बधाई याने धन्यवाद याने क्या फर्क पड़ता है?

ऐसा मेरे साथ पहले कम होता था, बहुत कम। कभी-कभार ही। किन्तु अब तो अत्यधिक होने लगा है - महीने में पन्द्रह-बीस बार। याने, तीन दिनों में दो बार। जब भी ऐसा होता है, झुंझला जाता हूँ। खीझ/चिढ़ आ जाती है। भयभीत होने लगा हूँ कि कहीं मैं भी यही सब न करने लग जाऊँ।

लोगों ने ‘बधाई’ और ‘धन्यवाद’ में अन्तर करना बन्द कर दिया है। दोनों को पर्याय बना दिया है। जहाँ बधाई देनी होती है वहाँ धन्यवाद दे रहे हैं और जहाँ धन्यवाद देना होता है, वहाँ बधाई दे रहे हैं। यह सब इतनी तेजी से, इतनी अधिकता से और इतनी सहजता से हो रहा है कि किसी से नमस्कार करने में भी डर लगने लगा है।

हो यह रहा है कि किसी से आमना-सामना हुआ तो ‘राम-राम, शाम-शाम’ के बाद, सम्वाद कुछ इस तरह से होता है -

‘बधाई दादा आपको। बहुत-बहुत बधाई।’

‘बहुत-बहुत धन्यवाद। लेकिन किस बात की?’

‘वो आपने अपने लेख में मेरा जिक्र किया था ना? उसी की।’

‘तो उसके लिए तो आपने धन्यवाद कहना चाहिए।’

‘वही तो कहा!’

‘वही कहाँ कहा? आपने तो मुझे बधाई दी। धन्यवाद नहीं दिया।’

‘एक ही बात है। मैंने बधाई कहा। आप उसे धन्यवाद समझ लीजिए। क्‍या फर्क पड़ता है?’

‘एक ही बात कैसे? और बधाई को धन्यवाद कैसे समझ लूँ? फर्क क्‍यों नहीं पड़ता? दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है। बधाई तो सामनेवाले के यहाँ कोई खुशी होने पर, उसे कोई उपलब्धि होने पर, कोई उल्लेखनीय सफलता मिलने पर, उसका कोई रुका काम पूरा हो जाने पर जैसी स्थितियों में दी जाती। ऐसा कुछ तो मेरे साथ हुआ नहीं। इसके उल्टे, मेरे लेख में आपका जिक्र होने से आपको मेरे कारण खुशी मिली, मेरे कारण आपका नाम हुआ इसलिए आप तो मुझे धन्यवाद देंगे, बधाई नहीं।’
‘आप विद्वानों के साथ यही दिक्कत है। बात को समझने के बजाय शब्दों को पकड़ कर बैठ जाते हैं! इतनी बारीकी आपको ही शोभा देती है। हम भी ऐसा करने लगेंगे तो आपमें और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा? हमारे लिए तो दोनों बराबर हैं।’

मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पाता। चुप रह जाता हूँ। जब-जब भी समझाने की कोशिश की, हर बार जवाब मिला - ‘आप हो तो सही! जब भी कोई बात समझनी होगी तो आपको फोन लगा कर पूछ लेंगे।’

मैं हतप्रभ हूँ। बधाई और धन्यवाद में किसी को कोई अन्तर अनुभव नहीं हो रहा! दोनों को पर्याय माना जा रहा है! टोकने पर कहा जा रहा है - बधाई को धन्यवाद समझ लिया जाए।


यह सब क्या है? भाषा के प्रति असावधानी, उदासीनता या उपेक्षा?

माँजना हई बाजाँ


प्रसंग शोक का हो, आप परिवार के अग्रणी की स्थिति में हों और अकस्मात् ऐसा कुछ हो जाए कि आपकी हँसी छूट जाए। तो? इतना ही नहीं। आप पाएँ कि आपके आसपास के लोग, आपसे पहले ही उस ‘कुछ’ से वाकिफ बैठे थे और कुछ तो प्रसंग/वातावरण के कारण और कुछ आपके लिहाज में वे अपनी हँसी नियत्रित किए बैठे थे और आपके हँसते ही वे सब भी आपकी हँसी में शामिल हो गए हैं। तो? तो क्या! समझदारी इसी में होती है कि खुद की हँसी रोकें नहीं और न केवल दूसरों को हँसने दें बल्कि दूसरों की हँसी में खुलकर शामिल हो जाएँ।

