।


मैंने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन उसे मेरा चुप रहना भी खल रहा था। बोला - ‘आप भी तो पत्रकार हो। आप क्यों नहीं कुछ बोलते, करते?’ मैंने कहा कि मैं वैसा पत्रकार नहीं हूँ जैसा वह समझ रहा है। अखबारवालों से भी मेरी दोस्ती ऐसी नहीं कि मैं उनके निर्णय को प्रभावित कर सकूँ। मेरी बात उसे बहाना लगी। बोला - ‘आपकी बातों में कोई दम नहीं है। आप तो हम सबको चुप न रहने के लिए, अनुचित के विरुद्ध बोलने के लिए कहते हैं। फिर आप चुप क्यों हैं?’ मैंने कबूल किया कि उसकी बात सच है। मैंने चुप नहीं रहना चाहिए। बोलना चाहिए। मैंने कहा - ‘मैं कोशिश करूँगा।’ ‘यहीं तो इण्डिया मात खा गया। जिन पर भरोसा होता है वे ही भरोसा तोड़ते हैं। हम जैसे सड़कछाप लोग क्या कर सकते हैं? आप जैसों से कहने के सिवाय हमारी पहुँच आगे नहीं है। लेकिन आप भी कोशिश करने की बात करके अपनी चमड़ी बचा रहे हैं।’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था उसकी बातों का। बड़ी मुश्किल से मैंने कहा - ‘ये लोग भले ही कितने ही खराब क्यों न हों। अपने को काम तो इन्हीं से चलाना पड़ेगा।’


उत्तर में वह झल्ला कर वही बात कह कर उठ गया जो मैंने शुरु में लिखी है - ‘जब खुद ही ऐसे प्रपंच करते हैं तो वे झूठ और भ्रष्टाचार का विरोध किस मुँह से करते हैं?’


इस सबमें आप अपने आप को किस जगह पाते हैं-मेरी जगह या उसकी जगह?
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एकान्त के बुनकर


उस दोपहर तेज बरसात हो रही थी। बरसात के तेवर देखने बाहर आया तो देखा-आचार्यजी सामनेवाले मकान के बरामदे में खड़े हैं। आचार्यजी याने सेवा निवृत्त प्राध्यापक डॉक्टर मणीशंकरजी आचार्य। हिन्दी के ज्ञाता, एकाधिक पुस्तकों के रचयिता, ऑरो आश्रम को समर्पित। आचार्यजी की बिटिया विनीता और दामाद संजय ओझा के मकान के ठीक सामने मेरा निवास है। सो, उस मकान के बरामदे में खड़े आचार्यजी मुझे नजर आने ही थे। वे बेटी-दामाद और नातियों से मिलने आए थे। विनीता-संजय बाहर थे। घर पर ताला लगा था। आचार्यजी के लिए यह शायद अनपेक्षित था। सो, असमंजस में थे और चूँकि बरसात से बचने का कोई उपकरण उनके पास नहीं था, सो प्रतीक्षा कर रहे थे कि बरसात रुके तो जाएँ।


मैंने उन्हें आवाज दी और मेरे निवास पर आने को कहा। उन्होंने ससंकोच इंकार कर दिया। मुझे न तो बुरा लगा और न ही अटपटा। ऐसे समय हम सब वैसा ही करते हैं। मैं सड़क पार कर उनके पास गया और तनिक अधिक जोर से अपना आग्रह दुहराया। वे फिर भी तैयार नहीं हुए। मैंने कहा - ‘आप इस दशा में खड़े रहेंगे तो विनीता और संजय मुझे बुरा-भला कहेंगे। पधारिए, आधा कप चाय आपके साथ पीने का सौभाग्य मुझे प्रदान कीजिए।’ वे अत्यधिक संकोच से, शायद बेमन से, मात्र संस्कार-शिष्टाचार के अधीन मेरे साथ आए।


मैं घर पर अकेला ही था। चाय मुझे ही बनानी थी। यह जानकर आचार्यजी और अधिक असहज हो गए। लेकिन वे कर ही क्या सकते थे। फँस गए थे। मैं खुश था। मेरे प्रिय और आदरणीय नायकों में से एक, मेरे घर में विराजमान था। मैं उन्हें ‘सारस्वत पुरुष’ कहता हूँ। गोया, ‘बैरन बरसात’ मेरे लिए ‘मन की मुराद पूरी करने वाली सौगात’ बन कर आई थी।


तेज और लगातार हो रही बरसात से उपजी ठण्डक के बीच कुनकुनी चाय का प्याला थामना हाथों को भला लग रहा था। आचार्यजी ने चाय का पहला सिप लिया और कहा - ‘आप चाय अच्छी बना लेते हैं।’ मैं झेंपा। किन्तु अगले ही क्षण मन ही मन हँस पड़ा। अच्छे लोग सदैव अच्छाई ही देखते हैं।


श्रीअरविन्द, श्रीमाँ और ऑरो आश्रम आचार्यजी के प्रिय विषय हैं। वे इन सबके अध्येता भी हैं, भाष्यकार भी और विद्यार्थी भी। अरविन्द दर्शन मुझे शुरु से ही क्लिष्ट और दुरुह लगा है। इसकी शब्दावली मुझे आक्रान्त करती है। मैंने, अपनी इसी उलझन पर उनसे कुछ देर बात की। हम चाय पीने लगे।


वे चुप बैठे थे। मौन मैंने ही तोड़ा। पूछा कि नई उमर के कवि-लेखक कभी उनसे मिलने आते हैं? आचार्यजी ने तत्क्षण कहा - ‘कोई नहीं आता।’ मैंने बात आगे बढ़ाई और पूछा कि उनकी पीढ़ी के, लिखने-पढ़नेवाले लोग कभी उनसे सम्पर्क करते हैं? इस बार आचार्यजी ठिठके। चाय का कप टेबल पर रखा। दोनों हाथों की अँगुलियाँ आपस में फँसाई, इसी दशा में दोनों हाथ माथे तक ले गए, मानो कुछ सोच रहे हों। क्षणोपरान्त बोले - ‘नहीं। उनमें से भी कोई सम्पर्क नहीं करता।’ आठ शब्दों का यह वाक्य कहने में उन्होंने मानो मीलों लम्बा सफर तय कर लिया। खिन्नता उनके चेहरे पर आकर मानो बाहर हो रही बरसात में बदल गई।


कमरे में भारीपन छा गया था। मैने कठिनाई से पूछा, लगभग हकलाते हुए - ‘आचार्यजी! क्या हम लोग एकान्त बुन रहे हैं?’ ‘बिलकुल सही कहा आपने।’ आचार्यजी बोले - ‘बुन ही नहीं रहे हैं, अपने आप को उस एकान्त का कैदी भी बना बैठे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई आए और इस कैद से हमें निकाले।’ कहकर उन्होंने लम्बा निःश्वास लिया और टेबल पर कप ऐसे रखा, मानो बुरी तरह थक गए हों।


अब हम दोनों चुपचाप बैठे थे। बरसात का शोर कम हो गया था। बरसात हो तो रही थी किन्तु ऐसी नहीं कि रुकना पड़े। वे उठे। मैं भी। हम दोनों बाहर आए। विनीता-संजय अभी भी नहीं आए थे। मकान पर ताला जस का तस लटक रहा था। उन्होंने अपनी स्कूटी स्टार्ट की। मुझे धन्यवाद दिया। मैंने प्रणाम किया। सस्मित मौन उत्तर देकर वे चले गए।


मैं उन्हें जाते हुए देखता रहा। वे जा रहे थे, शायद अपने एकान्त में कैद होने के लिए। मुझे मेरे घर लौटना था-अपने एकान्त में कैद होने के लिए।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

धन्यवाद ब्लॉग! धन्यवाद मित्रों!


बाँटने से खुशी बढ़ती है और दुःख कम होता है। सो, अपनी खुशी में बढ़ोतरी के लालच के वशीभूत मैं, आज अपनी खुशी आप सबके साथ बाँट रहा हूँ।

बरसों से मेरी इच्छा थी कि मैं ‘जनसत्ता’ में छपूँ। दसियों बार वहाँ अपना लिखा भेजा। एक बार भी नहीं छपा। कोई एक पखवाड़ा पहले चमत्कार हो गया। मेरी साध पूरी हो गई। मेरी पोस्ट ताजमहल और मेरा मन को जनसत्ता ने छापा, शायद ‘समान्तर’ स्तम्भ के तहत। उस दिन, पूरे दिन भर मैं पगलाया सा रहा। चाहता रहा कि सब लोग उसे देखें, चर्चा करें और मुझे फोन करें। कुछ सीमा तक मेरी यह चाहत पूरी हुई भी।

आज फिर लगभग वही स्थिति है। आज ‘दैनिक भास्कर’ ने अपने मध्यवर्ती पृष्ठ पर अपने समस्त संस्करणों में मेरा एक व्यंग्य छापा है। आज सवेरे से मित्रों के फोन आ रहे हैं। बड़ौदा, रायपुर, कोटा, भोपाल, उज्जैन, इन्दौर से अनेक मित्रों ने बधाई दी है। आज मेरा फोन सवेरे से घनघना रहा है। एक मित्र ने दैनिक भास्कर के इण्टरनेट संस्करण पर पढ़कर चैन्नई से फोन किया। आज फिर मैं पगलाया हुआ हूँ। उस बच्चे की तरह खुश हूँ जिसे वह मनचाहा खिलौना मिल गया है जिसकी माँग वह लम्‍बे समय से कर रहा था।

मैंने अपने आप को कभी भी साहित्यकार और लेखक नहीं माना। इस क्षण भी नहीं मानता। हाँ, साहित्य और साहित्यकार/लेखक प्रेमी अवश्य मानता हूँ। लिखनेवालों के आसपास बने रहने, उनके पास बैठने में मुझे बड़ा सुख मिलता है। अपने से बेहतर लोगों के साथ उठने-बैठने का कोई मौका नहीं छोड़ता। किन्तु आज मुझे कुछ मित्रों ने लेखक की तरह मान कर बधाई दी। और तो और मेरी सहधर्मिणी ने भी मुझमें लेखक देख कर मुझे बधाई दी।

यह खुशी मुझसे सचमुच समेटी नहीं जा रही। मैं बहत खुश हूँ। किन्तु प्रसन्नता के आवेग में ‘बेभान’ नहीं हूँ। मैं भली भाँति अनुभव कर रहा हूँ कि ब्लॉग और अपनी टिप्पणियों की कृपावर्षा कर मेरा हौसला बढ़ानेवाले कृपालु ब्लॉगर मित्रों के कारण ही मैं यह खुशी हासिल कर पा रहा हूँ।

सो, मैं आप सबको नमन करता हूँ। आप सबके कारण मुझे खुशी का वह प्रसंग मिल पाया जिसके लिए मैं बरसों से प्रयत्नरत रहा। मेरी यह खुशी आप सबको अर्पित है।
ब्लॉग जगत में मुझे लाने वाले मेरे गुरु श्री रवि रतलामी को अपनी यह खुशी मैं सबसे पहले अर्पित करता हूँ।

धन्यवाद ब्लॉग-जगत्। धन्यवाद मित्रों।

यही कृपा-भाव बनाए रखिएगा।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

चुनाव आगमन के संकेत

(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में दैनिक भास्कर के लिए लिखी गई है।)

सखि! मुझे क्यों लग रहा है कि नगर चुनावग्रस्त है?


