निजी सपने साकार करने के लिए प्रयास भी निजी ही होते हैं। किन्तु सपना यदि राष्ट्र का या राष्ट्र पुरुष का हो तो? कहना निरर्थक ही होगा कि तब पूरे राष्ट्र को और सारे नागरिकों को इस हेतु प्रयास करने पड़ेंगे। किन्तु करता कौन है? शायद ही कोई ऐसा ‘करने’ पर सोचे। हर कोई सोचता है कि उसके सिवाय बाकी सब लोग यह सपना पूरा करें। यह अलग बात है कि पूरा देश चाहता होता है कि यह सपना पूरा हो। चाहत सबकी, कोशिश किसी की नहीं! हमारे संकटों का एक बड़ा (इसे ‘सबसे बड़ा’ कहने को जी कर रहा है) कारण शायद यही है - चाहत सबकी, कोशिश किसी का नहीं।
किन्तु कुछ पागल लोग हर काल, हर देश में, पाये जाते हैं। ऐसा ही एक ‘पागल’ मेरे कस्बे (रतलाम) में है। ये हैं श्री तैयबअली सफदरी। इनकी उम्र अभी अस्सी बरस है किन्तु जज्बा उस किशोर जैसा जिसकी मसें अभी भीग रही हों और जो इश्किया जुनून में आसमान से तारे तोड़ लाने या पहाड़ तोड़ कर दरिया बहा लाने को उतावला हुआ जा रहा हो। वे रहते दुबई में हैं किन्तु उनकी जड़ें रतलाम में हैं। दुबई में रहते हुए अपनी जमीन को सहेजने की जुगत में लगे रहते हैं ताकि जड़ें मजबूत बनी रहें।
वैचारिकता से प्रगतिशील और स्वभाव से उद्यमी सफदरीजी ने अपनी जेब से भरपूर रकम लगा कर 25 मार्च 2011 को रतलाम में एक सार्वजनिक वाचनालय शुरु किया। नाम दिया - ‘विजन 2020 लायब्रेरी।’ मेरा विषय तो यह वाचनालय ही है किन्तु सफदरीजी के बार-बार उल्लेख के बिना मेरी बात पूरी नहीं हो पाएगी। वाचनालय शुरुआत के पीछे सफदरीजी का ‘आधार-विचार’, भारत के पूर्व राष्ट्रपति, विज्ञान पुरुष ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का वह विचार रहा जिसमें उन्होंने 2020 तक भारत को दुनिया का सिरमौर हो जाने की बात कही थी। कलाम साहब की, इसी शीर्षक (इण्डिया विजन 2020) वाली पुस्तक से पूरी बात समझी जा सकती है। सफदरीजी, ‘शिक्षा और ज्ञान’ को सफलता और उपलब्धियों की पहली अनिवार्य शर्त मानते हैं जो प्रथमतः पुस्तकों से ही पूरी की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने सार्वजनिक वाचनालय को श्रेष्ठ माध्यम माना और इसकी शुरुआत कर दी। दिन चुना 25 मार्च 2011 - दाऊदी बोहरा समाज के अन्तरराष्ट्रीय धर्म गुरु सैयदनाजी का सौवाँ जन्म दिन।
यह वाचनालय अपनी पहली वर्ष गाँठ की ओर बढ़ रहा है। सफदरीजी इस बीच दोबार भारत आ चुके हैं। पहले आते थे तो जन-सम्पर्क तक ही सीमित रहते थे। किन्तु इन दोनों बार वे इस वाचनालय पर ही केन्द्रित रहे। चाँदनी चौक स्थित पालीवाल मार्केट के, सड़क के सामनेवाले एक छोटे से भाग में स्थित इस वाचनालय में सफदरी साहब अब तक सभी विषयों और विधाओं की एक हजार से अधिक पुस्तकें मँगवा चुके हैं और यह क्रम निरन्तर है। वाचनालय नियमित रूप से, सुबह साढ़े आठ बजे से दोपहर एक बजे तक और अपराह्न साढ़े तीन बजे से रात आठ बजे तक खुलता है। लोग आ-जा रहे हैं। आनेवालों में बच्चे अधिक हैं, वयस्क कम।