बिलकुल यही हुआ हम दोनों भाइयों के साथ - दो दिन पहले। इसी रविवार, 27 नवम्बर को।

मेरी बड़ी बहन गीता जीजी का निधन इसी 23 नवम्बर को हो गया। उसकी उत्तरक्रियाओं के अन्तिम में से एक कर्मकाण्ड की समाप्ति पश्चात्, मौके पर उपस्थित हम सब लोग भोजन के लिए पंगत बना कर बैठे। एक तो हमारी बहन का निधन और दूसरे, आयुमान से पूरे जमावड़े में हम दोनों भाई सबसे वरिष्ठ। सो, सबकी नजरें हम दोनों पर और हमारी शकलों पर। कागज के बने दोने पत्तल में भोजन परोसा जाना था। हम सबके सामने एक-एक पत्तल और एक-एक दोना रख दिया गया। पूरी, आलू की सब्जी और बेसन की नमकीन सेव परोसी जानी है - यह हम सबको पता था। सामग्री आने में थोड़ी देर थी। अचानक ही मेरी नजर पत्तल पर पड़ी। एक विज्ञापन छपे कागज की पत्तलें हमारे सामने रखी गई थीं। विज्ञापन की, बारीक अक्षरों वाली इबारत को बिना चश्मे के पढ़ पाना तो सम्भव नहीं था किन्तु ‘श्वान-शिशु’ का चित्र तो बिना चश्मे के ही नजर आ रहा था। जिज्ञासा के अधीन, चश्मे की सहायता से विज्ञापन की इबारत पढ़ी तो मेरी हँसी छूट गई। दादा ने तनिक खिन्न स्वरों में पूछा - ‘क्या बात है? यह हँसने का मौका है?’ मैंने कहा - ‘जिन पत्तलों में हमें भोजन करना है उन पर कुत्तों के पिल्लों के भोजन का विज्ञापन छपा है।’ मेरी बात पूरी होते ही मेरे पास बैठे सज्जन, मुझसे भी जोर से हँस पड़े। दादा ने पूछा - ‘अच्छा! वाकई में?’ मैं जवाब देता उससे पहले ही, मेरे पास वाले सज्जन ने हँसते-हँसते कहा - ‘वाकई में। पढ़ तो मैंने पहले ही लिया था और हँसी तो मुझे भी आ रही थी। किन्तु दबाए रहा। अच्छा नहीं लगता। पता नहीं आप क्या सोचते। लेकिन है तो कुत्तों के भोजन का विज्ञापन ही।’

अब दादा ‘सहज’ से आगे बढ़कर तनिक ‘उन्मुक्त’ हो गए। उनका ‘शब्द पुरुष’ जाग उठा। अपनी हँसी को पूरी तरह नियन्त्रित करते हुए बोले - “अब जब ऐसा हो ही गया है तो मान लें कि ‘माँजना हई बाजाँ’ आ गई हैं।” सुन कर वे सब भी हँसने में साथी बन गए जो शोक ओढ़े, गम्भीर मुद्रा में बैठे थे।

जितनी तेजी से बात शुरु हुई थी, उतनी ही तेजी से खत्म भी हो गई क्योंकि इसी बीच भोजन सामग्री परोस दी गई थी। पूरियों और बेसन सेव के कारण विज्ञापन की इबारत तो दब गई थी किन्तु ‘श्वान-शिशु‘ का चित्र और बड़े-बड़े अक्षरों में छपा, उसके भोजन का नाम साफ-साफ दिखाई दे रहा था। हम चाहते तो भी दोनों को छुपा नहीं सकते थे क्योंकि, जैसा कि आप चित्र में देख रहे हैं, दोनों ही पत्तल के किनारों पर छपे थे।

अब ‘माँजना हई बाजाँ’ का अर्थ भी जान लीजिए। यह मालवी कहावत है। ‘माँजना’ याने पात्रता, काबिलियत। ‘हई’ याने ‘के अनुसार’ और ‘बाजाँ’ याने पत्तलें। पूरा अर्थ हुआ - आपकी पात्रता के मुताबिक आपके लिए पत्तलें मँगवाई गई हैं या कि जैसे आप वैसी पत्तलें आपके लिए।