खगवृन्द के कर्णप्रिय कलरव के स्थान पर वातावरण में उद्घोष-तुमुल छाया हुआ है। किसी के जिन्दाबाद का तो किसी को विजयी बनाने का आग्रह सामूहिक कण्ठों से कर्कश ध्वनि में उच्चारित होता सुनाई देता है।


सखि! गृह कार्य ने मेरी दुर्दशा कर दी है। मेरे ये मैले हाथ देख रही हो? बीस रुपये प्रति दिवस पारिश्रमिक पानेवाली मेरी गृह परिचारिका तीन दिनों से काम पर नहीं आ रही है। उसके निवास पर दूत भेजने पर ज्ञात हुआ कि वह ढाई सौ रुपये प्रति दिवस पारिश्रमिक पर किसी ‘जिन्दाबाद’ और ‘हमारा ध्यान रखिएगा’ जैसे अनुरोध करने वाले दल में सम्मिलित हो गई है। ऐसे दल चुनाव में ही तो आवश्यक होते हैं!
मेरे निवास के सामनेवाले सार्वजनिक उद्यान में इन दिनों युवा युगलों की संख्या अकस्मात ही बढ़ गई है। यौवनावस्थाजनित सहज भावोत्तेजना के अधीन आलिंगनबध्द ये युवा युगल निश्चय ही चुनाव अभियान में भाग लेने का बहाना कर, अपने घरों से निकलने का अवसर प्राप्त कर पा रहे होंगे। ये प्रार्थना कर रहे होंगे कि चुनाव बारहों महीने बने रहें।


मेरी प्रिय सखि! मैं देख रही हूँ कि अपनी समस्याओं के निदान के लिए जिन राजपुरुषों से मिलने के लिए जन सामान्य चक्कर काटता रहता है, प्रातःकाल से ही उनकी ड्यौढ़ियों पर जाकर, उनकी एक छवि पाने के लिए प्रतीक्षारत हो, दिन भर भूखा प्यासा बैठा रहता है और उनसे भेंट न होने पर सायंकाल कुम्हला कर घर लौटता है वे समस्त राजपुरुष इन दिनों अनामन्त्रित अतिथि बन समय-कुसमय, गली-गली, द्वार-द्वार उपस्थित होकर करबद्ध हो, विगलित स्वरों में ‘हमारा ध्यान रखियेगा’ जैसे निवेदन करते हुए याचक दिखाई दे रहे हैं। ऐसा तो चुनाव के प्रभाव से ही सम्भव है। अन्यथा, कमर से गर्दन तक स्टील रॉड लगे यान्त्रिक पुतले की तरह अकड़े रहनेवाले ये राजपुरुष भला इतने विनम्र कैसे होते?


हे! सखि, आज तो हद ही हो गई। बिना द्वार खटखटाए, बिल्ली की तरह नीरव पदचाप से चल कर, औचक आलिंगनबध्द कर, मेरा अधरपान कर मुझे स्पर्शजनित ‘सुखद विस्मय’ का आनन्द प्रदान करने वाले मेरे प्रियतम ने आज द्वार खटखटा कर, गृह-प्रवेश के लिए मुझसे अनुमति चाही और नत-मस्तक-करबध्द-मुद्रा में मुझसे ‘मेरा ध्यान रखिएगा’ की याचना की। मैं तो भौंचक रह गई। मेरा संशय दूर हो गया। पराये अपनों जैसा और अपनेवाले परायों जैसा व्यवहार तभी करते हैं जब वे चुनावग्रस्त हो गए हों।


सखि! मेरा हृदय अकुला रहा है। मेरा जी घर में नहीं रुक रहा। पगतलों में उत्साह समा गया है। मेरा मतदाता परिचय पत्र निकाल। मेरी पर्ची ला। मेरा मतदान केन्द्र बता। मुझे मेरे प्रियतम को मत देने जाना है।


चुनाव
जो आ गए हैं!

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यह मूर्खता अब नहीं करूँगा


सुने, बोले, लिखे, पढ़े गए शब्दों के साकार होने की प्रक्रिया का भागीदार बनना रोमांचक अनुभव है। मैं अभी-अभी ऐसी ही अनुभूति से गुजरा हूँ। सम्भव है, इस सबमें अनोखा, अनूठा, सारगर्भित कुछ भी न हो। फिर भी ऐसे रोमांच को सार्वजनिक करने से मैं स्वयम् को रोक नहीं पा रहा हूँ।

इसी पहली दिसम्बर की बात है। अपने उत्तमार्द्ध की चिकित्सा हेतु डॉक्टर सुभेदार साहब से मिला। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसी रात वे उसी आयोजन (विवोहरान्त भोज) में शामिल होने इन्दौर जा रहे थे जिसमें हमें भी जाना था। उन्होंने हमें भी साथ ले लिया। इन्दौर जाना और वहाँ से लौटना और आयोजन में शामिल होना-लगभग साढ़े नौ घण्टों का सत्संग रहा। इसी सत्संग में यह रोमांच मिला।



डॉक्टर सुभेदार साहब का पूरा जयन्त मुकुन्द सुभेदार है। वे एम। डी. (मेडिसिन) हैं। वे और उनकी सहधर्मिर्णी डॉक्टर पूर्णिमा सुभेदार मेरे कस्बे के आशीर्वाद नर्सिंग होम के स्वामित्व और संचालन से सम्बद्ध हैं। अपने चिकित्सा सन्दर्भों में कस्बे के अधिकांश लोग इन दोनों पर निर्भर करते हैं। चिकित्सा क्षेत्र में वे यद्यपि स्वयम् एक स्थानीय प्राधिकार (अथॉरिटी) हैं किन्तु तनिक भी सम्भ्रम अथवा ऊहापोह की स्थिति में अपने वरिष्ठों से मार्गदर्शन लेने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। यही बात उन्हें सबसे अलग करती है। विशेषज्ञ होते हुए भी वे एक जिज्ञासु छात्र की तरह व्यवहार करते हैं। मेरे परिवार पर उनके पूरे परिवार का अतिशय स्नेह है। जाने-अनजाने मैं इस स्थिति का दुरुपयोग भी कर लेता हूँ। दोनों की कृपा है कि मेरी हरकतों से खिन्न होने के बाद भी मेरा लिहाज बरतते हुए मुझे कुछ नहीं कहते।



सुभेदार परिवार से घरोपा होने के बावजूद डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व के बारे में मेरी जानकारी शून्यप्रायः ही है। हाँ, पूर्णिमा भाभी का यथेष्ठ हस्तक्षेप गायन विधा में है, यह मैं ही नहीं, पूरा कस्बा जानता है। इस बार की इन्दौर यात्रा के आठ घण्टों में मुझे डॉक्टर साहब का वह रूप देखने को मिला कि मैं प्रसन्न और चकित हुआ।इन्दौर जाते समय उन्होंने अपने मोबाइल पर संग्रहीत अनेक एसएमएस मुझे पढ़वाए। एक से बढ़कर एक, केवल रोचक ही नहीं, प्रचुर जानकारियों से समृद्ध भी। इस दौरान डॉक्टर साहब का उत्साह और जल्दी से जल्दी, ज्यादा से ज्यादा दिखाने की उनकी आतुरता और उत्साह किसी बच्चे को भी मात कर रहा था। एसएमएस की विषय वस्तु से जुड़ी सूचनाएँ वे अतिरिक्त रूप से देते जा रहे थे। डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व का यह पक्ष मेरे सामने पहली बार उद्घाटित हुआ था। वे ‘व्यक्तित्व विकास के कुशल प्रशिक्षक’ की तरह हमें समृद्ध कर रहे थे। यह सब करते हुए हम लोग कब इन्दौर पहुँच गए, पता ही नहीं चला।



रात सवा नौ बजे हम लोग इन्दौर से रतलाम के लिए चले। अगहन पूर्णिमा का ‘अजस्र बाहु’ चाँद, ‘औढर दानी’ बन, अपनी रजत सम्पदा धरती पर उलीच रहा था। मुझे लगा था कि भोज के स्वादिष्ट व्यंजन और इसी कारण सेवन की गई उनकी तनिक अधिक मात्रा का प्रभाव हम लोगों को जल्दी ही नींद के हवाले कर देगा और हम लोग बिना बात किए रतलाम पहुँच जाएँगे। किन्तु ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। हम लोग एक पल को भी नहीं झपक सके। डॉक्टर साहब के व्यक्तित्व का एक और अनूठा पक्ष उद्घाटित जो होनेवाला था।



इन्दौर की सीमा से मुक्त होते ही डॉक्टर साहब ने अपना मोबाइल निकाला और कार की छोटी सी दुनिया में संगीत की कायनात का सृजन शुरु कर दिया। गीतों का चयन चौंका रहा था। ‘अछूत कन्या’ के, अशोक कुमार (और सम्भवतः कानन देवी) का गाया ‘मैं वन का पंछी बन कर, वन-वन डोलूँ रे’ से लेकर सुनिधि चौहान और श्रेया घोषाल के नवीनतम गीत तक की पूरी यात्रा कर रहे थे हम लोग। वे मोहम्मद रफी के ऐसे प्रशंसक होंगे, मेरे लिए यह कल्पनातीत ही था। ‘बैजू बावरा’ के ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ के लेखन से लेकर रेकार्डिंग तक का पूरा ब्योरा उनके जिह्वाग्र पर था। मन्ना डे, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, लता, आशा, मुबारक बेगम, गीता दत्त के अविस्मरणीय गीत उनकी अंगुलियों से संकेत पाकर मोबाइल के स्पीकर पर गूँज रहे थे। ‘बरसात की रात’ की, सर्वकालिक कव्वाली ‘न तो कारवाँ की तलाश है’ ने जो मादक वातारण सिरजा कि हम लोग मानो संज्ञा शून्य हो गए। पाकिस्तानी गायिका आबिदा सुलताना की गजलें मैंने पहली ही बार सुनीं। रतलाम की सीमा छूने तक हम लोग मुश्किल से बीस वाक्य बोले होंगे। केवल सुनते रहे, डॉक्टर सुभेदार के खजाने के अनमोल मोतियों की खनक को।



मेरे लिए यह सब ‘विचित्र किन्तु सत्य’ से कम नहीं था। डॉक्टरों को सामान्यतः अपने विषय और कामकाज तक सीमित माना जाता है जो दूसरे लोगों के लिए नीरस होते हैं। किन्तु सुभेदार साहब ने पूरी यात्रा में चिकित्सा शास्त्र और चिकित्सा विज्ञान के बारे में एक अक्षर भी नहीं उच्चारा। एक क्षण भी नहीं लगा कि हम लोग किसी डॉक्टर के साथ हैं। ‘नीरस डॉक्टर’ का कोसों तक अता-पता नहीं था। हमारे साथ था तो था एक कलाप्रेमी, अभिरुचि सम्पन्न व्यक्ति, सन्दर्भों और जानकारियों का ‘इनसाइक्लोपीडिया’।



अचानक ही मुझे भैया साहब श्रीयुत सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़ की बात याद हो आई जो वे मेरे लिए, मुझे ही कहते रहते हैं। जो भी मुझसे पहली बार मिलता है, वह मेरे बारे में अच्छी राय बनाकर नहीं लौटता। मुझसे दूसरी बार मिलने की उसकी ललक समाप्त हो जाती है। मेरी अटपटी (वस्तुतः अव्यावहारिक) शैली को लेकर भैया साहब कहते हैं कि मुझे समझने के लिए मुझसे चार-छः बार मिलना जरूरी है। उनकी यह बात मुझे सुभेदार साहब के साथ हुई इस यात्रा से समझ आई। इसी कारण मैं अब समझ पा रहा हूँ कि जिन लोगों को मैंने शुरु में खारिज कर दिया था उनसे दीर्घावधि बाद मेल-जोल क्योंकर बढ़ा, उनके बारे में मेरी राय क्यों बदली। यह इसीलिए हुआ होगा क्योंकि चाहे-अनचाहे उनसे मेरी मुलाकात बार-बार हुई।



अचानक ही मुझे निदा फाजली के एक शेर की याद हो आई। शेर याद नहीं आया। मैंने सहायता के लिए मेरे कृपालु मित्र-शायर विजय वाते को आवाज लगाई। हँसते हुए विजय ने शेर बताया और कहा कि शेर में बताई गई संख्या को भाई लोग कम ज्यादा करते रहते हैं। जनमानस पर अंकित यह शेर कुछ इस प्रकार है -



हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी


जिसको भी देखना हो, सौ बार देखना



सुभेदार साहब के साथ हुई इस यात्रा ने मुझे इस शेर को साकार होते अनुभव तो कराया ही, यह सबक भी दिया कि मैं किसी आदमी से केवल एक बार मिलने पर उसके बारे में अपनी अन्तिम धारणा बनाने की मूर्खता न करूँ।



‘चार दिनों’ की छोटी सी जिन्दगी में मेरे लिए यह बहुत ही बड़ा सबक है।



शुक्रिया सुभेदार साहब।
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चुनाव चिह्न: जी का जंजाल


खुलकर खेलनेवाले भाऊ के निशाने पर आज फिर निर्दलीय आ गए थे। सबको एक घाट निपटा रहे थे। लग रहा था आज सबको दिगम्बर स्नान करवा कर ही छोड़ेंगे। बोले - ‘इनके व्यक्तित्व और काम काज पर बात तब करो जब ये जीत जाएँ। फिलहाल तो चुनाव चिह्न ही इन पूतों के पाँव दिखा रहे हैं।’


‘अब रेडियो और पंखे को ही लो! दोनों को चलाने के लिए करण्ट चाहिए। करण्ट नहीं तो दोनों बेकार। घोषित और अघोषित बिजली कटौती के जमाने में इनके लिए करण्ट कहाँ से लाओगे? ये जीत गए तो कह देंगे - नो करण्ट, नो वर्क।


‘नल का मतलब तो बच्चा-बच्चा जानता-समझता है। अभी ही दो दिन में एक बार आते हैं। आते क्या हैं, आने की खानापूर्ति करते हैं। दो-चार बूँद टपक कर रह जाते हैं। काम तो टेंकर से ही चलाना पड़ता है। भला बताओ! काम न करने के लिए इन्हें कोई बहाना बनाना पड़ेगा?