इस बार सफदरीजी आए तो मुझे बुलाया। उन्हें यह जानकर तो अच्छा लगा कि 'आत्म मंथन' ब्लॉंग वालेहमारे अग्रणी ब्लॉगर श्री मन्सूरअली हाशमी के जरिये मैं इस वाचनालय के बारे में पहले से ही जानता हूँ किन्तु ‘अच्छा लगने‘ के मुकाबले इस बात पर अप्रसन्न और कुपित अधिक हुए कि इस मामले में मैंने अब तक कुछ किया क्यों नहीं। मैंने कुछ कहने की कोशिश की तो वे मानो किसी ‘क्रूर हेडमास्टर’ की मुद्रा में बेंत लेकर ऐसे खड़े हों कि मैं कुछ कहने की कोशिश करूँ तो वे बेंत लहराते हुए ‘चो ऽ ऽ ऽ ऽ प्प!’ कहकर मेरी बोलती बन्द कर दें। उन्होंने पूछा - ‘इसके बारे में तुमने कितने लोगों को बताया? कितने लोगों से बात की?’ मैंने कहा ‘कुछ लोगों से बात की।’ मेरी बात खत्म हो उससे पहले सवाल आया - ‘उनमें से कितने लोग यहाँ आए?।’ मैंने कहा - ‘मुझे नहीं मालूम।’ मानो ‘सटाक्’ से बेंत मारी हो, इस तरह कहा - ‘तो फिर तुमने खाक बात की! बात तो वह होती है जिसका असर हो!’ मेरी भलाई और सुरक्षा इसी में थी कि मैं चुप रहता।
मेरी चुप्पी ने सफदरीजी की बातों के लिए मैदान खोला। वाचनालय को लेकर उनकी चाहत और अधीरता के सामने मैं नतमस्तक हो गया। उम्र 80 बरस और अधीरता चौथी-पाँचवी में पढ़ रहे उस बच्चे जैसी जो अपनी पहली ही पहल को आसमान पर चस्पा देखना चाहता हो। उनकी इच्छा है कि इस वाचनालय में पाठकों का आना-जाना ऐसा और इतना हो कि यहाँ के सेवक को सर उठाने का मौका न मिले, दोपहर में, वाचनालय के बन्द रहने के समय (दोपहर एक बजे से साढ़े तीन बजे तक) नगर के लिखने-पढ़नेवाले लोग, कवि-साहित्यकार यहाँ अड्डेबाजी, गप्प-गोष्ठी करें, इस वाचनालय को ‘विमर्श केन्द्र’ का पर्याय बना दें।
इसके प्रचार-प्रसार हेतु अपनी इस बार की यात्रा में सफदरीजी ने दो-तीन तरह के फ्लेक्स बैनर बनवाए। हजार-ग्यारह सौ ’पर्यावरण रक्षक थैलियाँ‘ बनवाईं कि जो भी सदस्य बनेगा, एक थैली का निःशुल्क हकदार होगा। फ्लेक्स बैनर लेकर अपने बड़े बेटे मुर्तुजा को बैंक, विद्यालय जैसे संस्थानों/कार्यालयों में भेजा जहाँ लोगों का आना-जाना अधिक हो। एक-दो संस्थानों ने आगे बढ़कर बैनर लगाया तो अधिकांश ने ‘हमारे कानून इसकी अनुमति नहीं देते’ जैसे तर्क देकर माफी माँग ली जबकि बैनर में किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं, व्यापारिक-वाणिज्यिक लाभ की कोई बात नहीं। सब कुछ सार्वजनिक और पूरी तरह निःशुल्क। किन्तु चूँकि यह ‘सामान्य हरकत’ नहीं है, एक आदमी के पागलपन का हिस्सा है, सो पहली ही कोशिश में कामयाबी मिल जाए जरूरी नहीं।
सफदरीजी दुबई से रोज ही अपने सहयोगियों को फोन कर, वाचनालय के बारे में जानकारी लेते हैं और समुचित निर्देश भी देते हैं। ऐसा करते समय एक बात हर बार कहते हैं - ‘पैसों की फिकर मत करना। बस! लायब्रेरी को रतलाम के तमाम बाशिन्दों तक पहुँचाओ ताकि ‘इण्डिया विजन 2020’ का मकसद हासिल किया जा सके।’ उनके आसपासवालों से मुझे उनके सन्देशों के समाचार मिलते रहते हैं और मैं मन ही मन डर रहा हूँ - वे मुझे फोन नहीं कर दें। मैंने भी एक-दो, छोटे-छोटे कामों की जिम्मेदारी ले रखी है जो अब तक पूरे नहीं किए हैं। मैं क्या जवाब दूँगा?