हम लोग तो शोक प्रसंग में भी खुलकर हँस लिए थे। आप तो हमसे भी अधिक खुल कर हँस सकते हैं।

दादा ने लबूर दिया

‘‘दादा! आज दादा ने लोकेन्द्र को ‘लबूर’ दिया।’’ हँसते-हँसते सूचना दी वासु भाई ने। ‘कहाँ मिल गए थे?’ पूछा मैंने तो वासु भाई ने कहा - ‘मिले नहीं। फोन पर।’

‘लबूरना‘ मालवी बोली का लोक प्रचलित क्रियापद है जिसका अर्थ है - मुँह नोंच लेना। वासु भाई के मुताबिक दादा ने फोन पर लोकेन्द्र भाई का मुँह नोंच लिया था।

‘लोकेन्द्र’ याने डॉक्टर लोकेन्द्र सिंह राजपुरोहित और ‘वासु भाई’ याने वासुदेव गुरबानी। लोकेन्द्र भाई बी. ए. एम. एस. (बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एण्ड सर्जरी) हैं। चिकित्सकीय परामर्श का कामकाज तो अच्छा खासा है ही, एक्स-रे क्लिनिक भी चलाते हैं। वासु भाई की, इलेक्ट्रानिक कल-पुर्जों की और उपकरणों की मरम्मत की दुकान है। दुकान मौके की तो है ही, आसान पहुँच में भी है। सो, यार-दोस्तों की बैठक भी यहाँ जमती रहती है। मैं भी कभी-कभार यहाँ की अड्डेबाजी में शरीक हो जाता हूँ। दोनों ‘बाल सखा’ हैं और मुझ पर अत्यधिक स्नेहादर रखते हैं।

बाजार से निकलते हुए वासु भाई की दुकान पर नजर डाली तो पाया कि ग्राहक एक भी नहीं है और दोनों बाल-सखा बतिया रहे हैं। अड्डेबाजी की नीयत से मैं भी रुक गया। मैं जाकर बैठता उससे पहले ही वासु भाई से उपरोल्लेखित सम्वाद हो गया। मैंने देखा - सुनकर लोकेन्द्र भाई खिसियाने के बजाय खुलकर हँस रहे हैं। मैं आश्वस्त हुआ। पूछा तो पूरी बात सामने आई।

लोकेन्द्र भाई ने साधारण बीमा निगम की एक बीमा कम्पनी से ली हुई मेडीक्लेम बीमा पॉलिसी के अन्तर्गत एक दावा कर रखा था। अपने स्थापित चरित्र के अनुसार, बीमा कम्पनी, दावे का भुगतान करने में टालमटूल कर रही थी। लोकेन्द्र भाई ने, बीमा कम्पनी के चेन्नई स्थित मुख्यालय से पत्राचार किया तो उत्तर में उन्हें अंग्रेजी के, बारीक अक्षरों में छपे चार पन्ने मिल गए। इन पन्नों की जानकारी हिन्दी में प्राप्त करने के लिए लोकेन्द्र भाई उठा पटक कर रहे थे। इसी दौरान वासु भाई ने मुझसे मदद माँगी तो मैंने कहा सहज भाव से कहा कि वे दादा को अपनी समस्या लिख भेजें और साथ में सारे कागज भेज दें क्योंकि दादा, राजभाषा संसदीय समिति के सदस्य रह चुके हैं और हिन्दी से जुड़े ऐसे मामले वे उत्साह से लेते हैं। वासु भाई ने मेरी बात लोकेन्द्र भाई को बताई लोकेन्द्र भाई ने ‘अविलम्ब आज्ञापालन भाव’ से सारे कागज दादा को पोस्ट कर दिए।

कोई छः-सात दिन बाद लोकेन्द्र भाई ने, केवल यह जानने के लिए कि कागज-पत्तर मिले या नहीं, दादा को फोन लगाया। जवाब में वही हुआ जो वासु भाई ने बताया था - दादा ने लोकेन्द्र भाई को ‘लबूर’ लिया। मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा और जिज्ञासा भाव से अपनी मुण्डी लोकेन्द्र भाई की तरफ उचकाई।