‘इन पेसेंजर बस और बैलगाड़ीवालों की क्या बात करें? बस की यात्री क्षमता सीमित होती है। किस-किसको बैठाएँगे? सबसे पहले तो खुद, फिर अपना कुनबा, फिर अपनेवाले। अपना नम्बर आएगा भी या नहीं? और बैलगाड़ी? भैये! चन्द्रयान के जमाने में बैलगाड़ी में बैठने का न्यौता आप कबूल करो तो कर लो। अपन तो नहीं करने वाले। जमाना ट्विटर और फेस बुक का और ये लेकर आए हैं बैलगाड़ी!


‘और इन्हें लो! एक दरवाजा लेकर आए हैं और दूसरा चाबी। दरवाजे पर ताला तो नहीं है लेकिन साफ लग रहा है कि यह वोटर की ओर नहीं, उम्मीदवार की ओर ही खुलेगा। याने आपको-हमको तो बन्द दरवाजा ही देखना है। ज्यादा हुआ तो खटखटा लो। खुलने की ग्यारण्टी कोई देगा? और चाबी का क्या करें? यह कौनसे ताले में लगेगी, यही पता नहीं। कह देंगे-ताला मिल ही नहीं रहा। क्या करें?


‘ये अँगूठी लिए घूम रहे हैं। आपके-हमारे लिए नहीं! सत्ता सुन्दरी की अँगुली मे पहनाएँगे। आप और हम तो खड़े-खड़े तमाशा देखेंगे, तालियाँ पीटेंगे और ये सत्ता के साथ हनीमून मनाएँगे। वोट हम दें और मजे ये लूटें! ना बाबा! न।


‘और ये? सीटी और गुब्बारा? बिना फूँक के इनका काम नहीं चलता। जितनी और जैसी फूँक मारोगे, उतनी और वैसी ही आवाज सुन पाओगे। याने, जो कुछ करना है, अपन को ही करना है। अभी से कह रहे हैं कि आवाज सुननी हो तो फूँक मारो। यही हालत गुब्बारे की। उससे खेलना हो या कि उसका उपयोग करना हो तो हवा भरो। न भरो तो लुंज-पुंज पड़ा रहेगा। याने वह अपनी ओर से कुछ नहीं करेगा। जो भी करना है, आपको ही करना है। और फूट गया तो? उसका दोष भी आपके ही माथे। ज्यादा हवा क्यों भर दी?


‘इन्हें लीजिए! सूर्यमुखी का फूल लिए घूम रहे हैं! इन्हें तो खिले रहने और मुँह ऊँचा करने के लिए कोई सूरज चाहिए। आज तो आपको-हमको सूरज कह रहे हैं लेकिन कल किसे सूरज बना लें? जीतने के बाद पलट कर देखा है किसीने आज तक? और ये गेहूँ की बालीवाले? इस बाली में दाने हैं भी या नहीं? और हैं भी तो आपके-हमारे लिए हैं? इनकी जगह आप-हम होते तो अपन भी खुद की चिन्ता सबसे पहले करते। सो, इस बाली के दाने आपको मिलेंगे, इसकी क्या ग्यारण्टी? और मिलेंगे तो कब? पहले तो खुद खाएँगे, फिर घरवालों को खिलाएँगे। आपका नम्बर कब आएगा?


‘केलेवाले की क्या कहें। तुम तो खुद समझदार हो और समझदार को इशारा ही काफी होता है। इसे काम में लेने के लिए इसे छीलना जरूरी होता है। याने पहले नंगा करो, फिर काम में लो! आप शिकायत कर ही नहीं सकते। कह देंगे-मैं तो आपके सामने ही था। आपने छीला नहीं तो मैं क्या करूँ? याने, ये कुछ नहीं करेंगे। इनसे काम लेने के लिए भी सारी मेहनत आपको ही करनी है।’


वे बिना साँस लिए निर्दलियों की धुलाई-धुनाई किए जा रहे थे और सुनने वाले हम सबकी साँसें रुकी हुई थीं। जैसे ही उन्होंने अल्प विराम लिया मैंने कहा - ‘भाऊ! बेचारे निर्दलियों की दुर्गत क्यों कर रहे हो। राष्ट्रीय और प्रान्तीय मान्यता प्राप्त भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। उन पर भी तो नजरें इनायत करो।’ भाऊ बोले - ‘अपन पूरे और सच्चे समाजवादी हैं। हमेशा सबसे असहमत रहनेवाले। इस घाट पर सबकी सेवा समान रूप से होती है। लेकिन आज इतना ही। अभी तो चुनाव का रंग जमना शुरु ही हुआ है। सब आज कह दिया तो कल क्या करोगे?’


अब मैं कल की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में दैनकि भास्कर के लिए लिखी गई है।)

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सैंतीसवीं कौम

कहते हैं, भगवान ने छत्तीस कौमें बनाई। यह गिनती किसने लगाई, पता नहीं। यदि यह सच है तो मानना पड़ेगा कि मनुष्य ने ईश्वर को परास्त कर दिया। उसने सैंतीसवीं कौम बना ली। निर्दलियों की। सो, निर्दलियों के किए-कराए के लिए ईश्वर से भी शिकायत नहीं की जा सकती। यदि की तो सुनवाई वही करेगा जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है, वही सुनवाई करेगा और फैसला भी सुनाएगा। याने मुकदमा पेश होने से पहले ही फैसला तय है। शिकायत करने और पछताने के लिए आप स्वतन्त्र हैं।

निर्दलीय स्वयम्भू होता है। उसे ‘अनाथ’ कहना अनुपयुक्त होगा। ‘छुट्टा साँड’ या ऐसी ही कोई उपमा उसके लिए उपयुक्त होगी। वह कहीं भी, कुछ भी कर सकता है। उसका कोई, कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वह आपका भला करे या न करे, आपका नुकसान अवश्य कर सकता है। भला करने के नाम पर वह खुद से आगे शायद ही कभी देखता हो। सबका होने की सुविधा उसके पास सुरक्षित रहती है लेकिन उसका कोई नहीं हो सकता।

निर्दलीय की स्थिति खेत में खरपतवार और जंगल में झाड़ी जैसी होती है। मुख्य फसल को बचाने के लिए खरपतवार को जड़ से उखाड़ कर फेंका जाता है और जंगल में झाड़ी से अपना दामन बचाया जाता है। राजनीति में इनकी स्थिति कभी दिहाड़ी मजदूर जैसी होती है। तब इन्हें ‘जैसी जाकी चाकरी, वैसा ही फल’ वाला व्यवहार मिल जाता है। किन्तु कभी-कभी इनकी स्थिति नाजायज सन्तान या फिर रखैल जैसी होती है। तब इनका उपयोग ‘मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’ की तरह किया जाता है।

लेकिन कभी-कभी बिल्ली के भाग से छींका टूट जाता है। तब निर्दलीय का नाम मधु कौड़ा हो जाता है और दुनिया के तमाम निर्दलियों का प्रेरणा पुरुष बन कर आकाश मे चमकने लगता है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है, ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ सो, उसकी अन्तिम मंजिल फिर जेल होने की आशंका बलवती हो जाती है।

निर्दलीय की पौ-बारह तब होती है जब किसी दल को बहुमत नहीं मिलता। तब निर्दलीय को उसी तरह तलाशा जाता है जैसे कि कण्ट्रोल की दुकानों पर घासलेट। चुनाव लड़ते समय प्रत्येक निर्दलीय ऐसी ही स्थिति के लिए भगवान से प्रार्थना करता है। लेकिन जब ऐसा नहीं होता है तो निर्दलीय दो कौड़ी का हो जाता है और धोबी के पालित पशु की दशा में आ जाता है। ऐसे समय में वह, कामवाली बाई के साथ आए उसके बेटे की तरह काम में हाथ बँटाता है और जो मिल जाए उसमें सन्तोष कर लेता है। चूँकि उसकी स्थिति ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ वाली होती है सो वह किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं होता। किन्तु सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि उसे कहीं ठौर भी नहीं मिलती।

जिन लोगों को लगता है कि वे निर्दलीय से काम ले लेंगे, उन्हें बहुत जल्दी मालूम हो जाता है कि वे ‘मूर्ख श्रेष्ठ’ साबित हो गए हैं। तब अपनी झेंप मिटाने के लिए उनके पास दर्पण के सिवाय और कोई माध्यम नहीं होता।

लोकतन्त्र ने दुनिया को कई उपहार और आशीर्वाद दिए हैं। किन्तु लोकतन्त्र सदैव ऐसा नहीं करता। वह निर्दलीय भी देता है।
(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में लिखी गई है।)
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

दण्डित हो रही भारत माता


दो दिन पहले, ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) में छपा समाचार हमारी सरकारों के ‘कृषक हितकारी’ दावों की की और इस मामले में उनकी कथनी और करनी के अन्तर को उजागर करता है।


समाचार के अनुसार इन दिनों मालवा और निमाड़ अंचल के गाँवों में प्रतिदिन पन्द्रह घण्टों तक की बिजली कटौती हो रही है। इस कारण खेतों में ठीक से सिंचाई नहीं हो पा रही है और गेहूँ, चना सरसों, अफीम, अलसी, लहसुन सहित, शैशावस्था में आई हुई अनेक फसलें खतरे में आ गई हैं। बिजली की प्रतीक्षा में किसान ठण्डी रातों में ठिठुरते हुए बैठे रहते हैं। दूसरी ओर परीक्षाओं की तैयारियों में जुटे विद्यार्थी भी परेशान हैं।


लेकिन महत्वपूर्ण बात यह नहीं है। महत्वपूर्ण बात है - बिजली कटौती के मामले में गाँवों के साथ किया जा रहा अन्याय। गाँवों में पन्द्रह घण्टों तक की कटौती की जा रही है (ट्रांसफार्मरों के खराब होने के कारण तीस गाँवों में चौबीस घण्टे बिजली नहीं आ रही है) जबकि जिला मुख्यालयों पर केवल चार घण्टों की बिजली कटौती की जा रही है। तहसील मुख्यालयों पर दस घण्टे कटौती की जा रही है। समाचार में तो नहीं कहा गया है किन्तु राजधानी भोपाल में कटौती बिलकुल ही नहीं हो रही है। जिन प्रदेशों में बिजली कटौती हो रही है, कमोबेश प्रत्येक राज्य में ऐसे ही पैमाने वापरे जा रहे हैं। शहरी और ग्रामीण आबादी में भेदभाव किया जा रहा है।


यही वह बिन्दु है जहाँ सरकारों और पार्टियों की दोहरी मानसिकता सामने आती है। गाँवों में बिजली उसी भाव से दी जा रही है जिस भाव से शहरों में दी जा रही है। बिजली प्रदाय के कानून एक समान हैं। फिर वह क्या कारण है कि गाँवों को दण्डित किया जा रहा है और शहरों को उपकृत?