मैं सोच रहा हूँ - दुबई में बैठे, अस्सी साल के एक बूढ़े भारतीय को इससे क्या फर्क पड़ता है कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का सपना पूरा हो या नहीं? क्यों नहीं सफदरीजी अपने नातियों-पोते/पोतियों के सामीप्य का आनन्द उठाकर जीवन का आनन्द लें? चौथे काल में चल रहे हैं तो क्यों नहीं धार्मिक क्रियाओं, कर्म काण्डों में खुद को व्यस्त कर लेते ताकि जीवन सफल हो जाए? सोचते-सोचते अपने अधकचरेपन पर पहले तो झेंप आती है, फिर हँसी - ये सारी बातें तो सफदरी साहब मुझसे पहले ही जानते होंगे! फिर भी वे एक वाचनालय के पीछे पड़े हुए हैं! न खुद सोते हैं न यहाँवालों को सोने दे रहे हैं! यह सब क्या है?
किन्तु मैं ही गलत सोच रहा हूँ। किसी राष्ट्र के लिए शायद यही सब कुछ है। ऐसे जुनूनी या कि सनकी या कि पागल लोग ही वह रास्ता बना देते हैं जिस पर चल कर आनेवाली सन्ततियाँ अपनी भूमिका निभा सकें - यह जाने बिना कि यह रास्ता किसने बनाया था। सफदरीजी ऐसे अकेले आदमी नहीं होंगे। पता नहीं, देश में कहाँ-कहाँ ऐसे सफदरीजी चुपचाप अपना-अपना काम कर रहे होंगे। इन सबका अपनाअपना, कोई न कोई राष्ट्र पुरुष होगा जिसके सपने को अपना सपना मानकर उसे पूरा करने के पागलपन में ये लोग अपने आप को खपा रहे होंगे। व्यक्तिगत स्तर पर इन्हें क्या मिलेगा? कुछ भी तो नहीं! लेकिन इन सबके मन में एक विचार समान रूप से काम कर रहा होगा - ‘कि दाना खाक में मिल कर, गुल-ओ-गुलजार होता है।’ यह भावना ही किसी राष्ट्र का मूल-धन होती है।
मेरी बात आपको अच्छी तो लगेगी ही और आप सफदरीजी के साथ-साथ मुझे भी सराहेंगे। किन्तु याद रखिएगा - मैं सफदरीजी की नहीं, उनके द्वारा शुरु की गई लायब्रेरी की बात कर रहा हूँ। यदि आप रतलाम में हैं तो ऐसा कुछ कीजिए कि लायब्रेरी को लेकर सफदरीजी की चिन्ता में कमी आए। और यदि आप रतलाम से बाहर हैं तो जब भी रतलाम आएँ, थोड़ी देर के लिए ही सही, ‘विजन 2020 लायब्रेरी’ अवश्य जाएँ।
वहाँ जाकर आपको कैसा लगा - यह जानने की उत्सुकता रहेगी मुझे।