खुल कर हँसते हुए लोकेन्द्र भाई ने बताया कि दादा के ‘हेलो’ के उत्तर में जैसे ही उन्होंने (लोकेन्द्र भाई ने) अपना नाम बताया तो दादा ‘शुरु’ हो गए। जो कहा, वह कुछ इस प्रकार था - ‘दूसरों से हिन्दी में काम काज की अपेक्षा करते हो, उनके अंग्रेजी में सूचना देने को राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने का अपराध कहते हो और खुद क्या कर रहे हो? तुम अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी में करते हो! दूसरों को हिन्दी की अवहेलना करने का, राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने का दोषी करार देने से पहले खुद तो हिन्दी का मान-सम्मान करो!’ लोकेन्द्र भाई बोले - ‘मेरी तो शुरुआत ही पिटाई से हुई। सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। घिग्घी बँध गई। मुझसे तो हेलो कह पाना भी मुमकिन नहीं हो पा रहा था। हिम्मत करके, जैसे-तैसे क्षमा-याचना की। लेकिन इसके बाद अगले ही क्षण दादा सामान्य-सहज हो गए। मेरी मदद का आश्वासन दिया। किन्तु अंग्रेजी में मेरे हस्ताक्षरों को लेकर उनकी पहली प्रतिक्रिया ने मुझे झकझोर दिया। अंग्रेजी में हस्ताक्षर करना इतनी गम्भीर बात हो सकती है, यह मैंने कभी नहीं सोचा था।’

चूँकि यह मेरा भी प्रिय विषय है, इसलिए कहना तो मैं भी काफी-कुछ चाहता था किन्तु यह ठीक समय नहीं था। लोकेन्द्र भाई अभी-अभी ही ‘दुर्घनाग्रस्त’ होकर बैठे हैं। मैं कुछ कहूँगा तो ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति न हो जाए! सो चुप रहा। थोड़ी देर तक गप्प गोष्ठी कर लौट आया।

अब प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कुछ दिन बीता जाएँ। फिर कभी लोकेन्द्र भाई मिलेंगे तो पूछूँगा - ‘अब फिर खुद को लबुरवाओगे या हिन्दी में हस्ताक्षर करना शुरु कर दिया है?’

परम्परा से साक्षात्कार


इस वर्ष की दीपावली, मेरे दोनों बेटों को एक लोक परम्परा समझाने का माध्यम बनी।

मेरी भाभीजी की मृत्यु के बाद यह पहली दीपावली हमारे लिए ‘शोक की दीपावली’ थी। मेरे दोनों बेटे इसका अर्थ नहीं समझ पाए। उनके समझदार होने के बाद ऐसा यह पहला अवसर था। ‘ताईजी तो अपने घर आती ही नहीं थीं! उनकी मृत्यु के बाद शोक निवारण किया जा चुका है तो फिर शोक की दीपावली क्यों?’ बाईस वर्षीय छोटे बेटे तथागत ने कहा - ‘मुझे तो ताईजी की शकल भी याद नहीं!’ यही सार रहा दोनों के कौतूहल का।

जवाब में मैंने दोनों को गृहस्थी, परिवार, कुटुम्ब, खानदान के बारे में विस्तार से समझाने की कोशिश की और कहा - ‘कोई आता-जाता या नहीं, इससे मंगल प्रसंगों पर भले ही फर्क पड़ता हो किन्तु शोक प्रसंगों में फर्क नहीं पड़ता। शोक के अवसरों पर सारी बातें भुलाकर सब दौड़ पड़ते हैं। क्योंकि बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं और दुःख कम होता है। कोई अपनी खुशियाँ नहीं बढ़ाना चाहे तो यह उसकी मर्जी। किन्तु किसी का शोक-दुःख कम करने की जिम्मेदारी तो हमारी अपनी ही होती है। इसीलिए, जो लोग खुशियों के मौके पर बुलाने के बाद भी नहीं जाते या जिन्हें जानबूझकर भी नहीं बुलाया जाता वे लोग भी शोक प्रसंगों पर, बिना बुलाये नंगे पाँवों दौड़ कर जाते हैं - जल्दी से जल्दी पहुँचने के लिए, सब कुछ भूल कर। यही पारिवारिकता और कौटुम्बिकता है।’ सुनकर बड़े बेटे वल्कल ने कहा - ‘‘अंग्रेजी कहावत ‘ब्लड इस थिकर देन वाटर’ शायद इसीलिए उद्धृत की जाती है।’’ सुनकर मुझे अच्छा लगा।दोनों ने पूछा - ‘मम्मी ने पूरे घर की सफाई करवाई, सारा कचरा-कुट्टा फिंकवाया, रंगाई-पुताई भले ही नहीं करवाई लेकिन पूरा घर चकाचक किया। तो फिर शोक की दीपावली कैसे हुई? बाकी क्या रहा?’