गाँधी ने ग्राम स्वराज में भारत की आजादी देखी थी और दीनदयाल उपाध्याय ने ‘अन्त्योदय’ की अवधारणा दी थी। ये दोनों व्यक्ति क्रमशः कांग्रेस और भाजपा के पितृ पुरुष हैं जिनकी दुहाइयाँ देने और कसमें खाने में ये पार्टियाँ कोई मौका नहीं छोड़तीं।
गाँवों से शहरों की ओर, तेजी से हो रहे, आबादी के पलायन के बाद भी, आज भी भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में ही रह रही है। जहाँ सर्वानुमति न हो वहाँ बहुमत को आधार बनाया जाता है। यही लोकतन्त्र का सामान्य नियम है। किन्तु सुविधा से वंचित करने के मामले में इस लोकतान्त्रिक अवधारणा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। गाँववालों का दोष शायद यही है कि वे बिखरे हुए, असंगठित हैं, इसीलिए वे परस्पर सम्वाद-सम्पर्क न कर पाते हैं। इसी कारण उनका असन्तोष सड़कों पर नहीं आ पाता। वे सरकारी सम्पत्ति को नुकसान नहीं पहुँचा पाते। नेताओं-अधिकारियों को उनकी औकात नहीं बता पाते। शहर के लोग बिना सम्वाद किए भी सड़कों पर आकर एकजुट हो जाते हैं और शासन-प्रशासन को अपने होने का अहसास करा देते हैं।


होना तो यह चाहिए कि पूरे प्रदेश में एक समान बिजली कटौती हो। किन्तु ऐसा नहीं हो रहा है।


‘भारत माता ग्राम वासिनी’ का मन्त्रोच्चार करनेवाले देश में भारत माता को दण्डित किए जाने की यह लज्जाजनक मिसाल है।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

अमीबा और अमरबेल : दद्दू


(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। यह पोस्ट, उसी सन्दर्भ में लिखी गई है।)


लोग सोचते, मानते और कहते हैं कि दद्दू राजनीति में हैं। दद्दू लोगों पर हँसते हैं। दद्दू राजनीति में नहीं है। राजनीति उनमें है। उनके रोम-कूपों में रची-बसी हुई। दद्दू की हर हरकत राजनीति प्रेरित, राजनीति आधारित और राजनीति केन्द्रित होती है। नित्य कर्म भी। किसी को बिना अपमानित किए प्रतीक्षा करवानी होती है तो दद्दू सण्डास में घुस जाते हैं और तभी निकलते हैं जब प्रतीक्षारत आगन्तुक अपनी औकात समझ कर चला जाता है।


दद्दू किसी पार्टी में नहीं हैं। सब पार्टियाँ उनमें आकर मिलती हैं। उनके गोदाम में प्रत्येक पार्टी के डण्डे, झण्डे, पोस्टर, बैनर, पर्चे उपलब्ध हैं। जब, जिस पार्टी की आवश्यकता होती है, उसमें हो जाते हैं। हो क्या जाते हैं, बस घोषणा मात्र कर देते हैं - ‘इस बार मैं फलाँ पार्टी में हूँ।’ उनका ‘अनिश्चित चरित्र’ शहर के लोगों को प्रतीक्षारत बनाए रखता है। वे कभी भी, कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी कह सकते हैं। आज जिस पार्टी में हैं, कल उसी पार्टी के खिलाफ आमसभा कर लेते हैं। आज जिसके पक्ष में आमसभा कर रहे हैं, कल उसी पर आरोप लगा सकते हैं कि वह उनके दुश्मनों से मिल गया है। आमसभा में बोलते हैं तो लगता है, ताँबे के बर्तन में उबली भाँग छान कर आए हैं। वे सबका समर्थन और विरोध कर चुके हैं। एक-एक बार नहीं, कई-कई बार। बल्कि बार-बार। कभी-कभी वे खुद उलझ जाते हैं। परिजनों से पूछते हैं - ‘आज मैं किसका समर्थन कर रहा हूँ?’ उत्तर में प्रत्येक परिजन ‘अभी सोच कर बताता हूँ’ कह कर अन्तर्ध्यान हो जाता है। समीक्षक असमंजस में रहते हैं। उन्हें किस विशेषण से विभूषित करें - अजातशत्रु या सर्वशत्रु? उन्होंने कबीर की ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ उक्ति को पलट कर ‘सब काहू से दोस्ती, सब काहू से बैर’ कर दिया है और ‘कबीर द्वितीय’ बने बैठे हैं।


‘लोग क्या कहेंगे’ वाली चिन्ता उन्हें कभी नहीं सताती। वे ‘परिवर्तन ही जीवन है’ में विश्वास करते हैं और कहते हैं कि परिवर्तन के दाँतों वाले पहिए के बिना प्रगति और विकास के रथ को नहीं खींचा जा सकता। उनकी कोठी पर हर साल एक मंजिल का बनना और उनके व्यापार में दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ोतरी होना इसका सबूत भी है।
उनकी पीठ पीछे लोग उन्हें अवसरवादी, दलबदलू, मक्कार, लफाज, भँगेड़ी, शालीग्राम जैसे सम्बोधनों से पुकारते हैं। वे सुनकर मुस्कुराते हैं। लोग कुछ भी समझें, आदमी को अपनी नजरों में नहीं गिरना चाहिए। इसलिए वे किसी की परवाह नहीं करते। इसी के चलते लोग उन्हें बेशर्म और सीनाजोर तक कहते हैं। लेकिन उदारमना हो, दद्दू सबको माफ कर देते हैं। ईसा का वाक्य उनकी पंच लाइन है - ‘हे! प्रभु, इन्हें क्षमा करना। ये नहीं जानते, ये क्या कर रहे हैं।’ इसके उत्तर में लोग, दद्दू के लिए, शरद जोशी को कोरस में उद्धृत करते हैं - ‘हे! प्रभु इन्हें क्षमा मत करना। ये जानते हैं कि ये क्या कर रहे हैं।’


पल-पल में दल बदलने के अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करने में दद्दू को कभी कठिनाई नहीं हुई। वे रजनीश के सच्चे अनुयायी हैं। कहते हैं - ‘शाश्वत सत्यों के अलावा हर क्षण का अपना सत्य होता है। मैं इस क्षण के सत्य को जी रहा हूँ। जो कुछ अभी कह-कर रहा हूँ, अगले क्षण उसके विपरीत कहता/करता मिल सकता हूँ। दो अलग-अलग क्षणों के सत्य अलग-अलग हो सकते हैं। होते ही हैं। इसमें अचरज क्या?’ उनका सीनाजोर आचरण शर्म को भी पानी-पानी कर देता है। तब शर्म अपनी नई परिभाषा ढूँढने निकल पड़ती है।


वे प्राणियों में अमीबा और वनस्पतियों में अमरबेल हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में अमीबा की तरह सुप्त और मृतप्रायः दशा में आ जाते हैं और स्थितियों के अनुकूल होते ही जीवित और सक्रिय हो जाते हैं। अमरबेल की तरह खुद की सेहत पर गरम हवा भी नहीं लगने देते, मौसम का असर नहीं होने देते। जिस पर भी हाथ डाला, जमानत जप्त होने से कम पर कभी नहीं निपटा। इस चुनाव में मनोविनोदपूर्वक जिस उम्मीदवार को संरक्षण दिया है, सारा शहर उसे दया-दृष्टि से देख रहा है। और दद्दू? देखनेवालों की ओर देखकर हँस रहे हैं।


दद्दू शाश्वत, सर्वत्र, सर्वकालिक हैं। मुझसे और मेरे शहर से ईष्र्या मत कीजिए। तनिक सावधानी से दखिए। वे आपके शहर में ही, आपके पास ही हैं। हाँ, बच कर रहने की सावधानी बरतिएगा।
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चुनाव और उस्तादी दाँव


(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 03 दिसम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)


हकीकत से आँखें चुरानेवाले, खुद से झूठ बोलनेवाले, भ्रम बुनने और भ्रम में जीने में निष्णात् आदमी को भारतीय कहते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूजते, तत्र रमन्ते देवा’ कह कर औरतों को निर्वस्त्र यहीं किया जाता है। औरत को लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती जैसी उपमाएँ देकर उनकी जूतों से, मनोयोग और परिश्रमपूर्वक पिटाई भी यहीं की जाती है। बहू को बेटी कहने के अगले ही क्षण उसे जलाने का उपक्रम भी यहीं होता है। इसी परम्परा को विस्तारित करते हुए और इन्हीं कारणों से चुनावों को यहाँ ‘लोकतन्त्र का त्यौहार’ कहा जाता है।


हकीकत ऐसी नहीं है। यहाँ चुनाव सापेक्षिक हैं। किसी के लिए उद्यम, किसी के लिए उद्योग, किसी के लिए उपक्रम तो किसी के लिए मजबूरी है। बीस रुपये रोज से भी कम आय वाले लोगों के लिए चुनाव का मतलब दो बोतल ठर्रा या काम चलाऊ क्वालिटी की एक साड़ी या घटिया क्वालिटी के कुछ बर्तन भी होता है।


गुरु घण्टाल किस्म के लोगों के लिए चुनाव सदैव ही ‘अवसर’ होता है। इन्हें दादा, उस्ताद, भैयाजी, दद्दू, चाचाजी जैसे लोकप्रिय नामों से भी पुकार जाता है। ये अपने लिए टिकिट की माँग से अपना उपक्रम शुरु करते हैं जिसकी समाप्ति किसी ‘अक्ल के अन्धे और गाँठ के पूरे’ को या फिर घर फूँक तमाशा देखने पर आमादा हो चुके ऐसे ही, किसी उत्साही लाल को टिकिट दिलाने पर करते हैं। इस मुकाम तक पहुँचने के लिए ये उससे पार्टी को आवेदन कराते हैं, उसका बॉयो डाटा बनवाते हैं, उसका नाम अखबारों में चलवाते हैं, उसके लिए ज्ञापन दिलवाते हैं और मौका पड़े तो अपनी जेब से उसके साथ भोपाल-दिल्ली यात्रा तक करते हैं। लोग इसे खर्चा कहते हैं और ये इसे निवेश मानते हैं।


टिकिट दिलाने के बाद ये ‘शिकार’ को अकेला छोड़ देते हैं। वह इनके पास ऐसे दौड़-दौड़ कर आता है जैसे गाय से बिछड़ा बछड़ा रँभाता हुआ दौड़ता आता है और उसे ये अवैध सन्तान की तरह देखते हैं। ‘विजयोत्सुक शिकार’ इन्हें दण्डवत प्रणाम कर, गिड़गिड़ाता है - ‘गुरुदेव! उद्धार करो।’ ये कहते हैं - ‘वत्स! समझने की कोशिश करो। टिकिट दिलवाने तक मेरा जिम्मा था। अब जो भी करना है, तुम्हें ही करना है।’ वे समझाते हैं - ‘खांद्यो खांदो दे, साथे नी मरे।’( याने, अर्थी को कन्‍धा देनेवाला, मृतक के साथ मरता नहीं। ‘शिकार’ अकबका जाता है। वह उस्तादी दाँव का शिकार हो, औंधे मुँह, धूलि धूसरित हो चुका होता है। उसकी वह दशा हो जाती है जिसे लोग ‘पानी माँग गया’ या ‘बाप का नाम भी भूल गया स्साला’ जैसा कुछ कहते हैं। ‘शिकार’ जैसे-तैसे खुद को सम्भाल कर अपना अपराध जानना चाहता है तो उसे बताया जाता है कि मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। बिना पेट्रोल के गाड़ी नहीं चलती, बिना गिफ्ट मिले गर्ल फ्रेण्ड स्पर्शजनितसुख का आनन्द देना तो दूर रहा, शरमा कर मुस्कुराती भी नहीं, बिना टिप के बैरा सलाम नहीं करता, सब्जी वाली मुफ्त में धनिया-मिर्ची नहीं देती। तो, गुरु घण्टाल मुफ्त में प्रचार कैसे कर सकते हैं? ‘शिकार’ के ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं। वह कहना तो चाहता है ‘शूकर शिशु!, श्वान सुत!! मुझे फँसा कर तू ब्लेक मेलिंग कर रहा है। ठीक है बच्चू! मेरा काम निकल जाने दे। फिर तुझे देखूँगा। सिर पर वो ‘पद-त्राण प्रहार’ करूंगा कि तेरी सात पीढियां गंजी पैदा होंगी।’ लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कह पाता। वह मिमियाते हुए ‘आदेश करें’ शब्द-युग्म उच्चारता है। सुनकर गुरु घण्टाल उसे अपनी परम प्रिय इकलौती सन्तान की तरह देखता हुआ अपना भाव बताता है जिसे ‘शिकार’ कसमसाते हुए, मन ही मन वजनदार गालियाँ देते हुए ‘अभी हाजिर करता हूँ’ कह कर अण्टी में से नोटों की गड्डी निकालता है और ‘यह लीजिए! पहली किश्त’ कह कर पेश करता है। गुरु घण्टाल ‘हें! हें!! तुम समझदार हो। तुम्हें जीतने से कौन रोक सकता है?’ जैसे उत्साहवर्द्धक जुमले उच्चारते हुए रोकड़ा अपनी अण्टी में रखता है।


जब तक पूरी रकम नहीं मिलती, गुरु घण्टाल घर से बाहर नहीं निकलते। पूरा भुगतान मिल जाने पर वे तूफानी चुनाव प्रचार में जुटते तो अवश्य हैं किन्तु सम्पूर्ण निष्काम भाव से। वे प्रयत्न करते हैं और परिणाम प्रभु पर छोड़ देते हैं। वे ‘शिकार’ की हार जीत की परवाह नहीं करते क्योंकि उनकी जीत तो पहले ही दिन हो चुकी होती है।


भारत में यह क्रम सनातन से चला आ रहा है। प्रलय तक चलता रहेगा। ‘शिकार’ और ‘गुरु घण्टाल’ प्रत्येक समय में, समान रूप से उपलब्ध रहेंगे। एक भी मूर्ख जिन्दा है तब तक कोई भी समझदार भूखों नहीं मर सकता। आप इसे जो मर्जी चाहे कह लें - चुनाव, उद्यम, उद्योग, उपक्रम या लोकतन्त्र का त्यौहार।
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पार्टी हाईकमान याने.....