अब हमारा पूरा परिवार (मेरी उत्तमार्द्ध, बहू प्रशा, वल्कल, तथागत और मैं) इस विमर्श में शामिल हो गया था। मेरी उत्तमार्द्ध ने कहा - ‘खुद ही सोचो कि बाकी क्या रहा।’ सवाल के जवाब में तीनों बच्चे एक-एक कर गिनवाने लगे - ‘मिठाइयाँ नहीं बनी हैं, बाजार से भी नहीं मँगवाई हैं, पटाखे, मकान की मुँडेर के लिए और सजावट के लिए लटकानेवाले दीये नहीं खरीदे गए हैं, अगले कमरे की बैठक के लिए सजावट का कोई सामान नहीं खरीदा गया है, पर्दे वे ही पुराने हैं, मकान की सजावट के लिए फूल मालाएँ नहीं लाए हैं, अपन पाँचों में से किसी के लिए नए कपड़े नहीं बने हैं न ही नए जूते खरीदे गए हैं। आदि आदि।’ अपनी बातों का इतना विस्तृत उत्तर खुद से ही पाकर वे विस्मित भी हुए जा रहे थे और ‘शोक की दीपावली’ का मर्म भी समझते जा रहे थे। किन्तु अभी भी काफी कुछ बाकी था।

तथागत ने पूछा - ‘तो फिर दीपावली पर हम करेंगे क्या? कैसे मनाएँगे दीपावली?’ हम दोनों पति-पत्नी अब ‘ज्ञानपीठ’ पर विराजित हो गए। बताया कि दीपावली-मिलन के लिए हम कहीं नहीं जाएँगे, कोई आएगा तो सौंफ-सुपारी से अगवानी करेंगे। हम उत्सव मनाएँगे, पूजन भी करेंगे किन्तु उल्लास नहीं जताएँगे। यथा सम्भव घर में ही रहेंगे। किन्तु देखना, अपनी मुँडेर पर रोशनी भी होगी और तुम मिठाइयाँ भी खाओगे। तथागत ने जिन नजरों से दखा, तय करना कठिन था कि उनमें अविश्वास अधिक है या जिज्ञासा? हमारे पास एक ही जवाब था - ‘हम समझा नहीं पाएँगे। तुम खुद ही समझ जाओगे।

और तीनों बच्चों को धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा। दीपावली से एक दिन पहले, भैया साहब (श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) की बहू ज्योति, भरपूर मात्रा मे मिठाइयाँ और नमकीन रख गई। दीपावली पूजन वल्कल, प्रशा और तथागत ने किया। हम लोग पूजन करके बैठे ही थे कि मीरा (पाराशर) भाभी ने अपने बहू-बेटे प्रेरणा और दिलीप के हाथों ढेर सारा सामान पहुँचा दिया। उनके पीछे-पीछे पाठक दम्पति (प्रो. स्वाति पाठक और प्रो. अभय पाठक) गुझियों सहित मिठाई-नमकीन ले आए। न्यू इण्डिया इंश्योरेन्स कम्पनी में कार्यरत, देवासवाले विजयजी शर्मा हमारा बहुत ध्यान रखते हैं। उनकी उत्तमार्द्ध श्रीमती मंजू ने घर के बने व्यंजन भिजवाए। मेरी उत्तमार्द्ध ने बहू प्रशा के हाथों, मुँडेर पर दो दीये रखवाए थे। किन्तु अँधेरा बढ़ते-बढ़ते पड़ौसियों ने बच्चों के हाथों दीये रखवा कर हमारी मुँडेर ‘जगमग’ कर दी थी। रात को मुहल्ले के बच्चों ने हमारे घर के सामने खूब पटाखे छोड़े। मेरे बच्चों-बहू ने देखा कि हम ‘पारिवारिकता’ निभा रहे थे और हमारे स्नेहीजन ‘सामाजिकता‘ निभाकर हमारे उत्सव में उल्लास की रोशनी भर रहे थे। हम अपने घर में चुपचाप बैठे थे और ‘समाज’ अपनी खुशियों में हमें शामिल कर रहा था। उनकी खुशियाँ वर्धित-विस्तारित हो रही थीं और हमारा शोक सिकुड़ता जा रहा था।

हम लोग कहीं नहीं गए किन्तु ‘लोक’ ने हमें अकेला और शोकग्रस्त नहीं रहने दिया, हमें अपने साथ बनाए रखा, हमारा त्यौहार करवाया। ‘लोकाचार’ या कि ‘सामाजिकता’ की उपयोगिता, उसकी भूमिका और उसका महत्व मेरे बच्चों ने शायद पहली ही बार देखा-अनुभव किया होगा। किन्तु जिस तरह से यह सब हुआ, उसे वे आजीवन नहीं भूल पाएँगे।

परम्पराएँ इसी तरह प्रवाहमान रहती हैं!

महज एक वाचनालय नहीं

निजी सपने साकार करने के लिए प्रयास भी निजी ही होते हैं। किन्तु सपना यदि राष्ट्र का या राष्ट्र पुरुष का हो तो? कहना निरर्थक ही होगा कि तब पूरे राष्ट्र को और सारे नागरिकों को इस हेतु प्रयास करने पड़ेंगे। किन्तु करता कौन है? शायद ही कोई ऐसा ‘करने’ पर सोचे। हर कोई सोचता है कि उसके सिवाय बाकी सब लोग यह सपना पूरा करें। यह अलग बात है कि पूरा देश चाहता होता है कि यह सपना पूरा हो। चाहत सबकी, कोशिश किसी की नहीं! हमारे संकटों का एक बड़ा (इसे ‘सबसे बड़ा’ कहने को जी कर रहा है) कारण शायद यही है - चाहत सबकी, कोशिश किसी का नहीं।


किन्तु कुछ पागल लोग हर काल, हर देश में, पाये जाते हैं। ऐसा ही एक ‘पागल’ मेरे कस्बे (रतलाम) में है। ये हैं श्री तैयबअली सफदरी। इनकी उम्र अभी अस्सी बरस है किन्तु जज्बा उस किशोर जैसा जिसकी मसें अभी भीग रही हों और जो इश्किया जुनून में आसमान से तारे तोड़ लाने या पहाड़ तोड़ कर दरिया बहा लाने को उतावला हुआ जा रहा हो। वे रहते दुबई में हैं किन्तु उनकी जड़ें रतलाम में हैं। दुबई में रहते हुए अपनी जमीन को सहेजने की जुगत में लगे रहते हैं ताकि जड़ें मजबूत बनी रहें।


वैचारिकता से प्रगतिशील और स्वभाव से उद्यमी सफदरीजी ने अपनी जेब से भरपूर रकम लगा कर 25 मार्च 2011 को रतलाम में एक सार्वजनिक वाचनालय शुरु किया। नाम दिया - ‘विजन 2020 लायब्रेरी।’ मेरा विषय तो यह वाचनालय ही है किन्तु सफदरीजी के बार-बार उल्लेख के बिना मेरी बात पूरी नहीं हो पाएगी। वाचनालय शुरुआत के पीछे सफदरीजी का ‘आधार-विचार’, भारत के पूर्व राष्ट्रपति, विज्ञान पुरुष ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का वह विचार रहा जिसमें उन्होंने 2020 तक भारत को दुनिया का सिरमौर हो जाने की बात कही थी। कलाम साहब की, इसी शीर्षक (इण्डिया विजन 2020) वाली पुस्तक से पूरी बात समझी जा सकती है। सफदरीजी, ‘शिक्षा और ज्ञान’ को सफलता और उपलब्धियों की पहली अनिवार्य शर्त मानते हैं जो प्रथमतः पुस्तकों से ही पूरी की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने सार्वजनिक वाचनालय को श्रेष्ठ माध्यम माना और इसकी शुरुआत कर दी। दिन चुना 25 मार्च 2011 - दाऊदी बोहरा समाज के अन्तरराष्ट्रीय धर्म गुरु सैयदनाजी का सौवाँ जन्म दिन।