मौसम चुनाव का। एक पद पर अनेक दावेदार। प्रत्येक दावेदार खुद को पार्टी हाईकमान का अधिकृत उम्मीदवार बताए। ऐसे में लोगों को लगने लगता है कि पार्टी हाईकमान की नींद हराम हो जाती होगी।

नादान, नासमझ लोग! भावुक हो कर परेशान हो जाते हैं। टसुए बहाने लगते हैं। उधर पार्टी हाईकमान है कि इन सारी बातों से बेखबर, बेफिकर।

प्रत्येक पार्टी का अपना हाईकमान होता है। अलग-अलग। लेकिन चाल, चलन, चेहरा, चरित्र, व्यवहार, भाषा सबकी एक जैसी। सबके सब एक जैसे। बिलकुल हमाम के नंगों की तरह।पार्टी का एक भी आदमी ऐसा नहीं जो पार्टी हाईकमान के बारे में कुछ जानने का दम भर सके। जानता तो पार्टी हाईकमान भी किसी को नहीं किन्तु पार्टी के लोग एक दूसरे की फिकर करते हुए, सबकी विस्तृत कुण्डलियाँ पार्टी हाईकमान को पहुँचा चुके होते हैं। सो, पार्टी हाईकमान को जिसके भी बारे में जानना होता है, जान लेता है। सो, कहा जा सकता है कि पार्टी हाईकमान किसी को भी नहीं जानते हुए सबको जानता है।

पार्टी हाईकमान का अपना कोई रूप-रंग, स्वरूप, आकार नहीं होता। वह एकाकार भी हो सकता है और अनेकाकार भी। वह सबके लिए समान रूप से उपलब्ध है। साकार भी और निर्गुण-निराकार भी। जिसे जिस नजर से देखना हो, देख ले। कोई भी पार्टी हाईकमान कभी गलती नहीं करता। इसीलिए सफलता के साफे सदैव हाईकमान को बँधते हैं और असफलता के ठीकरे स्थानीय नेतृत्व के माथे फूटते हैं।

पार्टी हाईकमान को अपने समर्पित, ईमानदार, चरित्रवान, निष्ठावान कार्यकर्ता की बहुत चिन्ता होती है। बिलकुल वैसी ही जैसी कि किसी सुहागन को अपने माथे की बिन्दिया की। अपने ऐसे कार्यकर्ताओं का मान-सम्मान, सार्वजनिक छवि और प्रतिष्ठा को बनाए और बचाए रखने के लिए वह ऐसे कार्यकर्ता को कभी भी, किसी भी पद पर नहीं बैठाता। आज पद पर बैठाया और कल वह भ्रष्ट, बेईमान, घपलेबाज हो जाए तो? इसलिए जब भी ऐसा कोई मौका आता है तब किसी बेईमान, भ्रष्ट, घपलेबाज, गबन करने में माहिर आदमी को पद परोसता है। इस तरह वह बेईमानों और भ्रष्टों की संख्या में इजाफा नहीं होने देता और ईमानदारों की संख्‍या में कमी नहीं होने देता।

इस नेक काम के लिए वह ऐसे कार्यकर्ता की भी उपेक्षा, अनदेखी कर देता है जो दस-दस बरसों से पार्टी के लिए सदन में और मैदान में जूझता रहता है, पार्टी को जिन्दा बनाए रखता है, गाँठ का पैसा खर्च कर पार्टी का झण्डा ऊँचा फहराए रखता है। पार्टी हाईकमान अच्छी तरह जानता है कि ऐसे कार्यकर्ता पार्टी की धरोहर, पार्टी की इज्जत बढ़ानेवाले होते हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं के कुर्तों पर एक भी दाग न लगे इसलिए, ‘काजल की कोठरी’ में किसी को भेजने का मौका आने पर पार्टी हाईकमान, आठ-दस साल पहले दफन हो चुके आदमी को, कब्र खोदकर ला खड़ा कर देता है या फिर कोयले की दलाली में काले किए हाथ, दिल, दिमागवाले आदमी को।


पार्टी हाईकमान खूब जानता है कि कितनी ही मेहनत क्यों न की जाए, पानी की तरह रुपया बहाया जाए, ईमानदार, सद्चरित्र, भला आदमी चुनाव नहीं जीत सकता। ये सारे गुण इज्जत दिला सकते हैं सत्ता नहीं। सो, पार्टी हाईकमान को ‘गुनाह बेलज्जत’ करते हुए ऐसे आदमी को उम्मीदवार बनाना पड़ता है जिसकी इज्जत दो कौड़ी की नहीं होती।


पार्टी हाईकमान की अपनी मजबूरियाँ हैं। इस मजबूरी के कारण ही मतदाता भी मजबूर हो जाता है - कम बेईमान, कम भ्रष्ट, कम घपलेबाज को चुनने के लिए।
हमें अपने लोकतन्त्र पर गर्व करना चाहिए कि ये दोनों मजबूरियाँ यत्नपूर्वक, ईमानदारी से निभाई जा रही हैं। आगे भी निभाई जाती रहेंगी।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 30 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)

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बिगाड़ के खाद से सुधार की फसल


जयन्त बोहरा और अशोक ताँतेड़ यह सब पढ़कर खूब खुश होंगे। दोनों को गुदगुदी होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि दोनों एक दूसरे को बधाई भी दें। दोनों ने, सोलह नवम्बर की शाम को ही भविष्यवाणी कर दी थी कि मैं यह सब लिखूँगा।


पन्द्रह नवम्बर की सुबह ही सुरेश (चोपड़ा) का फोन आ गया था-‘आपको और भाभीजी को कल शाम का भोजन हमारे साथ करना है।’ कारण तो मुझे पता था (बधाई पत्र जो भेज चुका था!) किन्तु सुरेश के मुँह से सुनना अच्छा लगता। सो पूछा - ‘क्या बात है?’ ‘कल हमारे विवाह के 25 बरस पूरे हो रहे हैं। बच्चों ने पार्टी रखी है। आप दोनों को आना ही है।’ मैंने बधाइयाँ दीं और वादा किया - ‘कल की शाम तुम्हारे और अरुणा के नाम। पक्का रहा।’


अगली (सोलह नवम्बर की) सुबह साढ़े पाँच बजे सुरेश का एसएमएस आया - ‘कोई भेंट नहीं लाएँ। फूल भी नहीं।’ मैंने फोन किया । पूछा - ‘यह आग्रह खानापूर्ति है या इसमें ईमानदारी ही है?’ ‘नहीं। खानापूर्ति बिलकुल नहीं। पूरी ईमानदारी से अनुरोध कर रहा हूँ। कोई भेंट स्वीकार नहीं करेंगे। गुलदस्ता या बुके भी नहीं।’ मैंने कहा-‘ऐसा तो नहीं कि तुम सबके उपहार स्वीकार कर लो और तुम्हारा कहना मान कर, खाली हाथ आनेवाले मुझ जैसे लोग अकारण ही हीनताबोध या अपराधबोध के शिकार हो जाएँ।’ सुरेश ने खातरी बँधाई - ‘सच मानिए। परिवार का कोई भी व्यक्ति, कोई भी उपहार स्वीकार नहीं करेगा।’ इतने अच्छे निर्णय के लिए मैंने सुरेश को बधाई दी और कहा - ‘ईश्वर तुम्हारे संकल्प की रक्षा करे।’


पत्नी के साथ, निर्धारित समय पर आयोजन स्थल पहुँचा तो पहले रमेश भाई (सुरेश के बड़े भाई) ने और उनके पीछे-पीछे सुरेश और अरुणा ने अगवानी की। दोनों के गले में सेवन्ती की सुन्दर मालाएँ महक रही थीं। मैं कुछ भी बोलता उससे पहले ही सुरेश ने कहा - ‘ये मालाएँ घर की ही हैं। किसी आगन्तुक ने नहीं पहनाई हैं।’ हम सब हँसे।


आयोजन की गहमा-गहमी शुरु हो चुकी थी। आमन्त्रित अतिथियों से हॉल भरने लगा था। बच्चों की किलकारियाँ वातावरण को जीवन्त बना रही थीं। आगमन के इसी क्रम में जयन्त (बोहरा) और अशोक (ताँतेड़) भी थोड़ी देर में आए। अलग-अलग। मेरी तरह तथा कुछ और आमन्त्रितों की तरह वे दोनों भी खाली हाथ ही आए थे। मुझे अच्छा लगा। खाली हाथ आनेवाला मैं अकेला नहीं था।


सुरेश और अरुणा को सजी-धजी कुर्सियों पर बैठाया गया। दोनों बच्चे, रिमझिम (21 वर्ष) और उज्ज्वल (11 वर्ष) साथ बैठे। दोनों पक्षों के वरिष्ठों ने जोड़े को आशीर्वाद दिया। इस बीच रिमझिम ने माइक सम्हाल लिया। वह बी ई की छात्रा है। मालूम हुआ कि उसी दिन उसकी परीक्षा थी। थोड़ी देर पहले ही मन्दसौर से लौटी है। विवाह के लिए सुरेश-अरुणा के परस्पर ‘देखने’ से लेकर बच्चों के इस अवस्था तक के घटनाक्रम को सुन्दर सम्वादों और फिल्मी गीतों के समन्वय से प्रस्तुत किया जाने लगा। मुझे अच्छा भी लगा और आश्चर्य भी हुआ कि चुने गए सारे गीत मेरे जमाने के थे। लग रहा था मानो मैं अपने विद्यार्थी काल में पहुँच गया हूँ। सारे गीत कोई पैंतीस-चालीस साल पहले के समय के। मीठे, भावपूर्ण और होश गुमा देनेवाले। बाद में मालूम हुआ कि गीतों का चयन खुद अरुणा ने किया था जिसके लिए हम सबने उसे अतिरिक्त बधाइयाँ दीं - ढेर सारी।


लेकिन सब कुछ प्रियकर नहीं था। बीच-बीच में आमन्त्रित भाई लोग, भात में कंकर मिलाते रहे। बहुरंगी, चमचमाती पन्नियों में पेक किए, छोटे-बड़े आकार के भेंट-पेकेट लेकर आए ये अतिथि, सुरेश और अरुणा से मानो हाथापाई कर रहे हों - अपनी भेंट स्वीकार करने के लिए। इंकार करने में सुरेश-अरुणा को सचमुच में अत्यधिक परिश्रम करना पड़ रहा था। यह सब करते हुए उनके चेहरे पर खीज और झुंझलाहट क्षणिक बिजली की तरह तैर जाती। इंकार करते हुए मुस्कुराते रहने के लिए उन्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ रहा था। मानना पड़ेगा कि दोनों अपने संकल्प पर कायम रहे और एक भी अतिथि की भेंट स्वीकार नहीं की। कई लोग गुलदस्ते लेकर आए थे जिन्हें दोनों ने अनमनेपन से स्वीकार किया।


भेंट स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित अतिथियों ने जब-जब, सुरेश-अरुणा से ‘कुश्ती लड़ी’ तब-तब, हर बार मुझे झुंझलाहट हुई। जी किया कि जाकर, भेंट स्वीकार करने के लिए कुश्ती लड़ रहे लोगों को धक्के देकर सुरेश-अरुणा के सामने से हटा दूँ, प्रताड़ित करूँ और वहाँ से भगा दूँ। अस्वीकृत भेंट हाथ में लिए कई लोग, सुरेश-अरुणा पर नाराज हो रहे थे। एक को तो मैंने कहते हुए सुना - ‘ये भेंट नहीं ले रहे हैं तो बताओ, मुफ्त में भोजन कैसे करें?’ जयन्त और अशोक भी झुंझला तो रहे थे किन्तु मेरे मुकाबले बहुत ही कम। खुद झुंझलाते हुए वे मेरी झुंझलाहट पर हँस रहे थे। दोनों ने कहा - ‘आपको तो आपके लिए मसाला मिल गया है। उम्मीद करें कि इस सब पर आपका लिखा हुआ पढ़ने को मिलेगा।’ तब तो मैंने इंकार कर दिया था किन्तु तब से लेकर इस क्षण तक समूचा घटनाक्रम मैं भूल नहीं पाया।