यह वाचनालय अपनी पहली वर्ष गाँठ की ओर बढ़ रहा है। सफदरीजी इस बीच दोबार भारत आ चुके हैं। पहले आते थे तो जन-सम्पर्क तक ही सीमित रहते थे। किन्तु इन दोनों बार वे इस वाचनालय पर ही केन्द्रित रहे। चाँदनी चौक स्थित पालीवाल मार्केट के, सड़क के सामनेवाले एक छोटे से भाग में स्थित इस वाचनालय में सफदरी साहब अब तक सभी विषयों और विधाओं की एक हजार से अधिक पुस्तकें मँगवा चुके हैं और यह क्रम निरन्तर है। वाचनालय नियमित रूप से, सुबह साढ़े आठ बजे से दोपहर एक बजे तक और अपराह्न साढ़े तीन बजे से रात आठ बजे तक खुलता है। लोग आ-जा रहे हैं। आनेवालों में बच्चे अधिक हैं, वयस्क कम।


इस बार सफदरीजी आए तो मुझे बुलाया। उन्हें यह जानकर तो अच्छा लगा कि 'आत्‍म मंथन' ब्‍लॉंग वालेहमारे अग्रणी ब्लॉगर श्री मन्सूरअली हाशमी के जरिये मैं इस वाचनालय के बारे में पहले से ही जानता हूँ किन्तु ‘अच्छा लगने‘ के मुकाबले इस बात पर अप्रसन्न और कुपित अधिक हुए कि इस मामले में मैंने अब तक कुछ किया क्यों नहीं। मैंने कुछ कहने की कोशिश की तो वे मानो किसी ‘क्रूर हेडमास्टर’ की मुद्रा में बेंत लेकर ऐसे खड़े हों कि मैं कुछ कहने की कोशिश करूँ तो वे बेंत लहराते हुए ‘चो ऽ ऽ ऽ ऽ प्प!’ कहकर मेरी बोलती बन्द कर दें। उन्होंने पूछा - ‘इसके बारे में तुमने कितने लोगों को बताया? कितने लोगों से बात की?’ मैंने कहा ‘कुछ लोगों से बात की।’ मेरी बात खत्म हो उससे पहले सवाल आया - ‘उनमें से कितने लोग यहाँ आए?।’ मैंने कहा - ‘मुझे नहीं मालूम।’ मानो ‘सटाक्’ से बेंत मारी हो, इस तरह कहा - ‘तो फिर तुमने खाक बात की! बात तो वह होती है जिसका असर हो!’ मेरी भलाई और सुरक्षा इसी में थी कि मैं चुप रहता।


मेरी चुप्पी ने सफदरीजी की बातों के लिए मैदान खोला। वाचनालय को लेकर उनकी चाहत और अधीरता के सामने मैं नतमस्तक हो गया। उम्र 80 बरस और अधीरता चौथी-पाँचवी में पढ़ रहे उस बच्चे जैसी जो अपनी पहली ही पहल को आसमान पर चस्पा देखना चाहता हो। उनकी इच्छा है कि इस वाचनालय में पाठकों का आना-जाना ऐसा और इतना हो कि यहाँ के सेवक को सर उठाने का मौका न मिले, दोपहर में, वाचनालय के बन्द रहने के समय (दोपहर एक बजे से साढ़े तीन बजे तक) नगर के लिखने-पढ़नेवाले लोग, कवि-साहित्यकार यहाँ अड्डेबाजी, गप्प-गोष्ठी करें, इस वाचनालय को ‘विमर्श केन्द्र’ का पर्याय बना दें।


इसके प्रचार-प्रसार हेतु अपनी इस बार की यात्रा में सफदरीजी ने दो-तीन तरह के फ्लेक्स बैनर बनवाए। हजार-ग्यारह सौ ’पर्यावरण रक्षक थैलियाँ‘ बनवाईं कि जो भी सदस्य बनेगा, एक थैली का निःशुल्क हकदार होगा। फ्लेक्स बैनर लेकर अपने बड़े बेटे मुर्तुजा को बैंक, विद्यालय जैसे संस्थानों/कार्यालयों में भेजा जहाँ लोगों का आना-जाना अधिक हो। एक-दो संस्थानों ने आगे बढ़कर बैनर लगाया तो अधिकांश ने ‘हमारे कानून इसकी अनुमति नहीं देते’ जैसे तर्क देकर माफी माँग ली जबकि बैनर में किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं, व्यापारिक-वाणिज्यिक लाभ की कोई बात नहीं। सब कुछ सार्वजनिक और पूरी तरह निःशुल्क। किन्तु चूँकि यह ‘सामान्य हरकत’ नहीं है, एक आदमी के पागलपन का हिस्सा है, सो पहली ही कोशिश में कामयाबी मिल जाए जरूरी नहीं।


सफदरीजी दुबई से रोज ही अपने सहयोगियों को फोन कर, वाचनालय के बारे में जानकारी लेते हैं और समुचित निर्देश भी देते हैं। ऐसा करते समय एक बात हर बार कहते हैं - ‘पैसों की फिकर मत करना। बस! लायब्रेरी को रतलाम के तमाम बाशिन्दों तक पहुँचाओ ताकि ‘इण्डिया विजन 2020’ का मकसद हासिल किया जा सके।’ उनके आसपासवालों से मुझे उनके सन्देशों के समाचार मिलते रहते हैं और मैं मन ही मन डर रहा हूँ - वे मुझे फोन नहीं कर दें। मैंने भी एक-दो, छोटे-छोटे कामों की जिम्मेदारी ले रखी है जो अब तक पूरे नहीं किए हैं। मैं क्या जवाब दूँगा?


मैं सोच रहा हूँ - दुबई में बैठे, अस्सी साल के एक बूढ़े भारतीय को इससे क्या फर्क पड़ता है कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का सपना पूरा हो या नहीं? क्यों नहीं सफदरीजी अपने नातियों-पोते/पोतियों के सामीप्य का आनन्द उठाकर जीवन का आनन्द लें? चौथे काल में चल रहे हैं तो क्यों नहीं धार्मिक क्रियाओं, कर्म काण्डों में खुद को व्यस्त कर लेते ताकि जीवन सफल हो जाए? सोचते-सोचते अपने अधकचरेपन पर पहले तो झेंप आती है, फिर हँसी - ये सारी बातें तो सफदरी साहब मुझसे पहले ही जानते होंगे! फिर भी वे एक वाचनालय के पीछे पड़े हुए हैं! न खुद सोते हैं न यहाँवालों को सोने दे रहे हैं! यह सब क्या है?


किन्तु मैं ही गलत सोच रहा हूँ। किसी राष्ट्र के लिए शायद यही सब कुछ है। ऐसे जुनूनी या कि सनकी या कि पागल लोग ही वह रास्ता बना देते हैं जिस पर चल कर आनेवाली सन्ततियाँ अपनी भूमिका निभा सकें - यह जाने बिना कि यह रास्ता किसने बनाया था। सफदरीजी ऐसे अकेले आदमी नहीं होंगे। पता नहीं, देश में कहाँ-कहाँ ऐसे सफदरीजी चुपचाप अपना-अपना काम कर रहे होंगे। इन सबका अपनाअपना, कोई न कोई राष्ट्र पुरुष होगा जिसके सपने को अपना सपना मानकर उसे पूरा करने के पागलपन में ये लोग अपने आप को खपा रहे होंगे। व्यक्तिगत स्तर पर इन्हें क्या मिलेगा? कुछ भी तो नहीं! लेकिन इन सबके मन में एक विचार समान रूप से काम कर रहा होगा - ‘कि दाना खाक में मिल कर, गुल-ओ-गुलजार होता है।’ यह भावना ही किसी राष्ट्र का मूल-धन होती है।


मेरी बात आपको अच्छी तो लगेगी ही और आप सफदरीजी के साथ-साथ मुझे भी सराहेंगे। किन्तु याद रखिएगा - मैं सफदरीजी की नहीं, उनके द्वारा शुरु की गई लायब्रेरी की बात कर रहा हूँ। यदि आप रतलाम में हैं तो ऐसा कुछ कीजिए कि लायब्रेरी को लेकर सफदरीजी की चिन्‍ता में कमी आए। और यदि आप रतलाम से बाहर हैं तो जब भी रतलाम आएँ, थोड़ी देर के लिए ही सही, ‘विजन 2020 लायब्रेरी’ अवश्य जाएँ।


वहाँ जाकर आपको कैसा लगा - यह जानने की उत्सुकता रहेगी मुझे।