भोंडे प्रदर्शन से हम सब परेशान हैं। कोई निमन्त्रण पत्र आता है तो खोल कर देखने से पहले ही मन में विचार आता है कि इस प्रसंग पर दी जाने वाली भेंट का आँकड़ा या स्वरूप कैसा हो। आयोजन में सम्भावित आमन्त्रितों की कल्पना कर, अपनी भेंट को लेकर अनायास ही मन में तुलना होने लगती है। ऐसे समय पर मैं प्रायः ही हीनताबोध से ग्रस्त हो जाता हूँ। ऐसा ही कुछ-कुछ सबके साथ होता ही होगा। तब, आयोजन का आनन्द, उसमें शामिल होने का सुख अपने आप ही कम होने लगता है। आत्मीयता की ऊष्मा पर औपचारिकता का पाला पड़ने लगता है। हम सब इससे त्रस्त हैं और मुक्ति चाहते हैं। किन्तु जब-जब भी ऐसी मुक्ति के अवसर मिलते हैं तो न तो खुद पहल करने की हिम्मत जुटा पाते हैं और न ही किसी की ऐसी अच्छी पहल को सफल होने देते हैं। हम न तो खुद ‘कुछ’ करते हैं और न ही किसी और को ‘कुछ’ करने देते हैं। इसके बावजूद हम दुनिया को दोष देते हैं कि दुनिया हमें आराम से जीने नहीं देती। गोया मैं ही गुनहगार, मैं ही फरियादी, मैं ही जज फिर भी न्याय नहीं मिल रहा लेकिन मेरा दोष बिलकुल ही नहीं। दुनिया दोषी।


हम ऐसे समाज के रूप में विकसित/स्थापित हो रहे हैं जहाँ हममें से कोई भी, कुछ भी खोना नहीं चाहता और चाहता है कि उसे सब कुछ मिल जाए। बिगाड़ से परेशान हम लोग सुधार को खारिज कर रहे हैं, बिगाड़ को न केवल निरन्तर किए जा रहे हैं अपितु उसे सशक्त तथा अधिक प्रतिष्ठित भी कर रहे हैं।


हम सचमुच में विचित्र लोग हैं। बिगाड़ के पक्षधर/संरक्षक बने रह सुधार की तलाश में निकले लोग।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

पार्टी निष्ठा का वाजिब दाम


सोमेश भिया परेशान थे। बैठ नहीं पा रहे थे। दस बाय दस का कमरा छोटा पड़ रहा था चहलकदमी के लिए। बार-बार दरवाजे की ओर देख रहे थे। ऐसे, मानो किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहे हों। दस-बीस बार मोबाइल जेब से निकाल कर देख चुके थे। न तो घण्टी आ रही थी और न ही कोई मिस काल नजर आ रहा था। उन्हें पूरा जमाना दुश्मन नजर आ रहा था। एक भी कारण नहीं मिल रहा था जिससे वे राहत हासिल कर पाते। तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि किसकी गति तेज है-उनकी चहलकदमी की या दिल की धड़कन की?
हिम्मत करके मैंने पूछा-‘सब ठीक तो है? परिवार या रिश्तेदारी में किसी की तबीयत तो खराब नहीं? कोई बुरी खबर मिली है क्या?’ सोमेश भिया झुंझला कर बोले-‘ऐसा कुछ होता तो तसल्ली होती। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। सब राजी-खुशी, सकुशल हैं।’
‘फिर?’
‘फिर क्या? अब तक न तो कोई आया है न ही कोई सम्पर्क कर रहा है। सबके सब या तो एक साथ समझदार हो गए हैं या दुश्मन।’
‘किसकी बात कर रहे हैं आप?’
‘अरे! पार्टीवालों की। और किसकी?’
‘क्यों? कोई पार्टी मीटिंग है जिसके बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे हैं?’
‘तुम पिटोगे। जख्मों पर मरहम लगा रहे हो या मेरे मजे ले रहे हो?’
उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि मुझे कुछ भी पता नहीं है। मैंने ‘बड़ी-बड़ी विद्या की कसम’ जैसी दो-चार कसमें खाईं तब उन्हें मेरे सवालों की ईमानदारी पर विश्वास हुआ। बोले-‘तुम्हें पता ही है कि मैंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में फार्म भरा है।’ यह बात मुझे ही क्या, सारे शहर को मालूम थी। मैंने कहा -‘तो?’ सोमेश भिया अकुलाते हुए बोले-‘इससे पहले हर बार ऐसा हुआ कि मेरा फार्म विड्रा करने के लिए पार्टीवाले लाइन लगा कर घर के बाहर खड़े होते थे। मान-मनौव्वल करते थे। मैं अपने खर्चे की और गुडविल की बात करता। वे अपना प्रस्ताव रखते। मैं अपना आँकड़ा बताता। थोड़ी हील-हुज्जत होती थी। फिर होता यह कि वे थोड़ा ऊपर आते, मैं थोड़ा नीचे उतरता और आखिरकार ‘न तुम्हारी, न मेरी’ पर आकर बात बन जाती। वे मेरा विड्रावल फार्म लेकर चले जाते और पार्टी के प्रति मेरी निष्ठा वाजिब भाव पर बनी रहती।’
मालूम तो मुझे भी था किन्तु सोमेश भिया के मुँह से सुनना अच्छा लगा। बोला-‘तो इसमें इतना बेचैन होने की बात क्या है?’
सामेश भिया बोले-‘दो बज रहे हैं। नाम वापस लेने का समय तीन बजे तक का है। मैं चुनाव लड़ना नहीं चाहता। चाहता क्या, लड़ ही नहीं सकता। जानता हूँ मेरे पास न तो पैसे हैं और न ही लोग मुझे वोट देंगे।’
‘तो नाम वापस ले लीजिए।’
‘बेवकूफ हो तुम। ऐसे कैसे वापस ले लूँ। एक बार मान लूँ कि इस बार भुगतान नहीं मिलने वाला। लेकिन कम से कम एक बार तो कोई मनुहार करे! मैं कह तो सकूँ कि वरिष्ठों के आग्रह और पार्टी हित के चलते मैंने नाम वापस ले लिया।’
‘तो फिर चुनाव लड़ ही लीजिए। जो होगा, देखा जाएगा।’
‘तुम दोस्त हो या दुश्मन? यह रिस्क नहीं ले सकता। मेरी बँधी मुट्ठी खुल जाएगी और साल-दो साल में मिलने वाले ‘निष्ठा मूल्य’ से हमेशा के लिए हाथ धोने पड़ जाएँगे। लोग हँसेंगे सो अलग।’
‘मैं किसी काम आ सकता हूँ?’ मैंने पूछा।
‘कर सको तो इतना करो कि पार्टी के किसी बड़े और जिम्मेदार आदमी से पाँच-सात लोगों की मौजूदगी में मुझे फोन करवा दो। मैं नाम वापस ले लूँगा।’
मैं चल पड़ा हूँ। तीन बजे से पहले-पहले मुझे सोमेश भिया की इच्छा पूर्ति करनी है। वरना तीन बज गए तो सोमेश भिया के बारह बज जाएँगे। हमेशा-हमेशा के लिए।
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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 29 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

शहर का लोकतान्त्रिक भ्रम


भले ही सारा शहर अच्छी तरह जानता हो कि वे चारों अनेक धन्धों में भागीदार हैं पर वे शहर मे एक साथ कहीं नजर नहीं आते। चारों अलग-अलग पार्टियों के कर्ता-धर्ता। कोई भी अपनी पार्टी का अध्यक्ष नहीं किन्तु कौन अध्यक्ष बने, यह वे ही तय करते। सो, वे अपनी-अपनी पार्टी में अध्यक्षों के अध्यक्ष। अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता जताने के लिए ही वे शहर में एक साथ नजर नहीं आते। सो, आज भी बन्द कमरे में ही साथ-साथ बैठे थे।


वे अपने आप में लघु भारत थे - एकता में अनेकता के सच्चे प्रतीक। वे उन भिन्न-भिन्न धर्माचार्यों की तरह थे जिनके रास्ते भले ही अलग-अलग होते हैं किन्तु अन्तिम लक्ष्य ईश्वर होता है। इसी लिहाज से इनका व्यावसायिक हित ही इनका राष्ट्र या ईश्वर था। इसीलिए, अपनी-अपनी पार्टी की राजनीति करते हुए इनमें से प्रत्येक, अपनी चैकड़ी के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देता था।


सदा बेफिकर और अलमस्त रहने वाले वे चारों आज चिन्तित थे। उन्हें अपने शहर के महापौर पद के लिए उपयुक्त आदमी तय करना था, कुछ इस तरह कि चुनाव भी वास्तव में होते हुए नजर आए और जीते भी वही जिसे ये चारों चाहें। पिछड़े वर्ग से या सुरक्षित वर्ग से किसी को या किसी महिला को उम्मीदवार बनाना होता तो कोई दिक्कत नहीं थी। किसी को भी बिजूका बनाया जा सकता था। किन्तु इस बार महापौर पद अनारक्षित हो गया था-सबके लिए खुला। याने कि सामान्य वर्ग के लिए। यही कठिनाई थी। इस वर्ग में तो उम्मीदवारों की भरमार थी। इस भरमार में से अपने लिए अनुकूल, ‘सूटेबल ब्‍वाय’ का चयन करने में चारों को पसीने छूट रहे थे।


‘बोलो! क्या कहते हो? लड़वा दें रामप्रसाद को?’


‘आदमी तो अच्छा है। पढ़ा-लिखा भी है। रुपये-पैसे से मोहताज भी है, अपने पर निर्भर है। लेकिन स्साला खुद्दार है। उसका स्वाभिमान जाग जाए तो किसी के बाप का नहीं रहता। कोई और नाम बताओ।’


‘तो फिर सलीम कैसा रहेगा? माइनारिटी का है। अपना सप्लायर भी है। काम धन्धे के लिए अपने पर ही निर्भर है।’


‘हाँ। आदमी तो कहना माननेवाला है। किन्तु तुम तो जानते हो, अपने यहाँ से कोई अल्पसंख्यक जीत ही नहीं सकता।’


‘देखो। सरकार भले ही हमारी पार्टी की है लेकिन पक्की बात है कि हमारे समाज के आदमी को उम्मीदवार बनाया जाएगा। चुनाव में हमारे समाज की निर्णायक भूमिका सारा शहर जानता है। सो, तुम हमारे समाज के किसी आदमी को अपना उम्मीदवार बनाओ। उसके जीतने की गुंजाइश ज्यादा रहेगी।’


‘क्या बात कही है पार्टनर! इसीलिए तो तुम्हें मानते हैं। लेकिन पार्टी लाइन और पार्टी अनुशासन आड़े नहीं आएगा?’


‘तू भी यार! क्या बेवकूफों जैसी बातें करता है? पार्टी अनुशासन तो अन्धों का हाथी है। अपनी सुविधानुसार उसे परिभाषित किया जा सकता है। तुम तो आदमी का नाम बताओ।’


‘है एक आदमी। पार्टी के प्रति निष्ठावान। ईमानदार भी है। उस पर कोई दाग भी नहीं है। रुपये-पैसे के नाम पर पूरी तरह से चन्दे पर निर्भर। बस! वह हाँ कर दे और पार्टी मान जाए।’


‘कौन है इस जमाने में ऐसा?’


‘अरे वही! अपना सुजान! गोली-बिस्किट की दुकानवाला। तकदीर का मारा है वर्ना एम। ए. फर्स्‍ट डिविजन में पास है। वो भी 68 बेच का जब डिग्री की इज्जत होती थी।’


‘अरे हाँ! बढ़िया रहेगा। वह हमारे समाज का भी है। उससे हाँ करवाना तो बाँये हाथ का खेल है। पार्टी हाईकमान को तुम सम्हालना। वहाँ मेरे मिलनेवाले भी हैं। मैं भी समझाऊँगा कि सुजान को उम्मीदवार बनाने पर तुम्हारी पार्टी का महापौर बनने का सपना पूरा हो सकता है।’


‘तो फिर सुजान तय रहा?’


‘मेरी ओर से तो पक्का।’


‘तुम दोनों कुछ नहीं बोल रहे? बोलो। क्या कहते हो?’


‘हमें बीच में क्यों घसीटते हो। हमारी पार्टियों को तो बस उम्मीदवार खड़ा करने की खानापूर्ति करनी है। पार्टी की मान्यता बनी रहे, इतने वोट पूरे प्रदेश में प्राप्त करना है। तुम जो करो वो तो हमें शुरु से ही मंजूर है।’‘तो फिर सुजान पक्का। चलो। शुरु हो जाओ। काम पर लग जाओ।’


चारों काम पर लग गए हैं। शहर को लग रहा है कि वो अपना महापौर चुन रहा है।

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(मेरे कस्बे में नगर निगम के चुनाव चल रहे हैं। उसी सन्दर्भ में लिखी यह पोस्ट, सम्पादित स्वरूप में, दैनिक भास्कर के रतलाम संस्करण में दिनांक 23 नवम्बर 2009 को प्रकाशित हुई है।)

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पत्राचार का अवसान



‘आपका पोस्टकार्ड मिला। आपका काम तो कर ही रहा हूँ लेकिन मैंने बरसों बाद पोस्टकार्ड देखा। मेरे छोटे बेटे ने तो पोस्टकार्ड ही पहली बार देखा।’ उधर से शास्त्री पुष्पोद्भवजी शर्मा मोबाइल पर बोल रहे थे। अपने मित्र की दो बेटियों की विस्तृत जन्म पत्रिकाएँ बनवाने के लिए उनसे बात हुई थी। यह काम मेरे ‘बकाया कामों की सूची’ में शामिल था। सो, मैंने पोस्टकार्ड लिख कर तकादा किया था।


नहीं जानता कि पोस्टकार्ड को लेकर शास्त्रीजी ने परिहास किया था अथवा कुछ और। किन्तु मुझे लगा, वे समूची पत्राचार विधा के अवसान की सूचना दे रहे हों। मेरे लिए यह पीड़ादायक और आश्चर्यजनक था।


पत्राचार के संस्कार मुझे दादा से मिले। अपनी अवस्था के उन्यासीवें वर्ष में वे अभी भी कम से कम पचास पत्र रोज लिखते हैं। कभी-कभी यह आँकड़ा सौ तक भी पहुँच जाता है। पत्र भेजने वाले ने यदि अपना पता लिखा है तो दादा का उत्तर-पत्र उसे निश्चित रूप से मिलता ही है। यह पत्र व्यवहार उनकी पहचान बन चुका है। निजी खर्च के नाम पर उनके खाता-बही में बस यही एक मद है। उनके पत्रों की संख्या को देखकर डाकघरवालों ने हमारे घर के पास ही डाक का डिब्बा लगवा दिया था।


हम घरवाले कभी-कभी उनके पत्राचार की आदत की खिल्ली उड़ाया करते थे। हम बच्चों में से कोई भी बाहर जाने के लिए निकलता तो दादा आवाज लगा कर दस-बीस पत्र थमा देते-‘ये डाक के डिब्बे में डाल देना।’ बाद-बाद में ऐसा होने लगा कि हम बच्चे लोग घर से निकलने से पहले उनसे पूछ लेते -‘चिट्ठियाँ डालनी हैं क्या?’ यह सवाल कभी-कभी उपहास भाव से पूछ लिया जाता। दादा ने कभी बुरा नहीं माना। डाँटा-फटकारा भी नहीं। एक बार मैंने पूछ लिया-‘क्या मिलता है आपको इतने पत्र लिख कर?’ अपने पास बैठाकर तब उन्होंने मुझे समझाया था कि यह एकमात्र तरीका है जिसके माध्यम से घर से बाहर निकले बिना ही सारी दुनिया से जुड़ा हुआ रहा जा सकता है। फिर उन्होंने कहा-‘डाक विभाग तो अपना अन्नदाता विभाग है। कवि सम्मेलन के निमन्त्रण, पारिश्रमिक के मनी आर्डर, बैंक ड्राट सब कुछ डाक से ही आते हैं। इसी से अपना घर चल रहा है।’ इसके बाद मैंने कभी भी उनकी इस आदत का उपहास नहीं उड़ाया। हाँ, ‘सब राजी खुशी है तो पत्र लिखने का क्या मतलब?’ धारणा वाले घर में अब हम दो ‘मूर्ख’ हो गए थे।


‘पत्र मित्रता’ उन दिनों अतिरिक्त पहचान और प्रतिष्ठा दिलाती थी। अपने परिचय में ‘हॉबी’ में जब ‘पत्र मैत्री’ बताता तो मैं सबसे अलग गिना जाता। मन्दसौर और रामपुरा में कॉलेज के दिनो में मेरे नाम आने वाले पत्रों की संख्या सबके लिए अचरज और ईर्ष्‍या का विषय होती। रामपुरा के नन्दलाल भण्डारी छात्रावास में हमारी सेवा करने वाले ‘नानाजी’ (उनका नाम नानूरामजी था) छात्रावास की डाक लेकर लौटते तो मेन गेट से ही मुझे ‘ले! तेरा पोस्ट आफिस आ गया’ कह कर झोला मुझे थमा देते।


बीमा एजेण्ट के रूप में मुझे जो भी थोड़ी बहुत सफलता और पहचान मिली है उसके पीछे पत्राचार का बड़ा हाथ है। मेरे प्रत्येक पॉलिसीधारक के घर में मेरे लिखे पत्र मेरी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जन्म दिन और विवाह वर्ष गाँठ पर भेजे मेरे बधाई पत्र कई घरों में केलेण्डरों पर चिपके नजर आते हैं। यह पत्राचार ही है जिसके कारण मुझे साल में कुछ बीमे घर बैठे मिल जाते हैं। डाक विभाग आज मेरा अन्नदाता विभाग बन गया है। जहाँ भी जाता हूँ, मेरे पत्रों की प्रशंसा सुनने को मिलती है। लोग कहते हैं-‘हम लिखें या न लिखें, आप जरूर हमें पत्र लिखते रहिए।’ मुझे तकलीफ भी होती है और हँसी भी आती है। कहता हूँ - ‘पत्र व्यवहार या पत्राचार दो पक्षों से ही सम्भव हो पाता है। मैं अपनी ओर से क्या लिखूँगा और कब तक लिख सकूँगा? व्यवहार के लिए कम से कम दो पक्ष होने चाहिए।’


लेकिन देख रहा हूँ कि मुझे मिलने वाले पत्रों में कमी आ रही है। गए दो वर्षों में स्थिति यह नाम मात्र की बन कर रह गई है। दीपावली प्रसंग पर मैं प्रति वर्ष लगभग आठ सौ पत्र भेजता हूँ। तीन वर्ष पहले तक लगभग सौ के उत्तर आ जाते थे। एक वर्ष पहले यह संख्या तीस के आसपास आ गई। इस वर्ष तो दस लोगों ने भी उत्तर नहीं दिए। हाँ, एसएमएस की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। इस साल लगभग अस्सी एसएमएस मिले अवश्य किन्तु अधिकांश फारवर्ड किए हुए। सो, एसएमएस तो अस्सी आए किन्तु सन्देश दस भी नहीं थे।


कहाँ तो हस्तलिखित पत्र और कहाँ एसएमएस! जड़ और चेतन वाली तुलना याद आ जाती है। विभिन्न हस्तलिपियों में लिखे वाक्यों पर हाथ फेरते हुए लगता मानो लिखने वाले के हाथ अपने हाथों में लेकर उससे बात कर रहा हूँ। कागज पर उभरी पंक्तियाँ प्राणवान होकर बोलती लगतीं। एक बार पढ़ने से जी नहीं भरता तो उलट-पुलट कर दूसरी बार, तीसरी बार, बार-बार पढ़ता। कोई पत्र छोटा, एक पन्ने का तो कोई पत्र पाँच-छः पन्नों का।


लेकिन अब सब कुछ अतीत हुआ जा रहा लग रहा है। एसएमएस और इण्टरनेट पर मिलने वाले सन्देश गतिवान तो हैं किन्तु प्राणवान नहीं। इनमें जिन्दगी नहीं धड़कती। मैं आज भी आठ-दस पत्र रोज लिखता हूँ। आने-जाने वाले हैरत से पूछते हैं -‘आप अभी भी पत्र लिखते हैं! हम से तो नहीं लिखा जाता। आदत ही नहीं रही।’
लगता है, अपनी तीसरी पीढ़ी की सन्तानों को सुनाने के लिए मेरे पास लोक कथाओं के नाम पर पत्राचार के अनुभव होंगे। पोस्टकार्ड, अन्तरदेशीय पत्र, लिफाफा, बुक-पोस्ट, रजिस्टर्ड पत्र, स्पीड पोस्ट, मनी आर्डर, डाक टिकिट, बेरंग पत्र जैसे उल्लेख उन्हें चकित करेंगे।


तब हमारी शुभ-कामनाएँ, बधाइयाँ, उलाहने, शिकायतें या तो इण्टरनेट पर मिलेंगी या फिर शून्य में अदृश्य तैरती रहेंगी।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


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अथ अतिक्रमण आख्यान


भैयाजी के साथ यह बड़ा आराम है। वे पार्टी में हैं जरूर किन्तु उनका कोई हाईकामन नहीं। सो, हाईकमान को अपना फैसला जब और जो लेना हो ले लेगी, भैयाजी ने तो फैसला ले लिया। वे चुनाव लड़ेंगे ही।
चुनाव में कुछ ऐसी भी रस्में निभानी पड़ती हैं जिनकी न तो कोई उपयोगिता होती है न ही जिनमें किसी का विश्वास होता है। चुनाव घोषणा-पत्र जारी करना उनमें से एक है। बेफिकर होकर जारी कर दो। कोई नहीं पढ़ता। और पढ़ ले तो याद कौन रखता है? इस खानापूर्ति के लिए भैयाजी ने मुझे बुलवा भेजा। मैं शुरु होता उससे पहले भैयाजी ने समझाया - ‘देखो! मुद्दे तो सब रखना किन्तु इस तरह कि पढ़नेवाला उनका मतलब नहीं निकाल सके। अपने लिखे का मतलब अपने मनमाफिक निकालने की सुविधा अपने पास ही रहनी चाहिए।’
काम कठिन था। एकदम इंकार कर देने काबिल। किन्तु यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। अपनी सूझ-बूझ और क्षमता से जैसा भी बन पड़ा, लिख कर पेश किया। उम्मीद के खिलाफ भैयाजी ने बहुत ही ध्यान से उसे देखा ही नहीं, पढ़ा भी। मेरी ओर देखे बिना बोले-‘अच्छा है। लेकिन इसमें से अतिक्रमण हटाने वाली बात हटा दो।’ मैंने बुदबुदाते हुए कहा-‘किन्तु यह तो मूल समस्या है। इसे खत्म किए बिना सौन्दर्यीकरण, सुगम यातायात, सड़कों को उनके मूल चैड़े स्वरूप में लाना आदि काम कैसे हो सकेंगे?’ भैयाजी को अच्छा नहीं लगा। मुझ पर और मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए बोले-‘तुम बुद्धिजीवियों के साथ यही दिक्कत है। आदर्श बघारते हो, हकीकत बिलकुल नहीं समझते। पहले तो इसे घोषणा-पत्र में से हटाओ। फिर बताता हूँ।’ मैंने पालतु-पशु की तरह उनका कहा माना और टुकुर-टुकुर भैयाजी की ओर देखने लगा।
मेरी दशा देख भैयाजी हँस पड़े और उसके बाद उन्होंने मुझे ‘अथ अतिक्रमण कथा’ के रूप में अपनी बात कुछ इस तरह कही -
अतिक्रमण ऐसी मानवीय क्रिया है जो ईश्वरीय होने की बराबरी करती है। सच तो यह है कि ईश्वर और मृत्यु के बाद अतिक्रमण ही सबसे बड़ा सच है। यह सच्चा समाजवादी कारक भी है। छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर, शहरी-ग्रामीण, हर जाति, समाज, वर्ग का आदमी इसे समान अधिकार से, समान प्रसन्नता से और समान एकाग्रता से करता है। इससे वही बच जाता है जिसे या तो यह करने का अवसर नहीं मिलता और यदि अवसर मिलता है तो करने का साहस नहीं जुटा पाता। वर्ना, इससे कोई नहीं बच पाता। इसके बारे में सबकी राय भी एक जैसी है। हर कोई इसके विरुद्ध चिल्लाता है, इसे हटाने की माँग करता है किन्तु साथ ही साथ चाहता और कोशिश करता है कि उसके द्वारा किए गए अतिक्रमण पर किसी की नजर न पड़े। इससे सबकी रोजी-रोटी चलती है। इसे करने वाला तो लाभान्वित होता ही है, इसे हटाने की मुहीम चलाने वाला भी लाभान्वित होता है। जैसे ईश्वर सत्य और जगत् मिथ्या है, वैसे ही अतिक्रमण सत्य और बाकी सब मिथ्या है। यह व्यक्ति के पौरुष भाव को भी तुष्ट करता है। वैसे देखो तो बलात्कार और अतिक्रमण में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु इसमें बलात्कार से अधिक सुख और सुरक्षा है। इसमें फरियाद करनेवाला, एफआईआर दर्ज करवानेवाला पक्ष नहीं होता क्योंकि सबके सब आरोपी होते हैं। इसमें बहुमत सदैव आपके साथ होता है। यह स्थायी है, जैसाकि पहले कहा, बिलकुल ईश्वर की तरह। इसे हटाने की मुहीम यदा-कदा चलती जरूर है किन्तु वह मुहीम ही अस्थायी होती है। आज चली, कल बन्द और अतिक्रमण फिर जस का तस।
एक बात और। यह भ्रम दूर कर लेना कि अतिक्रमण जमीन पर ही किया जाता है। यह तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किया जा सकता है, किया जाता है और किया जा रहा है। सो, कहाँ-कहाँ का अतिक्रमण हटाया जाए? अरे! अतिक्रमण तो पूजनीय क्रिया है-सबको काम दे, सबसे काम ले और सबको काम पर लगाए रखे। नेताओं के लिए तो यह सर्वाधिक मुफीद तत्व है। इसका कोई निदान नहीं सो प्रत्येक नेता इसे हल करने का आश्वासन पूरे आत्म विश्वास से देता रहता है। जानता है कि इस आश्वासन को याद भी नहीं करना पड़ेगा। यह तो ‘सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय’ क्रिया है। इसकी ओर तिरछी निगाह से देखकर पाप के भागीदरी मत बनो।
भैयाजी की बातें मुझे न केवल समझ में आ गई बल्कि साहस और स्फूर्ति का संचार भी कर गई। अपने घर के आगे, खाली पड़ी नगर निगम की जमीन मुझे बुला रही है।
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(मेरे कस्‍बे के नगर निगम चुनाव के सन्‍दर्भ में लिखी गई मेरी यह टिप्‍पणी, सम्‍पादित स्‍वरूप में दैनिक भास्‍कर, रतलाम में प्रकाशित हुई है।)
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रुढ़ी बन रही परम्परा


एक परम्परा हमारे देखते-देखते रुढ़ी बन रही है। हमारे देखते-देखते ही नहीं, शायद हम सब मिल कर अत्यन्त प्रेपूर्वक और यत्नपूर्वक इसे रुढ़ी बना रहे हैं।


यह परम्परा है - सगाई जिसे अंग्रेजी में ‘एंगेजमेण्ट’ कहा जाता है। दो अलग-अलग परिवारों की परस्पर सहमति से, इन दोनों परिवारों के लड़के-लड़की का विवाह तय करने के निर्णय को सामाजिक/सार्वजनिक रूप से प्रकट करने के लिए जो समारोह किया जाता है उसे कहीं ‘सगाई’ तो कहीं ‘तिलक’ कहा जाता है। संस्कृत में इसके लिए ‘वाग्दान समारोह’ शब्द युग्म प्रयुक्त किया जाता है। यह समारोह तब किया जाता है जब सम्बन्ध तय होने और विवाह होने के बीच सुदीर्घ अन्तराल हो। यह सम्भवतः इसलिए किया जाता रहा होगा ताकि कोई पक्ष बाद में इससे इंकार न कर दे और दूसरे पक्ष को सामाजिक अवमानना का शिकार न होना पड़े। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक/सार्वजनिक साक्ष्य में दोनों परिवार ऐसे सम्बन्ध के लिए परस्पर वचनबद्ध होते थे।


आज परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। आज तो सम्बन्ध तय होने के साथ ही विवाह का दिनांक भी तय हो जाता है। ऐसे में, सम्बन्ध तय होने और विवाह होने में बहुत ही कम समय रहने लगा है। कभी-कभी तो यह अन्तराल एक पखवाड़े से भी कम का होता है। ऐसे में ‘सगाई’ या कि ‘तिलक’ अथवा ‘वाग्दान’ स्वतः ही अनावश्यक हो गया है। किन्तु हम बिना साचे-विचारे, परम्परा निर्वहन के नाम पर उत्साहपूर्वक इसे आयोजित और सम्पादित करते हैं।


स्थिति यह हो गई है कि विवाह के विस्तृत (पारिवारिक स्तर पर दिए जाने वाले) निमन्त्रण पत्रों में दिए गए कार्यक्रमों में सगाई और फेरों की सूचना एक साथ दी जा रही है।


यह न केवल आपत्तिजनक अपितु अनुचित भी है। सगाई कोई संस्कार नहीं है। गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित हो रहे मासिक ‘कल्याण’ का, सन् 2006 में प्रकाशित 492 पृष्ठीय ‘संस्कार-अंक’ (वर्ष 80, अंक 1) मैंने यथासम्भव पूरी सतर्कता से, सचेष्ट होकर पढ़ा है। इसमें सर्वत्र 16 संस्कारों का उल्लेख किया गया है जिनमें ‘वाग्दान’ का उल्लेख कहीं नहीं है। जहाँ-जहाँ ‘उप संस्कार’ उल्लेखित किए गए हैं, उनमें भी ‘वाग्दान’ का उल्लेख कहीं नहीं है। ऐसे सन्दर्भों में ‘कल्याण’ की अपनी आधिकारिकता है जिसे चुनौती दे पाना असम्भवप्रायः ही होगा।


जहाँ विवाह सम्बन्ध तय होने के साथ ही विवाह तिथि भी तय कर ली गई हो वहाँ सगाई या कि तिलक या वाग्दान के लिए अलग से समारोह आयोजित करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। वस्तुतः यह ऐसा आयोजन बन कर रह जाता है जो न केवल दोनों (वर, वधू) पक्षों पर अपितु दोनों पक्षों के रक्त सम्बन्धियों और व्यवहारियों पर भी अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालता है। परम्परा के नाम पर यह आयोजन भोंडे प्रदर्शन का तथा अपव्यय का सबब बनता जा रहा है। मैं ऐसे अनेक विवाहों में शामिल हुआ हूँ जिनमें शाम को लग्न होने थे और दोपहर में सगाई समारोह आयोजित किए गए। मेरे पूछने पर हर बार मुझे ‘परम्परा’ की दुहाई सुनने को मिली। मैंने जब इसकी तार्किकता पर सवाल किए तो मेरी बात मानी तो सबने किन्तु आयोजन की अनिवार्यता पर सबके सब कायम रहे।


कुछ समाजों/जातियों में तो इस आयोजन के नाम पर वधू पक्ष से अच्छी-खासी वसूली की जाती है और वर पक्ष अपने सम्बन्धियों/व्यवहारियों को तगड़ा नेग दिलाता है। मैं मेरे कस्बे में एक ऐसे सगाई समारोह में शामिल हुआ हूँ जिसका आयोजन इतना भव्य, भड़कीला और खर्चीला था जिसमें मुझे जैसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति के यहाँ दो विवाह निपटाए जा सकते थे। सब कुछ पूरी तरह से चकाचौंध भरा, फिल्मी प्रभाववाला था।


मुझे लगता है कि हम केवल कपड़ों और शेखी बघारने में ही प्रगतिशील हुए हैं, वास्तविक आचरण में नहीं। दहेज की तरह ही ‘सगाई’ भी अब एक बुराई के रूप में स्थापित होती जा रही है जिसे परम्परा के नाम पर हम सब बड़े यत्नपूर्वक ढोए जा रहे हैं। इसमें, पैसेवालों को तो कोई अन्तर नहीं पड़ रहा किन्तु गरीब की मौत हो रही है।


क्या हम इस (कु) परम्परा को रुढ़ी बनने से रोक पाएँगे?
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मोहन भागवत के लिए ठीक समय


मोहन भागवत, अब तक के सर संघ चालकों के मुकाबले तनिक अधिक मुखर, अधिक साहसी तथा अधिक पारदर्शी नजर आ रहे हैं। वे कहते अवश्य हैं कि भाजपा के माँगने पर ही संघ अपनी राय देता है किन्तु सारा जमाना देख रहा है कि वे भाजपा के बिना माँगे और बिना चाहे ही, भाजपा का भविष्य तय कर रहे हैं। यह ठीक समय है कि भागवत इस पार्टी को सम्भ्रम की दशा से उबार लें।फिलहाल भाजपा (और संघ के अन्य समस्त आनुषंगिक संगठनों) की दशा ‘संघ की नाजायज औलाद’ या फिर ‘संघ की रखैल’ जैसी बनी हुई है। ऐसा करके संघ कोई भी जिम्मेदारी उठाए बगैर, सारे राजनीतिक सुख भोगता है। किन्तु पारदर्शिता के इस जमाने में स्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं।


भारतीय लोकतन्त्र को सेहतमन्द बनाए रखने के लिए मजबूत प्रतिपक्ष बेहद जरूरी है जिसकी पूर्ति फिलहाल केवल भाजपा के जरिए ही होती नजर आती है। इसलिए, भाजपा का मजबूत होना समय की माँग है। इसके लिए सबसे पहली जरूरत है कि भाजपा की सार्वजनिक स्थिति सुस्पष्ट हो। यह ‘दो-टूक’ रूप से तथा आधिकारिक रूप सेस्पष्ट हो जाना चाहिए कि संघ ही भाजपा है और भाजपा ही संघ है। इसके अपने नुकसान हो सकते हैं किन्तु भारतीय जनमानस की एक बड़ी उलझन दूर होगी और जो लोग भाजपा को लेकर ऊहापोहग्रस्त होकर भाजपा से छिटके हुए हैं, उन्हें निर्णय लेने में आसानी होगी।


मोहन भागवत जिस तरह से खुलकर खेल रहे हैं उससे अब केवल यह आधिकारिक घोषणा ही बाकी रह गई है कि संघ ही भाजपा है और भाजपा ही संघ है। यह घोषणा अब कर ही देनी चाहिए। इससे भाजपा की (और संघ की भी) सार्वजनिक विश्वसनीयता बढ़ेगी और भाजपा की सांगठनिक ताकत भी।


‘भई गति साँप छँछूदर केरी’ की दशा में जी कर भाजपा वैसे भी अविश्वसनीय और अछूत बनी हुई है। आज स्थिति यह है कि भाजपा से कोई भी राजनीतिक गठबन्धन करते समय प्रत्येक राजनीतिक दल भाजपा को सन्देह की दृष्टि से देखता है।


इससे भाजपा एक गम्भीर आरोप से भी बच सकेगी। राजनाथ सिंह घोषित कर चुके हैं कि भाजपा अपनी मूल नीति नहीं बदलेगी। इसकी मूल नीति है - एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र। यह नीति अन्य राजनीति दलों के खाँचे में फिट नहीं बैठती है। इसलिए, जब-जब भी गठबन्धन का अवसर आता है तब-तब, हर बार, केवल भाजपा को ही अपनी मूल नीति छोड़नी पड़ती है। यही कारण था कि एनडीए के गठन के समय भी भाजपा को अपने तीनों मुख्य मुद्दे (राम मन्दिर, धारा 370 तथा समान नागरिक संहिता) छोड़ने पड़े थे। इतिहास साक्षी है कि भाजपा के सिवाय किसी भी दल ने अपना कोई भी मुद्दा नहीं छोड़ा था। जाहिर है कि इन मुद्दों के कारण ही भाजपा ‘राजनीतिक अछूत’ बनी हुई थी। तब यही हुआ था कि भाजपा सत्ता में तो आ गई थी किन्तु राम मन्दिर न बना पाने का आरोप लगातार झेलती रही जिसका खामियाजा उसे, बाद में होने वाले प्रत्येक चुनाव में झेलना पड़ा और शर्मिन्दगी भी उठानी पड़ी। ऐसे में, यदि संघ, भाजपा को सुस्पष्ट रूप से ‘टेक ओव्हर’ करता है तो भाजपा इस दशा से उबरेगी। तब, भाजपा से गठबन्धन करने वाला राजनीतिक दल भली प्रकार जानकर गठबन्धन करेगा, भाजपा को राजनीतिक अछूत मान कर नहीं। और तब भाजपा को अपने मुद्दे छोड़ने के आरोप भी नहीं झेलने पड़ेंगे।


अनुभव यह हो रहा है कि भाजपा के माध्यम से संघ सब कुछ हासिल तो करना चाहता है किन्तु खोना कुछ भी नहीं चाहता। इसी बिन्दु पर मोहन भागवत को साहस दिखाना चाहिए। जिस प्रकार सबको खुश करने की कोशिश में आप किसी को भी खुश नहीं रख सकते उसी प्रकार बिना कुछ खोए आप कुछ हासिल भी नहीं कर सकते। मोहन भागवत इतने नादान नहीं हैं कि यह छोटी सी बात न समझते हों।


यह ठीक समय है कि मोहन भागवत रणनीतिक साहस बरतें और भारतीय राजनीति को नए तेवर दें।


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